Tuesday, June 28, 2011


शहीद जवानों को नसीब हुई पहले कचरा गाड़ी और फिर दो शहीदों के पार्थिव शरीर को नसीब हुई एक एम्बुलेंस –
किरंदुल के शहीद पोलिस जवानों को राज्य सरकार का सम्मान -  

अभी दो दिन पहले मैंने अपने लेख भ्रष्टाचार और अपराध की गिरफ्त में अमीर प्रदेश गरीब लोग में लिखा था कि राज्य शासन और संबंधित अधिकारियों को जिस संजीदगी को माओवाद से निपटने के लिये दिखाना चाहिये , उसका अभाव सोच के स्तर से लेकर योजना के स्तर तक स्पष्ट दिखाई पड़ता है | और आज दो दिनों के भीतर मानो राज्य शासन ने उस पर मोहर लगाने के लिये किरंदुल में माओवादियों के हमलों में शहीद हुए पोलिस जवानों के पार्थिव शरीर को कचरा ढोने वाले वाहन में मुख्यालय बुलवाया , किसलिए , ताकि दंतेवाड़ा मुख्यालय में उनको सम्मान देकर , उनके पार्थिव शरीरों को ससम्मान उनके गृहग्राम भिजवाया जाये | कारगिल के शहीदों की याद में हर साल टसुए बहाने वाली भाजपा की राज्य सरकार की खुद के प्रदेश में माओवाद के खिलाफ लड़ने वाले और शहीद होने वाले अपने सिपाहियों के प्रति संवेदना और सम्मान व्यक्त करने का तरीका देखिये कि उनके शवों के नगरपालिका की कचरा गाड़ी में रखकर बुलवाया गया |
माओवाद को छत्तीसगढ़ से जड़मूल से उखाड़ फेंकने का दम दिखाते रहने वाले प्रदेश के डीजीपी विश्वरंजन जी की मजबूरी और असहायता देखिये वो कहते हैं कि उस समय कोई एम्बुलेंस उपलब्ध नहीं थी , केवल नगरपालिका का वाहन ही उपलब्ध था और जिसे वो वाहन कह रहे हैं , वह कचरा वाहन है | हाँ , उन जवानों के पार्थिव शरीर और उनके परिजनों पर मानो बहुत बड़ा उपकार किया गया हो , वे कहते हैं कि पहले उस कचरा गाड़ी की अच्छे तरीके से साफ सफाई कर दी गयी थी | वे सभी जो दंतेवाड़ा से आगे की भौगोलिक परिस्थिति से ज़रा भी वाकिफ हैं , अच्छी तरह से जानते हैं कि जहां इन जवानों की मृत्यु हुई उसके नजदीक ही किरंदुल बड़ी जगह है और बचेली है , जहां सभी तरह की सहूलियतें , एम्बुलेंस सहित आसानी से उपलब्ध हैं | बचेली में एनएमडीसी की रिहाईशी कालोनी है | वैसे भी अगर शासन ने एनएमडीसी से ही कहा होता तो एम्बुलेंस क्या कोई अन्य बड़ा वाहन भी आसानी से उपलब्ध हो सकता था , परन्तु उसके लिये जिस संजीदगी और संवेदना की आवश्यकता होती है , वह छोटे कर्मचारियों के मरने पर दिखाने के लिये शासन के पास होती कहाँ है ?
सम्मान देने का ढंग का एक नमूना और तुरंत दिखाई दिया कि जशपुर के दो सिपाही लक्ष्मण भगत और अरशन लकड़ा , जिनके गृहग्राम जशपुर जिले में हैं , क्रमशः महुआ टोली और गड़ला , उनके पार्थिव शरीरों को एक ही एम्बुलेंस में रखकर जशपुर के लिये रवाना कर दिया गया | मानो इन शहीद जवानों के सम्मान के साथ खिलवाड़ बकाया रह गया था , वह एम्बुलेंस भी रायगढ़ से कुछ पहले खराब हो गयी | चलो यह तो किसी के साथ भी हो सकता है , पर हद तो तब हुई , जब दंतेवाड़ा और रायगढ़ दोनों जगह उनके परिजनों के द्वारा पोलिस के एवं अन्य अधिकारियों के साथ संपर्क करने के बाद भी घंटों तक कोई मदद नहीं मिली और उनके परिजन भूखे प्यासे शहीदों के पार्थिव शरीर के साथ परेशान होते रहे |  
पोलिस हो या सुरक्षा बल , इनके जवानों को हर तरह की तकलीफ झेलने के साथ ओहदे में अपने से बड़े अधिकारियों के रफ व्यवहार को झेलने की ट्रेनिंग अपने आप मिल जाती है और वे ये सब खेलते हुए ही अपने कर्तव्य का पालन करते हैं , लेकिन यदि शहादत के बाद उनके परिवार और उनके मृत शरीरों के साथ जो शासन साधारण सी संवेदनाएं भी न दिखा सके , उसके विकास और गरीबों के लिये लगाए जाने वाले नारों को टसुए बहाने से ज्यादा क्या कहा जायेगा ?

