Thursday, May 30, 2019

अगले 5 साल मोदी-2, पूत के पाँव पालने में दिख रहे...


अगले 5 साल मोदी-2, पूत के पाँव पालने में दिख रहे...
जी हाँ, विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत के मतदाताओं ने 2019 के आम चुनावों में फैसला दिया है कि नरेंद्र मोदी ही अगले 5 सालों के लिए भारत के प्रधानमंत्री होंगे| पूर्ण बहुमत की सरकार को दोहराने का कारनामा इसके पूर्व सिर्फ देश के दो ही प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के नाम ही था| 50 वर्षों के बाद मतदाताओं ने यह मौका नरेंद्र मोदी को दिया है| यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर बढ़िया केंपेनर नरेंद्र मोदी की बम्पर जीत है| यदि भारतीय जनता पार्टी या उसकी गठबंधन की साथी पार्टी यह सोचतीं हैं कि यह जीत उनकी है तो यह खुशफहमी के अलावा कुछ और नहीं है| नरेंद्र मोदी इस चुनाव के बाद न केवल देश के एक बड़े और शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे हैं बल्कि उनका कद, जिसके सामने पहले ही भाजपा और एनडीए के बड़े से बड़े नेता नतमस्तक रहते थे, अब इतना बड़ा हो गया है कि किसी भी भाजपाई या एनडीए के नेता की जुबान उनके सामने खुलना असंभव ही है| यह सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी की जीत है, इसका प्रमाण प्रचार-अभियान के दौरान दिये गए उनके भाषण हैं जिनमें नरेंद्र मोदी खुद एक बार फिर- मोदी सरकार का नारा उपस्थित जनता से लगवाते थे और कहते थे भी थे कि आपका दिया हुआ एक एक वोट मोदी के खाते में जाएगा’|
2019 के आम चुनाव के परिणामों में यदि मोदी समर्थकों के लिए खुश होने का मसाला मौजूद है तो बाकी लोगों के लिए चिंतित और भयभीत होने के कारण भी मौजूद हैं| एक बात तय है कि 2013 में भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के लिये चुने जाने के बाद से मोदी जी जिस चुनावी प्रचार के मोड में गए थे, अपने पूरे 5 साल के कार्यकाल के दौरान वे उससे कभी बाहर नहीं आये| कांग्रेस को कोसना, 60 सालों में देश में कोई विकास नहीं हुआ, इसका रोना रोना, कभी समाप्त नहीं हुआ| यहाँ तक की अपने ही द्वारा लाई गई उज्जवला, आयुष्मान, प्रधानमंत्री आवास योजना, जैसी फ्लेगशिप योजनाओं का जिक्र उनके भाषों में यदा-कदा ही रहता था और वह भी बस एक रिफरेंस के तौर पर| बेरोजगारी, नोटबंदी से फ़ैली अफरा-तफरी, जीएसटी से मची उथल पुथल, सीबीआई, रिजर्व बैंक, सर्वोच्च न्यायालय की स्वायत्ता,  जैसे विषयों पर बोलना उन्हें नहीं सुहाता था| मॉब लिंचिंग, दलितों पर अत्याचार, लव जिहाद को लेकर की गई लिंचिंग, जब 5सालों में उनके भाषण का हिस्सा नहीं बनी तो चुनाव प्रचार के दौरान तो उस पर बोलने का सवाल ही नहीं था| राष्ट्रीय सुरक्षा, उरी के बाद की सर्जिकल स्ट्राईक, पुलवामा का आतंकी हमला और बालाकोट की सर्जिकल स्ट्राईक उनके प्रचार अभियान के प्रिय विषय थे| |
बहुत से लोगों को, जिनमें बुद्धिजीवी भी शामिल हैं, ऐसा लगा रहा है कि मोदी जी ने जिस तरह हिंदुत्व का प्रयोग प्रतीकात्मक रूप से किया, उसने चुनाव में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है| पर, क्या किसी भी समाज की मानसिकता में केवल पांच वर्षों के दौरान “हिंदुत्व” भरा जा सकता है जबकि उसी समाज को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने के प्रयत्न भी किये जाते रहे हों|  मुझे लगता है कि ऐसा तब तक नहीं हो सकता है जब तक उस समाज के अंदर धर्मान्धता, रूढ़ीवादिता और धर्म के आधार पर नफ़रत करने के बीज पहले से मौजूद न रहे हों| उस रूप में हम कह सकते हैं कि भारतीय समाज कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा| जितना धर्मनिरपेक्ष हमने उसे देखा और जाना वह अथक प्रयासों से आजादी की लड़ाई के दौरान बना था और वह भी कुल का बहुत थोड़ा हिस्सा था जो परिवर्तित हुआ था| यदि हम भारतीय समाज के उदारवादी तबके की उस धारणा से बाहर आकर देखें तो पायेंगे कि समाज के अंदर रोजमर्रा के जीवन की भी बातचीत और व्यवहार में धार्मिक विश्वास, जातीयता, के बिना पर भेदभाव करने की प्रवृति गहरे तक जड़ें जमाई हुई थी| यह संवैधानिक रूप से राज्य की उदारवादी अवधारणा का परिणाम था कि विधिमान्य रूप से कुछ क्षेत्रों में यथा शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, और अन्य सामाजिक जगहों पर समाज के बहुसंख्यक हिस्से को उदारवादी चेहरा बनाए रखना पड़ता है और था| पर, वह कभी भी शाश्वत स्थिति नहीं हो सकती और मोदी राज्य की शह पाते ही बहुसंख्यक हिस्से से वह उदारवादी नकाब हट गया|
