Tuesday, September 28, 2010

राजा नंद का संकट मगध का संकट नहीं -


 

कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के सीईओ माईक हूपर का बयान कि उन्हें भारत की इज्जत से कोई मतलब नहीं है , उनका काम तो खेलों को सही तरीके से आयोजित कराना है , भारत के शासक वर्ग के सम्मान और प्रतिष्ठा का ताबूत बन चुके कॉमनवेल्थ खेलों पर आखरी कील है | जितना सख्त हूपर का बयान है , उतनी ही लीचड़ और बेबस प्रतिक्रिया दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने दी कि हूपर साहब का बयान अनुचित और दुखद है | मैंने हूपर के उस बयान को कई बार पढ़ा , पर मुझे उसमें कुछ भी अनुचित या दुखद नहीं लगा | हूपर भारत में कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन की देख रेख करने आये हैं और उनकी पूरी जिम्मेदारी और जबाबदेही कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के प्रति है ,न कि भारत की प्रतिष्ठा बचाने की | यदि मनमोहन सिंह एंड कंपनी , शीला दीक्षित या कलमाड़ी एंड कंपनी की समझ यह रही कि ब्रिटेन की रानी के दूत उनकी (उनके भारत की) इज्जत रखेंगे तो इसे इनके दिमाग के दिवालियापन के अलावा और क्या कहा जायेगा ? मनमोहनसिंह , जो अब खेलों के आयोजन से सीधे जुड़ चुके हैं , को अभी तक यह तो समझ में आ गया होगा कि जी-20 , डबल्यूटीओ में बुश , ओबामा से अर्थशास्त्री होने का तमगा लेकर पीठ थपथपवाना अलग बात है और देश के अंदर भ्रष्टाचार रहित , पारदर्शी , जनोभिमुखी प्रशासन देना अलग बात है |

वैसे , वे सभी लोग जो भारत के शासक वर्ग की हरकतों में , भारत सरकार के कामों में और भारत के राजनीतिक नेताओं के हास्यास्पद क्रियाकलापों में से हास्य रस निकाल कर खुश रहने का मंत्र ढूँढ चुके हैं , पिछले लगभग दो माह से सुखी होंगे | मैं स्वयं भी उन्हीं सुखी इंसानों में से एक हूँ | दरअसल , कॉमनवेल्थ के खेलों के संकट हमारा संकट है ही नहीं और इन खेलों के साथ देश की प्रतिष्ठा या राष्ट्रप्रेम जैसी किसी भावना को जोड़ना कोरी भावुकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | चाणक्य जब राजा नंद के शासन को उखाड़ने की चेष्टा में लगा था , नंद का महामंत्री अमात्य राक्षस ने चाणक्य को उन संकटों के बारे में बताया जिनसे नंद का राज घिरा हुआ था | पूरी बात सुनने के बाद चाणक्य ने अमात्य से कहा कि राजा नंद के संकट मगध ( मगध की प्रजा ) के संकट नहीं हैं | चाणक्य की उपरोक्त उक्ति भारत सरकार और भारत के शासक वर्ग के ऊपर पूरी तरह फिट बैठती है |

