Monday, May 23, 2011

फैज़ को सुना , फैज़ की आवाज में – एक रिपोर्ताज – अरुण कान्त शुक्ला

फैज़ को सुना , फैज़ की आवाज में – एक रिपोर्ताज – अरुण कान्त शुक्ला

जनवादी लेखक संघ भिलाई और रंग शिल्पी दुर्ग के संयुक्त तत्वाधान में मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ को याद करने के लिये सुपेला , भिलाई के आमोद भवन में रखे गये कार्यक्रम में उपस्थित फैज़ की शायरी के प्रेमीजन उस समय भाव विभोर हो गये , जब उन्हें फैज़ के मशहूर कलाम एक के बाद एक फैज़ की आवाज में ही सुनने मिले | कार्यक्रम में विशेष आमंत्रितों सर्व/श्री डा.रमाकांत श्रीवास्तव , डा. जयप्रकाश साव, संजय पराते , गजेन्द्र झा , निसार अली , डा. शंकर सक्सेना के स्वागत के पश्चात , क्षेत्र के जाने माने मशहूर शायर मुमताज ने फैज़ साहब पर स्वरचित गजल “प्यास अपनी कब बुझा पाया समंदर फैज़ साहब , हमने पत्थर तलहटी में खूब मारे फैज़ साहब” पढ़ी | उसके बाद रायपुर से पहुंचे साथियों ने फैज़ के मशहूर गीत “ ए ख़ाक नशीनों उठ बैठो” को प्रस्तुत किया |

आयोजकों ने , जिसमें डा. विश्वास मेश्राम ने विशेष मेहनत की थी , फैज़ साहब के दुर्लभ चित्रों के साथ उनके स्वयं के स्वर में पढ़ी गयी गजलों और नज्मों का संकलन कोलास के रूप में परदे पर प्रस्तुत किया , जिसमें इकबाल बानो की आवाज में फैज़ साहब की मशहूर नज्म “ हम देखेंगे , लाजिम है के:हम भी देखेंगे” और नैय्ययारा नूर की आवाज में उनकी गजल “आज बाजार में पा-ब जौलां चलो” भी थीं | रायपुर, भिलाई , दुर्ग , राजनांदगाव और आसपास के इलाके से एकत्रित हुए कवियों , शायरों , कहानीकारों और स्तंभ लेखकों के साथ साथ भारी संख्या में एकत्रित जनसमुदाय के कानों में जब फैज़ साहब की आवाज में “चंद रोज और मेरी जान .फ.कत चंद ही रोज , जुल्म की छाँव में दम लेने मजबूर हैं हम”, “बोल के लब आजाद हैं तेरे, बोले जबां अब तक तेरी है”, कलाम पहुंचे तो सभी उपस्थित इतने भावविभोर और तन्मय हो गये कि कार्यक्रम खुले आसमान के नीचे और रिहाईशी बस्ती में होने के बावजूद लोगों की सांस चलने की आवाज भी साफ़ सुनी जा सकती थी | फैज़ साहब की मशहूर गजल सुब्हे –आजादी , जो उन्होंने अगस्त 1947 में लिखी थी “ये दाग-दाग उजाला , ये शबगजीदा सहर”,के अलावा दस और गजलों को सुनने का नायाब मौक़ा पाकर वहाँ उपस्थित सभी लोग रोमांचित थे |