23 मई को यह सुनिश्चित होने के बाद कि अब मोदी अपने दम पर 2014 से ज्यादा सीट पाकर और एनडीए के साथ मिलकर बड़े बहुमत की सरकार बनाने जा रहे हैं, उन्होंने ट्वीट करके एक सूत्र दिया कि अब “सबका साथ+सबका विकास+सबका विश्वास=विजयी भारत”| मोदी जी को यह सूत्र वाक्य देश के सामने परोसे ज्यादा समय नहीं गुजरा था कि 24 मई से एक वीडियो देशवासियों के सामने तैरने लगा जिसमें आधे दर्जन से ज्यादा लोग सिवनी में एक महिला समेत तीन लोगों को गौ-मांस ले जाने के शक में वीभत्स तरीके से पीट रहे हैं और उनके गले में गेरुआ दुपट्टा डालकर उनसे जय श्री राम कहलवा रहे हैं| बेगुसराय में एक मुस्लिम से नाम पूछा जाता है और फिर तुम्हें पाकिस्तान में होना चाहिये कहकर गोली मार दी जाती है| फिर, डाक्टर पायल तड़वी की आत्महत्या सामने आती है जिसमें उसकी सीनियर मेडिकल की छात्राएं उसे इतना प्रताड़ित करती हैं कि वह आत्म ह्त्या करने के लिये मजबूर हो जाती है| यह भी केवल उसके आदिवासी कोटे से आने का मामला नहीं है| हमें ध्यान देना होगा कि वह धर्म के आधार पर मुस्लिम थी| उसके पति, माँ और पिता की शिकायत के बाद भी कालेज प्रबंधन कोई कार्रवाई नहीं करता है| एक विदेशी साधू को, जो ध्यान लगाये बैठा था, बार बार जय श्री राम बोलने के लिये कहकर उकसाया जाता है और फिर उसके गले में चाक़ू मार दिया जाता है| मुम्बई में एक मुस्लिम युवक की टोपी उतरवाकर उससे मारपीट की जाती है| अल्पकाल में घटी ये सारी घटनाएं मोदी जी के सूत्र वाक्य को तिलांजली देने के लिये काफी हैं| मोदी जी चाहें और उनके समर्थक चाहें तो आसानी के साथ कह सकते हैं कि 130 करोड़ लोगों के देश में केवल पांच-छै मामले, पर हम तो यही कहेंगे कि पूत के पाँव पालने में दिख रहे हैं|
अंत में, यदि 2014 के आम चुनावों में किये गए वायदों के लिये चुनाव संपन्न हो जाने के कई माह बाद यह कहा गया था कि ये जुमले थे तो 2019 के आम चुनाव के लिये इंतज़ार की जरूरत नहीं है| ये चुनाव भी मोदी-अमित की जोड़ी ने जुमलों की घोड़ी पर चढ़कर ही जीते हैं| 2014 यदि अन्ना ने कांग्रेस के भ्रष्टाचार की घोड़ी मोदी जी को मुहैया कराई थी तो इस बार मोदी जी ने पुलवामा के आतंकी हमले में शहीद हुए सीआरपीएफ के जवानों की शहादात और उसके बाद की गई एयर स्ट्राईक को सवारी बनाया| आज दुनिया के कई देश ऐसे हैं जहां राजनेता जनता की बुनियादी समस्याओं का हल ढूंढने के बजाय घूम-घूम कर नफ़रत भरे जुमले उछालते रहते हैं| ऐसा ही एक और जुमला हमने 23 मई की शाम को और फिर 25 की शाम को सुना जब मोदी जी ने क्रमश: भाजपा कार्यालय में कार्यकर्ताओं को फिर संसद भवन के केन्द्रीय हाल में एनडीए के सांसदों को संबोधित किया| उन्होंने कहा कि मतदाताओं ने इस चुनाव में जाति की राजनीति को नकार दिया है| अब देश में दो ही जाति हैं एक गरीबी याने गरीब लोगों की और दूसरी जो गरीबी के खत्म करना चाहते हैं, उनकी| पर, दुर्भाग्य से उनके द्वारा दिए गए इस सूत्र के दूसरे हिस्से में याने गरीबी हटाने में मदद करने वालों में गरीबी के लिये जिम्मेदार अदानियों और अम्बानियों और सम्पत्तिवानों की भरमार है| हमने वालीवुड के अनेक अभिनेताओं को जुमलों की बदौलत सफल होते देखा है| अब हम यह राजनीति में देख रहे हैं| 
दुःख की बात यह है कि बेरोजगार मेहनतकश लोग लगभग दिशाहीन होकर नस्लवाद और राष्ट्रवाद को ही हल मानकर ऐसे जुमलेबाज नेताओं के झांसे में आकर गुमराह हो रहे हैं| उन्हें यह नहीं पता कि उनके हक कौन मार रहा है| वे कौन लोग हैं जिन्होंने उनकी जिंदगियों को तबाह कर डाला है| जुमले बाज नेता इस मायने में उस्ताद हैं कि वे आम देशवासी को उसकी बदहाली के वास्तविक कारणों का पता नहीं चलने देते| वे ऐसे अनेक ढेर सारे मुद्दे खड़े करने में प्रवीण होते हैं, जिनमें उलझकर लोग सोच भी नहीं सकें कि आखिर उनकी बदहाली के कारण क्या हैं|
अरुण कान्त शुक्ला
30/5/2019