आज भारत के शासक वर्ग के सामने मौजूद संकट , देशवासियों के समक्ष मौजूद संकटों से एकदम जुदा हैं और कोढ़ में खाज की तरह शासक वर्ग राष्ट्रभक्ति , राष्ट्रीय सम्मान के नारों की आड़ में देशवासियों को तो अपने संकटों को बौझ उठाने कह रहा है लेकिन खुद देशवासियों के समक्ष मौजूद संकटों का संज्ञान भी नहीं लेना चाहता | कॉमनवेल्थ खेलों के सफल आयोजन से अगर देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि में कोई इजाफा हुआ भी तो वह देशवासियों के लिये शेयर मार्केट में हुए इजाफे के समान ही होगा , जिसका आम लोगों के संकटों से कोई भी वास्ता नहीं होता | जो सरकार घोषित रूप से इन खेलों पर 40 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रही है , जिसमें से हजारों करोड़ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है और न जाने कितना चढ़ेगा , उसी सरकार के मुखिया को हम कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट को गरियाते देख चुके हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो अनाज सड़ रहा है , उसे गरीबों को बांटने के लिये कहा था | इन खेलों की सफल मेज़बानी करके अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि में रौनक लाने के सपने देखने वाली सरकार को क्या कभी यह अपमान जनक लगता है कि उसके देश की एक अरब की आबादी में से आधी याने करीब पचास करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं याने उन्हें रोज भर पेट भोजन भी नहीं मिलता | भोजन याने क्या ? हलवा , पूड़ी , माल , मिठाई या फल , फूल नहीं सिर्फ दाल रोटी और जिस दिन तेल घी में बघरी सब्जी हो गई तो उनकी दिवाली हो जाती है | रोज मंहगाई कम करने के लिये रिजर्व बैंक के जरिये बाजार में तरलता ( पैसे का प्रसार ) कम करने के उपाय करने वाली सरकार ने पचास हजार करोड़ रुपये खर्च करने के पहले एक दफे भी नहीं सोचा कि आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है | उनकी आमदनी का ज्यादातर हिस्सा खाने पीने की चीजों में खर्च हो जाता है | उनकी जेब में दवाई दारु के लिये भी पैसा नहीं बचाता है | यहाँ तक कि जरूरी भोजन याने दाल और सब्जियां उनकी पहुँच से दूर हो गईं हैं | इसीलिये मैं कहता हूँ , शासक वर्ग की चिंताएं अलग हैं और हमारी चिंताएं अलग | शासक वर्ग के संकट अलग हैं और हमारे संकट अलग | आपका संकट , हमारा मनोरंजन कर सकता है , हम उसे हमारा संकट नहीं बनाएंगे | आपका संकट राजा नंद का संकट है , वह मगध का संकट नहीं है |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Sunday, September 26, 2010

जाना बचपन के मित्र और मार्गदर्शक का – एक श्रद्धांजली

मेरा बचपन का समय और युवावस्था तक पहुँचने की अवधि वह दौर था , जब एक मध्यमवर्गीय परिवार में कम से कम एक अखबार के साथ एक पारिवारिक साप्ताहिक पत्रिका के साथ बच्चों के लिये कम से कम एक पत्रिका अवश्य ली जाती थी | बचपन में करीब तेरह चौदह वर्ष तक की उम्र तक हर साल की गर्मी की छुट्टियाँ नाना नानी के साथ ही बिताया करते थे , जहाँ कल्याण के अनेकों अंक जिल्द बंद थे और सारी छुट्टियाँ कृष्ण , अर्जुन , कर्ण , और महाभारत की कहानियां पढते बीत जाया करती थीं | वैसे पत्रिकाओं के पढने की सही शुरुवात चंदामामा से हुई थी ,जो घर में नियमित आया करती थी | एक अंक के लिये एक माह का इंतजार कितना बेसब्र बना सिया करता था कि हाथ में पडते ही आधे घंटे के भीतर पूरी चंदामामा खत्म हो जाती थी और फिर उन्ही कहानियों को और पुराने अंकों को पढते रहना ही काम रह जाता था | उसके बाद आया पराग का युग , जिससे , मेरी जानकारी में बाल साहित्य में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का दौर शुरू हुआ |राजा –रानी , राक्षस , देवी –देवताओं और बेताल से आगे का युग | वैसे स्थानीय अखबार में उस समय के मृत्युंजय को भी पढने का बड़ा चाव रहता था | और फिर मेरे पन्द्रह बरस का होते होते "नंदन" शुरू हुआ , जिसमें मनोरंजन के अलावा शिक्षा के तत्व को भी डालने की शुरुवात हुई | उसी "नंदन" के जरिये पहली बार स्कूली शिक्षा के बाहर के किसी साहित्यकार को जाना | कन्हैय्यालाल नंदन उसमें बच्चों के नाम से एक चिठ्ठी लिखा करते थे | अक्सर वे चिठ्ठियां बहुत शिक्षाप्रद हुआ करतीं थीं | कहते हैं , कहते क्या हैं , में इसे मानता हूँ कि स्कूल की शिक्षा किसी को भी शायद असीमित योग्यता प्रदान कर सकती है , पर , जहाँ तक मानस पर अमिट प्रभाव छोडने की बात है , वह तो स्कूली और कालेजी शिक्षा से इतर जगहों से ही मिलती है | कन्हैय्यालाल नंदन ने अपने साहित्य जीवन में अनेकों बच्चों के लिये इस पुण्य काम को किया होगा , जिनमें से अनेक बच्चे इसे महसूस ही नहीं कर पाए होंगे | एक ऐसे साहित्यकार को मुझ जैसे अनाम और अकिंचन की भावभरी श्रद्धांजली |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Saturday, September 18, 2010

