Sunday, May 10, 2020

कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (2)


श्रम क़ानूनों पर हमले की हड़बड़ी

दरअसल, कोरोना काल को तथाकथित सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’ बताने की शासक वर्ग में होड़ लगी है। नवउदारवाद के बाद के विश्व में सबसे अधिक यदि कुछ बदला है तो वह सुधार शब्द का अर्थ है। मेहनतकश के लिये सुधार का मतलब मौजूदा कानूनों में सुधार कर उसके अधिकारों, हितों और कल्याण के लिये और बेहतर कानून बनाना नहीं रह गया है बल्कि इसके ठीक उलट सुधार का मतलब ऐसे कानून बनाना हो गया है जो मेहनतकश के अधिकारों, हितों और कल्याण में कटौती कर उनका और अधिक शोषण करने का अधिकार मालिकों और सरकार को दें।  

कोविद-19 जैसी महामारी को भी जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित भारत का मेहनतकश ही हो रहा है अवसर में बदलने की यह मुहीम हमारे प्रधानमंत्री की अगुवाई में ही चल रही है जैसा कि उनकी मुख्यमंत्रियों के साथ हुई वीडियो कान्फ्रेंसिंग से पता चलता है। इस सोच को कैसे और कितनी जल्दी अमली जामा पहनाया जाये, आज उनकी चिंता का प्रमुख बिंदु है। नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगरिया कहते हैं कि यह अवसर तभी तक उपलब्ध रहेगा जब तक वेक्सीन नहीं खोज ली जाती। उसके बाद केवल पछताना हाथ रहेगा, इसलिए, भूमी अधिगृहण और एसएचआरएम क़ानूनों में वे सारे सुधार तुरंत कर लेना चाहिए जो शांति काल में करना कठिन है। अरविंद पनगरिया अकेले नहीं है। सबके अपने तर्क हैं पर उद्देश्य एक ही है भूर्जन और श्रम क़ानूनों पूंजी के पक्ष में लचीला बनाना। ‘बिजनेस स्टेंडर्ड’ के सह-मालिक तथा संपादक टी एन निनान का तर्क और ज्यादा अपीलिंग है| उनका कहना है कि; 

"नौकरी में सुरक्षा, वेतन, पेंशन आदि यह सब तो भारत की कुल श्रम-शक्ति के मात्र 6% श्रमिकों को उपलब्ध है। बाकी सब तो असंगठित क्षेत्र में हैं, सब के लिये उपलब्ध, और उनमें वो भाग्यवान है जिसे कभी एक नियुक्ति पत्र भी मिल जाये। सरकार और पब्लिक सेक्टर के ‘C’ श्रेणी के कर्मचारियों को श्रम बाजार की तुलना में दो से तीन गुना ज्यादा वेतन दिया जाता है। यह नहीं चल सकता। जब अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल चल रही है तो ऐसी अतार्किकता को समाप्त करना ही होगा। कोविद-19 का संकट यदि उसमें कुछ तार्किकता लाने में मदद करता है तो उसमें कुछ भी विनाशकारी नहीं है।"        

श्री गौतम चिकरमाने, आब्जर्वर रिसर्च फाउन्डेशन, जो रिलाएंस ग्रुप से फंडेड एक थिंक टेंक है, के उपाध्यक्ष हैं।  उन्होंने फाउन्डेशन के लिये 10 अप्रैल 2020 को लिखे अपने लेख में सुधारों की वकालत करते हुए कोविद-19 को एक प्रकार से उत्सव के रूप में लेने की सिफारिश की है। गौतम चिकरमाने के अनुसार; 

“संकट सुधारों के अगुआ होते हैं| संकट, पुरानी घाव बन चुकीं, समस्याओं को ठीक करने के लिये अगुआ के रूप में कार्य करते हैं। संकट हमें वैधानिक-कार्यपालिक-प्रशासनिक गफलतों से ऊपर उठाते हैं।  संकट बड़े संतुलनों के लिये रास्ता साफ़ करते हैं। और, संकट राष्ट्र को संगठित करते हैं...