Tuesday, May 21, 2019

भारत में लोकतंत्र का भविष्य


भारत में लोकतंत्र का भविष्य
देश के उदारवादी तबके के बुद्धिजीवि और प्रगतिशील लोगों के साथ साथ आमजनों का भी बहुत बड़ा तबका है जो भारत में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर चिंतित है| लोकतंत्र, जिसे स्वतंत्रता के 67 वर्षों में मात्र कुछ माह को छोड़कर हमारे देश के उदारशील प्रगतिवादी तबके ने, राजनीतिज्ञों ने, आमजनों ने बहुत ही शिद्दत के साथ लगातार पोषित किया था| यहाँ मैं 67 वर्ष इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के दिल्ली में काबिज होने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि सरकार का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक ऐसे कट्टर अनुयायी के हाथों में चला गया है, जो भारत के संसदीय लोकतंत्र और उसकी लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्ता को संघ के विचारों के प्रसार में सबसे बड़ी बाधा मानता है और शनैः शनैः आज नहीं तो कल उन पर प्रहार अवश्य प्रारंभ होगा| पिछले ५ वर्षों के दौरान यह आशंका सच ही निकली है| वह चाहे सर्वोच्च न्यायालय हो, सीबीआई हो, रिजर्व बैंक हो या चुनाव आयोग हो, प्रत्येक संस्था संविधान के अंदर नियमों का प्रावधान करते हुए इसलिए गठित की गई थी कि वह देश में लोकतंत्र की रक्षा के लिये सरकार से स्वतन्त्र होंकर स्वायत्त तथा पारदर्शी ढंग से कार्य करेगी, आज सरकार के हाथ में कठपुतली है और उसके निर्देशों पर समस्त संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुए सिर्फ सत्ता प्रमुख और उसकी पार्टी को बचाने या उसके निर्देशों पर उन सभी के खिलाफ सक्रिय है, जो सत्तारूढ़ पार्टी की हाँ में हाँ मिलाने के लिये तैयार नहीं हैं|
आज जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ, 17वीं लोकसभा के लिये चल रहे आम चुनावों के आखिरी चरण के चुनाव का प्रचार अभियान पश्चिम बंगाल को छोड़कर शेष देश में थमने को है| पश्चिम बंगाल को छोड़कर इसलिए कि वहाँ मंगलवार 14 मई को भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान हुए अभूतपूर्व उपद्रव, आगजनी और हिंसा के बाद, जिसके दौरान पुनर्जागरण काल के समाज सुधारक, विधवा विवाह, स्त्रियों के लिये शिक्षा के अधिकार, विधवा विवाह के लिये कानून बनवाने(१८५६) के लिये आंदोलन चलाने वाले और पुरे देश में आदर के साथ याद किये जाने वाले ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की एक कालेज में स्थापित मूर्ति को तोड़ने की घटना के बाद चुनाव आयोग ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए प्रचार पर पुरे दो दिन के बाद गुरूवार याने 16 तारीख की रात्री 10 बजे से रोक लगा दी थी| चुनाव आयोग के इस फैसले की सराहना होती यदि उसने ऐसा मंगलवार की रात्री अथवा बुधवार के प्रात: से भी किया होता| पर, चुनाव आयोग ने प्रचार पर बेन लगाने का फैसला लिया गुरूवार याने दो दिन के बाद रात्री 10 बजे से| राजनीतिक पार्टियों की बात तो छोड़ भी दें तो भी साधारण जन तक अचंभित थे कि यह कैसा फैसला है? स्पष्टत: गुरूवार को प्रधानमंत्री को पश्चिम बंगाल में दो रैलियां करनी थीं और चुनाव आयोग ने इसके लिये प्रधानमंत्री को पूरा वक्त दिया| वे सभी राजनीतिक दल जिन्होंने शुक्रवार को शाम 5 बजे चुनाव प्रचार थमने के पहले अपनी सभाएं रखी थीं, अपने प्रचार से वंचित हो गए| भारत में अभी तक हो चुके 16 आमचुनावों में चुनाव आयोग का सत्तारूढ़ दल के लिये इतना ममत्व भरा रवैय्या कभी नहीं देखा गया, जो आज पिछले 4 सालों के दौरान देखने मिल रहा है|
संसदीय लोकतंत्र में न्याय पालिका को विधायिका और कार्यपालिका के बाद अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है, पर, मेरे अनुसार, यद्यपि चुनाव आयोग उन तीनों स्तंभों में शामिल नहीं रहता, उसके बावजूद, क्योंकि वह चुनाव कराता है और उसके द्वारा घोषित परिणाम ही सरकार बनाते हैं, उसका महत्व लोकतन्त्र में किसी भी स्तम्भ से ज्यादा है| यदि वही पक्षपाती और फासीवादी प्रवृतियों का पिछलग्गू हो जाए तो बाद का पूरा लोकतन्त्र तो केवल नाटक ही है| ऐसा नहीं है कि केवल चुनाव आयोग की स्वायत्ता ही देश के लोकतन्त्र प्रेमियों को चिंता में डाल रही है|
चिंतित होने की जरूरत भारत की बहुलतावादी पहचान या संस्कृति पर हो रहे आक्रमण को लेकर भी है| जैसा मैंने पूर्व में इंगित किया कि पिछले 5 वर्षों में मोदी के नेतृत्व में संघ की सोच याने हिंदुत्व की अवधारणा को ही देश के लोगों में कूट कूट कर भरने के सबसे अधिक प्रयास हुए हैं| चाहे वे प्रयास सरकार के मंत्रियों के द्वारा किये गए हों या सत्तारूढ़ पार्टी के सांसदों, विधायकों और नेताओं के द्वारा अथवा लव जिहाद या गाय के नाम पर की गई मॉब लिंचिंग के दवारा, पर, पिछले 5वर्ष का इतिहास इसी से भरा पड़ा है| अटल बिहारी के पूर्ण रूपेण सत्ता में आने के बाद स्टेम ग्राहम की बच्चों सहित की गई ह्त्या पिछले 5 वर्षों के दौरान भीड़ के द्वारा की गई हत्याओं के सामने कुछ भी नहीं है|
यह पहला आम चुनाव है जिसमें प्रतिबंध के बावजूद भी धार्मिक प्रतीकों का खुल कर इस्तेमाल किया गया है| मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे की इस राजनीति का सबसे दुखद पहलू यह है कि देश की सबसे पुरानी और स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई की अगुआ और उसमें से तप कर निकली कांग्रेस पार्टी भी भाजपा के इस ‘हिंदुत्व’ के आक्रमण का सामना करने के लिये ‘नरम हिंदुत्व’ की तरफ झुकी हुई दिख रही है| यही कारण है कि देश के बड़े उदारवादी-प्रगतिशील तबके को कांग्रेस की विचारधारा में आ रहे इस परिवर्तन से चिंता हो रही है| यदि मध्यमार्गी कांग्रेस का सामाजिक और धार्मिक आधार पर झुकाव भविष्य में भी हिंदुत्व की तरफ इसी तरह नरमतर रहेगा तो देश की बहुलतावादी संस्कृति को खतरा न केवल गहरा होगा बल्कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदुत्व की विचारधारा को और भी गहरे तक पाँव पसारने का मौक़ा मिलेगा जो कहने की जरुरत नहीं कि देश के लोकतंत्र के लिये घातक ही होगा| इसका सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि देश का एक भी चुनाव ऐसा नहीं गया है जिसे किसी पार्टी ने जाति और सम्प्रदाय के आधार पर न लड़ा हो| देश की जनता का बड़ा मतदाता वर्ग भी इसे स्वीकार कर चुका है और इस बारे में चिंतित नहीं दिखता है, सिवाय, धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक हिस्से को छोड़कर जो लोकतंत्र में घर कर गये इस क्षरण से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं| ऐसे में ‘हिंदुत्व’ का सामना ‘नरम हिंदुत्व से करने की चेष्टा राष्ट्र की बहुलता वादी संस्कृति के लिये घातक है| 
