Monday, December 31, 2012

विडंबनाओं के देश में स्त्री-सुरक्षा..



विडंबनाओं के देश में स्त्री-सुरक्षा..

दुनिया के किसी भी देश में रहने वाले इतनी विडंबनाओं के साथ नहीं जीते, जितनी विडंबनाओं के साथ हमें भारत में जीना पड़ता हैधर्म, सम्प्रदाय और राजनीति से परे हम भारतीयों में यदि कोई एकरूपता है, तो वह है, भारतीयों की सोच और कथनी, कथनी और करनी में मौजूद पाखंडभारतीय समाज का वयस्क हिस्सा, चाहे वह पुरुष हो या महिला, अपने दैनंदिनी जीवन के प्रत्येक पल को इसी दिखावे, बनावटीपन और ओढ़े हुए झूठ के साथ जीते हैंवह चाहे गरीबों के नाम पर आंसू बहाना हो, भ्रष्टाचार के नाम पर रोष जाहिर करना हो या फिर स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित होना हो, हम अपने पाखंड को सरलता के साथ ओढ़े रहते हैं| हमारी सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि चरित्र और नैतिकता के स्तर पर मूल्यों में दोहरापन हमें कभी कचौटता भी नहीं है

किसी मनुष्य को जीवन में जिन तीन चीजों की कामना सबसे अधिक होती है, वे तीनों ही भारतीय सन्दर्भों में स्त्री रूप हैं| लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा| धन, बुद्धि और शक्तिसामान्य तौर पर किसी घर में घर में कन्या का जन्म होने पर कहा जाता है कि लक्ष्मी घर में आई है| पर, उसी लक्ष्मी को कोख में ही मार देने की घटनाएं सर्वाधिक भारत में होती हैंवही लक्ष्मी दैहिक व्यापार में धकेली जाती है और धन कमाने का साधन मानी जाती हैविडम्बना यह है कि लक्ष्मी को दैहिक व्यापार में ढकेलने के काम में भी सहायक लक्ष्मी ही बनती है

सरस्वती ज्ञान की देवी हैउन्हीं सरस्वतियों को पढ़ लिखकर क्या करेंगी, कहकर, ज्ञान प्राप्ति से वंचित रखा जाता हैदुर्गा की उपासना करके शक्ति प्राप्त की जाती है| दुर्गा के उन्हीं अवतारों को घरों में समाज में लतियाया जाता हैयह सब करते हुए सोच के स्तर पर  समाज में श्रेणी या स्तर का कोई भेदभाव नहीं हैउच्च वर्ग हो, मध्य वर्ग हो या निचला तबका, आर्थिक आधार पर हो या जाती, धर्म और सम्प्रदाय, सोच के स्तर पर सभी समान हैं| स्त्रियाँ पैर की जूती से भी कम हैंयह सोच के स्तर पर हैस्त्रियाँ पूजनीय हैं, उनका सम्मान होना चाहियेयह कथनी के स्तर पर हैउन्हें दबाकर रखना चाहिये और अवसर मिलते ही उनका उपभोग किया जा सकता है, यह करनी के स्तर पर है

