Tuesday, May 29, 2012

पेट्रोल पर फिर पाखंड -


             पेट्रोल पर फिर पाखंड –

पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के खिलाफ दो साल बाद फिर एक बार 31 मई को एनडीए के घटक दलों ने भारत बंद का आव्हान किया है और मोटे तौर पर लेफ्ट सहित सभी विरोधी राजनीतिक दलों का इसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त है | स्थिति लगभग 2010 जैसी ही है , जिसे एनडीए के संयोजक शरद यादव ने विपक्षी दलों के मध्य अभूतपूर्व एकता करार दिया था | पेट्रोल , डीजल और एलपीजी के दामों में बढ़ोत्तरी आम लोगों और विशेषकर मध्यवर्ग के हर हिस्से कामगार , कर्मचारी , छात्र , घरेलु महिला से जुड़ा हुआ अत्याधिक संवेदनशील मुद्दा है और कोई भी राजनीतिक दल इस अवसर पर जनता को यह दिखाने से चूकना नहीं चाहता है कि एक वही है , जिसे जनता से सबसे ज्यादा प्यार है | जो विरोध पक्ष में नहीं हैं और यूपीए के साथ जुड़े हैं , उन्हें भी इस पाखण्ड को दिखाने की मजबूरी है |


यूपीए की सत्ता में हिस्सेदार तृणमूल और डीएमके का विरोध भी पाखंड का ही हिस्सा है | रेल किराए पर अपने ही दल के मंत्री को खो करवाकर यूपीए को हिलाने वाली ममता बनर्जी जब यह कहती हैं कि पेट्रोल की कीमतों के सवाल पर वो यूपीए सरकार को अस्थिर नहीं करने वालीं तो उनके जनता प्रेम के पीछे छिपा पाखंड और अधिक उजागर होकर सामने आता है | कमोबेश यही स्थिति यूपीए के दूसरे घटक डीएमके की है | जिस समय करुणानिधी तमिलनाडु में पत्रकारों से घिरे यह कह रहे थे कि वे केन्द्र सरकार से बढ़ी हुई कीमतों को वापस लेने की मांग करेंगे , उन्हें छोड़कर बाकी सबको याद आ रहा होगा कि दो साल पहले जून , 2010 में पेट्रोल की कीमतों को विनियंत्रित करके कंपनियों के भरोसे छोड़ने का निर्णय मंत्रियों के जिस शक्ति प्राप्त समूह ने लिया था , उनके दल के एम.के.अलगिरी यूपीए में मंत्री थे और उस शक्ति प्राप्त मंत्री समूह के एक सदस्य थे | याने आज प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री और पेट्रोलियम मंत्री जिस हथियार का इस्तेमाल करके कह रहे हैं कि पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने का सरकार से कोई तालुक नहीं हैं और यह पेट्रोल कंपनियों का ही काम है , उस हथियार के निर्माण में डीएमके की बराबर की जिम्मेदारी है | इसके बाद लोगों की तकलीफों के प्रति उनकी चिंता पाखंड नहीं तो और क्या है |