अरुण कांत शुक्ला        

Saturday, June 25, 2011

भ्रष्टाचार और अपराध की गिरफ्त में अमीर प्रदेश गरीब लोग –

भ्रष्टाचार और अपराध की गिरफ्त में अमीर प्रदेश गरीब लोग –

छत्तीसगढ़ का भाजपा शासन इसे माने या न माने लेकिन कडुवा सच यही है कि भाजपा के शासन में इस अमीर प्रदेश के गरीब लोग नित नए होने वाले घोटालों , लगातार बढ़ते जा रहे अपराधों और गिरती क़ानून व्यवस्था की स्थिति से बुरी तरह त्रस्त हो चुके हैं | प्रदेश के व्यावसायिक परीक्षा मंडल को 19 जून की पीएमटी की परीक्षाओं को पर्चे लीक हो जाने की वजह से दूसरी बार निरस्त करना पड़ा | व्यापम को यही परीक्षा पिछले माह भी पर्चे लीक होने की वजह से 11 मई को निरस्त करना पड़ी थी | व्यापम की देखरेख में होने वाली इस परीक्षा के पर्चे जिस मात्रा में और जिस स्तर पर लीक हुए हैं , उससे स्पष्ट है कि इस कांड के तार नौकरशाहों से होते हुए शीर्ष शासन तक अवश्य जुड़े हैं , जिसके बिना इस दबंगई के साथ इस अपराध को अंजाम नहीं दिया जा सकता था | इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि 37 दिन पूर्व 11 मई,2011 को आयोजित इसी परीक्षा के पर्चे लीक हो जाने के बावजूद , व्यापम के अध्यक्ष और परीक्षा नियंत्रक हटाये नहीं गये | उन्हें हटाने का शासन ने आदेश जरुर दिया , पर , उस आदेश पर न तो शासन गंभीर था और न आदेश पर अमल किया गया |

प्रदेश में पीएमटी के पर्चे लीक होने का यह इकलौता मामला नहीं है | इसके पूर्व पीएससी की परीक्षा के परिणामों में घपला कर के उन लोगों को चुना गया , जो पात्र नहीं थे | बाद में जब कुछ अभ्यर्थियों ने सूचना के अधिकार का प्रयोग कर परिणामों को खुलवाया तो पूरा घपला सामने आया और शासन को 4 डिप्टी कलेक्टर सहित कुल 20 नियुक्तियां रद्द करनी पड़ीं , | वर्ष 2008 में , बोर्ड की 12वीं की परीक्षाओं की मेरिट सूची में गड़बड़ी करके एक अपात्र को सूची में प्रथम स्थान पर लाया गया | दरअसल , दिसंबर 2003 से राज्य की सरकार में आई भाजपा खुद की पार्टी के लोगों और बड़े अधिकारियों के ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से हमेशा ही घिरी रही | जिस दो रुपये किलो चावल पर रमन सिंह अपनी पीठ खुद थपथपाते रहते हैं , उसी चावल में , धान की खरीदी से लेकर , राशन दुकानों में चावल के पहुँचने से पहले ही चावल से भरे ट्रक के ट्रक गायब होने और फिर फर्जी राशन कार्डों के जरिये करोड़ों रुपये का हेरफेर करने के कारनामों की पूरी श्रंखला है , जो अभी तक जारी है |

सार्वजनिक सेवाओं का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है , जिसमें घोटाले न हुए हों या नहीं हो रहे हों | स्वास्थ्य विभाग में जाली कंपनियों , जाली आपूर्तिकर्ताओं और अधिकारियों की मिलीभगत से मलेरिया की दवाईयों व अन्य उपकरणों की खरीदी में 20 करोड़ से ऊपर का घपला हुआ , जिसमें सीबीआई ने 2010 में केस दर्ज किया | महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में प्रदेश का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है , जहां घपला न किया गया हो | बस्तर में आदिवासियों की करोड़ों की जमीन अवैधानिक तरीकों से परिवर्तित करके गैर आदिवासियों को बेची गयी | छत्तीसगढ़ विद्युत मंडल का ओपन एक्सेस विद्युत घोटाला , जो पूरे देश में चर्चा का केन्द्र बना | आंगनवाडी प्रशिक्षणार्थियों को मिलने वाली भत्ते की राशी में गड़बड़ी , आंगनवाड़ी प्रशिक्षण केन्द्रों के खाते से अवैधानिक तरीके से राशी का आहरण , झूला घर संचालन के लिये मिल रही राशी में गड़बड़ी , वे गडबडियां हैं , जो धड़ल्ले से आंगनवाडी प्रोजेक्ट में की गईं हैं और जारी हैं |

घपलों –घोटालों की यह फेहरिस्त लिखते जाने से लंबी होती जायेगी | ये सब वे घपले हैं , जो सीधे सीधे शासन और अधिकारियों से जुड़े हैं | यही कारण है कि राज्य शासन के किसी भी अधिकारी के या किसी आईएएस , आईपीएस या आईएफएस अधिकारी के करोड़पति होने पर भी किसी को आश्चर्य नहीं होता , तो , किसी अधिकारी के ठिकानों पर मारे गये छापों में मिलने वाली अवैधानिक संपत्ति के करोड़ों रुपये की निकलने पर भी आश्चर्य नहीं होता | एक नौकरी पेशा और वह भी सरकारी मुलाजिम , जिसने बीस पच्चीस साल नौकरी करते हुए गुजार दिए हैं या आज कल में रिटायर होने वाला है , अच्छी तरह से जानता है कि ईमानदारी की कमाई से सर छुपाने के लिये छोटा मोटा घर जरुर बन जाये पर करोड़ों की संपत्ति नहीं बनाई जा सकती है | राज्य का आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो , जिसे लोग मजाक में रमण सिंह का थाना भी कहते हैं , लगातार छापामार कार्रवाई करता रहता है , लेकिन उसके आगे सब कुछ रहस्यमय है | ईओडबल्यू के प्रमुख आई जी अवस्थी के अनुसार किसी भी मामले में किसी लोकसेवक को सजा होने की बात उनकी जानकारी में नहीं है |

