Sunday, April 29, 2012

मजदूर संगठन और भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ -


मजदूर संगठन और भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ –

1 मई को जब भारत सहित दुनिया के कोने कोने में कामगार दुनिया के मजदूरो एक हो और इंकलाब जिंदाबाद के नारों के साथ बाजारवाद में अपनी उपस्थिति का अहसास कराने के लिए उतरेंगे तो परिदृश्य में अमेरिका का आक्यूपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन भी होगा और भारत में रामदेव और अन्ना हजारे का कालेधन और भ्रष्टाचार के सवाल पर किया जा रहा आंदोलन भी होगा | ये आंदोलन भी नवउदारवाद की उन्हीं नीतियों के परिणामस्वरूप पैदा हुए हैं , जिनके खिलाफ मेहनतकशों के संगठन पिछले दो दशक से पूरी दुनिया में संघर्ष कर रहे हैं | यह मई दिवस भारत में दो माह पूर्व 28 फरवरी को की गयी उस ऐतिहासिक हड़ताल के परिदृश्य में भी आया है , जिसमें पहली बार इंटक और बीएमएस जैसे अपेक्षाकृत अधिक सदस्य संख्या वाले संगठन भी शामिल हुए | भारत में संगठित क्षेत्र के मजदूर संगठनों का भूमंडलीकरण के खिलाफ संघर्ष का शानदार रिकार्ड है | पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण के खिलाफ भारत में 14 ऐतिहासिक औद्योगिक बंद हो चुके हैं | बैंक , बीमा , कोयला , स्टील , पोस्टल , रेलवे जैसे क्षेत्रों में निजीकरण , छटनी , स्वैच्छिक और जबरिया सेवानिवृति , कार्यों के सविंदाकरण के खिलाफ जैसे विषयों को लेकर जबरदस्त लंबे संघर्ष भी हुए हैं | जब 1 मई , श्रमिक दिवस पर भारत के मजदूर संगठनों के नेता उपलब्धियों की गाथा पर अपनी तकरीरें देंगे तो उनके समक्ष कुछ ऐसी मैदानी सच्चाईयां भी होंगी और उनसे पैदा होने वाली चुनौतियाँ भी होंगी , जिन्हें संगठित क्षेत्र के मजदूर नेता अनदेखा करना ही ज्यादा पसंद करते हैं |

श्रम शक्ति का बहुसंख्यक हिस्सा सदस्यता की परिधी से बाहर -

भारत में मजदूर संगठनों का ढांचा अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से विकसित होने के बावजूद मजदूर संगठन देश की श्रम शक्ति के एक बहुत ही छोटे और सीमित हिस्से तक ही स्वयं को फैला पाये हैं | 2010 तक के उपलब्ध ताजा सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में कुल श्रम शक्ति लगभग 47 करोड़ 83 लाख है | देश में , इस लगभग 48 करोड़ की श्रम शक्ति का 7% हिस्सा ही संगठित क्षेत्र में आता है और ट्रेड यूनियनों की 70% सदस्यता इसी संगठित क्षेत्र से आती है | जब देश की श्रम शक्ति का 93% हिस्सा ट्रेड यूनियनों की पहुँच से बाहर हो तो मेहनतकशों का आंदोलन तो कमजोर होगा ही , साथ ही वो राजनीति भी कमजोर पड़ेगी जो मेहनतकशों के पक्ष में खड़ी हो | अखिल भारतीय पैमाने पर मजदूर संगठनों ने अनौपचारिक कामगारों को संगठित करने के बहुत कम और कमजोर प्रयत्न किये | यही कारण है कि जब शहरों , नगरों और कस्बों में मई दिवस के जुलुस निकलते हैं तो उन्हीं के बाजू में हमें दिहाड़ी मजदूरों से लेकर निजी क्षेत्र के ब्ल्यू कालर कामगार उन जुलूसों को देखते और अपने काम में लगे दिखते हैं | नवउदारवाद की नीतियों ने जहां एक तरफ संगठित और असंगठित क्षेत्र की मेहनतकशों के अधिकारों और लाभों पर आक्रमण किया , वहीं दूसरी तरफ रोजगार के नए और आधुनिक क्षेत्रों को खोलकर , औपचारिक क्षेत्र के कार्यों को अनौपचारिक क्षेत्र में स्थानांतरित करके तथा वर्त्तमान कार्यों का विकेन्द्रीकरण करके ट्रेड यूनियनों की सदस्यता पर भारी चोट भी पहुंचाई | पहले से ही अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में पैठ बनाने में कमजोर ट्रेड यूनियन आंदोलन को नवउदारवाद के इस हमले ने और कमजोर बनाया |