सरकारी तेल कंपनियों और स्वयं सरकार के पाखंड का हाल कुछ कम नहीं है | सरकार और सरकारी तेल कंपनियों का व्यवहार जनता के साथ कुछ उस व्यक्ति के समान है , जो सड़क पर पड़े हुए सोडावाटर की बाटल के ढक्कन को रुपया समझ कर उठा ले और रोना शुरू कर दे की उसे एक रुपये का नुकसान हुआ है | सरकार अंडर रिकवरी के जिस फार्मूले के अनुसार पेट्रोल , डीजल , एलपीजी या केरोसिन के दाम तय करती है , वो जनता को सोडावाटर बाटल के ढक्कन को रुपया समझाने के बराबर ही है | सरकार पेट्रोल , डीजल , एलपीजी और केरोसिन की कीमत यह मानकर तय करती है कि मानो इन्हें जिस रूप में जनता तक पहुंचाया जा रहा है , ये उसी रूप में आयात किये जा रहे हैं और इन पर एक्साईज ड्यूटी , बीमा , ढुलाई और अन्य लेवी उसी तरह लगाई जाती हैं मानो वे सही में आयात किये गये हैं , जबकि ये सब केवल अनुमान के आधार पर होता है और वास्तव में कंपनियों को कोई ऐसा भुगतान नहीं करना पड़ता है | सरकार का तर्क भी इस मामले में पाखंडपूर्ण है | सरकार कहती है कि मानलो कि भारत में कोई रिफायनरी नहीं होती तो फिर सभी पेट्रोलियम पदार्थ शोधित रूप में ही विदेशों से आयात किये जाते , तब यही कीमत चुकानी पड़ती | इसीलिये देश के लोगों को आयात मूल्यों पर ही पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत चुकानी होगी , जबकि वास्तविकता यह है कि भारत का सार्वजनिक क्षेत्र हो या निजी क्षेत्र , वो कच्चा तेल ही आयात करता है और उसका परिशोधन भारत में ही होता है | यही कारण है कि परिशोधन के बाद भी उसका मूल्य सरकार के काल्पनिक आयात मूल्य से बहुत कम रहता है | अब उपरोक्त काल्पनिक कीमत और वास्तविक कीमत के अंतर को वो घाटा (अंडर रिकवरी) बताते हैं याने सरकार सोडावाटर बाटल के ढक्कन को रुपया समझती है और उसका सोचना है कि उसे घाटा हुआ है तो जनता इसकी भरपाई करे |


घाटे के बारे में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का रोना कितना मगरमच्छी है , यह उनके द्वारा अर्जित मुनाफे से पता चल जाता है | आईओसी , सबसे बड़ी तेल मार्केटिंग कंपनी ने वित्त वर्ष 2011-12 की चौथी तिमाही में 12670.43 करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कमाया है , जो पिछले वर्ष की इसी अवधी की तुलना में 400 प्रतिशत से अधिक है | इसी तरह आईल इंडिया ने 2011-12 में 3446.92 करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कमाया , जो पिछले वर्ष के मुकाबले 19.36 प्रतिशत अधिक है | बीपीसीएल  ने इसी दौरान 3962.83 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफ़ा कमाया , जो पिछले वर्ष के मुकाबले चार गुना अधिक है | इंडियन आईल का शुद्ध लाभ 2488.44 करोड़ का है और उसने 50 प्रतिशत लाभांश की घोषणा की है |


दरअसल , डालर के मुकाबले रुपये की कीमत में गिरावट का यह मतलब कतई नहीं है कि इन कंपनियों और सरकार को घाटा ही घाटा हो रहा हो | ये कंपनियां अपने उन उत्पादों के लिए बहुत मुनाफ़ा कमा  रहीं हैं , जिनका वे निर्यात करती हैं , जबकि उनके उत्पादन की कीमतों में कोई ज्यादा वृद्धि नहीं हो रही है | इसी तरह प्रत्येक आयात पर सरकार को ज्यादा राजस्व की प्राप्ती हो रही है | इसका अर्थ हुआ कि सभी तेल और गैस कंपनियां और सरकार रुपये की कीमत में गिरावट से फ़ायदा कमाएँ और आम लोगों से रुपये की कीमत में गिरावट का खामियाजा वसूला जाये |


प्रत्येक बार कीमतों में बढ़ोत्तरी के साथ केन्द्र और राज्य सरकारों को प्राप्त होने वाला टेक्स अपने आप बढ़ जाता है क्योंकि यह प्रति लीटर मात्रा के ऊपर नहीं प्रति लीटर कीमत के रूप में वसूला जाता है | देश में तमिलनाडु छोड़कर या तो कांग्रेस के गठबंधन वाले दलों की सरकारें हैं या एनडीए के घटक दलों की | सभी राज्य सरकारें वेट के जरिये बढ़ी हुई कीमत पर  बढ़ा हुआ टेक्स पाती हैं , पर न तो केन्द्र सरकार और न ही राज्य सरकारें अपने टेक्स को कम करने को तैयार हैं , याने उन दलों की सरकारें भी टेक्स कम करने को तैयार नहीं हैं , जो 31 मई के भारत बंद में शामिल हैं | यदि समस्या केवल डालर के बरक्स रुपये की कीमत में आयी कमी का है तो फिर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को बढ़ी हुई कीमत पर टेक्स नहीं लेना चाहिये |  