राष्ट्रवाद के नाम पर संसदीय लोकतंत्र में न केवल हमारे देश में बल्कि विश्व के अन्य अनेक देशों में राजनीतिज्ञों ने चुनाव जीते हैं| हमारे देश में ही विशेषकर पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के बाद, जिसमें बंगला देश का निर्माण हुआ और इंदिरा गांधी की ह्त्या के बाद उपजे राष्ट्रवाद के चुनावों में मतदाताओं का राष्ट्रवाद के लिये रुझान हमने देखा है| पर, वह एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में सामने आया था| अमेरिका में ट्रम्प ने राष्ट्रवाद को उभारने के लिये “America for Americans only” का नारा दिया था| भारत में आज ‘हिदुस्तान हिंदुओं के लिये’ नारा दिया जा रहा है| यह एक कदम आगे “अति-राष्ट्रवाद” की श्रेणी में आता है| यद्यपि, खुले तौर पर 2014 के आम चुनावों में यह कोई विशेष मुद्दा नहीं था| पर, 2014 में सत्ता में आने के बाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस विचार को शनैः शनैः देशवासियों के रोजमर्रा के सार्वजनिक जीवन में घुसेड़ने में एक हद तक सफल हुई है, इसे नकारा नहीं जा सकता| यह ऐसा राष्ट्रवाद है जो हिंदुत्व की अवधारणा से जुड़ा हुआ है और राष्ट्रीय झंडे से होते हुए गाय, लव जिहाद, धर्मपरिवर्तन, पाकिस्तान से नफ़रत, आतंकवाद, वंशवाद तक सब कुछ अपने में समेटे हुए है| यह राष्ट्रवाद गंभीर और विचारवान नहीं है| यह उत्तेजना और उच्छृंखलता से भरा हुआ है| यह जय हिंद, भारतमाता की जय पर समाप्त नहीं होता, इसकी सीमा जय श्री राम के उद्घोष से शुरू होकर सरकार की नीतियों और संघ-भाजपा या प्रधानमंत्री की आलोचना करने वालों को पाकिस्तान भेजने तक है, भले ही वह आलोचना आर्थिक नीतियों की हो अथवा कानून का शासन लागू करने में सरकार की विफलता की हो| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब का इस अति-राष्ट्रवाद को 17वीं लोकसभा के लिये हो रहे चुनावों में विशेष हथियार के रूप में इस्तेमाल करना महज एक संयोग नहीं है| इस अति-राष्ट्रवाद को 17वीं लोकसभा के लिये होने वाले आम चुनावो में प्रमुख हथियार बनाया जाएगा, इसकी तैय्यारी बाकायदा देशवासियों की आँखों के सामने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और चौथे तथाकथित स्तंभ मीडिया की सहायता के साथ पिछले 5 सालों के दौरान की गई ताकि देशवासियों को यह सब स्वाभाविक लगे और वे इसे स्वीकार करें| मैं यहाँ उस अंडरग्राउंड तैय्यारी की बात तो कर ही नहीं रहा हूँ जो संघ अपने जन्म से लेकर अभी तक करता रहा है| जो, इस तैय्यारी को समझ रहे थे और इसके खिलाफ खुछ भी कहने का साहस कर रहे थे, उनके साथ चारों स्तंभों ने साम-दाम-दंड-भेद सभी तरीके अपनाए| कलाबुर्गी, पंसारे और लंकेश की हत्याएं उसी की कड़ी हैं| पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले ने और उसके बाद बालाकोट में की गई एयर-स्ट्राईक ने इस अति-राष्ट्रवाद को और ऊँचाई दी| सेना, जिसका नाम कभी भी देश की राजनीति में नहीं आया, पहली बार उसका इस्तेमाल वोट हासिल करने के हथियार के रूप में होते हमने देखा, बावजूद इसके कि ऐसा करना चुनाव आयोग ने प्रतिबंधित किया था| सत्तारूढ़ दल ने और स्वयं प्रधानमंत्री ने पिछले पूरे कार्यकाल में आतंकवाद और सर्जिकल स्ट्राईक को लगातार इस तरह प्रचारित और व्याख्यायित किया मानो कि देशवासियों की एकमात्र इच्छा और आवश्यकता है कि देश को एक मजबूत नेता की आवश्यकता है और वह नेता ‘नरेंद्र मोदी’ ही हैं| चाहे, उन्हें वह मजबूती देने के लिये देश की सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं की आहुती ही क्यों न देना पड़े? चाहे इसके लिये देशवासियों के सारे लोकतांत्रिक अधिकार त्यागना ही क्यों न पड़ें? यह एक बड़ी चिंता का सबब होना चाहिये, क्योंकि यह वह रास्ता है जो सीधा अधिनायकवाद की ओर ले जाता है| चाहे उस अधिनायकवाद में चुनाव होते रहें, देशवासी सरकार चुनते रहें लेकिन जनता की सारी इच्छाएं, आवश्यकताएं उस अति-राष्ट्रवादी अधिनायकवाद के सामने कोई अस्तित्व नहीं रखेंगी| यही कारण है कि इस लंबे चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री, उनके मंत्रियों और उनकी पार्टी के नेताओं ने चुनाव प्रचार को कभी भी अति-राष्ट्रवाद से इतर देशवासियों की आवश्यकताओं के किसी भी अन्य मुद्दे पर केंद्रित नहीं होने दिया| 
आज से एक दिन बाद चुनावों का अंतिम चरण भी समाप्त हो जाएगा| 23 मई को परिणाम बताएँगे कि देशवासियों ने कौन सा रास्ता चुना है? जनता के द्वारा, जनता के लिये, जनता की सरकार के लोकतंत्र का अथवा उस लोकतंत्र का जो ज़िंदा तो रहेगा लेकिन अधिनायकवाद के नीचे घुटी घुटी साँसे लेते हुए| जिसमें वोट देने का अधिकार तो होगा, पर केवल, प्रत्येक 5 साल में एक नेता का राजतिलक करने के लिये| उसे अपनी आवश्यकताओं को प्रगट करने और उनकी पूर्ति के लिये कोशिशें करने पर अपराधी माना जाएगा| और, यदि पहला रास्ता भी इस देश के प्रबुद्ध मतदाता चुनते हैं तो उनके ऊपर यह जिम्मेदारी तो बनी रहेगी कि जो भी लोकतांत्रिक सरकार आये उससे वे पिछले 5 सालों में लोकतंत्र के अंदर जो छिद्र हुए हैं, उन्हें मजबूती से रिपयेर कराने के लिये संघर्ष करे, क्योंकि अति-राष्ट्रवाद लोकतंत्र में सत्ता पर बने रहने के लिये सभी राजनीतिक नेताओं को बहुत प्रिय होता है|
अरुण कान्त शुक्ला    
18मई, 2019
       