सूचना तकनीकी , काल सेंटर्स और रिटेल क्षेत्र जैसे नए क्षेत्रों में ज्यादा पढ़े लिखे और कुशल कामगारों को रोजगार के अवसर देने के साथ साथ उन्हें व्यक्तिगत स्वार्थ को सामूहिक स्वार्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण मानने की शिक्षा भी दी गयी | व्यापारिक संगठनों ने इन तकनीकी शिक्षा प्राप्त कामगारों को न केवल ऊंचे वेतन पैकेज दिए बल्कि भविष्य में भी योग्यता और निपुणता के आधार पर लगातार तरक्की देने के वायदे भी किये | परिणाम स्वरूप एक ऐसे हाईली पेड कामगारों की फ़ौज खड़ी हो गयी , जो ट्रेड यूनियन के सदस्य बनना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं | सातवें दशक के दौर में जब देश में सूचना तकनीकी के इस्तेमाल की कोशिशें शुरू हुईं तो उस दौर की ट्रेड यूनियनों और उनके नेताओं ने इस नयी टेकनोलाजी का विरोध किया और अनेक क्षेत्रो में उसे प्रवेश नहीं करने दिया क्योंकि यह उनकी परंपरागत ट्रेड यूनियनी ढाँचे में फिट नहीं बैठती थी | यहाँ तक तो ठीक था , पर , वे भविष्य को भी नहीं पढ़ पाए और न ही उन्होंने मजदूर आंदोलन को उसके अनुसार ढालने की कोई कोशिश की | अब यह क्षेत्र उनके लिए लगभग अछूता है और वे उसमें घुस नहीं पा रहे हैं | यहाँ तक कि संगठित क्षेत्र में भी , जहां अब पूरी तरह कम्प्यूटरीकरण हो गया है , उस विभाग के लोगों को अलग थलग मानकर ही वहाँ के ट्रेड यूनियन नेता चलते हैं | इन नए उभरे क्षेत्र में ट्रेड यूनियनों के सामने दो तरह की चुनौतियाँ हैं | पहली , ब्ल्यू कालर कामगारों को समझाने और सहमत कराने की कि वे अन्य कर्मचारियों और कामगारों से बेहतर होने का अपना घमंड छोड़ें और देश के व्यापक कामगार आंदोलन का हिस्सा बनें | दूसरी यह है कि सरकार के उन प्रयासों के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलाने की , जिनके तहत सरकार आईटी , बीपीओ , सेज और फ्री ट्रेड जोन जैसे क्षेत्रों को आवश्यक पब्लिक सेवाओं के दायरे में लाकर , उन्हें श्रम कानूनों के अमल से मुक्त कर रही है | दोनों चुनौतियाँ , बाजारवाद के परिदृश्य में अत्यंत कठिन हैं किन्तु उनके लिए संघर्ष किये बिना कोई अन्य रास्ता भी मजदूर आंदोलन के सामने नहीं है |

मजदूर आंदोलन पर भूमंडलीकरण का प्रभाव –

यह भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में हुआ कि मजदूर आंदोलन और उनके संगठन बीसवीं शताब्दी के आठवें और नौवें दशक में नवउदारवाद , निजीकरण और भूमंडलीकरण के फलस्वरूप तेज हुईं आर्थिक गतिविधियों और प्रतिस्पर्धी व्यवस्था के चपेट में अचानक बिना किसी तैय्यारी के आ गये | सरकारी एकाधिकार वाले क्षेत्रों में , श्रम के लिए सुहानभूति पूर्ण और संरक्षणवादी वातावरण में काम कर रहे मजदूर संगठनों के लिए राज्य का विद्रोही तेवर और प्रतिस्पर्धा तथा मुनाफे पर आधारित नीतियों का एक के बाद एक लादते जाना अप्रत्याशित था |
राज्य के बागी तेवर , सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों के शेयरों का विनिवेशीकरण , सरकारी और अर्धसरकारी प्रतिष्ठानों का निजीकरण , जबरिया स्वैच्छिक सेवानिवृति योजना को लादना , पेंशन लाभों पर आक्रमण , छटनी , नई भरती पर रोक , ने ट्रेड यूनियनों को अपने वर्त्तमान लाभों को बचाने के संघर्षों में ही इतना उलझा लिया कि पहले से उसकी अवेहलना के शिकार असंगठित क्षेत्र की तरफ ध्यान जाने के बावजूद कोई ठोस कदम उठाना उसके लिए मुश्किल ही हो गया |