कोविद-19 सुधारों को लाने के लिये एक सही तूफ़ान है।  अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोंण से कोविद-19, 1991 के जैसा अवसर है। भूराजनीतिक दृष्टिकोंण से कोविद-19 बालाकोट जैसा अवसर है। संवैधानिक रूप से कोविद-19 आर्टिकल 370 को रद्द करने जैसा अवसर है।

भूमि, श्रम, ढांचागत जैसे साधारण सुधार हमारे सामने हैं।  ये तिकड़ी जो अभी तक हमारी आकांक्षा थी, जरूरत है कि कोविद-19 से अब उसकी शुरुवात हो। आज से तीन से छै माह के बाद भारत और दुनिया में इन सुधारों के बारे में भूतकाल की बातें मानकर बात की जायेगी। इन तीनों सुधारों को लागू करने के पीछे का तर्क बहुत सीधा है। भारत को रोजगार चाहिये। रोजगार निजी पूंजी के द्वारा निर्मित किये जाते हैं। निजी पूंजी को ऐसा व्यावसायिक वातावरण चाहिये जो उद्यमियों के लिये मित्रवत हो।  

कमेटियां, कमीशन, टास्क-फ़ोर्स बनाकर समय को व्यर्थ करने का समय चला गया है। हम 21वीं सदी के कुरुक्षेत्र में हैं और सारे मोल-तौल-समझौते पीछे छूट चुके हैं। कार्रवाई ही आगे एकमात्र रास्ता है। और, सरकार के मुखिया होने के नाते, भूतकाल के खिलाफ युद्ध और एक नए तथा ‘सुधारे गए’ भारत में ले जाने की घोषणा करने का शंख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में ही है। हमें स्वतन्त्र भारत के सामने आई सबसे बड़ी चुनौती कोविद-19 को भारत को उपलब्ध सबसे बड़े अवसर के रूप में बदलना होगा।”

कोविद-19 काल में शासक वर्ग की मेहनतकश वर्ग के ऊपर हमला करने की सारी तैयारियां, मंशायेँ और चरित्र खुलकर सामने आ गया है, जो दबे पाँव अन्य अनेक बहानों से लगातार चल रही थीं पर मेहनतकश के विरोध की वजह से पूरी नहीं हो पा रही थी। भूमि सुधार कानून, जिसके जरिये वे किसानों से उनकी ज़मीनें हड़पने का अधिकार चाहते हैं, श्रम क़ानूनों में सुधार, जिसके जरिये वे न केवल वेतन-मजदूरी ठहराने में मनमानी बल्कि मजदूरों को बिना कारण बताए कभी भी हकालने का अधिकार चाहते हैं, उनके लिए इतने जरूरी हैं कि उन सुधारों को लागू करन के लिये उन्हें कोविद-19 जैसी महामारी एक तूफान, बालाकोट जैसा सर्जिकल हमला, नव-उदारवाद का पुनर-आगमन या आर्टिकल 370 को रद्द करने जैसा समय लगता है। आज तक किसी भी देश के शासक वर्ग ने अपने ही देश के बहुसंख्यकों को तूफान से उड़ा दो, देश के दुश्मन (बालाकोट सर्जिकल स्ट्राईक), देश का अस्थायी हिस्सा( आर्टिकल 370) के रूप में नहीं देखा होगा। गौतम चिकरमाने का लेख, लेख नहीं, शर्मनाक वर्गीय घोषणापत्र है जो नग्न भाषा में हमारे सामने आया है।