Wednesday, March 27, 2019

‘न्याय’ से न्याय की उम्मीद बेमानी नहीं-----
पिछले एक दशक के दौरान गरीब और गरीबी दोनों इस कदर सरकार की नीतियों और राजनीति के केंद्र से गायब रहे हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जब कहा कि केंद्र में कांग्रेस की सरकार आने पर  देश के सबसे गरीब 20 फीसदी परिवारों को न्यूनतम सालाना औसतन 72,000/- रुपये की आय सुनिश्चित की जायेगी तो सत्तारूढ़ भाजपा से लेकर देश के कुबेरों के साथ साथ मध्यवर्ग के खाते-पीते लोगों के बड़े हिस्से में मानो हडकंप मच गया| कांग्रेस अध्यक्ष का यह बयान उनको अचंभित करने वाला था, जो उन्हें कभी भी गंभीरता से नहीं लेते| प्रधानमंत्री तथा उनके वित्तमंत्री अरुण जेटली से लेकर बाकी भाजपा के अंदर इसीलिये खलबली मची कि क्योंकि उन्होंने कभी राहुल गांधी को गंभीरता पूर्वक लिया ही नहीं| स्थिति तो यहाँ तक हास्यास्पद है कि भाजपा की मंडली  जब राहुल गांधी के किसी कथन को नकारने के लिए भी जाती है तो उनके तर्क और बयान इसीलिये खोखले नजर आते हैं क्योंकि उनकी सोच कांग्रेस अध्यक्ष के लिए कभी पप्पू से ऊपर नहीं उठ पाती है| यह पहली बार नहीं है कि किसी राजनीतिक नेता ने गरीबों के लिए कुछ करने की बात की हो| हाँ, भाजपा को अवश्य यह कुंठा हो सकती है कि जब कभी भी गरीबी हटाने की बात की गई है, वह कांग्रेस की तरफ से ही कि गई है| सबसे पहले 1867 में दादाभाई नौरजी ने गरीबी खत्म करने का प्रस्ताव कांग्रेस संगठन में रखा था। 1938 में सुभाषचंद्र बोस ने भी इसे आगे बढ़ाया। इसके बाद 1971 में इंदिरा गांधी ने व्यापक पैमाने पर इस नारे को अपनाया था और उस दिशा में काम भी किये थे| बहरहाल, भाजपा को याद होना चाहिये कि कार्यकारिणी की जिस बैठक में उन्होंने नरेंद्र मोदी को भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार किया था, नरेंद्र मोदी ने उस बैठक में अश्रु ढलकाते हुए कहा था कि सरकार बनने पर वे सबको साथ लेकर चलेंगे और उनकी सरकार गरीबों के लिए काम करेगी| प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उन्होंने फिर अपनी इस बात को दोहराया था|  उन्होंने लोकसभा की चौखट पर मत्था टेकने के बाद, दिए गए अपने पहले भाषण में देश के लोगों से वायदा किया था कि उनकी सरकार सबको साथ लेकर चलेगी और यह गरीबों की सरकार है और गरीबों के लिए काम करेगी| पिछले पांच वर्षों में उन्होंने अपने इस वायदे को कितना निभाया है या गरीबों को कितना रुलाया है, यह तो शुरू हो चुकी चुनाव प्रक्रिया का नतीजा हमें बता ही देगा|

हम यहाँ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के द्वारा घोषित न्यूनतम आय गारंटी योजना के कुछ ऐसे पहलुओं पर बात करेंगे, जिनको लेकर आम तौर पर कुछ प्रश्न किये जा रहे हैं| सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट हो जाना चाहिये कि किसी भी कोण से न्यूनतम आय गारंटी योजना, जिसे राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री की प्रिय वाक् शैली में ‘न्याय’ कहा है, न तो गरीबी हटाओ का नारा है, जैसा कि अरुण जेटली ने उछालने की कोशिश की है और न ही यह कुछ देशों के कुछ भाग में लागू की गई ‘सार्वभौमिक बुनियादी आय योजना’ है| जो कुछ उन्होंने कहा है वह मात्र इतना है कि “कांग्रेस पार्टी सरकार में आने पर देश की 20 फ़ीसदी सबसे गरीब याने बीपीएल परिवारों को 72 हज़ार रुपये सालाना की मदद करेगी यानी गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवार की आय में किसी भी प्रकार की कमी को पूरा कर उसे 6000/- प्रति माह पहुंचाया जाएगा| इसका पहला इशारा उन्होंने तब किया था जब वे किसान कर्ज माफी के पत्रक बांटने के लिए छत्तीसगढ़ के बस्तर में आये थे| इसे कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक भी कह सकते हैं, क्योंकि, 2014 में भाजपा की सरकार आने के बाद से ही स्वयं कांग्रेस के नेता भी यही कह रहे थे कि मोदी सरकार कांग्रेस की अधूरी नीतियों का श्रेय ले रही है| इसका जो एक सन्देश आमजनों के बीच जा रहा था, वह यह था कि बीजेपी और कांग्रेस में कोई खास अंतर नहीं है, दोनों की आर्थिक नीतियां एक सी हैं, केवल साम्प्रदायिकता को लेकर की जाने वाली राजनीति पर दोनों के रुख में अंतर है| कांग्रेस की न्यूनतम आय गारंटी योजना आमजनों के मध्य फ़ैली इसी सोच को बदलने का काम करेगी| जो लोग यह पूछते थे कि राहुल गांधी के पास देश की आर्थिक नीतियों को लेकर कोई दृष्टि है क्या? किसानों की ऋण माफी, ‘न्याय’, उसका जबाब है|  शायद इसीलिए कांग्रेस को, किसी भी गठबंधन में जो उसको बराबर का तवज्जो न दे, शामिल होने की कोई इच्छा नहीं है|

जिस दिन से कांग्रेस अध्यक्ष ने न्यूनतम आय गारंटी योजना कि घोषणा कि है दो प्रश्न प्रमुख रूप से पूछे जा रहे हैं| उनमें से पहला प्रश्न है कि इस योजना में जो लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा, वह कहाँ से आएगा? आश्चर्यजनक बात यह है की जो लोग आज इस सवाल को उठा रहे हैं, उन्होंने यह सवाल एक माह पूर्व तब नहीं उठाया जब अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने लगभग 12 करोड़ किसानों को 6000/- सालान मुफ्त देने की घोषणा की थी| बहरहाल, इस प्रश्न पर विचार करने से पहले, हमें एक बात याद करनी होगी कि स्वतंत्रता के बाद से लेकर 1991 तक भारत में जिन आर्थिक नीतियों पर चला जा रहा था, वे लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित थीं| देश के अंदर पूंजीवादी व्यवस्था के होने के बावजूद सरकारों की नीतियां समाज के कमजोर तबकों को नीचे से मजबूत बनाने की थीं| यह 1991 के बाद, पूरी तरह से नवउदारवाद के रास्ते पर चलने के बाद, हुआ कि समाज के निचले तबकों को मिलने वाली टेक्स में छूटें, सबसीडी, का रुख निचले तबके से मोड़कर कारपोरेट की तरफ कर दिया गया| इसके पीछे पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का पुराना सिद्धांत था कि उद्योगपतियों और बड़े व्यवसाइयों के पास पैसा पहुंचाने से वह धीरे धीरे रिस कर समाज के निचले तबके तक पहुँचता है| रोजगार की योजनाएं, स्वास्थ्य और शिक्षा की योजनाओं, कृषी संबंधित योजनाओं जसिए फसल बीमा इत्यादि में इस तरह परिवर्तन लाया गया कि वे कल्याण का साधन कम और पूंजीपतियों के लिए मुनाफ़ा बटोरने का साधन अधिक बनती गईं| पिछले 18 वर्षों में हमने देखा है कि कारपोरेट जगत को कस्टम ड्यूटी में जितनी भी छूट सरकार ने यह सोचकर दी कि वह कीमतों में कमी के रूप में आम लोगों तक पहुंचेगी, उसका एक पैसा का भी फायदा कारपोरेट ने आम लोगों को नहीं दिया और उस छूट को भी मुनाफे में बदलकर हजम कर लिया| इसके अलावा आज बैंकों का जो लगभग 9 लाख करोड़ रूपये का डूबत खाते का ऋण (NPA) है, वह भी देश के इन्हीं धन्ना सेठों के पास है, जिनमें माल्या और नीरव मोदी जैसे भी कारपोरेट शामिल हैं, जो देश छोड़कर भाग गए हैं| इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों में हमने अपने यहां संपत्ति कर,  उपहार कर इत्यादी समाप्त किया है, जबकि इन वर्षों में भारत में संपत्ति काफी बढ़ी है। हमारे यहाँ 100 से ज्यादा तो अरबपति हैं, जिनकी पिछले वर्ष संपत्ति लगभग 2200 करोड़ रुपये प्रतिदिन बड़ी है। सोचने वाली बात है कि यह कैसे संभव है कि देश में केवल 76 लाख लोग अपनी आय पांच लाख रुपये से अधिक बताते हैं और इनमें भी 56 लाख लोग वेतनभोगी हैं अब इन आधारों पर सोचें तो क्या हमारे देश के पास संसाधनों की कमी है? क्या जैसी की आशंका जताई जा रही है कि मध्यवर्ग के ऊपर टेक्स का बोझ लादा जाना चाहिये? क्या सरकार को उसके उपक्रमों या दूसरी संपत्तियों को बेचने की जरुरत पड़ेगी? इन सभी आशंकाओं का एक ही जबाब हो सकता है और वह है एक बड़ा न! यदि सरकार संपत्ति कर के रूप में केवल आधा प्रतिशत भी टेक्स लगाती है तो चार –पांच लाख करोड़ रुपये सरकार के कोष में आ सकते हैं| यदि सरकार शीर्ष के केवल चार-पांच प्रतिशत धनाड्यों पर भी ये टेक्स लगाती है तो 3 लाख रुपये आसानी से सरकार के कोष में आ जायेंगे और अरबपतियों को भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा|