अब जरा ईधन के बढ़े मूल्यों के खिलाफ विपक्ष के भारत बंद के शोर का जायजा भी लें | भाजपानीत एनडीए गठबंधन ने 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 के बीच केंद्र की सरकार में रहते हुए छै वर्षों में पेट्रोल के मूल्यों में 10 रुपये 87 पैसे , डीजल में 11 रुपये 49 पैसे ,रसोई गैस में 105  रुपये 60 पैसे तथा केरोसिन में 6 रुपये की बढ़ोत्तरी की थी | अभी यूपीए के साथ जुड़ी , पेट्रोल को विनियंत्रित करने के लिए हुई संपन्न मंत्रियों की बैठक से अनुपस्थित होकर विरोध जताने वाली और अभी मूल्यवृद्धि पर विरोध जताने वाली ममता बनर्जी तब भाजपानीत एनडीए सरकार के साथ थीं | अभी गैरभाजापाई विपक्ष का हिस्सा बने चंद्राबाबू नायडू तब एनडीए सरकार के साथ थे |


एक बात और , पेट्रो उत्पादों को अंतरराष्ट्रीय बाजार के मूल्यों से जोड़ने की शुरुवात करने का श्रेय भाजपानीत एनडीए सरकार को ही है | वर्ष 2002  में भाजपाई एनडीए सरकार ने अमेरिका , डब्ल्यूटीओ और तेल कंपनियों के दबाव में पेट्रोलियम सेक्टर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया था | एनडीए के समय से ही पेट्रो उत्पादों पर से सबसीडी कम करने की शुरुवात भी हुई थी | वर्ष 2004  में आसन्न आम चुनावों के मद्देनजर 2003  में भाजपा ने इस कदम को वापस लिया था |  यूपीए ने पिछले आठ वर्षों में पेट्रोल के मूल्यों में लगभग 40 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि की है | राष्ट्रीय जनता दल , लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी यूपीए के प्रथम चरण में मंत्रीमंडल में थे और  4  वर्षों से ज्यादा तक वाममोर्चे का यूपीए को समर्थन था | सपा ने यूपीए को प्रथम चरण में भी समर्थन दिया था और अभी भी दिया हुआ है | राष्ट्रीय जनता दल का समर्थन यूपीए को आज भी प्राप्त है |


याने , सरकारें बदलती हैं नीतियां नहीं |  जो भी लड़ाई है , कुर्सी पर बैठकर मलाई खाने की है | भारत के गैरसंपन्न तबके के लिये चल रहा बुरा वक्त और भी बुरा होने वाला है | विडम्बना यह है कि भारत के आम आदमी के पक्ष में जो अपने आप को दिखाना चाहते हैं , वो भी उसके विपक्ष में ही हैं | यह सारा पाखंड अपने राजनीतिक वजूद को अलग दिखाने की कवायद से अधिक कुछ नहीं है |  कोई भी राजनीतिक दल ये कहने तैयार नहीं है कि वो यदि सत्ता में आया तो पेट्रो पदार्थों पर नीतियों को पूरी तरह उलट देगा |  मनमोहनसिंह ने देश को बाजार के हवाले किया था , एनडीए ने बाजार को फ्री किया था और अब यूपीए उस बाजार को समृद्ध कर उसका विकास कर रही है | देश के आम लोगों को समृद्ध करने और उनका विकास करने के लिए तो सबके पास केवल पाखंड ही है |