फिल्म के प्रदर्शन के बाद , क्षेत्र के जाने माने कवि नासिर अहमद सिकंदर ने फैज़ साहब पर “जिक्र-ए फैज़” आलेख और उसके बाद डा. विश्वास मेश्राम ने “विचार धारा की कविता” आलेख प्रस्तुत किया | प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश सचिव और प्रख्यात साहित्यकार डा. रमाकांत श्रीवास्तव तथा प्रोफ़ेसर डा. जयप्रकाश ने फैज़ के काम और उनके व्यक्तित्व पर विद्वतापूर्ण ढंग से प्रकाश डाला | पहले बोलते हुए डा.जयप्रकाश ने कहा कि फैज़ ने उनके दौर के समाज में चल रहे शोषण को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया और उतनी ही बेबाकी से उसे अपनी शायरी में निशाने पर लिया | उन्होंने कहा कि फैज़ ने प्रेम को आवाम के साथ रिश्ते जोडने के लिये जिस खूबसूरती के साथ इस्तेमाल किया , वह पहली बार हुआ है | उन्होंने कहा कि दुनिया को बदलने के ख़्वाब देखने वाले कवि क्रांतिकारी पहले होते हैं और कवि बाद में | उन्होंने कहा कि आज एक निराशा आवाम के ऊपर थोपने की कोशिश हो रही है और कहा जा रहा है कि वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है | यह सच नहीं है , फैज़ ने इस निराशा को कभी भी अपने पास नहीं फटकने दिया “ दर्द थक जाएगा , गम न कर , गम न कर” उनकी वो रचना है , जो बताती है कि मानवता की और से की जाने वाली जद्दोजहद दुनिया की तस्वीर को बदलेगी जरुर |

डा. रमाकांत श्रीवास्तव ने कहा कि फैज़ एक देश के शायर नहीं थे , उनकी शायरी में किसी एक मुल्क नहीं , बल्कि दुनिया के सारे मजलूमों के लिये दर्द छलकता है | उन्होंने आजादी के समय के हालातों का जिक्र करते हुए कहा कि उस दौर के सभी बड़े कवियों ने बड़े दर्द के साथ आजादी को व्याख्यायित किया है | फैज़ पर लगाया गया आरोप कि उन्होंने आजादी पर “ये दाग-दाग उजाला” लिखकर मर्सिया पढ़ा है , पूरी तरह गलत है | उन्होंने कहा कि आजादी से क्या गांधी खुश थे , जब दिल्ली में रोशनी हो रही थी , तो वहाँ गांधी कहाँ थे , वे तो नोआखाली में हिन्दू , मुसलमानों के बीच सौहाद्र बनाने में लगे थे | उन्होंने कहा कि फैज की रचनाएँ सर्वकालीन हैं | डा. रमाकांत ने वर्तमान परिस्थितियों का जिक्र करते हुए कहा कि आज आम आदमी के स्वाभिमान को पूरी तरह कुचल दिया गया है , चाहे वह पाकिस्तान हो या भारत | पाकिस्तान के बारे में फैज़ ने कहा था “ जिस्म को बचा के चल” | आज ये हालात तो भारत में भी हैं | उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत स्तर से लेकर दुनिया के शोषितों तक जैसा प्रेम का विस्तार फैज़ ने किया है , किसी दूसरे का नहीं देखा गया | उन्होंने कहा कि प्रेम के उताप्त क्षणों में भी फैज़ मजलूमों और दबे कुचले लोगों को अपने जेहन से नहीं निकाल पाते , इसीलिये वे प्रेम से बात शुरू करते हैं और ठिठक जाते हैं और उनका रुख मजलूमों की तरफ हो जाता है | उन्होंने कहा कि फैज़ की गजल “ मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग ” उनकी इस प्रतिबद्धता की सबसे बड़ी मिसाल है | उन्होंने कहा कि फैज़ को जानना, समकालीन इतिहास को जानना है | उन्होंने कहा कि फैज़ न केवल अपने दौर के सबसे बड़े जनशायर थे बल्कि आज के दौर में भी उस मुकाम तक कोई नहीं पहुंचा है | रंग शिल्पी , दुर्ग के अध्यक्ष बालकृष्ण अय्यर ने अंत में सभी का आभार व्यक्त किया और धन्यवाद दिया | पूरे कार्यक्रम का संचालन शरद कोसामा ने किया | समस्त उपस्थित लोगों के गहन अनुरोध पर डा. रमाकांत श्रीवास्तव ने फैज़ की गजल मुझसे मेरे महबूब को पूरी लय में गाकर सुनाया |

