Sunday, March 31, 2013

तो चपरासी बन जाते..




जिस व्यवस्था में लोग पार्षद बनने के लिए चुनाव लाखों रूपये खर्च करते हों और पार्षद बनते ही उनके चेहरे और घर दोनों की रंगत में चमक आ जाती हो, उस व्यवस्था में यदि विधानसभा में बैठने वाले मंत्री और विधायक अपने वेतन-भत्ते बढाने के लिए अपने गरीब होने का रोना रोयें तो इसे घड़ियाली आंसुओं के अलावा और क्या कहा जाएगा?

ये घड़ियाली आंसू देखने मिले जब संसदीय कार्यमंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने राज्य सरकार के मंत्रियों और राज्य के विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ाने का विधेयक 20 मार्च को विधानसभा में पेश किया शुरुवात स्वयं संसदीय कार्यमंत्री ने यह कहते हुए की कि हमें जो वेतन मिलता है, वह तो मुलाकातियों को चाय पिलाने में ही निकल जाता है अधिकारियों और कर्मचारियों को छठा वेतनमान मिला है वे केवल आठ घंटे काम करते हैं वे हड़ताल भी करते हैं जबकि, हमें चौबीसों घंटे काम करना होता है और हम वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए हड़ताल भी नहीं कर सकते| हमें शालीनता से मांगना होता है महिला विधायक प्रतिमा चंद्राकर का कहना था कि विधायकों के घर चपरासी के घर से भी बद्तर स्थिति में हैं विधायक ताम्रध्वज साहू का कहना था कि लोग कहते हैं कि विधायक भ्रष्टाचार करेंगे, उनके वेतन भत्ते बढाने की क्या जरुरत? विधायक भ्रष्टाचार न करें इसलिए वेतन-भत्तों में वृद्धि जरुरी है विधायक अमितेश शुक्ल का कहना था कि वेतन-भत्ता इतना किया जाए कि विधायक मुलाक़ात करने आने वालों को चाय के साथ समोसा भी खिला सके क्योंकि पूरा वेतन तो चाय पिलाने में ही निकल जाता है

निश्चित रूप से त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार या वहां के किसी भी मंत्री या विधायक के समान त्याग और सादगी की आशा छत्तीसगढ़ के किसी भी मंत्री या विधायक से नहीं   की जाना चाहिए और प्रदेश की जनता करती भी नहीं होगी जनप्रतिनिधियों को न केवल सम्मानजनक वेतन भत्ते मिलना चाहिए बल्कि वह हर परिस्थिति और सहूलियत उन्हें मिलना चाहिए, जिससे वे प्रदेश के लोगों के प्रति उनके दायित्व और लोकतांत्रिक कर्तव्यों को पारदर्शी एवं सुचारू ढंग से पूरा कर सकें जिस राज्य में 42 लाख परिवार याने लगभग राज्य की आबादी का 80%हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे रह रहा हो, जहां की लगभग 48% आबादी कुपोषित हो और जिसे स्वयं स्वास्थ्य मंत्री स्वीकार करते हों और जिस राज्य के पांच वर्ष से कम आयु के 50% बच्चे कुपोषित हों, वहां के जनप्रतिनिधियों को अपना सम्मानजनक वेतन तय करते समय राज्य सरकार के एक डेढ़ लाख कर्मचारयों और अधिकारियों को मिलने वाले वेतन को अपनी चिंता में रखना चाहिए या गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले दो करोड़ लोगों को अपनी चिंता में रखना चाहिए, इसे तय करने के लिए जिस विवेक, बुद्धि और नीयत की जरुरत होती है, उसका प्रदर्शन हमारे जनप्रतिनिधियों ने 20 मार्च को विधानसभा में नहीं किया, यह तो तय है, वरना यह सुनने नहीं मिलता की विधायकों के घर चपरासी के घर से भी बद्तर हैं