आम जनता दंगा फसाद नहीं करती --


अयोध्या की विवादित भूमि पर 24 सितम्बर को आने वाले फैसले को टालने के लिये दी गई याचिका के खारिज होने के साथ यह पक्का हो गया है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ 24 सितम्बर को ही मामले में अपना फैसला सुना देगी | यदि इस बात को सत्य माना जाये कि प्रत्येक देश और समाज को काल चक्र अतीत में की गई गल्तियों को सुधारने का अवसर अवश्य प्रदान करता है तो भारतीय समाज और विशेषकर हमारे
देश के राजनेताओं , संतों और इमामों के समक्ष यह अवसर इसी 24 सितम्बर को उपस्थित होने जा रहा है , जब विवादित भूमि पर अदालत का फैसला आयेगा |


यह देखते हुए कि अयोध्या विवाद भारत के हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच तनाव का एक प्रमुख मुद्दा रहा है , और देश की राजनीति को इसने न केवल प्रभावित किया है
बल्कि हमारे देश के राजकीय पक्षों ने इसका बेजा राजनीतिक इस्तेमाल भी अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये किया है , एक चुनौती हमारे सामने मौजूद है कि पुनः ऐसा न हो पाये | अदालत के निर्णय के संबंध
में मुस्लिम पक्ष ने हमेशा कहा है कि वह अदालत का फैसला मानेगा , लेकिन विश्व हिन्दु परिषद का एक तबका यह कहता आया है कि यह उनकी धार्मिक आस्था का मामला है , जिसका फैसला अदालत नहीं कर सकती | भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिन्दू परिषद के एक तबके सहित कई हिंदू संगठनों की मांग रही है कि सरकार संसद में कानून बनाकर विवादित जमीन उसे एक विशाल राम मंदिर बनाने के लिये दे दे , लेकिन देश के बहुसंख्यक लोगों के इससे सहमत नहीं होने के चलते भाजपा को भी सत्ता में आने के लिये इस मुद्दे को छोड़ना पड़ा था | यद्यपि आरएसएस प्रमुख मोहन राव भागवत कानून के दायरे में ही प्रतिक्रिया व्यक्त करने और शांति बनाये रखने का आश्वासन दे रहे हैं लेकिन उसके सहयोगी विश्व हिन्दू परिषद के तेवर कड़े हो रहे हैं | माहौल फिर से तनाव पूर्ण है | कानून व्यवस्था बिगड़ने की आशंका जताई जा रही है | आम देशवासी सहमे हुए हैं | यह सब तब है जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के फैसले के बाद सभी पक्षों के लिये आगे और कानूनी कार्यवाही करने के रास्ते खुले हुए हैं |