Friday, May 13, 2011

ममता को मिला काँटों भरा ताज --


ममता को मिला कांटो भरा ताज –

पश्चिम बंगाल में जिस लड़ाई को कांग्रेस ने हताश होकर छोड़ दिया था , उसी लड़ाई को कांग्रेस के जरिये राजनीति में आई तेज तर्रार नेता ममता बनर्जी ने दो दशक से अधिक समय तक अपने दम पर लड़ा और आज वह लड़ाई अपने अंजाम पर पहुँच चुकी है | पश्चिम बंगाल की जनता ने पिछले 34 वर्षों से जिस वामपंथी गठबंधन को भरपूर समर्थन देकर राज्य की सत्ता में बनाए रखा था और 2006 के पिछले चुनावों में ही जिस गठबंधन को 235 सीटों का रिकार्ड बहुमत दिया था , उसी गठबंधन को सिर्फ पांच साल बाद सत्ता से उतारकर , 2006 में मात्र 30 सीटें पाने वाली तृणमूल कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत से जिताकर ममता के माथे पर काँटों भरा ताज रख दिया है |

पश्चिम बंगाल का राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य देश की स्वतंत्रता के पश्चात से ही अन्य राज्यों से भिन्न रहा है | आजादी के समय हुए विभाजन की विभीषका को , पंजाब छोड़कर , इस राज्य ने जितना भुगता है , भारत में अन्य किसी राज्य को नहीं भोगना पड़ा | 1947 और फिर 1971 में लाखों की संख्या में प्रदेश में आये शरणार्थियों की समस्याओं से जूझते इस राज्य को राजनीतिक और आर्थिक रूप से स्थायित्व का दौर अगर कोई दे पाया तो वह 1977 के बाद वाममोर्चा के शासन काल के दौरान ही मिला | जून 1977 में आपातकाल के हटने के बाद देश में परिवर्तन की जो लहर चली तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा की सरकार बनी , जिसने लगातार 34 वर्षों तक पश्चिम बंगाल में शासन किया | जबकि उसी लहर में अन्य राज्यों और केन्द्र में बनी सरकारों का क्या हश्र हुआ , यह सभी जानते हैं | नक्सलवादी आंदोलन , बिजली संकट , चेचक , हडतालों , किसानों की गिरी हुई हालत और लगभग ठहरी हुई (stagnated) अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के जिम्मेदारी को ज्योति बसु के नेतृत्व में वाममोर्चा ने बखूबी अंजाम दिया | पश्चिम बंगाल ही एकमात्र ऐसा राज्य है , जहां वाममोर्चा की सरकार के नेतृत्व में भूमी सुधार लागू किये गये और हर जोतने वाले को कृषि भूमी प्रदान की गयी | लोकतांत्रिक पंचायत व्यवस्था , राज्य के कामगारों और कर्मचारियों को जनवादी अधिकार , साम्प्रदायिकता पर कड़ाई से नियंत्रण और सबसे ऊपर राज्य को आर्थिक विकास के रास्ते पर डालने का सबसे बड़ा काम वाममोर्चा ने ही किया | 1947 से 1977 के बीच जहां राज्य में तीन बार राष्ट्रपति शासन लगा और राज्य ने सात मुख्यमंत्री देखे , वहीं 1977 से लेकर अभी तक सिर्फ दो मुख्यमंत्रियों ने प्रदेश के कामकाज को सम्भाला है | बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के उस दौर में भी जब विश्व के मानचित्र पर समाजवादी देश एक के बाद एक ढेर हो रहे थे और अनेक देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने नाम तक बदल लिये थे , पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे का शासन , अपने कार्यों और जनता के साथ अपने जुड़ाव के चलते निर्बाध चलते रहा था |