बहरहाल, जब उन्होंने गरीब गुरबों से आँखें फेरकर राज्य सरकार के अधिकारियों, कर्मचारियों और चपरासियों से इश्क और रश्क कर ही लिया तो उसका भी सच देख ही लिया जाए राज्य के शासकीय कर्मचारियों को वेतन पुनर्निर्धारण दस साल में एक बार मिलता है जबकि आपने अपना वेतन पिछले दस सालों में आठ बार पुनर्निर्धारित किया है राज्य सरकार के किसी भी कर्मचारी को भरती होते ही 75 हजार वेतन नहीं मिलेगा, इसके लिए उसे पूरे जीवन खटना पड़ेगा, जबकि एक बार विधायक बनते ही जनप्रतिनिधी अधिकतम वेतन के हकदार हो जाते हैं एक सरकारी कर्मचारी 30 वर्ष की नौकरी के बाद पेंशन का हकदार होता है, जबकि जनप्रतिनिधी एक बार विधायक बनते ही पूरा जीवन पेंशन और अन्य सुविधाओं का आजीवन हकदार हो जाता है विधायक बनते ही जनप्रतिनिधी आजीवन यात्राभत्ता के पात्र हो जाते हैं विधायकों को एक साल में तीन लाख रुपये तक की यात्रा के रेलवे कूपन दिए जा रहे हैं जब आप इतनी यात्रा करते होंगे तो काम कब करते होंगे? वैसे बातें तो बहुत सी हैं, पर एक अंतिम बात जो थोड़ी कडुवी जरुर है, पर, सच है राज्य सरकार ही क्या किसी भी सरकारी कर्मचारी के लिए ये बहुत आराम से कहा जाता है कि वो अपने कार्यस्थल से गायब रहते हैं, पर औसतन एक विधायक कितने दिन विधानसभा की बैठक अटेंड करता है?

निश्चित रूप से सभी विधायक या मंत्री ऐसे नहीं हैं| इनमें से कुछ अपने कार्य के प्रति समर्पित और ईमानदार भी होंगे, पर इनका प्रतिशत उतना ही होगा, जितना राज्य सरकार में कामचोर कर्मचारियों का होगा याने, वहां अच्छों का प्रतिशत ज्यादा है और यहाँ ... तय बात है की राजनीति आज के दौर में कोई मिशन नहीं बल्कि प्रोफेशन याने व्यवसाय है एक राजनीतिज्ञ के लिए जनसेवा वैसा ही कार्य है, जैसा डॉक्टर के लिए मरीजों को देखना, जिसका वह पैसा लेता है जैसे डॉक्टर मरीज के दर्द का इलाज करता है, पर, उसके दर्द से संवेदना नहीं रखता है, ठीक वैसा ही जनसेवकों की जनसेवा में है यदि ऐसा नहीं होता तो अपना वेतन-भत्ता बढ़ाते समय इन जनप्रतिनिधियों को कुछ समय पूर्व भरी ठंड में आन्दोलन करने वाले शिक्षाकर्मियों, डी.एन.तिवारी कमेटी की सिफारिशों को लागू करवाने की मांग को लेकर आन्दोलन करने वाले राज्य सरकार की लिपिकों, आंगनवाडी कार्यकर्ताओं, मितानिनों, जिनकी जमीन छीनी गई है और जिन पर लाठी बरसाई गयी है, उन किसानों की, सुध जरुर आई होती