दिल्ली सहित पूरे देश में पिछले एक पखवाड़े से चल रहे प्रदर्शनों में यह विडम्बना आंदोलन, राजनीति और प्रशासन तीनों स्तर पर खुलकर सामने आई हैयह क्या कम विडंबनापूर्ण है कि जब इंडिया गेट पर युवाओं का रोषपूर्ण प्रदर्शन अपने चरम पर था, इलेक्ट्रानिक मीडिया के तथाकथित बुद्धिमान और विवेकपूर्ण रिपोर्टर और एंकर गला फाड़ फाड़ कर दिल्ली पोलिस ही नहीं, पूरे देश की पोलिस व्यवस्था को कोस रहे थे, देश की सरकार ही नहीं, सारे दलों के सारे राजनीतिज्ञ घडियाली आंसू बहाकर संवेदनशील दिखने की कोशिश कर रहे थे, दुनिया की सबसे बदनाम पत्रिका और बदनाम क्लबों का समूह प्लेब्वॉय भारत में उसके खुलने वाले क्लबों में शराब परोसने के लिए रखी जाने वाली बनीज याने लड़कियों के लिए पहनने वाली पोशाक का प्रदर्शन कर रहा था, पर, न तो इंडिया गेट पर व्ही डिमांड जस्टिस के नारे लगाने वालों ने, न ही चैनलों पर बलात्कार के खिलाफ प्रवचन झाड़ने वाले महिलाओं के महिला और पुरुष पक्षधरों ने, न ही गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया के रिपोर्टरों और एंकरों ने, न ही प्रिंट मीडिया के अखबारों ने और न ही घडियाली आंसू बहाने वाले राजनीतिज्ञों ने किंचित मात्र भी चिंता जताई कि कामुकता परोसने वाले इन क्लबों के खुलने का भारतीय समाज पर क्या असर पड़ेगा?

पिछले तीन दशकों ने भारत में कामुकता एक उद्योग के रूप में स्थापित हो चुकी है और महिलाएं इसमें माल के रूप में व्यापार के लिए इस्तेमाल हो रही हैंकामुकता जब उद्योग की शक्ल ग्रहण कर लेती है, तब इसका उपभोक्ता केवल समाज का अभिजात्य अग्रणी नहीं होता, उपभोक्ताओं का विस्तार मध्यवर्ग और निचले वर्ग तक हो जाता हैठीक उसी तरह, जैसे देश में पहले जब गुटखे का उत्पादन शुरू हुआ तो वो बड़े पेक (डिब्बे) में मिलता था और उसके ग्राहक समाज के संपन्न तबके से थेएक दशक के बाद ही वह छोटे पेक याने पाउच में भी मिलाने लगा और उपभोक्ता समाज का प्रत्येक तबका है| यही बात कामुकता के उद्योग पर भी लागू होती है| गुटखा उद्योग समाज को गुटखे का आदी बनाता हैकामुकता का उद्योग समाज को कामुक बनाता हैआज यही होते हम देख रहे हैंइस उद्योग में माल स्त्री है और वो इसी का दुष्परिणाम भुगत रही है

इस कामुक समाज का प्रत्येक अंग, व्यक्ति से लेकर संस्था तक, राजनीति से लेकर धर्म तक, स्त्री से लेकर पुरुष तक, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार तक की घटनाओं पर, दहेज से लेकर डायन/टोनही कहकर महिलाओं को मार देने तक की घटनाओं पर, प्रेम निवेदन अस्वीकार कर देने से सम्मान के लिए स्त्रियों को मार देने तक की घटनाओं पर, उसी कामुक नजरिये से सोचता हैयही सोच पोलिस को लापरवाह बनाती हैयही सोच 100 में से 70 बलात्कार के अपराधियों को न्यायालय से छुड़ाती है यही सोच बलात्कारियों को लोकसभा और विधान सभाओं में पहुंचाती है

इस विडम्बना के बावजूद कि यही समाज तब उद्वेलित नहीं हुआ था, जब मणिपुर की मनोरमा, छत्तीसगढ़ की सोनी शोरेन, आसिया, नीलोफर या भंवरी देवी के ऊपर अत्याचार हुए थे, इस बात का स्वागत किया जाना चाहिये कि कुछ हलचल तो समाज में हुई हैपर, दुखद तो यह है कि इतना बड़ा अवसर मिलने के बावजूद भी, समाज की चिंताएं, फांसी की सजा, नपुंसक बनाने और पोलिस तथा न्यायायिक सुधार पर ही टिकी हैंउन प्रदर्शनों में न तो व्यवस्था जन्य दोषों पर कोई बल है, न ही समाज को सेक्स के चक्कर में डालकर मूल सामाजिक समस्याओं की तरफ से भटकाने के प्रति कोई चिंता है| प्रधानमंत्री का कहना है कि उस 23 वर्षीय लड़की की कुरबानी बेकार नहीं जायेगीउस लड़की के माता-पिता का कहना है कि उनकी बेटी की मौत से दिल्ली और देश की महिलाओं की सुरक्षा को लेकर जागरूकता बढ़ेगीदेश की बेटियों को हक और सम्मान मिलेगापर, मिलेगा क्या?