वाममोर्चे के ऊपर अपनी नीतियों में समयानुकूल परिवर्तन करने का दबाव तब बढ़ा , जब भारत के शासक वर्ग ने 1991 में भूमंडलीकरण और उदारवाद के रास्ते पर चलना शुरू किया और देश में निजीकरण के रास्ते औद्योगिक विकास को तेज करने को प्राथमिकता दी जाने लगी |  सन 2000 हजार में वाममोर्चे ने स्वयं को बदलने की प्रक्रिया में विशेष आर्थिक जोन की प्रक्रिया की शुरुवात राज्य में की और टाटा जैसे उद्योगपति को राज्य में कार कारखाना लगाने के लिये न्यौता दिया | पर , एक ऐसे राज्य में जहां वाममोर्चे का पू़रा आधार ही भूमी सुधार और पंचायती राज पर निर्भर था , किसानों से जमीन अधिग्रहित करना आसान नहीं हो सका और इस तरह के औद्योगिक विकास के विरोध के बिना पर ममता बनर्जी तेजी के साथ राजनीतिक ध्रुव पर छा गईं | वाममोर्चे की दूसरा झटका वर्ष 2008 में केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लेने से लगा | अमेरिका के साथ जिस न्यूक्लियर डील को लेकर वाममोर्चे ने केन्द्र से समर्थन वापस लिया , न तो उस मुद्दे को वाममोर्चा 2009 के 15वीं लोकसभा के लिये हुए आम चुनावों में प्रमुख  मुद्दा बना सका और न ही उतनी क्षमता के साथ जनता के मध्य ले जा सका | जबकि , उस दौर में जनता बढ़ती हुई कीमतों और विशेषकर खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों से अत्याधिक परेशान थी और उसे लगता था कि सीपीएम सरकार को समर्थन दे रही है लेकिन महंगाई के मामले में सरकार के ऊपर कोई भी दबाव डालने से बच रही है | इसका नतीजा उसे लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ा , जहां सीपीएम सिमटकर 16 तथा वाममोर्चा सिमटकर 24 पर रह गया | एक प्रकार से उसी समय वर्तमान विधानसभा चुनावों के नतीजों की भविष्यवाणी हो चुकी थी |

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस हार को स्वीकार करते हुए कहा है कि लोग परिवर्तन चाहते थे और इस चाहत का फायदा तृणमूल और कांग्रेस को गया है | निश्चित रूप से , जैसा कि अमूमन सभी राजनैतिक दल करते हैं , सीपीएम और वाममोर्चा भी इस हार या इस कदर बुरी हार के कारणों का विश्लेषण आने वाले दिनों में करेगी | पर, शायद यह मामला केवल इतना नहीं है कि जनता ने परिवर्तन चाहा , मात्र इसीलिये , जिस मोर्चा को 2006 में तीन चौथाई से अधिक सीटें (50.18% मत) देकर जिताया था , उसे हटा दिया | जैसा कि , पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और पार्टी के पूर्व वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी ने कहा है वाकई पार्टी को गहन आत्ममंथन की जरुरत है |

एक समय था , जब ऐसा लगता था कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी देश में लोगों को एक मजबूत समाजवादी विकल्प देने में सक्षम होगी | लेकिन , पार्टी में आयी वैचारिक भ्रांति और सांगठनिक अधःपतन ने इस संभावना को फिलहाल पूरी तरह खत्म कर दिया है | इसकी संभावना निकट भविष्य में कम ही दिखती है कि यह पार्टी पश्चिम बंगाल में अपनी स्थिति में जल्द ही कोई सुधार कर पायेगी , जहां जनता के सेवक बुर्जुआ शासक की तरह आचरण करने में लग चुके थे | यहाँ तक कि पार्टी का परिशोधन (RECTIFICATION) कार्यक्रम भी बुर्जुआ तरीके से ही पार्टी में चलाया जा रहा है | केवल बंगाल , केरल और त्रिपुरा में ही नहीं , हिंदी राज्यों में भी , जहां पार्टी सांगठनिक और राजनीतिक , दोनों तरीके से कमजोर है , राज्यों के नेतृत्व में ऐसे लोग हैं , जिन्होंने आय से अधिक संपति खड़ी की है और जिनके खर्चे उनकी आय के अनुपात से अधिक हैं | स्वयं पार्टी के दस्तावेजों में स्वीकार किया गया है कि ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने में पार्टी की समितियों में हिचकिचाहट देखी जाती है | पार्टी के नेतृत्व में काबिज नेता जनवादी केन्द्रीयता का मजाक बनाते हुए मार्क्सवाद के बजाय न केवल स्वयंवाद पर चलना पसंद करते हैं वरन उनके अंदर पार्टी के सदस्यों या निचली कमेटियों के सदस्यों के साथ नौकरशहाना व्यवहार करने , बुर्जुआ रहनसहन पद्धति अपनाने और मजदूर संगठनों में सदस्यों के साथ अधिकारियों जैसा व्यवहार करने की बुराईयां पूरी तरह घर कर चुकी हैं , जिनसे निकालने का कोई प्रयास सीपीएम कर रही है , ऐसा नजर नहीं आता | अब वो सब जो इसकी तरफ आशा लगाए देख रहे थे , ये ही उम्मीद कर सकते है कि परिस्थिति की वस्तुगत बाध्यता और निचले केडर से पहुंचा दबाव , शायद , इस पार्टी को पुनः वापसी कराने में सहायक हो तथा वो सपने पूरे हो सकें , जो भारत की जनता ने इसके साथ देखे थे |