असल में, किसानों की जमीन पर कब्जा करने के लिये संबंधित क़ानूनों में ढील, मजदूरों के वेतन या रोजंदारी को कम करने वाले कानून बनाने और श्रम क़ानूनों की होली जलाने का, कोविद-19 जैसी महामारी से निपटने के तरीकों के साथ या देश के बदतर होते जा रहे आर्थिक हालात के साथ दूर दूर का कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ होगा तो वह यह कि ये सभी कदम आम किसान-मेहनतकश, जो परिवार सहित मिलाकर देश में 80 करोड़ से ज्यादा हैं, का जीवन और दूभर होगा तथा बाजार में मांग और घटेगी क्योंकि तरलता ऊपर से नीचे तभी आती है जब श्रम नीचे से ऊपर जाता है। सचाई तो यही है कि देश की अर्थव्यवस्था कोविद-19 के संकट के पहले से संकट में थी। उसका सबसे बड़ा कारण तो बड़े बड़े कारपोरेट का पूंजी दबाकर बैठ जाना और पुराने निवेश में ही और निवेश करने से या नया निवेश करने से बिदकाव था। 2016 की नोटबंदी के लिए प्रधानमंत्री कितना भी अपनी पीठ खुद थपथपा लें अथवा अपने अनुयायियों से थपथपवा लें पर नोटबंदी में सूक्ष्म-लघु तथा मंझौली औद्योगिक इकाईयों को पहुंचे नुकसान की वजह से बढ़ी बेरोजगारी ने बाजार में मांग को जो धक्का पहुंचाया है, उससे देश अभी तक उबर नहीं पाया है। कोविद-19 की आड़ लेकर मजदूर और किसानों पर जो आक्रमण करने की मुहीम चलाई जा रही है, सरकारें और कारपोरेट जितनी जल्दी उससे तौबा कर लें, उतना बेहतर होगा।

बेशक, मेहनतकश के लिए समय कठिन है। सर्वहारा के वे सभी हिस्से किसान-छात्र-मजदूर-नौजवान आज जैसा कि सामने है, उठकर प्रबल विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। उन्हें पुन: संगठित होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए समय की दरकार है। पर, शासक वर्ग को यदि कोविद-19 एक अवसर लगता है तो लॉक-डाउन उनके लिए एक सबक भी होना चाहिए कि खेत, खदान, फेक्टरी, भट्टे, रेल, बस, बाजार, अस्पताल, सीवरेज़ सभी में तब ही काम होता है जब इन नंगे-पाँव विस्थापन वालों के हाथ लगते हैं। कामगार के श्रम के बिना, पूंजी के मालिक, तथाकथित संपदा उपार्जक (Wealth Creators), एक डबल रोटी से लेकर एक सुई तक नहीं बना सकते हैं। मई दिवस यदि मेहनतकश के लिये अंधकारमय होगा तो शासकवर्ग को याद रखना होगा उनका भविष्य भी उनके लिए अंधकार से कुछ कम नहीं होगा।

अरुण कान्त शुक्ला
8 मई 2020

Saturday, May 9, 2020

कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (1)


कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (1)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने किसी राजनीतिक विरोधी की कभी प्रशंसा भी करें और वह भी कांग्रेसी तो किसी को भी आश्चर्य होगा किन्तु 27 अप्रैल 2020 को ऐसा हुआ। प्रधानमंत्री की प्रशंसा के पात्र थे राजस्थान के कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। अवसर था राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ हुई वीडियो कान्फ्रेंसिंग। समाचार पत्रों में आई खबर के अनुसार उन्होंने कहा कि प्रत्येक राज्य में कोई न कोई पार्टी शासन में है जो महसूस करती है कि उसके पास देश को आगे ले जाने का अवसर है। हमें सुधार भी करना है | यदि सुधार करने कि दिशा में राज्य पहल करता है, आप देखिये इस संकट को हम बहुत बड़े अवसर में पलट सकते हैं| मैं अशोक गहलोत जी को बधाई दूँगा। उन्होंने कई पहल कीं। उन्होंने श्रमिकों के लिये समय सीमा की भी बढ़ौत्तरी की है| ठीक है आलोचना थोड़ी हुई होगी, लेकिन राजस्थान ने दिशा दिखाई है|”
स्पष्टत: प्रधानमंत्री राजस्थान सरकार के उस निर्णय का हवाला दे रहे थे जिसके अनुसार फेक्ट्रियों में काम का समय 8 घंटे से बढाकर 12 घंटे किया गया है| उनका आग्रह था कि अन्य राज्यों को भी  इसका अनुसरण करना चाहिये| वास्तविकता यह है कि दूसरे राज्य कार्य के समय बढ़ाने की इस दौड़ में पहले ही शामिल हो चुके थे| गुजरात, मध्यप्रदेश, हरयाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब, इन पाँचों राज्यों ने तो काम के घंटो को 8 से बढाकर 12 घंटे करने के लिये फेक्ट्रीस एक्ट 1948 में ही परिवर्तन कर डाला और वह भी प्रशासकीय आदेशों से| इन बढ़े हुए अतिरिक्त कार्य के घंटों के लिये बढ़ी हुई दर पर कोई भुगतान भी नहीं किया जाएगा|
2020 का यह मई दिवस भारत के मेहनतकश वर्ग के लिये इतिहास का सबसे अंधकारमय अथवा बुरा मई दिवस रहा है| भारत के मेहनतकश की आवाज कभी भी इतनी नहीं दबाई गई होगी| देश में लाखों लोग हैं जो अपने परिवारों से दूर जीवित बच पाने के लिये संघर्ष कर रहे हैं| रोजगार से निकाले गए, गाँठ में पैसा नहीं, खाने को कुछ नहीं, कल तक जैसी भी हो इज्जत से कमाकर खाने वाले हाथ फैलाकर कुछ मिल जाये तो पेट भरे की स्थिति में नंगे पाँव बाल-बच्चों के साथ पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पर अपने गाँव-घर जाने के लिये भटक रहे हैं| दुनिया का यह अब तक का सबसे बड़ा “नंगे-पाँव” विस्थापन होगा| स्वयं सरकार के आंकलन के अनुसार जैसा कि क्विंट ने 6 मई को रिपोर्ट किया है 5 से 6 लाख श्रमिक आज सड़कों पर हैं| वे जो इस आशा में कि सरकारें आश्वासन दे रही हैं तो उनके खाने और रहने की उचित व्यवस्था अवश्य करायेंगी, बदतर हालातों से लाचार होकर, जैसे बने वैसे, पैदल, साईकिल से पुलिस की लाठियाँ खाते या पुलिस वालों के इंतजाम से ही थोड़ा बहुत जो खाने मिले खाते अपने घरों को वापस लौट रहे हैं| सूरत, हैदराबाद, मुम्बई, दिल्ली में इन फंसे हुए लोगों ने ‘खाने दो या घर जाने दो’ की मांग करते हुए प्रदर्शन जरुर किये लेकिन प्रदर्शन करने वाले हजारों श्रमिकों को उतनी ही तत्परता से पुलिस ने खदेड़ भी दिया| इनके लिये बहुत बातें हुईं, टीव्ही पर बहस हुईं, सरकारों के आश्वासन आये, पर ठोस परिणाम यही है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भी वे फंसे हुए ही हैं और एक नई परिस्थिति अब इनके सामने पेश आने जा रही है वह है अपने मन (निर्णय) से अपने शर्म को बेचने का उनका अधिकार भी अब छिनने जा रहा है| आज कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने बेंगलोर से प्रवासी श्रमिकों के