अरुण कान्त शुक्ला
26मार्च’2013                                          

काली राख और जहरीली हवा का हब बनता प्रदेश और इसकी राजधानी




 मध्य प्रदेश से अलग होने के पूर्व तक छत्तीसगढ़ में कोरबा तथा रायगढ़ ऐसे इलाके थे, जहां काली राख की बारिश हुआ करती थी लगभग एक दशक पहले रायगढ़ में एक युवती की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई पोस्टमार्टम होने पर युवती के फेफड़ों पर लगभग दो मिलीमीटर कार्बन की तह पाई गई| इन इलाकों में खखारने पर कफ के साथ काला बलगम निकलना तब भी आम बात थी और आज भी आम बात है जो बात आम नहीं बल्कि ख़ास है, वह है की छत्तीसगढ़ में औद्योगीकरण केवल किसानों से जमीन छीनकर, आदिवासियों को बेदखल करके, जंगलों की वैध  और अवैध कटाई करके या छत्तीसगढ़ की नदियों और जल स्त्रोतों को ओने-पोने दामों में उद्योगों के हवाले करके ही नहीं हो रहा है, बल्कि इसकी बहुत बड़ी कीमत अपने स्वास्थय को खोकर प्रदेश की जनता को चुकानी पड़ रही है

लगभग एक माह पूर्व अमरीका बेस स्वास्थ्य संगठन सेन्टर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने भारत में वायु प्रदूषण पर एक अध्यन रिपोर्ट जारी की है, जिसमें छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर को देश के पांच सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्रों में से एक बताया गया है ऐसा नहीं है कि यह रिपोर्ट अचानक सामने आई है सात वर्ष पूर्व भी केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने वर्ष 2005 में रायपुर को देश का सर्वाधिक प्रदूषित शहर करार दिया था अफ़सोस तो यह है कि छत्तीसगढ़ जब मध्य प्रदेश में था, तब भी उद्योगों के ऊपर कारखानों से निकलने वाले धुँए को साफ़ करने तथा धुँए के साथ निकलने वाले सूक्ष्म कणों को वायुमंडल में फैलने से रोकने के लिए जो उपकरण लगाने चाहिए, उन्हें लगाने का कोई दबाव नहीं था और आज भी, जब छत्तीसगढ़ स्वयं एक राज्य बन गया है, उद्योगों के ऊपर उन उपकरणों को लगाने का कोई दबाव नहीं है क्षेत्र के प्रख्यात पर्यावरणविद डॉक्टर. ए. आर दल्ला कहते हैं कि जो स्थिति छत्तीसगढ़ की है, वह दुनिया के किसी भी इलाके की नहीं है आप जब रायपुर के बाहर स्पंज आयरन की फैक्ट्रिओं से निकलने वाले काले धुँए को देखेंगे तो डर जाएँगे| यहाँ आसमान से कोयला बरस रहा है| निजी कंपनियाँ बिजली बचाने के लिए अपने ईएसपी बंद कर देती हैं| हमने पहले सुझाव दिया था कि इनके लिए मीटर लगाओ, पर ऐसा नहीं किया गया| ऐसा नहीं है कि सरकार कर नहीं सकती, मगर वो करती नहीं| गौरतलब है कि भिलाई-रायपुर मार्ग पर किये गए एक अन्य शोध में मनुष्यों के रक्त में खतरनाक हद तक सीसा घुला पाया गयाअकेले रायपुर शहर में वर्ष 2005 में पीएम-10 का औसत 203 था, जो की 2010 में बदलकर 289 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर हो गया छत्तीसगढ़ में अगर आम आदमी के स्वास्थ्य की रक्षा करनी है तो इसके बढ़ते स्तर पर लगाम लगाना जरूरी है

छत्तीसगढ़ में प्रदूषण की विकालता को जानने के लिए किसी तकनीक, विज्ञान, आकड़ों या रिपोर्ट कीजरुरत नहीं है बस, आपको करना यह है कि आप किसी भी दिशा से छत्तीसगढ़ में घुसें तो आसमान की और देखें तो आपको धुँए की एक मोटी परत से हवा का रंग बदला हुआ दिखाई देगाएक सफ़ेद कपड़ा रात में छत पर फैला दीजिये, सुबह आपको उसके ऊपर एक काली परत जमी दिखाई देगी दिन हो या रात, आप छत्तीसगढ़ के किसी भी शहर में सिर्फ दो घंटे बाहर घूमकर आईये और चेहरे को धोकर टावेल या रुमाल से पोंछिये, टावेल या रुमाल काला हो जाएगा ये सारी कालिख प्रदेशवासी सांस के जरिये रोज पीने मजबूर हैं   