मजदूर संगठनों की अन्तर्निहित कमजोरियां –

भारत में मजदूरों की जमात कांग्रेस , भाजपा , सीपीएम , सीपीआई के अलावा लेफ्ट के अनेक राजनीतिक दलों और ढेरों ऐसे लोगों के साथ जुड़ी है , जिनका न कोई वैचारिक अस्तित्व है और जो सिर्फ व्यक्तिवादी आधार पर टेड यूनियनों को चलाते हैं | यही कारण है कि भूमंडलीकरण का तीव्र और अप्रत्याशित आक्रमण होने के बाद भी उनके मध्य सांझा संघर्ष विकसित होने की आज तक कोई संभावना नजर नहीं आती है | ये पहली बार हुआ कि इंटक और बीएमएस 28 फरवरी की हड़ताल में एक साथ आये किन्तु ये सांझा मंच आगे भी काम करेगा , इसके आसार क्षीण ही हैं | विभिन्न यूनियनों के मध्य प्रतिस्पर्धा के साथ साथ भारतीय ट्रेड यूनियनों में अन्तर्निहित प्रतिस्पर्धा भी एक बड़ा रोग है | संघर्ष की रणनीतियों में समयानुकूल बदलाव न कर पाना , राजनीतिक रूप से विद्वेष रखना , सारी ताकत कुछ या एक पदाधिकारी में निहित होना , संगठन में लोकतंत्र का अभाव , उच्च नेतृत्व का नौकरशाहाना बर्ताव और सदस्यों के बॉस के समान रहना , प्रबंधन और मालिकों से सहूलियतें हासिल करना , ट्रेड यूनियन के कार्य को आवश्यकता से अधिक बढ़ा चढ़ा कर बताना और फिर सदस्यों से अपनी तथाकथित कुरबानियों की कीमत मांगना , ऐसी कमजोरियां हैं , जो सदस्यों का विश्वास ट्रेड यूनियन पर से खत्म करती हैं और जो पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने में सरकारों को मदद करती रही हैं |

मजदूर संगठनों के लिए परीक्षण का समय

जैसा कि मैंने इस लेख के शुरू में ही कहा है कि दुनिया का मेहनतकश वर्ष 2012 का मई दिवस नवउदारवाद की नीतियों के फलस्वरूप समाज के उपर पड़े दुष्प्रभावों के खिलाफ उठ खड़े हुए जन-आन्दोलनों के साये में मना रहा है | बाजारवाद के नए परिदृश्य में मजदूर संगठनों का पुराने परंपरागत तरीकों से रणनीतियाँ बनाना और काम करना मजदूरों और कर्मचारियों को बांधकर रखने और उनके हितों की पूरी तरह रक्षा करने में समर्थ नहीं हो रहा है | नये उभरे आई टी , काल सेंटर या रिटेल के क्षेत्रों के नीली कालर वाले कामगार पुराथनपंथी तरीकों से हड़ताल पर नहीं जा सकते क्योंकि उनकी सेवा शर्तें सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों के समान सुरक्षा नहीं देती हैं | मजदूर आंदोलन को और अधिक विस्तारित होकर उन्हें अपने में समाहित करना होगा | अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्रों में संगठित मजदूर संगठनों की अनुपस्थिति तरह तरह के एनजीओ और कतिपय व्यक्तियों या समूहों के द्वारा भरी जा रही है , जैसा कि जन-आन्दोलनों में स्वत:स्फूर्त ढंग से जनता के बड़े हिस्से की भागीदारी से सामने आ रहा है | मजदूर संगठनों के द्वारा समाज में विभिन्न तबकों के द्वारा अनुभव की जा रही व्यापक हिस्से की अन्य तकलीफों और कष्टों के साथ नहीं जुड़ने का प्रभाव उनके सदस्यों पर ही नकारात्मक पड़ रहा है और जैसा कि देखा जा रहा है उनकी रेंक और फाईल का अच्छा बड़ा हिस्सा गैर ट्रेड यूनियनी आंदोलन में हिस्सा ले रहा है |

आखिरकार , किसी भी परिस्थिति में यह सोचना ही गलत होगा कि कोई भी समूह , जो मजदूर संगठन नहीं है , किसी मजदूर संगठन के दायित्वों को अच्छे से निभा सकता है , चाहे वह कितना भी ताकतवर क्यों न दिखाई पड़े | भूमंडलीकरण समाज के सभी साझीदारों के लिए परीक्षा का समय है और ट्रेड यूनियनों के लिए विशेष रूप से , क्योंकि ये मजदूर ही हैं , जिनके कन्धों के ऊपर से गुजरकर भूमंडलीकरण समाज के अन्य तबकों के पास जा रहा है | इसलिए मई दिवस 2012 भारत के ट्रेड यूनियनों के ऊपर ये जिम्मेदारी लेकर आया है कि वे स्वयं को बहुआयामी संगठन में बदलें और भारत में पैदा हो रही नई चुनौतियों के अनुरूप स्वयं को तैयार करें |

अरुण कान्त शुक्ला      

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