लिये चलने वाली सभी ट्रेन राज्य के प्रापर्टी डेवलपर्स के साथ बात करने के बाद केंसिल करवा दीं क्योंकि उन्हें राज्य की अर्थवयवस्था में सुधार के लिये श्रमिकों की जरूरत है| मत कहिये कि भारत के संविधान में लिखा है कि ‘बंधुआ मजदूर’ रखना अपराध हैं| आप किसी इंसान को एक अजनबी प्रदेश में जहाँ का वह रहने वाला नहीं है और मुसीबत के वक्त जिसे आपने एक रोटी नहीं दी, केवल इसलिए रोक सकते हैं या मजदूरी करने बाध्य कर सकते हैं क्योंकि वह अपने साधन से वापस नहीं जा सकता| गिनते रहिये आप लोकतंत्र की गिनती और पढ़ते रहिये संविधान का पहाड़ा, यह कोरोना काल का लोकतंत्र है और कोराना काल का संविधान। उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है कि सरकार लॉक-डाउन और लॉक-डाउन से जुड़े जो भी कदम उठा रही है, देशवासियों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिये ही तो उठा रही है। विश्वास करना कठिन हो सकता है पर केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा देकर बताया है कि 14 लाख विस्थापित श्रमिक राहत केम्प में रखे गए हैं और लगभग 1 करोड़ 34 लाख श्रमिक भोजन केन्द्रों से खाना खा रहे हैं। अब यह खाना तो उन्हें दोनों टाईम ही मिल रहा होगा? इसीलिये, जब मजदूरों को नगद राशी सहायता के रूप में देने की मांग की गई तो न्यायालय ने कहा कि उसकी समझ में जब खाना मिल रहा है तो नगद राशी का वो क्या करेंगे?
दुनिया के मजदूरों को 8 घंटे का कार्यदिवस मालिकों या सरकारों की मेहरबानी से नहीं बल्कि उनके द्वारा किये गए संघर्षों और दी गई शहादतों के परिणाम स्वरूप मिला है। मई दिवस मनाया ही जाता है शिकागो के उन शहीदों की स्मृति में जिन्होंने आज से 134 साल पहले पहली बार 8 घंटे के कार्य दिवस की मांग लेकर मशीनों के पहिये जाम किये थे और बदले में मालिकों के गुंडों और पुलिस न केवल उनके उपर गोलियाँ बरसाई थी, बल्कि उनके नेताओं को फांसी के तख्ते पर भी लटका दिया था| यह वह भयावह दौर था जब मजदूर के काम पर जाने का समय सूर्य के प्रकाश के साथ शुरू होता था और सूर्य के अस्त होने पर खत्म होता था। कालान्तर में बिजली के आविष्कार ने इन 12 घंटों की कार्यावधि को 16 और 18 घंटे तक बढ़ा दिया था। आज जिस 8 घंटे के कार्यदिवस का उपभोग दुनिया का मेहनतकश कर रहा है वह फेक्ट्री मालिकों की या सरकारों की मेहरबानी नहीं बल्कि मेहनतकशों के संघर्ष का नतीजा है। जैसा कि मार्क्स ने कहा भी है कि वे सभी कानून जिनसे मजदूरों के काम करने की अवधि सीमित (कम) की गई है “किसी संसदीय चाह या विचार का फल नहीं हैं। इसका नियमन, आधिकारिक मान्यता, और राज्य के द्वारा इसकी घोषणा, सब कुछ मेहनतकश वर्ग के लंबे संघर्ष का परिणाम हैं। एक सामान्य कार्यदिवस, इसलिए, पूंजीपति वर्ग और मेहनतकश वर्ग के बीच चले एक लंबे गृह युद्ध का परिणाम है...|”
भारत के मेहनतकश के लिये तो यह संघर्ष और भी कठिन था क्योंकि देश में ब्रिटिशर्स का राज था| देश में पहला कानून 1922 में बना जिसमें कार्य के घंटों को कम करके सप्ताह में 60 किया गया| फेक्ट्री एक्ट 1934 में इसे घटाकर 54 किया गया जिसे द्वतीय विश्व युद्ध के समय बढ़ाकर फिर से 60 कर दिया गया था| यह अद्भुत नहीं है कि हमारे देश की 6 राज्य सरकारों ने ब्रिटिशर्स के 1934 के फेक्ट्री एक्ट से भी 12 घंटे ज्यादा की कार्यावधि मजदूरों के लिये तय की है| बेशक, बताने की कोशिश यही की जा रही है कि यह एक अस्थायी कदम है जो 3-4 महिने या जब तक कोविद-19 रहेगा, तभी तक के लिये है| पर, जब प्रधानमंत्री इसे एक अहं सुधार बता रहे हों तो नीयत का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है।
9 मई 2020