देश का औद्योगिक तीर्थ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के सभी औद्योगिक शहरों का एक जैसा हाल है स्वयं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कुछ वर्ष पूर्व अपनी एक रिपोर्ट में स्वीकार किया था कि राज्य में स्थापित औद्योगिक इकाईयों ने निर्माण के समय जरूरी कॉमन एफ़्फ़्लुएन्त ट्रीटमेंट प्लांट (CEPT) का निर्माण नहीं किया है जिसका बुरा असर वायुमंडल और जल स्त्रोतों दोनों पर पड़ रहा हैराज्य की 60% से अधिक छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाईयां खतरनाक श्रेणी में हैं और इसका दुष्प्रभाव यह हो रहा है कि राज्य में न केवल लगातार साँस की बीमारियों से पीड़ित लोगों कि संख्या बढ़ रही है बल्कि मासूम बच्चों को भी साँस की बीमारियों और आँख के कैंसर जैसे रोगों का सामना करना पड़ रहा है हाल ही में कैंसर रिसर्च सेंटर के विभाग प्रमुख डॉक्टर. विवेक चौधरी ने बताया था कि उनके विभाग में आँखों के कैंसर के 35 से ज्यादा मामले पहुँचे हैं| उनके अनुसार आई कैंसर ज्यादा इन्फैक्शन और प्रदूषण के कारण हो रहा है तथा माईन्स के क्षेत्रों में ये मामले बढ़ रहे हैं| ऊपर उल्लेखित राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदेश में 26.1% के लगभग बच्चे साँस की बीमारियों से पीड़ित हैं

हाल ही में ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट आई है जिसमें बताया गया है कि केवल कोरबा-तालचेर-सिंगरोली थर्मल पॉवर काम्प्लेक्स में प्रदूषण से एक साल में 11 हजार लोग मरे हैं छत्तीसगढ़ किस दुर्दशा की ओर जा रहा है, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में 8 बिजली घरों में एक साल में 44.5 लाख टन कोयले की खपत होती है नयी नीति के तहत छत्तीसगढ़ सरकार ने 42 कम्पनियों से 30 हजार मेगावॉट की क्षमता के बिजली घर बनाने के लिए समझौता किया है छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति में जमीन पानी से लेकर हर तरह की छूट पॉवर प्लांटों के लिए देने का प्रावधान है, पर, कहीं भी प्रदेश के नागरिकों और मजदूरों की सुरक्षा और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कोई चिंता न तो उस औद्योगिक नीति में दिखाई पड़ती है और न ही राज्य सरकार में छत्तीसगढ़ यदि औद्योगिक हब बनता है तो बावजूद इसके कि  प्रदेश के भ्रष्ट राजनेता, अधिकारी और उद्योगपति ही मालामाल होंगे, जनता उसका समर्थन कर सकती है यदि राज्य सरकार जिनकी जमीन छीनी जा रही है उन्हें उचित मुआवजा दे, जो विस्थापित हो रहे हैं, उनका पुनर्वास करे और वायु-जल प्रदूषण से प्रदेश के लोगों को सुरक्षा प्रदान करे र, ऐसा राज्य सरकार की चिंता में नहीं दिखता है, वरना प्रदेश के लिए बने मास्टर प्लानों में राज्य सरकार ने प्रदेश में ग्रीन बेल्ट बनाने के उचित प्रस्ताव किए होते| पूरे प्रदेश की बात छोड़ भी दी जाए तो राजधानी रायपुर ही ग्रीन बेल्ट से महरूम है मास्टर प्लान 2011 के प्रस्तावित ग्रीन बेल्ट अभी तक तैयार नहीं हो पाए हैं और 2021 में उनकी संख्या घटाकर दो कर दी गई है सवाल नीति का भी है और नियत का भी| जिस तरह सरकारी नीतियाँ हैं, उनसे तो यह प्रदूषण नहीं रुकने वाला है| छत्तीसगढ़ के शहरों का बढ़ रहा तापमान सबसे बड़ा उदाहरण है| हमें समझना होगा कि प्रदेश का विकास किसकी कीमत पर हो रहा है| प्रदेश औद्योगिक हब बनने की तरफ कम और काली राख और जहरीले धुंए का हब बनने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है
अरुण कान्त शुक्ला
24मार्च’2013                    