इसका अर्थ कतई यह नहीं कि पश्चिम बंगाल में ममता का रास्ता आसान है | 18 मई को ममता एक ऐसे राज्य में मुख्यमंत्री की शपथ लेंगी , जिसकी जनता ने वामपंथ के साथ  वो 34 वर्ष गुजारे हैं , जहां उसने पाया ही पाया है , खोया कुछ भी नहीं | आज पश्चिम बंगाल को जिस चीज की सबसे ज्यादा जरुरत है , वह औद्योगिक विकास है | इसे , ममता को देश के अंदर जो नीतियां चल रही हैं , उन्हीं पर चलकर हासिल करना होगा | पश्चिम बंगाल का कृषि उत्पादन लगभग संतृप्ति बिंदु पर पहुँच चुका है | राज्य की बेरोजगारी से निपटने , आर्थिक ठहराव को रोकने और शहरों , नगरों और कस्बों , सबको विकास के रास्ते पर डालने का काम तभी किया जा सकता है जब राज्य में कारखाने खुलें , बिजली के लिये नए प्रोजेक्ट आयें , सड़कों का , बंदरगाहों , हवाई अड्डों का जीर्णोद्धार हो और इन सब के लिये जमीन की जरुरत पड़ेगी | ममता को जमीन के लिये उन्हीं किसानों के पास जाना पड़ेगा , जिन्हें वाममोर्चे ने ही माँ–माटी-मानुष की लड़ाई सिखाई थी और ममता ने उन्हें औद्योगिकीकरण के खिलाफ खड़ा किया था | पश्चिम बंगाल की जनता आजाद हो गयी है , जैसे नारों से कुछ देर के लिये समां बांधा जा सकता है , पर सचाई यही है कि पश्चिम बंगाल की जनता ने ममता को कांटो भरा ताज पहनाया है |

अरुण कान्त शुक्ला         
     

Monday, May 9, 2011

छत्तीसगढ़ नागरिक संघर्ष समिती जिला न्यायालय भवन की ऐतिहासिक ईमारत तोडने के खिलाफ –



राज्यपाल को ज्ञापन सौंपेगी – संघर्ष का आव्हान

छत्तीसगढ़ नागरिक संघर्ष समिती की रविवार , दिनांक 8’मई , को हुई बैठक में रायपुर के ह्रदयस्थल शास्त्री चौक पर स्थित मराठा काल में निर्मित भवन को तोड़ने का तीव्र विरोध नगर के गणमान्य नागरिकों , इतिहासवेत्ताओं , शिक्षाविदों और समाज के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े अग्रणी लोगों के द्वारा किया गया | ज्ञातव्य है कि रायपुर शहर के लिहाज से यह एक ऐतिहासिक इमारत है , जिसमें वर्त्तमान में जिला न्यायालय लगता है |