Monday, May 14, 2012

सवाल गुणवत्तापूर्ण शिक्षण का है -


सवाल गुणवत्तापूर्ण शिक्षण का है –

यदि हंगामों के बीच से कोई अच्छी चीज निकल कर सामने आती है तो हंगामें अच्छे हैं | पर , हमारे देश की संसद में होने वाले हंगामों से किसी अच्छी चीज के निकल आने की उम्मीद रखना बेकार है | नेहरू-आंबेडकर कार्टून पर हुए हंगामें से भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण और देश के नौनिहालों के लिए सौभाग्यशाली बात निकलकर सामने आ सकती थी और वह थी सबसे ज्यादा उपेक्षित शिक्षा और शिक्षण पद्धति पर एक सार्थक बहस और उसका एक सार्थक परिणाम | पर , ऐसा होना तो कभी का बंद हो चुका है , इसलिए ऐसा नहीं हुआ और जितनी कम बुद्धि और सोच-विचार के बाद राष्ट्रीय शिक्षण अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने पाठ्यक्रमों में सीखने की प्रक्रिया को खुशनुमा और रोचक बनाने के लिए कार्टूनों का प्रयोग शुरू किया था , उससे भी कम बुद्धि खर्च किये बिना संसद के दोनों सदनों में हुए हंगामें के बाद निर्णय ले लिया गया कि आगामी सत्र से नेहरु-अंबेडकर ही नहीं सारे कार्टून वापस ले लिए जायेंगे | इस पूरे एपीसोड में तीन अहं कमियां उजागर हुई हैं , जो बताती हैं कि देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है , जब हमारे पास न केवल देश के आमजनों तथा देश के बच्चों की सोच को सामने रखकर नीतियों और व्यवस्था बनाने वाली बौद्धिक क्षमता का नितांत अभाव है बल्कि देश का जो भी बौद्धिक हिस्सा है , फिर चाहे वो राजनीति में हो , समाजसेवा में हो , शिक्षण व्यवस्था में हो या सरकार में हो , उसने सिर्फ अपने और नितांत अपने स्वार्थों के अनुसार ही अपनी सोच और आचरण को ढाल लिया है |


पहली कमी यह कि संसद के दोनों सदनों और संसद के बाहर हुए हंगामों में सिर्फ या तो अंबेडकर के अपमान का सवाल उठा या फिर नेहरू के | कहीं भी और किसी ने भी ये मूल सवाल नहीं उठाया कि क्या शिक्षण व्यवस्था में और वह भी कक्षा नौ से लेकर बारहवीं तक के विद्यार्थियों को किसी भी विषय को पढ़ाने के लिए इस तरह के व्यंगात्मक कार्टूनों की आवश्यकता है क्या ? शिक्षण को थोड़ा मनोरंजक और खुशनुमा बनाने के लिए चित्रों का प्रयोग हमेशा होता रहा है | विशेषकर , प्राथमिक शिक्षण में याने नर्सरी से लेकर पांचवीं कक्षा तक की पुस्तकों में | कार्टूनों का प्रयोग बहुत पुराना नहीं है और एनसीईआरटी के गठन के समान ही कार्टूनों के प्रयोग का आईडिया भी पश्चिम से आयातित है | पर , वहाँ भी शैक्षणिक कार्टून बिलकुल अलग होते हैं और निचली कक्षाओं में प्रयुक्त अधिकतर कार्टून शिक्षण पद्धति पर ही होते हैं | राजनीतिक प्रयोग से बचा जाता है | योगेंद्र यादव , जो एन सी ई आर टी के सलाहकार हैं ,  ने जिस तरह एनडीटीवी पर त्वरित प्रतिक्रया देते हुए कहा कि कार्टूनों पर बेन लगाने के लिए एक क़ानून पास कर देना चाहिये , वह अहं से आहत शिक्षाविद की प्रतिक्रिया है | साधारणजन भी जानते हैं कि व्यंग कार्टून या तो किसी विचारधारा या स्वयं की समझ पर आधारित होते हैं | व्यस्क हो सकता है कि इन्हें मुस्कराकर निकाल दें , पर बच्चों के मामले में सावधानी की जरुरत है | पाठ्यक्रम की विषय वस्तु कुछ भी हो , पर जिस तरह के कार्टून अवयस्क विद्यार्थियों याने बारहवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया , वे विषय की निरपेक्ष शिक्षा देने के बजाय , अपने अतीत को व्यंगात्मक तरीके से देखने की शिक्षा ज्यादा देने का काम करेंगे , इसमें कोई संदेह की गुंजाईश नहीं है और यह देश के लिए भी उचित नहीं है |