Sunday, May 3, 2020

भारत सरकार ने दिया विस्थापित मजदूरों को मई दिवस का तोहफा : हसें या रोयें


लॉक-डाउन के पांच सप्ताह के बाद सरकार का यह फैसला कि देश में अनेक जगह फंसे हुए विस्थापित श्रमिकों को अपने गाँव-घर जाने लिये विशेष ट्रेनें चलाई जायेंगी, मई दिवस के एक तोहफे के रूप में सामने आया। यह उम्मीद सभी को थी कि 3 मई को दूसरे लाक-डाउन की अवधि सामाप्त होने पर सरकार अपने कार्य-स्थलों से लेकर हाई-वे की सड़कों और विभिन्न राज्यों की सीमाओं पर फंसे इन श्रमिकों की घर वापसी के लिये कोई कोई कदम जरुर उठाएगी। शुक्रवार याने 1 मई को रेलवे ने सुबह-सबेरे अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के मौके पर पहली ट्रेन तेलंगाना में हैदराबाद से झारखंड के हटिया के लिये रवाना की जिसमें 1200 प्रवासी श्रमिक थे। महाराष्ट्र के नासिक से जो ट्रेन मध्यप्रदेश के भोपाल के लिये रवाना हुई उसमें लगभग 325 प्रवासी श्रमिक थे। 1 मई को कुल 6 ट्रेन चलाई गईं। आप अंदाज लगा सकते हैं कि एक करोड़ में से यदि आधे भी वापस लौटने वाले होंगे तो उनके वापस लौटने तक लॉक-डाउन का तीसरा दौर भी खत्म हो जाएगा।