देश का एक युवा क्रिकेटर लड़कियों को पटाने के दो तरीके बता रहा हैएक परफ्यूम के विज्ञापन में लड़के की फियान्सी कामुकता से प्रोत होकर लड़के के पिता के कपड़े उतार रही हैयोनी को गोरा बनाने से लेकर, योनी को कसा बनाने की क्रीम तक के विज्ञापन बाजार में छाये हैंनहीं किसी के मुँह में जहर डाल के आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वो व्यक्ति उस जहर को अमृत में बदल लेगाइसी तरह समाज के दिमाग में कामुकता भरकर आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उसे सदवृति में बदल लेगा

बुनियादी बात यह है कि समाज की संस्कृति, नैतिकता का वाहक समाज का अग्रणी हिस्सा होता हैआज वही भ्रष्ट हैवही कामुकता में खो गया हैआप अपने मालिक को प्लेब्वॉय क्लब तक ले जाने वाले ड्राईवर से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उसकी पहुँच में आ जाने वाली महिला को माल नहीं समझेगा

विडम्बना यह है कि उस सोच के बारे में कहीं नहीं सोचा गया जो कामुकता को समाज में रोप रही है, बलात्कार, स्त्रियों को माल समझना, जिसके सहउत्पाद (bYPRODUCTBY PRODUCT) हैंन इंडिया गेट पर, न लोकसभा में और न हमारे दिमागों मेंबिना उस पर विचार किये, विडंबनाओं से भरे इस समाज में स्त्री सुरक्षा पर रोना कितना फलीभूत होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा

अरुण कान्त शुक्ला
31/12/2012      

Wednesday, December 12, 2012

शिक्षा कर्मियों को नियमित करो, दोहरी व्यवस्था बंद करो..



शिक्षा कर्मियों को नियमित करो, दोहरी व्यवस्था बंद करो..

प्रदेश के पौने दो लाख से अधिक शिक्षाकर्मी 3 दिसंबर से संविलियन और छटवें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देने की मांग को लेकर अनिश्चित कालीन हड़ताल पर हैं प्रदेश सरकार का शिक्षाकर्मियों के आंदोलन से निपटने का तर्क, तरीका और ढंग वही है, जो पिछले वर्ष यानी नवंबर’2011 में था पंडाल जब्त करो, एकत्रित मत होने दो, सेवा समाप्ति के नोटिस दो, बर्खास्त करो और बल प्रयोग करो नवंबर’2011 की तुलना में इस बार शिक्षाकर्मी ज्यादा एकजुट हैं यही कारण है कि राज्य सरकार की धमकियों से डरकर शिक्षण कार्य पर लोटने वाले शिक्षाकर्मियों की संख्या शासन के तमाम दावों के बावजूद अत्यंत कम है और वह भी उन शिक्षाकर्मियों की है, जो अभी परिविक्षा अवधि में हैं याने जिनकी दो वर्ष की सेवा अवधि पूर्ण नहीं हुई है

प्रदेश के सभी कर्मचारी संगठनों के साथ साथ भाजपा के अनेक वरिष्ठ नेताओं और कांग्रेस का पूरा पूरा समर्थन भी उन्हें प्राप्त हो रहा है यह अलग बात है कि कांग्रेस के शासन काल के दौरान भी शिक्षाकर्मियों को अपनी मांगों के एवज में पोलिस के डंडे ही मिले थे इस तरह के अवसरवादी समर्थन की कितनी कीमत होती है, यह शिक्षाकर्मियों की संयुक्त संघर्ष समिति के कर्ताधर्ता अच्छी तरह जानते होंगे