दूसरी अहं कमी है एनसीईआरटी जैसी शिक्षण संस्थान का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रयोग किया जाना | 1961 में इसकी स्थापना तकनीकि , कला और विज्ञान के क्षेत्रों में शोध और प्रशिक्षण प्राप्त बौद्धिक समूह को पैदा करने और पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था में शालेय शिक्षा के संबंध में केन्द्र और राज्य सरकारों को उस शोध और प्रशिक्षण के आधार पर उचित सलाह और मार्गदर्शन देने के उद्देश्यों से की गयी थी | चूंकि एनसीईआरटी के द्वारा प्रकाशित पुस्तकों का प्रयोग पूरे देश के उन सभी सरकारी और निजी स्कूलों में होता है जहां सीबीएसई (Central Board Of Secondary Education) का पाठ्यक्रम लागू है , सत्तारूढ़ दल इसका राजनीतिक प्रयोग करने में कभी नहीं हिचके और इसकी स्वायत्तता शनैः शनैः खत्म करते गये | इसकी शुरुवात मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व काल में हुई जब स्वयं मोरारजी देसाई ने यह कहते हुए कि शैक्षणिक जगहों पर कम्युनिस्टों ने घुसपैठ कर रखी है और वे अपने विचारों को शिक्षा में घुसाते जा रहे हैं , एनसीईआरटी के पाठ्यक्रमों के साथ छेड़छाड़ करते हुए आर.एस.शर्मा की पुस्तक आदिकालीन भारत (AncientAncient India) को पाठ्यक्रम से हटवा दिया | पहले 1977 से 1979 के मध्य और उसके बाद एनडीए सरकार के दौरान राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा बनाने के नाम पर एनसीईआरटी के पूर्ण हिंदुत्वीकरण के भरपूर प्रयास हुए | शिक्षा को निरपेक्ष रखने के सवाल पर इन प्रयासों का विरोध होने पर भाजपा ने हवाला दिया कि वह एनसीईआरटी जैसे संस्थान को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कम्युनिस्टों के प्रभाव वाली शिक्षण व्यवस्था से बाहर लाकर उसमें आये ठहराव को समाप्त करना चाहती है | 2004 में यूपीए की सरकार के आने के बाद एनसीईआरटी की पुस्तकों में फिर बदलाव शुरू हुआ और शिक्षा के निरपेक्ष चरित्र को पुनः बहाल करने की कोशिशें हुई | 1977 वह समय था , जब भारत में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और इस राजनीतिक परिवर्तन ने एनसीईआरटी से जुड़ी पूरी बौद्धिक जमात की सोच को बदल दिया और यह कहना गैर जायज नहीं होगा कि उसके बाद शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों की एक ऐसी जमात तैयार हो गयी , जिसका पूरा उद्देश्य यह हो गया कि पाठ्यक्रम में ऐसी विषय वस्तु शामिल करो , जो सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों को सूट करती हो | सत्तारूढ़ पार्टी के बारे में कुछ अच्छा कहो और उससे आपको सरकार का फेवर भी मिलेगा | इतिहास के उन बिंदुओं पर बल दो जो सत्तारूढ़ पार्टी को शक्ति और शान देते हों और सरकार की मेहरबानियों के हकदार बनो | आज हम जिस रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार की बात करते हैं , ये उससे भी पहले शुरू हुआ और उससे ज्यादा भयानक और खतरनाक है | कितनी दुखदायी बात है कि संसद में पहली बैठक की साठवीं वर्षगांठ के ठीक पहले हंगामा हुआ लेकिन देश के नौनिहालों की शिक्षा से खिलवाड़ और उन्हें भटकाने के इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई सार्थक बात नहीं हुई |