Wednesday, March 13, 2013

इटालियन राजदूत को तुरंत गिरफ्तार करो..




इटली के विदेश मंत्री की यह घोषणा की दो भारतीय मछुआरों की ह्त्या का आरोप झेल रहे दोनों इटेलियन नौसैनिकों को भारत वापस नहीं भेजा जाएगा, न केवल भारत की न्यायायिक व्यवस्था का खुला मजाक बनाना है बल्कि इसका भी सबूत है की हमारे प्रधानमंत्री की पीठ लाख बार बुश थपथपा दे या लाख बार ओबामा उनकी पीठ पर हाथ फेर दें, पर जहां तक साख का प्रश्न है, दुनिया का कोई भी छोटे से छोटा देश हमें कभी भी आँखें दिखा सकता है और हम शायद कुछ भी नहीं कर सकते हैं कहावत भी ऐसी ही है की इतिहास कायरों के समक्ष स्वयं को बार बार दोहराता हैइटली के राजदूत ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में स्वयं खड़े होकर इटली की सरकार की तरफ से गारंटी दी थी की चुनावों में वोट डालने के बाद दोनों नौसैनिकों को भारत में चल रहे मुकदमे का सामना करने के लिए वापस भेज दिया जाएगाअब, जबकि खुद इटली के विदेश मंत्री ने यह घोषणा की है की वे दोनों नौसैनिक वापस नहीं होंगे, तब, भारत सरकार को इटली के राजदूत को तुरंत गिरफ्तार कर लेना चाहिए| राजदूतों को लेकर कितने भी प्रोटोकाल क्यों न हों या अंतर्राष्ट्रीय कायदे या परंपराएं क्यों न हो, पर, यदि बात किसी देश की सार्वभौम सत्ता को चुनौती देने पर आती है तो फिर उस देश की सार्वभौम सत्ता ही सर्वोपरि होनी चाहिए

पर, भारत सरकार, इटली के राजदूत को गिरफ्तार करना तो दूर, उसे इटली वापस भेजकर, इटली के साथ सभी तरह के राजनयिक संबंध भी नहीं रोकेगी, जैसा की वह तब भी नहीं कर पायी थी, जब भोपाल गैसकांड के लिए जिम्मेदार मल्टीनेशनल कंपनी युनियन कार्बाईड ने उसे धता बताया था या उसके अमेरिकी चेयरमेन वारेन एंडरसन ने भारत के न्यायालयों की मजाक बनाते हुए भारत आने से इनकार कर दिया था यही हमने क्वात्रोची के मामले में देखा, जो भागकर एक बार इटली गया तो वापस नहीं आया| हमारे देश की सरकारें पश्चिमी देशों और उनकी मल्टी नेशनल कंपनियों के हितों के आगे गरीब भारतवासियों को नहीं पूछतीं और फिर ये तो बिचारे गरीब मछुआरे थे , जो रोज ही अपनी जिन्दगी को दांव पर लगाते थे