रमन सरकार की प्रशासनिक असफलता की कहानी भ्रष्टाचार या घोटाले नहीं रोक पाने तक सीमित नहीं है | प्रदेश के अंदर क़ानून व्यवस्था की स्थिति यह है कि पूरे देश के अपराधियों के लिये छत्तीसगढ़ स्वर्ग सदृश शरणस्थली है | बलात्कार हो या बैंक डकैती , महिलाओं के गले से चेन खींचने के मामले हों या मासूम बच्चों का अपहरण और उनकी ह्त्या , सत्ता के मद में किसी को बोलेरो से कुचल देना हो या थाने में पीट पीट कर मार डालना , हर तरह का अपराध प्रदेश में सरे आम और आराम के साथ होता है | बहुत कम मामलों में अपराधी पकडे जाते हैं | यह एक ऐसा प्रदेश है , जहां के गृहमंत्री किसी बच्चे के अपहरण और फिर ह्त्या होने के बाद बोलते हैं कि क्या किया जाये उस परिवार के भाग्य में बच्चे का सुख था ही नहीं |

मुझे याद आता है कि लगभग चार वर्ष पहले के पी एस गिल ने , जिन्हें प्रदेश सरकार ने माओवाद से निपटने के लिये अपना विशेष सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया था , कहा था कि छत्तीसगढ़ में व्याप्त निरंकुश भ्रष्टाचार , लालफीताशाही और दयनीय प्रशासनिक व्यवस्था के कारण वे अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहे थे | मुख्यमंत्री रमन सिंह अपने शासन की चावल से लेकर चप्पल तक की योजनाओं का गुणगान करने और विश्वसनीय छत्तीसगढ़ की गाथा बखान करने से थकते नहीं हैं | पर क्या , चार वर्षों पहले गिल ने जो कुछ कहा था , उसमें कुछ सुधार हुआ है ? यदि , प्रदेश के आम लोगों और विशेषकर ग्रामीण रहवासियों की बात मानी जाये तो , स्थिति बदतर ही हुई है | इंडिया करप्शन स्टडी 2010 के सर्वेक्षण के अनुसार प्रदेश के 66 प्रतिशत लोगों का मानना है कि पिछले वर्षों में प्रदेश में भ्रष्टाचार बढ़ा है | 55 प्रतिशत ग्रामीण रहवासियों का कहना है कि उन्हें सार्वजनिक सेवाओं के इस्तेमाल के लिये रिश्वत देनी पड़ी , जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 28 प्रतिशत है | 50 प्रतिशत ग्रामीण रहवासियों का कहना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की सेवाओं में भ्रष्टाचार का स्तर बढ़ा है | यह शायद मुख्यमंत्री रमन सिंह के लिये बहुत दुखदायी होगा कि जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली का वो ढिंढोरा पीटते हैं , उसका लाभ उठाने के लिये 60 प्रतिशत ग्रामीण रहवासियों को रिश्वत देनी पड़ी | कमोबेश यही स्थिति स्कूली शिक्षा , जल आपूर्ति और स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भी है , जहां भ्रष्टाचार वहीं कायम है , जहां 2005 में था |

यह सच है कि प्रदेश नक्सलवाद की समस्या से बुरी तरह ग्रस्त है और सुरक्षा बलों के जवानों से लेकर आम नागरिकों तथा निरापराध आदिवासियों को अपनी जाने गंवानी पड़ रही हैं | पर , यह भी सच है कि राज्य शासन और संबंधित अधिकारियों को जिस संजीदगी को माओवाद से निपटने के लिये दिखाना चाहिये , उसका अभाव सोच के स्तर से लेकर योजना के स्तर तक स्पष्ट दिखाई पड़ता है | प्रदेश का बस्तर क्षेत्र हो या अन्य कोई आदिवासी क्षेत्र , कांग्रेस या भाजपा , चुनाव भले ही जीत लें , पर आदिवासियों का विश्वास नहीं जीत पा रहे हैं , जिसका पूरा लाभ माओवादीयों को मिल रहा है | बस्तर में आदिवासियों की करोड़ों की भूमी अवैधानिक तरीके से गैरआदिवासियों को बेचने का मामला हो या वनभूमी पट्टा देने का सवाल हो , जहां 4.86 लाख आवेदनों में से केवल 2.14 लाख आवेदन ही स्वीकृत किये गये , जबकि काबिज आदिवासी परिवारों की संख्या 10 लाख से ऊपर थी , कहीं भी शासन की संजीदगी दिखाई नहीं पड़ती है | जाहिर है कि आदिवासियों को जंगल जमीन से महरूम करके उनका विश्वास नहीं जीता जा सकता है | माओवाद के महासमुंद , गरियाबंद और सरायपाली तक फ़ैलने की खबरें प्रदेश के लोगों में असुरक्षा और भय पैदा करती हैं और वे इससे जूझने के लिये पूरी तरह राज्य शासन के साथ जुड़ जाते हैं , बावजूद इसके कि उन्हें उन ज्यादतियों का भी भान होता है , जो माओवादियों से निपटने के नाम पर आदिवासियों के साथ की जाती हैं | प्रदेश की जनता के इस जुड़ाव का अर्थ कदापि यह नहीं निकाला जाना चाहिये कि भाजपा की रमन सरकार को माओवादियों के खिलाफ आम जनता के समर्थन के रूप में परमिट तथा दो रुपये किलो चावल के रूप में लायसेंस प्राप्त हो गया है कि वह पूरे प्रदेश को भ्रष्ट अधिकारियों , माफियाओं , अपराधियों और कुशासन के भरोसे छोड़ दे |

अरुण कान्त शुक्ला

Wednesday, June 22, 2011

व्यापंम के अधिकारियों सहित सभी संबंधित पक्षों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हों...

व्यापंम के अधिकारियों सहित सभी संबंधित पक्षों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हों...