तीसरी अहं कमी यह उजागर हुई कि पूरे मामले को शिक्षा से अलग थलग करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सवाल से जोड़ दिया गया | एक ऐसी व्यवस्था में जैसी में हम रह रहे हैं , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के उदाहरण सैकड़ों की संख्या में पूरे देश में बिखरे पड़े हैं | अभिव्यक्ति तो दूर की बात है , समाचार प्रेषण तक इससे बचा नहीं है और देश में इस सवाल पर कभी खामोशी भी नहीं रही और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हुए प्रत्येक हमले का विरोध माकूल तरीके से मीडिया और बुद्धिजीवियों सहित आमजनों तक ने किया है | पर , वर्त्तमान मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ अपनी शातिर सोच पर चादर डालने की कोशिश भर है | पाठ्यपुस्तक में शामिल वह कार्टून छात्रों की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उन्हें पढाने के लिए था , अतएव उनकी किसी स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं हुआ है | बरसों पूर्व ये कार्टून शंकर्स वीकली में छपा था और नेहरू और अम्बेडकर दोनों ने इस पर कोई आपत्ति या रोक नहीं लगाई थी | इसलिए दशकों बाद अब उस पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लंघन का आरोप लगाना भी गलत है | यह सच है कि पिछले कुछ दशकों में समाज के अंदर नियोजित तरीके से असहिष्णुता बढाने की कोशिशें हो रहीं हैं और उसके खिलाफ वातावरण बनाना और उसका विरोध करना बहुत अधिक आवश्यक है , जैसा कि योगेन्द्र यादव ने अपने बाद में लिखे लेख में कहा भी है | पर , उससे भी ज्यादा जरूरी है कि हमारे नौनिहालों को पूर्वाग्रहित होने से बचाया जाना है | जैसा नहीं होने का नतीजा हम समाज में बढ़ती असहिष्णुता के रूप में देख रहे हैं , जो आजकल सोशल साईट्स पर भी बिखरा पड़ा है | क्या इस तरह के कार्टूनों को कोर्स में शामिल करके उस असहिष्णुता को रोका जा सकता है ?


यह अत्यंत दुःख का विषय है कि इस विवाद के सतह पर आने के चलते योगेन्द्र यादव और सुहास पलशिकर जैसे विद्वजनों को एनसीईआरटी के मुख्य सलाहकार के पदों से इस्तीफा देना पड़ा | उससे भी ज्यादा दुर्भाग्यजनक सुहास पलशिकर पर पुणे में किया गया हमला है , जो हर दृष्टिकोण से निंदनीय है | पर , उससे भी ज्यादा दुखद यह है कि न तो हमारे सांसदों ने दोनों सदनों में और न ही मीडिया या देश के बुद्धिजीवियों या शिक्षाविदों ने और यहाँ तक कि स्वयं योगेन्द्र यादव ने इस पूरे घटनाक्रम का उपयोग देश की गुणवत्ताहीन शिक्षा व्यवस्था की खामियों को उजागर करने में नहीं किया | आज जब आर्थिक मोर्चे पर भारत के बुलंद होने की बातें की जाती हैं और भारत को एक उभरती हुई आर्थिक ताकत के रूप में पेश किया जाता है , तब क्या यह सोचनीय नहीं है कि दुनिया की सात उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में भारत का स्थान छटवां है , वह भी स्कूली शिक्षा में , जहां कार्टूनों से पढ़ाने को आधुनिकता का नाम दिया जा रहा है | ज्यादा पीछे की बात नहीं है , मात्र तीन वर्ष पूर्व एसोचेम ने अपने एक सर्वे कम्परेटिव स्टडी आफ इमर्जिंग इकानामीज ऑन क्वालिटी आफ एडुकेशन में भारत को चेताया था कि यदि भारत में शिक्षा की गुणवत्ता और व्यवस्था की तरफ गंभीर ध्यान नहीं दिया गया तो भारत आने वाले समय में अन्य देशों के मुकाबले प्रतियोगिता में पिछड़ जाएगा | अंत में , मैं अपनी बात और शिक्षा में गुणवत्ता की बात , तीन वर्षीय बच्चे को नर्सरी में पढ़ाई जाने वाली कविता से उपजे सवाल से खत्म करूँगा | कविता ऐसी है ;

दूर हवा में लटका है , जैसे उल्टा मटका है
घूम रहा है आवारा , रंग बिरंगा गुब्बारा

इस देश के शिक्षाविदों , बुद्धिजीवियों , राजनीतिज्ञों , शिक्षण संस्थाओं , बताओ , मैं अपनी तीन वर्षीय पोती को आवारा शब्द का मतलब कैसे और क्या समझाऊँ ?
अरुण कान्त शुक्ला