अमेरिकन साम्राज्यवाद और उसके पिठ्ठुओं के आगे हमारी सरकारें कितनी बेबस है, इटली का व्यवहार उसका नमूना है एक तरफ इटली है, जिसने सभी तरह की राजनयिक रिश्ते दांव पर लगाकर नौसैनिकों को भेजने से मना कर दिया है और इतना ही नहीं भारत को गरिया भी रहा है की भारत ने इस मामले में कूटनीतिक समाधान निकालने की इटली की कोशिशों का कोई जबाब नहीं दिया और ये भी की दोनों देशों के बीच संयुक्त राष्ट्र के समुद्री क़ानून को लेकर विवाद भी है दूसरी तरफ हमारी सरकार है, जो इटली के राजदूत से बोरिया बंडल समेटकर जाने को भी कहने की हिम्मत नहीं रखती है

भारत ने इस मामले में शुरू से कमजोरी दिखाई थी दोनों नौसैनिकों पर केरल की अदालत में मुकदमा चलने को लेकर इटली बहुत परेशान था, क्योंकि उसे लगता था की केरल में अदालत के उपर जनमत का प्रभाव पड़ सकता है इसलिए, उसने सरकार के ऊपर दबाव डलवाकर पहले तो सर्वोच्च न्यायालय से पूरे मामले को देहली शिफ्ट करवाया और मामले की सुनवाई के लिए नौसेना कानूनों के प्रावधानों के तहत  विशेष अदालत गठित करवाई और फिर भारत से उस संधि को भी फिर से लागू करवाया, जिसके अनुसार दोनों देशों में सजा पाए व्यक्तियों की सजा उनके देशों में पूरी करने का प्रावधान है याने, सजा भारत की अदालत देगी, लेकिन अपराधी सजा काटेगा इटली में

प्रधान मंत्री का कहना है कि इटली उच्चतम न्यायालय में दिए गए हलफनामे का सम्मान करते हुए दोनों मरीनों को वापस भेजे यदि वापस नहीं भेजा जाता है तो इटली को इसके परिणाम भुगतने होंगे पर, वे परिणाम क्या हैं, वो नहीं बतातेजबाब में उनका कहना है कि उन्होंने विदेश मंत्री से दोनों सैनिकों को वापस लाने के लिए सभी तरह के कूटनीतिक कदम उठाने के लिए कहा हैपर, वैसा नहीं होने पर वे इटली से राजनयिक संबंध तोड़ने की बात कहने से बचते हैं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दोनों सैनिकों के भगाने के लिए दोनों देशों की सरकारों में बड़े पदों पर काबिज लोगों के मध्य में कोई साजिश रची भी गयी हो जैसा कि प्रधानमंत्री से मुलाक़ात करने वाले सीपीएम के सांसद के एन बालागोपाल ने इशारा भी किया है कि ये दोनों सरकारों में उच्चतम पदों पर बैठे लोगों के बीच रची गयी साजिश है देशवासियों के बीच पूरी तरह से अपनी साख गँवा चुकी भारत सरकार के माथे पर ये एक और बड़ा धब्बा है, विशेषकर जब कि कांग्रेस की रहनुमाई में सरकार चल रही है और कांग्रेस को इटली को लेकर हमेशा उलाहने सुनने पड़ते हैं       
भारत में इटली के इस कदम पर गंभीर रोष है 

भारत सरकार को कड़ा कदम उठाना ही पड़ेगा यदि यही काम भारत ने किया होता तो इटली में उसका राजदूत गिरफ्तार हो गया होता या फिर उसे भारत वापस भेज दिया गया होता, इसमें किसी भी भारतवासी को संशय नहीं हैतो फिर, प्रधानमंत्री जी, चेतावनी तो ठीक है, उच्चतम न्यायालय के सामने दोनों नौसैनिकों की वापसी की गारंटी करने वाले इटली के राजदूत को गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं है तो कम से कम चलता तो कीजिये ..आखिर यह सवा करोड़ भारतीयों के सम्मान का सवाल है
अरुण कान्त शुक्ला
14मार्च,2013