प्रश्न यह है कि लॉक-डाउन के 5 सप्ताह के बाद सरकार के इस तोहफे पर वे श्रमिक जो सरकार की तरफ से निराश होकर भूखे-प्यासे पैदल, साईकिल से सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पर रवाना हो गए और आज देश में सड़कों के किनारे, राज्यों की सीमाओं पर लाखों की संख्या में फंसे हुए हैं, वे मई दिवस को मिले इस सरकारी तोहफे पर हसें या रोयें? ये पांच सप्ताह हिन्दुस्तान को गढ़ने वाले उन कामगारों के लिये बेरोजगार होने के साथ साथ भूख और लाचारी के थे और जिसमें कितनों ने तो अपनी जिंदगी भी गँवा दी जिन्हें विस्थापितों के लिये बनाए गए आश्रयस्थलों में रखा गया, उन्हें तो वहाँ जेल से भी ज्यादा बदतर ज्यादतियां झेलनी पड़ी हैं और अभी झेल रहे हैं
अर्थशास्त्रियों से लेकर सरकारी मशीनरी का छोटे से छोटा कर्मचारी भी जानता है कि कपड़े या गारमेंट्स से लेकर स्टील तक, खिलोनों से लेकर कार तक, सड़क बनाने से लेकर भवन निर्माण तक, सभी उद्योगों और निर्माण कार्यों में, तथा बड़े उद्योगों के लिये आवश्यक कल-पुर्जों के निर्माण के लिये जो सहायक छोटी और मंझौली औद्योगिक इकाई काम करती हैं, उनमें श्रमिकों की पूर्ति, चाहे वह स्थायी कर्मचारी के रूप में हो अथवा ठेकेदार के माध्यम से, भारत के सुदूर गाँवों और छोटे शहरों से आये इन श्रमिकों से ही होती है| सरकार ये भी अच्छी तरह से जानती थी कि इन बड़े अथवा छोटे उद्यमियों से कितना भी हाथ जोड़कर कहा जाये पर जब सरकारें खुद अपने कर्मचारियों को यथोचित वेतन तक देने की स्थिति में नहीं है तो ये उद्यमी जब उत्पादन और विक्रय दोनों बंद हैं, कहाँ से इन मजदूरों को वेतन का भुगतान करेंगे। तब देश में लॉक-डाउन घोषित करने के तुरंत बाद ऐसी ही विशेष ट्रेन चलाकर इन्हें अपने गाँव और घरों को वापस जाने का अवसर क्यों नहीं दिया गया? यहाँ यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि जब लॉक-डाउन घोषित किया गया तब देश में कोविद संक्रमितों की संख्या मात्र 500 के आसपास थी और साथ ही इस बात की संभावना भी बहुत कम थी कि इन हजारों श्रमिकों में से कोई संक्रमित भी हो क्योंकि तब संक्रमण उन्हीं लोगों के मध्य था जो विदेश से लौटे थे अथवा किसी ऐसे संक्रमित के संपर्क में आए थे जो विदेश से लौटा हो।
सरकार का जबाब ये हो सकता है कि यदि इन श्रमिकों को इनके गाँव जाने दिया गया होता और इनसे संक्रमण गांवों और छोटे शहरों तक फैलता तो वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं की समुचित व्यवस्था नहीं होने से संक्रमण के फैलाव को रोकना संभव नहीं हो पाता। लॉक-डाउन की अवधि में देश के छोटे से छोटे गाँव तथा नगर में कोरोना के परीक्षण तथा उपचार की व्यवस्था स्थापित हो जाएगी। पर धरातल पर इन पाँच सप्ताह के भीतर गांवों की बात तो छोड़ भी दें, बड़े शहरों में भी कोरोना परीक्षण का कोई माकूल ढांचा उस स्तर पर नहीं खड़ा हो पाया है कि संक्रमण को पहले ही पता करके रोका जा सके। न ही छोटे नगर अथवा जिला स्तर भी चिकित्सा सुविधाओं के विस्तार करने के कोई प्रयत्न भी किए गए हैं। अब जब इन्हें वापस ले जाने के लिए ट्रेन चलाई जा रही है देश बुरी तरह कोरोना संक्रमण की गिरफ्त में है। संक्रमितों की संख्या 42000 से ज्यादा है और संक्रमण से हुई मृत्यु 1400 के आंकड़े को छू रही है।
सरकार के इन्हें वापस लाने के लिए विशेष ट्रेन चलाने के निर्णय के बाद भी सभी जानते हैं कि देश में गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और अनेक जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। शायद ही कोई विश्वास करेगा कि रेलवे के लिए यह संभव है कि वह समुचित संख्या में ट्रेन चलाकर देश के अनेक राज्यों की सीमाओं और हाईवे पर भटक रहे इन लोगों को वापस इनके घरों को वापस भेजने की कोई माकूल व्यवस्था कर पाये। उस पर तुर्रा यह कि रेलवे इन सभी का किराया राज्य सरकारों से वसूल करने वाली है। राज्य सरकारें पहले से ही अपने कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दे पाने की स्थिति में हैं। यदि कोई व्यवस्था हो सकती थी तो वह केवल लॉक-डाउन की तिथी घोषित करने के बाद नियमित ट्रेनों को कुछ अवधि तक चलाकर इन्हें वापस जाने का अवसर प्रदान करने की ही हो सकती थी। तब इन श्रमिकों की आर्थिक हालत भी आज से बेहतर होती और ये रेलवे को खुद किराया दे सकते थे। वैसी स्थिति में अभी को यात्रा के पहले स्वास्थ्य परीक्षण हो रहा है उसका पैसा और राज्य में वापस जाने के बाद स्वास्थ्य परीक्षण पर को खर्च होने वाला है, सभी से बचा जा सकता था। जैसा कि सरकार ने स्वयं लोकसभा का सत्र समाप्त होने के बाद और मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने के बाद लॉक-डाउन घोषित किया ताकि सांसद अपने घरों को वापस लौट सकें और मध्यप्रदेश में सरकार बन सके। क्या, इन मजदूरों के लिए जो वास्तव में देश का निर्माण करते हैं लौटने के लिए दो दिन का समय लॉक-डाउन घोषित करने के बाद नहीं दिया जा सकता था?
अरुण कान्त शुक्ला
3 मई 2020