छत्तीसगढ़ नागरिक संघर्ष समिती की मांग: रिपोर्ट .. अरुण कान्त शुक्ला

छत्तीसगढ़ नागरिक संघर्ष समिती ने वरिष्ठ पोलिस अधीक्षक दीपांशु काबरा को दो ज्ञापन सौंपकर 19 जून, 2011 को हो रही परीक्षा के प्रश्न पत्र लीक करने के सभी दोषियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करके कार्रवाई करने की मांग 20 जून को की है | छत्तीसगढ़ नागरिक संघर्ष समिति के प्रदेश अध्यक्ष डा. राकेश गुप्ता की अगुवाई में , सर्व/श्री डा. शिरीष यदु , विश्वजीत मित्रा , अमिताभ दीक्षीत , डा. दिनेश सेंद्धिया , डा. आनंद दुबे , अरुण कान्त शुक्ला , संजय पराते , एवं दिलीप क्षत्रे के हस्ताक्षर युक्त शिकायत पत्र में कहा गया है कि व्यापम के अध्यक्ष विजियेंद्र सिंह व परीक्षा नियंत्रक बी. पी. त्रिपाठी ने 18 जून, 2011 की मध्यरात्री तक प्रदेश के लाखों लोगों को यह कहते हुए भ्रम में रखा कि पर्चा लीक नहीं हुआ है | जबकि , जिस तरीके और मात्रा में पीएमटी का पर्चा लीक हुआ है , उससे स्पष्ट है कि इसमें व्यापम के अध्यक्ष , परीक्षा नियंत्रक एवं उनके साथ संबंधित अन्य अधिकारियों , कर्मचारियों की आपराधिक तत्वों के साथ संलिप्ता के बिना यह हो ही नहीं सकता था | इसलिए , पकडे गये व्यक्तियों के साथ व्यापंम अध्यक्ष , परीक्षा नियंत्रक तथा सबंधित अधिकारियों के विरुद्ध भी धोखा , कपट और अन्य अपराधों के लिये जुर्म दर्ज कर कानूनी कार्यावाही की जानी चाहिये |

छत्तीसगढ़ नागरिक संघर्ष समिती ने यह मांग भी की है कि वे सभी छात्र , उनके अभिवावक , जो लाखों रुपये देकर इस अवैधानिक कार्य में सम्मिलित थे , उनके खिलाफ भी अपराध पंजीकृत किया जाये | समिती ने यह मांग भी की है कि तखतपुर के सामुदायिक भवन को जिस डा. बी.बी.साहू, संचालक साहू अल्टरनेटिव मेडिकल कालेज ने आरक्षित कराया था , उनके खिलाफ भी षड्यंत्र रचने/सहयोग प्रदान करने हेतु तत्काल भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध पंजीकृत किया जाये |

समिती के प्रदेश अध्यक्ष डा. राकेश गुप्ता व अन्य शिकायत कर्ताओं ने प्रदेश के नागरिकों से भी अनुरोध किया है कि वे ऐसे भ्रष्ट लोगों से सावधान रहें और स्वयं तथा अपने बच्चों को ऐसे धोके बाजों के चंगुल में फंसने से बचायें | उन्होंने कहा कि यह केवल एक परिक्षा में उतीर्ण होने का मामला नहीं है , बल्कि , आगे जाकर इस तरह से डाक्टर बनने वाले लोग किस तरह की चिकित्सा नागरिकों को उपलब्ध करायेंगे , उससे भी जुड़ा मामला है | उन्होंने प्रदेश शासन से अपेक्षा जाहिर किये कि वह मामले को रफा दफा होने देने के बजाय , गहराई तक जांच कराएगा और दोषी किसी भी स्तर के हों , उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जायेगी |

Sunday, June 12, 2011

इसमें छिपी है सीख ...

इसमें छिपी है सीख ...


 

रामदेव जी का सत्याग्रह आज अपने हश्र को प्राप्त हो गया | निश्चित रूप से रामदेव के उन अनुयायियों के लिये यह एक सदमें से कम नहीं है , जो उनके योगा करतबों के चलते , यह विश्वास कर बैठे थे कि पूंजीवादी , अन्यतम शोषणकारी व्यवस्था के जबड़े से रामदेव अपना अभीष्ट छीनकर ले आयेंगे |


 

आज से करीब दो-तीन वर्ष पूर्व रामदेव ने एक त्रिदिवसीय सम्मलेन हरिद्वार में किया था , जिसके शायद आख़िरी दिन उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सेमीनार रखा था | उस सम्मलेन में देश के अनेक बुद्धिजीवियों , पत्रकारों और राजनेताओं को बोलने के लिये बुलाया गया था | मुझे याद है , उस सम्मेलन में प्रसिद्ध स्तम्भकार वेदप्रताप वैदिक ने बोलते हुए कहा था कि बाबा को राजनीति से दूर रहना चाहिये | ऐसा ही उन्होंने कुछ दिनों पूर्व भी कहा , जब रामदेव जी पूरे जोश खरोश के साथ अपने तथाकथित सत्याग्रह का प्रचार करने में लगे थे | पर , जब व्यक्ति खुद को प्राप्त प्रशंसा और समर्थन से आत्ममुग्ध हो जाता है और उसकी गणना में वह स्वयं को औरों से श्रेष्ट ठहरा लेता है तो उसे किसी की सलाह याद नहीं रहती | रामदेव को भी यह याद नहीं रही |


 

रामदेव के सत्याग्रह का यही हश्र होना था | इसमें दुःखद यही रहा कि उनकी नासमझी का नतीजा , उनके भोले अनुयायिओं को भुगतना पड़ा , जो यह समझ बैठे थे कि योगाचार्य निडर हैं और एक लंबे समय तक अनशन को वे झेल जायेंगे | पर , जैसा कि पता चला है कि वे बीच के एक दो दिनों को छोड़कर , लगातार नीबूं पानी , शहद के साथ ले रहे थे | अनशन के पांचवें दिन से ही उनका स्वास्थ्य , उनका साथ छोड़ने लगा |


 