बहरहाल ,एक बात , अयोध्या मामले के चारों पक्षकारों सुन्नी वक्फ बोर्ड , निर्मोही अखाड़ा , राम जन्म भूमि न्यास ,गोपाल सिंह व्यास के साथ साथ आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों तथा भाजपा और कांग्रेस
के नेताओं को समझना पड़ेगी , कि , पिछ्ले तीन दशकों में घटी तीन बड़ी घटनाओं , सिख विरोधी दंगे , बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात का नरसंहार , ने भारतीय समाज के मानस को तोड़कर रख दिया है | राष्ट्रीय एकता , सर्व धर्म समभाव , हजार से ज्यादा वर्षों की साझा विरासत जैसे नारों से समाज के अन्दर पैदा हुए अलगाव को ढाका तो जा सकता है लेकिन जरा सी हलचल से उस अलगाव के घाव फिर हरे हो जाते हैं | उपरोक्त घटनाओं में केवल निरीह देशवासी ही नहीं मारे गये थे , बल्कि अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले भारतीय दर्शन की भी हत्या हुई थी | समाज की उस सामूहिक सोच को नकारा गया था , जो किसी भी समाज की समरसता और समग्र विकास के लिये अत्यंत आवश्यक होती है | प्रसिद्ध दार्शनिक रामचंद्र गांधी के शब्दों में बाबरी मस्जिद पर हमला मस्जिद पर नहीं बल्कि भारतीय सोच पर था | सत्ता प्राप्त करने की राजनीति में सामाजिक अलगाव फैलाने से प्राप्त होने वाले फायदे कितने तुच्छ और अल्पकालिक होते हैं , यह सभी देख चुके हैं | घ्रणा और द्वेश की जमीन पर राजनीतिक फसल हमेशा नहीं लहलहा सकती , इस सबक को हमेशा याद रखने की जरुरत है |


यह फैसला एक ऐसे समय आ रहा है , जब देश में संकटकालीन परिस्तिथि मौजूद है | एक तरफ कश्मीर का मामला है , जहाँ अलगाव वादी ताकतें पूर्ण उग्रता के साथ सक्रिय हैं तो दूसरी ओर कामन वेल्थ के खेल हैं , जिनकी तैय्यारियों पर अनेक प्रश्न खड़े हैं और आने वाले अतिथियों और खिलाड़ियों की सुरक्षा का बहुत बड़ा दायित्व केंद्र और दिल्ली की सरकार पर है | मामले की नजाकत को देखते हुए ही केंद्र सरकार ने सभी लोगों से शांति बनाये रखने की अपील की है | पर कांग्रेस को भी साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर अपने समझौता वादी रुख में सुधार करना होगा | कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस दोनो ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वायदा किया था कि सत्ता में आने पर वे श्रीक्रष्ण आयोग की रिपोर्ट
को लागू करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं | रिपोर्ट में जिन अफसरों और नेताओं की आलोचना हुई , उनमें से किसी को भी सजा नहीं हुई | यदि ऐसा हुआ होता तो आज जैसे अन्देशे वाली स्थिति का निर्माण नहीं हुआ होता |


हमारे देश के राजनेताओं के सोच का दायरा इतना संकीर्ण और सत्तालोलुप है कि वे समझ ही नहीं पाते कि सिख विरोधी दंगे , बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात नर संहार जैसी घटनाएं समाज के लोगों की मानसिकता पर कितना विपरीत प्रभाव डालती हैं | पिछले तीन दशकों में भारतीय समाज में जिस बढ़ी हुई असहनशीलता और क्रूरता को हम देख रहे हैं , उसमें पिछले तीन दशकों के दौरान अपनाई गईं आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरुप पैदा हुए असंतोष के अलावा उपरोक्त तीनो घटनाओं का भी बड़ा हाथ है | स्वयं जस्टिस श्रीकृष्ण ने हाल ही में दिये गये एक साक्षात्कार में यह पूछने पर कि कमीशन की बैठकों के दौरान जब लोग अपनी कहानियाँ बयान करते थे तो एक इंसान के नाते आप पर क्या प्रभाव पड़ा , बताया कि , इस कमीशन में काम करने से पहले मैं बहुत शांत व्यक्ति था | मुझे कभी गुस्सा नहीं आता था| कमीशन में लोगों की कहानियाँ सुनते सुनते मुझे बहुत गुस्सा आने लगा , मैं तेज मिजाज का हो गया | ये मेरे परिवार का कहना है | जस्टिस श्रीकृष्ण ने आगे कहा कि अगर आप सुनते रहें कि इसे जला दिया गया , उसे मार दिया गया , इससे मानसिक व्यथा होती है और इसके
अंतरंग परिणाम होते हैं |