दूसरा प्रमुख प्रश्न है कि क्या इस योजना से गरीबों का जीवन बदल जाएगा? एक बात तो तय है कि जब देश का मजदूर आंदोलन असंगठित क्षेत्र के कर्मियों के लिए लंबे समय से 18000/- प्रतिमाह वेतन की मांग कर रहा है तो एक परिवार की आय के स्तर को 12000/- के स्तर तक ऊपर उठाने से गरीबों के जीवन में कोई आमूल-चूल परिवर्तन कि अपेक्षा नहीं की जा सकती है| वैसे भी हमारे देश में गरीबी के पैमाने का निर्धारण ऐसा है कि गरीबी की रेखा से नीचे बमुश्किल वे ही आ पाते हैं जो लगभग भूखे अथवा एक समय ही खाकर गुजारा करने वाले होते हैं| इसके बावजूद यदि नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ट्वीट करके  कहते हैं कि ‘न्याय’ योजना तो चांद लाकर देने जैसा वादा है| इस अव्यवहारिक योजना से देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी| सरकारी खजाने को जो घाटा होगा, उसे पूरा नहीं किया जा सकेगा| तो, यह इस बात का प्रमाण है कि इस योजना से बीपीएल के नीचे गुजर बसर करने वाले परिवारों को कितनी बड़ी आर्थिक मदद मिलने जा रही है| इतना ही नहीं यदि यह योजना ठीक तरीके से मोनीटर की गई तो देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी एक बहुत बड़े सहारे के रूप में काम करेगी| 

उच्च वर्ग अपना अतिरिक्त पैसा शान-शौकत पर और उड़ाने-खाने में खर्च करता है| मध्यवर्ग स्थायी उपभोक्ता सामग्री और जमीन तथा सोना खरीदने में खर्च करता है| इसे एक प्रकार से पैसे को जाम करना भी कह सकते हैं| जबकि, गरीब अपना धन जरूरत का सामान खरीदने पर खर्च करता है| इससे लघु उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा| जो लघु उद्योग मोदी जी के नोटबंदी की वजह से बंद हुए या बीमार हुए, उनमें चमक आ जायेगी| रोजगार जो, 2017-18 में घटा और लोगों की नौकरियाँ खा गया, उसमें बढोत्तरी होगी| लघु उद्योगों की मांग से बड़े उद्योगों की भी उत्पादकता बढ़ेगी|

दरअसल 72000 रुपये की कम से कम आय की जो बात है, वह पैसा गरीबों के माध्यम से बाज़ार में तरलता (रूपये) पहुंचाने की बड़ी कोशिश के रूप में बाजार में उठाव लाने और उसके दायरे में गरीबों के बड़े हिस्से को शामिल करने के रूप में देखा जाना चाहिये| इसका दूसरा फायदा होगा कि न्यूनतम वेतन में भी जबरदस्त उछाल आएगा| 12000 रुपये से कम आमदनी वाले गरीबों को तो फायदा होगा ही देश में जिसे भी कर्मचारी की ज़रूरत होगी वो कम से कम 12000/- न्यूनतम वेतन देने पर मजबूर होगा| सीधी सी  बात है 12000 रुपये से कम पर काम करने से आदमी घर बैठना बेहतर समझेगा| हम यह यूपीए सरकार की मनरेगा योजना लागु होने पर देख चुके हैं कि किस तरह इस योजना ने ग्रामीण मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी में इजाफा किया था|

इसका नतीजा ये होगा कि देश में आम लोगों का जीवन बदल जाएगा| एक तरफ 12000 रुपये महीने की कम से कम आमदनी होने से कारोबार बढ़ेंगे दूसरी तरफ इससे ज्यादा कमाने वालों की आमदनी में भी सुधार होगा और ये पैसा सीधे बाज़ार को मजबूती देगा| भारत कि सरकारें पिछले तीन दशकों से उद्योगों को जो रकम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से देती है उसके मुकाबले ये रकम काफी कम है लेकिन उद्योगों को गति देने में इसका योगदान उद्योगों को प्रत्यक्ष सरकारी सहायता देने से, जिसे मनमोहनसिंह ने स्वयं मित्र-पूंजीवाद(Crony Capatilism) कहा था, बहुत अधिक होगा|    

असमानता को कम करने के लिए पूंजीवादी सरकारें एक ना एक तरीके से गरीबों तक पैसा पहुंचाती हैं| सड़क और पुल बनाने या रियल स्टेट जैसे कारोबार को बढ़ावा देने के लिए सरकारें नीति बनाती हैं जिनसे गरीबों को काम मिले. यूपीए सरकार मनरेगा योजना इसी नीयत से लाई थी| राहुल गांधी अगर ये योजना लाते हैं तो दुनिया के सामने मिसाल बनेगी| उद्योगों और कारोबारों को समाज में धन बढ़ने के कारण भारी फायदा होगा| माल की डिमांड बढ़ने के कारण दाम अच्छे मिलेंगे| जीडीपी में जबरदस्त उछाल आएगा| डिमांड बढ़ने से महंगाई बढ़ेगी तो उद्योग और बढ़ेंगे|