अपने जिस सत्याग्रह को वे अहिंसक बता रहे थे , वह कभी भी अहिंसक नहीं रहा | जिस भाषा का उपयोग उन्होंने किया और जैसी धमकियां वो सरकार को दे रहे थे , कोई भी गांधी की अहिंसा की अवधारणा को तनिक भी जानने वाला , उसे हिंसक ही कहेगा | इसकी पराकाष्टा हरिद्वार में हुई , जब उन्होंने ग्यारह हजार लोगों की फ़ौज तैयार करने की योजना सामने रखी | जिस देश की जनता , पहले ही नक्सलवाद , उल्फा उग्रवादियों और आतंकवाद से परेशान है , उसे , बाबा का योगाआतंकवाद भेंट करना , शायद ही किसी को पसंद आया हो |


 

जिस तरह से वे बीजेपी और आरएसस के चंगुल में फंसे दिखे , वह भी उनके उद्देश्यों और मंसूबों को उजागर करता था | खास बात कि उनके अनुसार , वे आम लोगों की लड़ाई लड़ रहे थे | पर , रामलीला मैदान में उन्होंने भारत के NRI भाईयों के लिये तालियाँ बजवाईं |


 

जूस पीने के बाद , उनके सहयोगी बालकृष्ण ने एक लिखित वक्तव्य पढ़ते हुए कहा कि रामदेव इस प्रण के साथ अनशन छोड़ रहे हैं कि वे इस सत्याग्रह को आख़िरी सांस तक चलाएंगे | वे क्या करेंगे , ये तो वे ही जानें , पर हमारी इच्छा तो यही है कि वे अपने पुराने प्रोफेशन में वापस हो जाएँ , इस देश के लिये वही उनका सबसे बड़ा उपकार होगा | समाज में परिवर्तन बाबाओं के चौन्चलों से और उनके अनुयायियों के उग्र तेवरों से नहीं , बल्कि , जनता के संघर्षों से आते हैं | बहरहाल , इसमें छिपी है सीख देशवासियों के लिये कि उन्हें ऐसे बाबाओं और धर्म की आड़ में राजनीति करने वाली ताकतों को पहचानना चाहिये और उनसे दूर रहना चाहिये |

अरुण कान्त शुक्ला


 

Tuesday, June 7, 2011

भ्रष्टाचार , सत्याग्रह और बर्बर दमन--


भ्रष्टाचार , सत्याग्रह और बर्बर दमन--


 

भारतीय राजनीति को थोड़ा सा भी ध्यान से देखने वाला व्यक्ति जानता है कि कांग्रेस देश के बड़े पूंजीपतियों और जमींदारों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी है | यह मुख्य विरोधी पार्टी भाजपा से केवल इस मामले में तनिक अलग है कि साम्प्रदायिकता इसका मुख्य एजेंडा नहीं है लेकिन जब भी इसे आवश्यकता महसूस होती है , यह साम्प्रदायिकता से समझौता करने में परहेज नहीं करती है | शाहबानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को नकारने वाला क़ानून बनाने का मामला हो या बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय नरसिम्हाराव की आपराधिक निष्क्रियता , इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं | पूंजीवादी व्यवस्था में कोई भी बुर्जुआ राजनीतिक दल तभी तक लोकतांत्रिक बना रहता है , जब तक आप उसकी सत्ता को चुनौती नहीं देते या जब तक देश के पूंजीपतियों और धन्नासेठों के हितों पर आंच नहीं आती | जैसे ही उन्हें महसूस होता है कि अब उनके हितों के ऊपर प्रहार हो रहा है , वे लोकतंत्र का बाना उतारकर तानाशाह बन जाते हैं | वर्त्तमान मामले में भी यही हो रहा है | आप इसे इस तरह और बेहतर तरीके से कह सकते हैं कि " एक क़ानून का राज तभी तक क़ानून का राज रहता है , जब तक आप उसे चुनौती नहीं देते , जैसे ही आप उसे चुनौती देते हैं या क़ानून को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने लगते है , या तो क़ानून बदल दिया जायेगा या क़ानून का राज खत्म करके , जंगल का क़ानून लागू कर दिया जायेगा | जैसा कि अभी दिल्ली में हुआ है कि निहत्थे और सोते हुए लोगों पर प्रशासन बर्बरता के साथ टूटा | इसकी जितनी निंदा की जाये कम है |


 