छत्तीसगढ़ के प्रमुख इतिहासवेत्ता डा.प्रभुलाल मिश्र , डा. रमेन्द्रनाथ मिश्र , प्रो. लक्ष्मीशंकर निगम ने छत्तीसगढ़ शासन के इस ऐतिहासिक इमारत को तोड़कर उसके स्थान जिला न्यायालय के लिये नया बहुमंजिला भवन बनाने के निर्णय के औचित्य पर सवाल उठाते हुए कहा कि केन्द्र सरकार के अलावा अन्य अनेक राज्यों में 100 वर्षों से पहले निर्मित भवनों की सुरक्षा हेतु हेरीटेज एक्ट बना हुआ है | इसी हेरीटेज एक्ट के अंतर्गत पुराने इमारतों का कानूनी रूप से संरक्षण किया जाता है | उन्होंने कहा कि लेकिन दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ में ऐसा कोई भी एक्ट नहीं है जिसके तहत कानूनन पुरानी इमारतों का संरक्षण हो सके | उन्होंने इतिहास के तथ्यों और 1855 के संरक्षित पत्रों का हवाला देते हुए बताया कि वर्त्तमान जिला न्यायालय भवन सौ साल से भी ज्यादा पुराना है और अनेक इतिहासकारों के अनुसार इसमें रायपुर बूढापारा स्थित किले के बड़े पत्थरों का इस्तेमाल निर्माण में किया गया है | प्रदेश के जानेमाने और वरिष्ठ आर्किटेक्ट टी.एम.घाटे ने नगर की विकास योजनाओं में दूरदृष्टि का अभाव बताते हुए कहा कि यही कारण है कि शासन के स्तर पर किये जा रहे निर्माण चार छै साल में ही कम और छोटे पड़ जाते हैं | प्रदेश हेरीटेज बचाओ समिती की और से बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन ने कहा कि हेरीटेज एक्ट के छत्तीसगढ़ में प्रभावी नहीं होने के कारण पुराने भवनों को संरक्षित नहीं किया जा सक रहा है परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि हम किसी भी पुरातात्विक महत्त्व के भवन को तोड़कर वहाँ अपनी सुविधा अनुसार नए भवन का निर्माण कर लें |

ज्ञातव्य है कि राज्य शासन वर्त्तमान न्यायालय परिसर को तोड़कर वहाँ पर बहुमंजिला इमारत का निर्माण नए न्यायालय भवन हेतु करने जा रहा है और इसके लिये निविदा प्रक्रिया पूरी होकर कार्यादेश भी जारी कर चुका है | सभा को उपस्थित गणमान्य नागरिकों में से प्रमुख रूप से सर्व/श्री अनिल पुसदकर , सुभाष मिश्रा , ओझाजी , शशी भाई , अपूर्व गर्ग , विजय झा , दिलीप क्षत्रे , अनिल गुरुबख्शानी , डा.दल्ला , अरुण कान्त शुक्ला , संजय पाठक , इत्यादि ने भी संबोधित किया | वक्ताओं ने न्यायालय भवन की ऐतिहासिक इमारत को तोडने का विरोध करने के साथ साथ शहर के अंदर व्याप्त अन्य समस्याओं पर भी पहल करने का आग्रह नागरिक संघर्ष समिति से किया | समिति ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि जिला न्यायालय की इमारत को ढहाने से रोकने के लिये एक प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल से मुलाक़ात कर ज्ञापन सौंपेगा , रायपुर की ऐतिहासिक धरोहरों की सूची तैयार कर उनको बचाने की कार्रवाई के लिये एक समिति गठित की जायेगी , शासन से मांग की जायेगी कि जवाहरलाल नेहरू अरबन एंड रूरल मिशन के प्रावधानों को पूर्ण सतर्कता और बिना चुके लागू करने के उपाय शासन करे | सभा का संचालन हरजीत सिंह ने किया और प्रस्ताव तथा भूमिका नागरिक संघर्ष समिति के प्रदेश अध्यक्ष डा. राकेश गुप्ता ने रखी | नागरिक संघर्ष समिति के शहर अध्यक्ष विश्वजीत मित्रा ने धन्यवाद ज्ञापन किया |