सबसे बड़ी बात यह है कि इस रास्ते पर दृण  इच्छा शक्ति के साथ चला जाये| पिछले तीन दशक के नवउदारवादी रास्ते का अनुभव अच्छा नहीं रहा है| जरूरत है सोच और नीतियों में बदलाव लाने की और यदि यह योजना चरणबद्ध तरीके से चलाई जाती है तो बहुत ही प्रभावशाली होगी, जैसी की मनरेगा थी, जिसे मोदी जी ने कांग्रेस की विफलता का स्मारक बताया था, लेकिन वही कांग्रेस को 2009 में वापस लाई थी| राहुल गांधी ने कहा कि ‘हमने योजना पर कई अर्थशास्त्रियों से विचार विमर्श किया है| पूरा आकलन कर लिया गया है| सब कुछ तय कर लिया गया है|’ उन्होंने कहा कि इससे पांच करोड़ परिवार यानी 25 करोड़ लोगों को फायदा होगा| लेकिन फायदा 25 करोड़ लोगों तक ही नहीं रुकेगा| अब देखना केवल यह है कि देश के लोग ऐसी बहु-आयामी योजना पर कितना विश्वास जताते हैं और फिर यदि कांग्रेस सरकार में आती है तो इस पर कितनी सच्चाई और कितनी राजनीतिक इच्छा-शक्ति के साथ अमल करती है? यदि ऐसा हुआ तो मोदी राज में ‘विश्व हेप्पी लिस्ट’ में पायदान दर पायदान नीचे खिसकते जा रहे इंडिया के चेहरे पर कुछ ‘हेप्पीनेस’ तो आ ही सकती है| ‘न्याय’ से न्याय की उम्मीद बेमानी नहीं है|

अरुण कान्त शुक्ला
28/3/2019


Saturday, March 23, 2019

Me To 2

ME TO
47 जवानों की शहादत तो परम सत्य है, उसके लिए प्रत्येक नागरिक को दुःख है और शोक है| पर,ये कैसे हुआ और कौन दोषी हैं? ये पूछने का अधिकार भी प्रत्येक नागरिक को है| सेना केवल सरकार कि नहीं है कि उसके साथ क्या हो रहा है, वह नागरिक न पूछ सके| सेना देश की है और प्रत्येक नागरिक को उसकी सुरक्षा में कहाँ और कैसे छिद्र रह गए, पूछने और सरकार को उसके लिए जिम्मेदार ठहराने का हक है| सरकार देश के नागरिकों से पृथक कोई संस्था नहीं है| वह नागरिकों के द्वारा चुनी गई, नागरिकों की निगरानी में रहने वाली, नागरिकों के लिए बनी संस्था है और नागरिकों को जबाब देह है|

#Me to

ME#TO
सेम पित्रोदा अकेला नहीं,
पूरे 128 करोड़ में से लाख दो लाख को छोड़कर सभी यही सवाल कर रहे हैं,
उन लाख दो लाख में से कुछ अभी यहाँ फुदकेंगे,
गाली गलोज करेंगे,
सवाल पूछने वालों को राष्ट्र द्रोही और देश द्रोही ठहराएंगे,
पर सवाल करना एस देश के प्रत्येक नागरिक का अधिकार है,
और सवाल के जबाब देना आपका कर्तव्य,
किसी ने भी सेना से आज तक सवाल नहीं किया,
और न सेना पर कोई संदेह व्यक्त किया है,
सारे सवाल आपसे हैं,
ये सवाल सेना से नहीं,
आपसे हैं सरकार जी,
आप सेना की आड़ लेकर जबाब देने से बचते हैं,
सेना की आड़ लेकर जबरिया उन्माद देश में फैला रहे हैं,
हम सेना के जज्बे को सलाम करते हैं,
कि ये सब देखने के बावजूद वे अपने काम में मुस्तेदी से लगे हैं,
और देशवासियों को सही सूचना दे रहे हैं,
उन सूचनाओं से आप लोगों के बयान मेल नहीं खाते,
इसलिए देशवासी आपकी बातों पर संशय करते हैं,
जोकि किसी भी हालत में गलत नहीं है,
आप लोगों की झूठी बातों से देश में जबरिया उन्माद फैलता है,
और देश कि शांति,सुरक्षा के लिए खतरा फैलता है,
आपके इन झूठी और मनगढंत बातों में,
देश के केवल कुछ लोग बहकावे में आ रहे हैं,
जिनके पास समझदारी है वे नहीं,
इस तरह की उन्मादी बातें करना आपकी आदत में शुमार है,
आप जब मुख्यमंत्री थे तब भी ऐसा ही करते थे,
2014 के चुनाव के वक्त भी यही हुआ था,
आज भी वही तरीका आपने अपनाया है,
आपका अध्यक्ष भी यही करता है,
आप लोगों के बयानों में इतना अंतर क्यों?
क्या आपका सच अलग है,
आपके अध्यक्ष का सच अलग,
आपके मंत्रियों का सच अलग,
आपके सांसदों, विधायकों, पार्टी के नेताओं का सच अलग,
इसका मतलब तो हुआ कि आप सभी झूठे हो.
झूठ से देश का भला नहीं होगा,
देश के प्रति वफादारी दिखाओ सरकार,
और देश नदी, पहाड़ से नहीं,देशवासियों से होता है,
उनसे झूठ बोलना बंद करिये|

Sunday, March 17, 2019

बीएसएनएल के कर्मचारी कामचोर नहीं हैं...