प्रश्न रामदेव के जनांदोलन संगठित करने में अनाड़ीपन का नहीं है जैसा कि उनके प्रशंसक और अनुयायी दबे स्वर में कहते हैं | रामदेव स्वयं केन्द्र सरकार के फैलाए सम्मोहन में फंसे हुए थे और अपनी तथाकथित सफलता से अति आत्ममुग्ध थे , यह उनकी बातों और घोषणाओं से स्पष्ट है | यह एक जनांदोलन तो था ही नहीं , रामदेव की व्यक्तिगत महत्वाकान्क्षाओं , घमंड और अहं का सैलाब था ,जो फूटे पड़ रहा था | केंद्र सरकार ने उन्हें अन्ना के आंदोलन को कमजोर करने के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया | उस अहं में वे यह भी भूल गये कि जनांदोलन सरकारों के साथ गुप्त समझौता करके नहीं चलाये जाते और उनका साबका एक कुटिल सरकार से है | अपनी आवभगत और पूछ परख में डूबे रामदेव ने सरकार से समझौता भी किया और अपने अनुयायिओं सहित देश के लोगों को धोखा भी दिया , जो किसी भी प्रकार से क्षम्य नहीं है | यह कहने की कोशिश हो रही है कि इस देश के 121 करोड़ रीढ़विहीन लोगों में से कम से कम रामदेव बाबा ने यह साहस दिखाया कि काले धन के सवाल पर आंदोलन की राह पर चले | इस देश के 121 करोड़ लोग रीढ़ विहीन नहीं हैं | यदि ऐसा होता तो बड़ी संख्या में जो किसानों और मजदूरों के आंदोलन हो रहे है , जिसमें वे अपनी जाने गँवा रहे है , वे आंदोलन नहीं हुए होते | बाबा ने काले धन का मामला उठाया , अच्छा किया | पर , इस प्रक्रिया में वे यह भूल गये कि पूंजीवादी ही सही , पर भारत के इस लोकतंत्र के लिये लोगों ने कुरबानियां दी है और उसे 1975 के काले दिनों में भी बचाकर रखा है | यदि वह लोकतंत्र इसी तरह ऐसे कुछ व्यक्तियों की इच्छाओं और सनकों पर , जिनके पास अपने किसी और प्रोफेशन की वजह से दो , चार , दस लाख लोगों को इकठ्ठा करने की ताकत है , चलने लगा , तो देश के मजदूर और किसान अपने छोटे छोटे हितों की रक्षा के लिये भी कहाँ जायेंगे ? मैंने अपने लेख "भारतीय उच्च वर्ग : साधारण नागरिक दायित्व बोध से भी दूर" में कहा है कि " भारतीयों का विदेश में जमा कालाधन , राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों और उच्चवर्ग की मिलीभगत से फैले भ्रष्टाचार के दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई निहायत जरूरी है , इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता | पर , उतना ही या उससे भी ज्यादा जरूरी उस सफ़ेद धन के एकत्रीकरण पर अंकुश लगाना और उसे बाहर निकालना भी है , जो मित्र-पूंजीवाद की सहायता से उच्चवर्ग ने अनाप-शनाप तरीकों से एकत्रित किया है और करते जा रहे हैं | थोड़ी सी ही बुद्धी लगाने से यह समझ में आ सकता है कि यदि देश से बाहर गया खरबों रुपये का काला धन पूरा का पूरा सरकारी खजाने में आ भी जाये , भ्रष्टाचारियों से हड़पी गयी लाखों करोड़ की राशी पूरी की पूरी वसूल भी हो जाये , तब भी इसकी गारंटी क्या है कि ये उच्च वर्ग सरकारों के ऊपर दबाब बनाकर नीतियां ही ऐसी नहीं बनवा लेगा कि सरकारी राजस्व का बहुतायत हिस्सा फिर उनकी तिजोरी में पहुँच जाये |"


 

देश का पैसा बाहर नहीं जाना चाहिये और काला धन देश के अंदर आना चाहिये , इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है , पर क्या उतना पर्याप्त है ? रामदेव यह मांग उठाने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं , इस देश का वामपंथी आंदोलन संसद के अंदर और संसद के बाहर लगातार काले धन को सामने लाने और उसे जमा करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की मांग करता रहा है , जिसमें विदेशों में जमा धन और मारीशस के रास्ते भारत के शेयर बाजार में आने वाला कालाधन भी शामिल रहा है | यह मांग एकांकी नहीं हो सकती है | रामदेव जिस समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं , वह भारत का बीस रुपये रोज पर निर्वाह करने वाला समुदाय नहीं है | इसमें दो बातें महत्वपूर्ण हैं , जिनका जिक्र किये बिना किसी भी बात को समझना आसान नहीं होगा | पहली यह कि , वह आंदोलन चाहे अन्ना का हो या रामदेव का , उसके पीछे इतनी संख्या में मध्यम वर्ग इसलिए एकत्रित हुआ क्योंकि यही वह वर्ग है जो देश की अस्मिता और प्रतिष्ठता पर थोड़ी भी आंच आने पर बहुत ज्यादा प्रभावित होता है | इसके तार दुनिया से किसी न किसी तरह जुड़े रहते हैं और इन करप्ट और लालची राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों और धन्नासेठों की वजह से भारत की प्रतिष्ठता बहुत धूमिल हो रही थी | यह वर्ग अच्छी तरह से जानता है कि यदि काला धन आ भी जाये और भ्रष्टाचार रुक भी जाये , तो भी उस पैसे का इस्तेमाल आम आदमी के लिये नहीं होने वाला है | यहाँ तक कि रामदेव भी उसे नहीं करा सकते हैं , क्योंकि , जैसा वो खुद कह रहे थे कि उनकी लड़ाई सत्ता से नहीं है , व्यवस्था बदलने से है और बदली व्यवस्था क्या होगी और कैसी होगी , उसका कोई विजन रामदेव के पास नहीं है | हो भी नहीं सकता क्योंकि उतनी योग्यता और राजनीतिक समझ भी उनमें नहीं है | यह लोकपाल बिल में प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को शामिल करने के सवाल पर उनकी ढुलमुल प्रतिक्रिया से पता चल गया था | दूसरी बात यह है कि , मध्य पूर्व के देशों में हुए जनांदोलनों , विशेषकर , मिश्र की घटनाओं , ने हमारे देश के मध्यवर्ग के ऊपर यह प्रभाव डाला कि इस तरह के आन्दोलनों से सरकार से बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है | अन्ना को मिली सफलता ने भ्रांति को न केवल मध्यवर्ग में पुष्ट किया , स्वयं रामदेव भी उसका शिकार हो गये | जबकि , उन देशों की परिस्थिति और भारत की परिस्थितियों में जमीन आसमान का अंतर है | वहाँ लोग उस लोकतंत्र के लिये लड़े जो हमारे देश में पहले से ही मौजूद है , फिर चाहे वह बहुतायत लोगों को वंचना देने वाला ही क्यों न हो | यदि रामदेव इस मुगालते में नहीं होते तो गिरफ्तारी देने के बजाय वे महिलाओं के बीच में छिपते और भागने की जुगत करते नहीं फिरते | आज रामदेव को भगतसिंह और गांधी याद आ रहे हैं | पर, उन्हें अपनी करतूतों की तुलना देश के इन सम्मानित और कुरबानियां देने वालों से करके , उनका अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है |


 