छत्तीसगढ़ में प्रदेश सरकार को चुनने के लिए वर्ष 2003 और 2008 में, दो बार, विधानसभा चुनाव हुए दोनों बार भाजपा ने शिक्षाकर्मियों से संविलियन का वायदा किया आज उसी भाजपा सरकार के मुखिया रमनसिंह विधानसभा में कह रहे हैं कि शिक्षाकर्मी चूंकि पंचायतों के अधीन हैं, न तो उन्हें शासकीय कर्मचारियों के समान छटवें वेतन आयोग की अनुशंसाओं का लाभ दिया जा सकता है और न ही उन्हें नियमित करके शासकीय शिक्षक के रूप में समाहित किया जा सकता है शिक्षा कर्मियों के तिलमिलाने की सबसे बड़ी वजह यह भी है कि नवंबर’2011 में हुए आंदोलन की समाप्ति के समय रमन सरकार ने वायदा किया था कि शिक्षाकर्मियों को सम्मानजनक वेतनमान दिया जाएगा मार्च’2012 में राज्य सरकार ने शिक्षाकर्मियों के लिए जिन नए वेतनमानों की घोषणा की, वो शिक्षाकर्मियों की उम्मीदों को छोड़ भी दें तो उनके लिए सम्मानजनक तो कतई नहीं था पदनाम बदलने के नाटक के साथ कहने को तो वर्ग तीन को 16 फीसदी, वर्ग दो को 18 फीसदी तथा वर्ग एक को 27 फीसदी वृद्धि का ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन वास्तविकता यह है कि स्नातकों को नए वेतन मान के लिए 7 वर्ष का समय और गैर स्नातकों के लिए 10 वर्ष का समय रखकर लाभ को मात्र 13000 शिक्षाकर्मियों तक सीमित कर दिया गया| इसे प्रदेश के पौने दो लाख शिक्षाकर्मियों के साथ धोखाधड़ी के अलावा और क्या कहा जा सकता है

छत्तीसगढ़ देश के उन चंद राज्यों में से एक है, जहां सरकार ने नियमित शिक्षकों से पिंड छुड़ा लिया है और प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षाकर्मी के नाम से इन्हीं पराशिक्षकों को नियुक्त किया जा रहा है, जहां इन्हें उसी स्कूल में शिक्षण कार्य करते हुए भी शासकीय शिक्षकों की तुलना में अत्यंत अल्प पारिश्रमिक मिलता है एक ऐसी व्यवस्था में, जिसमें कि हम रह रहे हैं, सामाजिक उत्थान की किसी योजना को दिखावे के लिए तो हाथ में लिया जाता है, पर बात जब आर्थिक प्रबंधन की आती है तो तुरंत ही उसका बोझ समाज के उसी तबके के ऊपर डाल दिया जाता है, जिसके उत्थान के लिए योजना लाई गई थी प्राथमिक शिक्षा के साथ देश के प्रायः सभी राज्यों में यही हो रहा है सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा के मिलेनियम गोल को प्राप्त करने की आपाधापी में स्कूलों को खोलने तथा बच्चों को स्कूलों तक लाने के काम तो शुरू हुए, लेकिन नियमित शिक्षकों की जगह, बेरोजगारी का फायदा उठाते हुए शिक्षाकर्मी, गुरूजी, शिक्षामित्रों के नाम पर, अत्यंत अल्प वेतन पर शिक्षकों को रखने का काम शुरू हुआ इन्हें इनके साथ काम करने वाले नियमित शासकीय शिक्षकों की तुलना में अत्यंत कम वेतन दिया जाता है जबकि इन्हें अपनी सेवाएं सुदूर अविकसित क्षेत्रों में अत्यंत कठिन परिस्थितियों में देनी होती हैं