जब एक जस्टिस जिसे रोज तनावपूर्ण परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है , उद्वेलित हो जाता है तो साधारण जनों के उपर पड़े प्रभाव का संकेंद्रित सामाजिक प्रभाव तथा उसके सामाजिक परिणाम कितने घातक होते होंगे , समझा जा सकता है | देश के राजनियकों को सोचना पड़ेगा कि वे किस तरह का भारतीय समाज चाहते हैं | आम जनता दंगा फसाद में नहीं पड़ती , उनको भड़काने वाले लोग होते हैं , जो उन्हें उद्वेलित करते हैं | जब व्यक्ति भड़क जाता है तो भटक भी जाता है | उम्मीद करें इस बार ऐसा न हो |


अरुण कान्त शुक्ला

Thursday, September 9, 2010

क्रिकेटर्स को भारत रत्न नहीं देना चाहिये --


जबसे सचिन तेन्दुलकर ने साउथ अफ्रिका में दोहरा शतक बनाया है , उन्हें भारत रत्न देने के लिये जबर्दस्त लाबिंग मीडिया की पहल परचल रही है | इस लाबिंग में कुछ खेल विशेषज्ञों , पुराने समकालीन क्रिकेटरों के साथ साथ राजनीतिज्ञों का जुड़ना आश्चर्य में डालने वाला रहा है | सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न देने की सिफारिश महाराष्ट्र सरकार ने तो की ही , लोकसभा तथा राजसभा में भी सांसदों ने ऐसी मांग केंद्र सरकार से किये | सचिन स्वयं इस सम्बंध में अपनी लालसा को छुपा नहीं पाते हैं | भारतीय वायु सेना में ग्रुप कैप्टेन की मानद उपाधी ग्रहण करने के समारोह के समय यह लालसा पुनः उजागर हुई है | बहरहाल , सचिन ही क्यों , कोई भी स्वयं को योग्य समझने वाला व्यक्ति यदि ऐसी आकांक्षा या लालसा रखता है तो उसमें गलत कुछ भी नहीं है | पर , सचिन तेंडुलकर ही क्यों , आज की व्यवसायिक क्रिकेट से जुडे किसी भी व्यक्ति को क्या भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान देना चाहिये , यह जरुर गम्भीर और विचारणीय प्रश्न है ?
एक समय था , जब क्रिकेट को भद्र जनों का खेल कहा जाता था | पर यह भद्र जनों का खेल कब रहा , यह बताना बहुत मुश्किल है | हो सकता है , इसे भद्र जनों का खेल इसलिये कहा जाता रहा हो क्योंकि उस दौरान भद्र जनों के पास ही इतना समय रहता हो कि वे एक दिन विश्राम का मिलाकर छै दिनों का टेस्ट मेच खेल सकते हों | एक श्रंखला में न्यूनतम पांच मेच खेले जाते थे | दो टेस्ट मेच के बीच का अंतराल मिलाकर , पूरी श्रंखला के लिये दो माह से उपर का समय लगता था | इतना समय तो भद्र जन ही निकाल सकते थे | इसके अलावा इसमें कोई भद्रता कभी नहीं रही | यदि रही होती तो इंग्लेंड-आस्ट्रेलिया एशेज श्रंखला के दोरान बरसों पहले कुख्यात बाडी लाईन प्रकरण नहीं हुआ होता | हो सकता है कि हाकी - फुटबाल और अन्य खेलों के उपर अपनी सुप्रिमेसी , जो आज भी कायम है , बनाने के लिये भद्रजनों ने ही इसे भद्रजनों के खेल के नाम से प्रचारित किया हो | बहरहाल क्रिकेट आज भद्रजनों का नहीं भ्रस्टजनों का खेल है | इसमें भद्रता किंचित मात्र भी नहीं है , किंतु भ्रस्टता