कुछ लोग कहते हैं कि जनांदोलनों का कोई अनुभव नहीं होने की वजह से उनसे कुछ अनाड़ीपन हो गया | रामदेव ने जो किया , वह अनाडीपन नहीं , बल्कि उससे भी बड़ा और गंभीर अपराध है | वे कोई गोरिल्ला युद्ध या भगतसिंह जैसी लड़ाई नहीं लड़ रहे थे | भगतसिंह ने एक विदेशी शासन का , जबकि वे जानते थे कि उनकी मौत निश्चित है , बहादुरी से मुकाबला किया था | उन्हें जेल से भागने का प्रस्ताव मिला तो उन्होंने मना कर दिया था | गांधी ने भी कभी भी गिरफ्तारी से बचने के लिये मुँह छिपाकर भागने का रास्ता नहीं अपनाया | गांधी आज सरकार की लाठियां चलने पर रोते या नहीं , जैसा के रामदेव कह रहे हैं , मैं नहीं जानता पर रामदेव के भागने पर जरुर रोते | रामदेव एक जनांदोलन का नेतृत्व कर रहे थे , जिसकी अपनी जिम्मेदारियां होती हैं , जिसे वे पूरा नहीं कर पाए | अब में अंतिम बात पर आता हूँ , क्या दिल्ली की घटना को अंजाम देने के पीछे सरकार की मंशा देश को आतंकित करने की नहीं थी ? बिलकुल थी , सरकार की तरफ से जिस सौम्यता की आवश्यकता सरकार समझती थी , वह अन्ना से उसे हासिल हो चुकी थी | रामदेव सरकार से अनशन शुरू करने के पहले ही समझौता करके कमजोर पड़ चुके थे | ऐसे में सरकार को अपने को मजबूत सिद्ध करने का मौक़ा रामदेव ने ही सरकार को मुह्हैय्या कराया | सरकार ने भविष्य में कोई जनांदोलन न करे इसका सन्देश दिया तो वह अवसर रामदेव की कृपा से ही उसे मिला | आप अन्ना के आंदोलन को याद करिये , उस समय सरकार ने अन्ना के सामने समर्पण नहीं किया था ,बल्कि अन्ना का इस्तेमाल सरकार ने प्रेशर कुकर के सेफ्टी वाल्व के समान किया था | आप भारतीय स्त्रोत के गूगल को टटोलें तो पायेंगे कि 14 मार्च से 22 मार्च, 2011 के मध्य केवल तीन लेखों में अन्ना के नाम का जिक्र आया था | मार्च, 23 को अन्ना हजारे ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन्हें मुलाक़ात के लिये बुलाया है | प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा कि सरकार अन्ना से लोकपाल बिल पर बात करेगी , जिसके लिये वे आमरण अनशन पर बैठने वाले हैं | इसके बाद मार्च, 24 से 31,मार्च के मध्य गूगल पर सर्च में 4281 लेखों में अन्ना का नाम आया है | मेरा इरादा किसी भी तरह , इन प्रयासों को छोटा करके आंकने का नहीं है | पर, इनसे उपजी खुमारी में डूबने के पूर्व , यह याद रखना बहुत जरूरी है कि ये प्रयास किसी भी तरह इन सरकारों या उस व्यवस्था की मूलभूत नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं लाते हैं , जिनसे आम जनता की जिंदगी में कोई फर्क पड़े |


 

शायद कुछ बुनियादी बातों की तरफ लौटने से बात ज्यादा साफ़ हो | मनमोहनसिंह , प्रणव, या चिदंबरम और उनके मालिक अमेरिका की दुनिया में , केवल एक ही बात है , जो अपराध है , वह है गरीब का धनवानों के राज का प्रतिरोध करना या उसे चुनौती देना | उनके मुक्त बाजार में हर चीज बिकाऊ है , सांसद , मीडिया , मंत्री फिर चाहे वे केन्द्र के हों या राज्य के , न्याय , लोकतंत्र , सिविल सोसाईटी , सामाजिक कार्यकर्ता , संत और बाबा , सभी | ये राहत या संतोष देते इसलिए दिखते है कि अभी भी अच्छे और भोले लोग हैं , जो यह समझते हैं कि आयोगों और कानूनों से व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है | पर, ऐसा होने का नहीं है | इसके लिये , लोगों को खुद जागरूक होना होगा , लड़ना होगा , बाबाओं से मुक्त होकर , एक ऐसी व्यवस्था के लिये , जो वर्त्तमान व्यवस्था के ठीक उलट हो और जिसमें जनता के हाथों में लोकतांत्रिक अधिकार झुनझुने के समान नहीं बल्कि वास्तव में हों | यह व्यवस्था गहरे तक सड़ चुकी है , रामदेव के अफलातूनी और आधे अधूरे ख़्वाबों से यह नहीं सुधरेगी |

अरुण कान्त शुक्ला

Monday, June 6, 2011

हम बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है ..

हम बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है

इसमें कोई शक नहीं कि आधी रात में रामदेव और उनके समर्थकों के साथ केन्द्र सरकार के इशारे पे जो कुछ हुआ , उसकी निंदा ही की जा सकती है | पर , जिस सौम्यता और पारदर्शिता को हम अन्ना हजारे के सत्याग्रह में देख रहे थे , वह दुःख के साथ कहना पड़ता है कि रामदेव के आंदोलन में नहीं थी | उसमें एक घमंड , उद्दंडता और विचारों और मांगों में अनिश्चितता के साथ साथ अपने को पूरी व्यवस्था से परे और सबसे बड़ा दिखाने की व्यक्तिगत भावना ज्यादा थी |