दुनिया के अनेक देशों में हुए शोध बताते हैं कि किसी राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक खुशहाली, उस राष्ट्र की प्राथमिक और पूर्व प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर निभर्र करती है पर, भारत में नीति निर्माता इस उक्ति पर विश्वास नहीं करते कि प्राथमिक शिक्षा में बिताये गए वर्ष राष्ट्र की नींव का निर्माण करते हैंदेश में शिक्षकों और पराशिक्षकों पर हुए सारे अध्यन बताते हैं कि नियमित शिक्षकों और पराशिक्षकों के द्वारा पढाए गए बच्चों की योग्यता में कोई अंतर नहीं होता है छत्तीसगढ़ में शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति पंचायतों के दवारा ही क्यों न होती हो, पर होती है, निर्धारित शैक्षणिक मानदंडों के अनुसार व्यावसायिक परीक्षा जैसी ही परीक्षा पास करने के बाद ही ये शिक्षाकर्मी योग्यता, पढाने की काबलियत, स्कूल में उपस्थिति, किसी भी पैमाने पर अपने सहकर्मी नियमित शिक्षकों से कम नहीं हैं उन्हें अपने कार्य का निष्पादन भी बिना पर्याप्त प्रशिक्षण और बिना स्वयं की प्रोफेशनल विकास की संभावनाओं के करना होता है एक बार का शिक्षाकर्मी प्रायोगिक रूप से जीवन भर का शिक्षाकर्मी होता है, पदोन्नती जैसी किसी भी संभावना का कोई भी ख्याल उसके दिमाग में दूर दूर तक नहीं रहता है

शिक्षाकर्मियों को वर्त्तमान में दिया जा रहा वेतन न केवल अपर्याप्त है, बल्कि यह गैर व्यावसायिक, शिक्षक विरोधी होने के साथ साथ अपमानजनक भी हैराज्य सरकार अभी अभी सुराज अभियान चलाकर आई है सुराज का मतलब केवल शिविर लगाकर शिकायतों को इकठ्ठा करना नहीं होता है सुराज का एक अर्थ प्रदेशवासियों को सम्मानजनक ढंग से जीने के लायक वेतन देना और उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करना भी है यह अत्यंत दुःख की बात है कि राज्य सरकार का व्यवहार शिक्षाकर्मियों के साथ तदनुरूप नहीं है भाजपा सरकार से यदि शिक्षाकर्मी शासकीय शिक्षकों जैसा दर्जा मांग रहे हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है वैसे भी छत्तीसगढ़ की गिनती उन राज्यों में होती है, जहां प्रति व्यक्ति के हिसाब से शिक्षा पर सबसे कम खर्च किया जाता है शिक्षाकर्मियों को संविलियन कर शासकीय शिक्षकों के समान वेतन और सुविधाएं दो, वे इसके योग्य हैं इससे उन्हें नैतिक बल मिलेगाहर साल कुम्भ मेले, ग्राम सुराज, राज्योत्सव और अब नगर सुराज पर सामंती तरीके से अरबों रुपये फूंकने वाली सरकार से शिक्षाकर्मियों की उम्मीदें जायज हैं यह दोहरी व्यवस्था हमेशा असंतोष का कारण बनी रहेगी, इसे बंद करना ही श्रेयकर है

अरुण कान्त शुक्ला

13,दिसंबर’२०१२                  

Monday, December 3, 2012

आप दोषी नहीं, मोदी हैं!



आप दोषी नहीं, मोदी हैं!