से यह लबालब भरा हुआ है | क्रिकेट खेलने वाले देशों में से कोई भी एक देश ऐसा नहीं है , जिसके खिलाड़ियों पर पैसा खाकर , ऐसा , खेलने के आरोप नहीं लगे हैं , जिससे खेल का परिणाम प्रभावित होता है | इंग्लेंड , आस्ट्रेलिया जैसे देश हैं , जहाँ क्रिकेट पर सट्टेबाजी के लिये बकायदा कंपनियां खुली हुई हैं और नामी गिरामी क्रिकेट खिलाड़ियों का उनसे व्यावसायिक रिश्ता है | जिस बात पर गौर किया जाना चाहिये वह यह है कि क्रिकेट में सट्टेबाजी कहीं भी क्यों न हो , भारत का नाम उसमें अवश्य जुड़ा रहता है | 1998 में आस्ट्रेलियन खिलाड़ी शेन वार्न और मार्क वाघ ने खुलासा किया था कि 1994 के टूर्नामेंट के दोरान उन्होनें एक इंडियन बुकी को जानकारियां उपलब्ध कराईं थीं | भारत , श्रीलंका , पाकिस्तान के खिलाड़ियों पर सट्टेबाजों से पैसा लेकर खेल को प्रभावित करने के आरोप नये नहीं हैं | यहाँ तक कि कपिल देव , जो 1983 में एक दिवसिय क्रिकेट का विश्वकप जीतकर लाये , उन पर भी मनोज प्रभाकर ने सट्टेबाजों से पैसा लेने का आरोप लगाया था |
भारत में क्रिकेट लोकप्रियता से उपर उठकर लगभग एक जुनून है | इसे जुनून बनाने में उस ईलाक्ट्रानिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है , जो आज बिना सोचे , विचारे किसी भी मुद्दे पर न केवल जनभावनाओं बल्कि सरकारों सहित देश की अन्य सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपने अनुसार चलाने की कोशिश में लगा रहता है | किंतु , फुटबाल सोसर के समान क्रिकेट पूरी दुनिया में नहीं खेला जाता है | भारत रत्न , कला , साहित्य , विज्ञान एवं टेकनालाजी तथा उच्च कोटी के लोक कार्यों के लिये देने का प्रावधान है | क्रिकेट भारत में उद्योग की सीमा से आगे बड़कर धंधे में परिवर्तित हो चुका है और क्रिकेट खिलाड़ी विज्ञापनों और फेशन परेडों से कमाई करने के अलावा करोडों रुपयों में खुद को बेच रहे हैं | इंडियन प्रीमियर लीग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है , जहाँ भारत के बड़े और नामी क्रिकेट खिलाड़ी , माने हुए विदेशी खिलाड़ियों के साथ , अपने मालिकों को खुश करने के लिये सरकस के शेर , भालू , बन्दर के समान करतब दिखा रहे हैं और असफल होने पर मालिकों से झिड़की भी खा रहे हैं | क्रिकेटर्स का कार्य किस श्रेणी में आयेगा ? जिन विज्ञापनों में किसी भी दौर के क्रिकेट खिलाड़ियों ने काम किया है , उनमें से ढेरों ऐसे हैं जो आम देशवासियों और विशेषकर बच्चों और युवाओं के लिये अत्यंत हानिकारक हैं | व्यावसायिक क्रिकेट , क्रिकेट में भ्रष्टाचार , सर्कस क्रिकेट , विज्ञापनों में काम , रेम्प पर केट वाक , क्रिकेटर्स के किस काम को और किस उपलब्धी को लोक कार्य की श्रेणी में रखा जायेगा ? इसलिये ,क्रिकेटर्स को भारत रत्न से जितना दूर रखा जाये , भारत रत्न के लिये उतना ही अच्छा होगा |

 

अरुण कांत शुक्ला