बीएसएनएल के कर्मचारी कामचोर नहीं हैं...
(यह एक मशहूर कहावत के समान ही है कि नागिन खुद अपने बच्चों को जन्म देने के बाद खा जाती है क्योंकि वह अंधी हो जाती है| सरकारें भी 1991 से अंधी हो गईं हैं और अपने उपक्रमों को खा रहीं हैं|)
जब कभी भी कर्मचारियों के, मेरा मतलब शासकीय, अर्द्ध शासकीय कार्यालयों और कारखानों के कर्मचारियों के कामचोरी की बात होती है तो मुझे थोडा आश्चर्य होता है| इन्हीं कर्मचारियों की बदौलत देश ने इतनी औद्योगिक और आर्थिक तरक्की की है| इन्हीं ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र को, औद्योगिक क्षेत्र को निर्माण और वित्तीय क्षेत्र को, इतनी मजबूती और समृद्धि दी, जिससे विदेशी निवेशकों को भारत में आकर उन व्यवसायों में घुसने की लालच हुई| 1990 के पूर्व का एक भी आर्थिक, औद्योगिक, वित्तीय और निर्माण क्षेत्र कोई बता नहीं सकता जो घाटे में गया हो| देश के अंदर उस बुनियादी ढांचा का निर्माण इन्हीं सरकारी उपक्रमों की बदौलत तैयार हुआ है, जिस पर पैर रखकर आज निजी क्षेत्र सरकार की सहायता से उड़ान भरने का दंभ भरता है| हमारे देश के पूंजीपति हों या विदेशी सभी ने सबसे पहले इन्हीं सरकारी उपक्रमों को हथियाने की चेष्टा की| जब देश आजाद हुआ तो देशी धन्नासेठ इनमें से किसी भी क्षेत्र में पैसा लगाने को तैयार नहीं थे क्योंकि शुरू में निवेश ज्यादा होना था और मुनाफ़ा बहुत ठहर कर आना था| विदेशी निवेशक दूसरे विश्व युद्ध से बाहर आये थे और या तो उनके पास पूंजी कम थी या गरीब भारत का बाजार उन्हें आकर्षक नहीं लगता था या उन्हें भी ढांचागत निर्माण में पैसा लगाकर देर से मुनाफ़ा कमाना जमता नहीं था| जब वे भी समृद्ध हुए और भारत में बाजार खड़ा हो गया तो वैश्विक दबाव भी बढ़ा और हमारे देश के पूंजीपति भी ललचाए| सभी सरकारी उपक्रमों को शनैः शनैः सरकार की नीतियों ने ही बीमार किया है|
बीएसएनएल का ही उदाहरण लें, सरकार ने जहां निजी ऑपरेटरों को स्पेक्ट्रम बांटे, बीएसएनएल को लंबे समय तक प्रवेश की इजाजत नहीं दी| आज भी, एक भी निजी ऑपरेटर बिना बीएसएनएल के टावर्स के इस्तेमाल के अपना नेटवर्क नहीं चला सकता| बीएसएनएल को 4G में प्रवेश के लिए वर्षों तक सरकार ने लटकाया| उसका सारा सर्विस देने का काम धीरे धीरे ठेकेदारों के हाथों में चला गया| वे मजदूरों को कम भुगतान करते हैं, सेवाएं नियमित नहीं देते क्योंकि कर्मचारी कम रखते हैं, और बदनामी बीएसएनएल की होती है| आज भी बीएसएनएल को अनिल अम्बानी की कंपनी आरकाम से 700 करोड़ रुपये वसूलने हैं| बीएसएनएल लिमिटेड होने के बावजूद सरकारी उपक्रम ही है और इस पैसे को अनिल अम्बानी की कंपनी से बीएसएनएल को वापस दिलवाने की जिम्मेदारी सरकार की भी उतनी ही है, जितनी बीएसएनएल की उसे आरकाम से वसूलने की| पर, हम देख रहे हैं कि अनिल अम्बानी को हजारों करोड़ रुपये के नित नए ठेके दिलवाने वाली सरकार इस मामले में हाथ पीछे बांधकर बैठी है|    
जहां तक कामचोरी का संबंध है, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की ऐसे कर्मचारियों की संख्या, जो काम से जी चुराते हों, किसी भी जगह 2% से ज्यादा नहीं होगी| निजी क्षेत्र में मालिक चोरी करता है और कर्मचारी शोषित होते हैं| जिसे सरकारी क्षेत्र में कामचोरी कहा जाता है, वह शोषण के कम होने का सबूत है| आज भी यदि सरकारी क्षेत्र नौकरी नहीं दे रहा है तो बेरोजगारी बढ़ रही है| आजादी के बाद रोजगार देना और आवश्यकता से अधिक कर्मचारी रखना गरीब देश में कल्याण का काम था| रोजगार देना प्रमुख था, 12 घंटे काम लेना नहीं| यह राज्य के कल्याणकारी होने की नीतियों से संबंधित है, जिससे नवउदारवाद आने के बाद सभी सरकारों ने पीछा छुडा लिया है और सभी नीतियां कारपोरेट को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई जाने लगी हैं| वर्तमान का ही एक उदाहरण लें, लिमिटेड होने के बाद भी बीएसएनएल है तो एक सरकारी उपक्रम और देश के प्रधानमंत्री उसके स्वाभाविक पोस्टर ब्वाय (प्रचारकर्ता) होना चाहिये पर हमारे माननीय प्रधानमंत्री जियो जो अम्बानी का उपक्रम हैं, उसके पोस्टर ब्वाय बने, बीएसएनएल के नहीं|
यह देश के उन उपक्रमों के बारे में सरकारी सोच को दिखाता है जिसकी कर्ता-धर्ता सरकार ही है| बीएसएनएल की कार्यप्रणाली को जाने बिना और निजी ऑपरेटर्स की धोखाधड़ी को समझे बिना बीएसएनएल कर्मचारियों की बुराई करना या उन्हें कामचोर कहना अज्ञानता के सिवा कुछ नहीं है| दूसरा सबसे बड़ा सच यह है कि सभी सरकारी सेवा संस्थानों को ढांचागत सुधार के लिए सरकार की इजाजत बहुत देर से या लगभग नहीं मिलती है| सरकार की सारी घाटे वाली योजनाओं का भार ढोते हुए वे किन हालात में काम करते हैं यह बहुत ही शोचनीय है| दूसरा उदाहरण किसान फसल योजना है, जिसका कर्ता-धर्ता सरकार ने निजी कंपनियों को बनाया और अंतत: किसानों के बहुसंख्यक हिस्से को धोखे के सिवा कुछ नहीं मिला| तीसरा उदाहरण वे चिकित्सा योजनाएं हैं, जिनके क्रियान्वयन का सारा भार निजी कंपनियों को सौंपा गया है और सरकार के पैसे से वे मालामाल हो रही हैं| सरकारी बैंकों को उन सारी सरकारी योजनाओं का भार ढोना पड़ता है जो अंतत: घाटे का सौदा होती हैं| इसमें मोदी जी की बहुप्रचारित जन-धन योजना से लेकर माल्या और नीरव को कर्ज देने तक की परिस्थिति शामिल है| यह एक मशहूर कहावत के समान ही है कि नागिन खुद अपने बच्चों को जन्म देने के बाद खा जाती है क्योंकि वह अंधी हो जाती है| सरकारें भी 1991 से अंधी हो गईं हैं और अपने उपक्रमों को खा रहीं हैं|
अंतिम बात, ये दुर्भाग्य है की वे कर्मचारी जो अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के लिए लाल झंडे के नीचे आते हैं, अपने कार्य क्षेत्र से बाहर आकर भाजपाई, कांग्रेसी और न जाने क्या क्या हो जाते हैं और अपनी ही कौम के लिए काँटा बोते हैं| यह एक अफसोस नाक बात है, पर सच्चाई है| इतने कामचोर निजी क्षेत्र में भी मिलते हैं यहाँ तक की स्वरोजगार में भी|
अरुण कान्त शुक्ला
17
मार्च 2019