मोदी जी गुजरात के मुसलमान आपसे कह रहे हैं कि आप माफी मांगेगें तो वो आपको वोट देंगे। आप उनकी बातों में बिलकुल नहीं आना वो आपको टोपी पहनाना चाहते हैं। ये सब आपसे बदला लेने के लिए हो रहा है।आपने सदभावना यात्रा निकाली, मौक़ा देखकर वो आपको टोपी पहनाना चाहते थे, पर आप चतुर सुजान, आपने उनकी दाल नहीं गलने दी और टोपी नहीं पहनी। अब वो आपको चुनावी यात्रा में टोपी पहनाना चाहते हैं। आप बिलकुल माफी नहीं मांगना| आखिर आप खुद तो तलवार लेकर किसी को मारने गए नहीं थे बल्कि आपको खुद को इतना डर था कि आप घर से बाहर नहीं निकले। अब घर से बाहर ही नहीं निकले तो किसी की क्या मदद करते? पर आपने कुछ समय पहले एक गलती कर दी। आपने ऐसा क्यों कहा कि यदि आप दोषी हैं तो आपको फांसी पर चढ़ा दिया जाए।

मैं आपको इस देश के  120 करोड़ लोगों की तरफ से विश्वास दिला सकता हूँ कि आप दोषी नहीं हैं, आप तो मोदी हैं और वो भी सिर्फ नाम के नहीं, मन, कर्म, वचन से मोदी हैं। 120 करोड़ लोगों की तरफ से इसलिए कि आजकल ये फेशन में है कि जो भी कहो पूरे 120 करोड़ लोगों की तरफ से कहो। इससे बात में वजन आ जाता है और कहने वाले को भी लगता है कि उसका कोई वजन है । पर, आप के मामले में, मैं पूरी सिंसयरिटी के साथ कह रहा हूँ कि आप दोषी नहीं, मोदी हैं, पूरे मोदी, मन वचन, कर्म से पूरे मोदी। मोदी याने आनंद में डूबा हुआ। स्वयं पर मुग्ध व्यक्ति। एक ऐसा व्यक्ति, जो यह समझता है कि वही सबसे ज्यादा योग्य है, अन्य सभी बुद्धि, कौशल में उससे दोयम हैं। साधारण लोग इसे अहंकार कहते हैं। पर, ये आत्ममुग्धता है। मोदी होने की सबसे बड़ी पहचान।

मोदी, एक ऐसा व्यक्ति, जिसकी चेतना में हर समय ऐसी अनुभूति विद्यमान रहती है कि जो वो कर रहा है, वही सर्वश्रेष्ठ है। वो अपने इस सर्वश्रेष्ठ पर मुग्ध रहता है, उसके आनंद में डूबा रहता है। यह आत्ममुग्धता बड़ी कठिनाई से और कठिन साधना के बाद प्राप्त होती है। इसके लिए अपने माया और मोह के बंधनों को सिकोड़कर इतना सीमित करना पड़ता है कि ह्रदय यदि कभी किसी के लिए व्यथित भी हो तो वो सिर्फ अपने और अपने परिवार के अच्छे, बुरे और सुख, दुःख के लिए, अन्यथा किसी के लिए नहीं। आपका विरोध करने वालों को यह बात कहाँ समझ आयेगी, जो गुजरात में हुये जिस कत्ले आम को न रोक पाने के लिए आपको दोषी ठहरा रहे हैं, कि आप मन कर्म वचन से निर्मोही हो चुके हैं और किसी की मृत्यु या जीवन , दोनों आपके ऊपर कोई प्रभाव नहीं डालते।

आजकल आप एकसाथ कई जगह दिखाई पड़ रहे हैं। एकदम मनमुग्ध, लगे रहिये।  तीसरी बार भी आपको ही आना है। आप लगे रहिये। गुजरात आपका जंगल है और आप गुजरात के मोर। मोर इसलिए कि मोर से बढ़कर मोदी कोई हो ही नहीं सकता। मोर जब जंगल में नाचता है तो खुद अपने नृत्य पर इतना मन्त्र मुग्ध हो जाता है कि नाचते नाचते अपनी दम ऊपर उठा लेता है और वो सब दिखने लगता है जो लोग .... चलिए छोडिये आप तो मन लगाकर नाचिये। तीसरी बार आने के लिए ये कीमत बहुत कम है।

अरुण कान्त शुक्ला
३दिसम्बर’२०१२