वो पूरा प्रबुद्ध वर्ग जिसने शनिवार शाम को , सरकार के द्वारा बालकृष्ण के द्वारा लिखी चिठ्ठी उजागर किये जाने के बाद , रामदेव की भड़काऊ स्टाईल के भाषण और धमकियों को सुना , उस भविष्य की कल्पना कर सका होगा , जो रात में घटित हुआ | दुःख इसका है कि रामदेव ने हरिद्वार पहुंचकर जो उलजुलूल बयान दिए और नाटक किया है , वह भी शोभनीय नहीं कहा जा सकता है | राम लीला मैदान में आधी रात को उछलकूद मचाने और भागने की कोशिश करने , जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है कि उन्होंने गिरफ्तारी से बचने के लिये की , के बजाय यदि वे सौम्यता के साथ गिरफ्तारी दे देते , तो उनकी प्रतिष्ठता में वृद्धि होती और बची भी रहती | आज वे अंधभक्तों के अलावा सबके सामने हंसी का पात्र हैं | आश्चर्य तो यह है कि इस देश का पढ़ा लिखा तबका बाबाओं के चंगुल में आ जाता है और ये समझता है कि ऐसे बाबा उसे भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति दिलाएंगे | लोकतंत्र और जनतंत्र की बात करने वाले यह भूल जाते हैं कि जनतंत्र में अवतार और बाबा नहीं जनों का आंदोलन ही परिवर्तन और सुधार ला सकता है | रामदेव ने परदे के पीछे सरकार से कोई और डील की और जनता से कुछ और कहा | यह जनता के साथ और उनके अनुयायियों के साथ धोखा है | इसे इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक का जनता के साथ किया गया पहला स्कम ( घोटाला ) कह सकते हैं | सरकारें तो प्रजा को धोखा देती ही हैं , रामदेव ने भी दिया , यह शर्मनाक है | उन्हें सुहानभूति दो तरह से मिल रही है , पहली सोते लोगों को , जो उस समय शान्ति व्यवस्था के लिये कोई खतरा नहीं थे , बलपूर्वक हटाया गया इसलिए , और आर एस एस तथा भाजपा से , क्योंकि सरकार को घेरने का कोई भी अवसर विरोधी दल छोड़ना नहीं चाहेगा | जब मामला शांत होगा और प्रबुद्ध तरीके से सोच विचार होगा तो इसे कोई भी सही नहीं ठहरायेगा | एक गैरजिम्मेदार व्यक्ति के नेतृत्व में चलाये गये आंदोलन का जो हश्र होना चाहिये , वही हुआ है | राजनीति और व्यवस्था के बारे में भी रामदेव की समझ एक अपढ़ और कुछ नहीं जानने वाले से ज्यादा नहीं है | उनका कहना कि उनकी लड़ाई सत्ता से नहीं है , वे व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं , हंसाने वाला है | यहाँ मैंने उस साम्प्रदायिक राजनीति की बात जानबूझकर नहीं की है , जिसमें वे फंसे हुए थे |

फिर भी , मुझे उन लोगों के साथ सुहानभूति है जो बाबा के साथ हुए व्यवहार से कुपित हैं | पर , बेचारी जनता तो दोतरफा ठगी गयी है , कांग्रेस के द्वारा भी और बाबा के द्वारा भी | खैर जनता की किसको फिकिर है , हमारे समाज के अगुआ तो बाबाओं की फिकिर में दुबले हो रहे हैं |

Wednesday, June 1, 2011

भारतीय उच्च वर्ग: साधारण नागरिक दायित्व बोध से भी दूर --

टाटा समूह के अध्यक्ष रतन टाटा ने हाल ही में लन्दन के अखबार “दी टाईम्स” में दिए एक साक्षात्कार में अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि “हम असमानता को हटाने के लिये बहुत कम प्रयास कर रहे हैं | हम इसको बने रहने दे रहे हैं |” रतन टाटा ने यह टिप्पणी मुकेश अम्बानी के नये 27 मंजिला घर “एंटिला” के बारे में चर्चा करते हुए की थी | मुकेश अम्बानी का यह 27 मंजिला , तीन हेलीपेड वाला घर ही नहीं , एक सीईओ के रूप में उनका सालाना वेतन भी देश में गत दिनों आलोचना का विषय रहा है | टाटा और बिड़ला देश के पुराने औद्योगिक घराने हैं ,जिनका देश के स्वतंत्रता पश्चात हुए औद्योगिक विकास में ही नहीं , स्वतंत्रता पूर्व के आजादी के संघर्षों में भी परोक्ष और अपरोक्ष दोनों तरह का योगदान रहा है | दोनों समूह ने स्वातंत्रोत्तर भारत में सामाजिक क्षेत्रों में काफी निवेश किया है | यद्यपि , टाटा समूह ने पंगा नहीं लेने के हिसाब से स्पष्टीकरण दिया है कि उनके चेयरमेन की बातों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है , उसके बावजूद , रतन टाटा जब यह कहते हैं कि “वहाँ (एंटिला में) रहने वाले व्यक्ति को अपने आसपास के लोगों के बारे में चिंता करनी चाहिए कि वह क्या बदलाव ला सकता है”, तो वे उस क्रूर सच्चाई को ही व्यक्त करते हैं , जो देश के जनमानस में बसी है कि देश के उद्योगपती और धनाड्य धन (पूंजी) एकत्रीकरण में इतने मोहग्रस्त हो गये हैं कि उन्हें अपने देश और समाज के लोगों के प्रति साधारण से नागरिक दायित्व का बोध भी नहीं रहा है |

नवउदारवाद के पिछले दो दशकों में से बारह साल का कार्यकाल प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहनसिंह का रहा है | अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने भारत के उद्योगपतियों और धनाड्यों को अनेक बार मित्रवत चेताया कि वे अपने धन और वैभव के भोंडे प्रदर्शन से बाज आयें | मनमोहनसिंह पिछले बीस वर्षों में भारत के अंदर उच्च वर्ग के सबसे विश्वसनीय और वफादार नेता के रूप में उभरे हैं | भारत के उच्च वर्ग ने नवउदारवाद की उन्हीं नीतियों के तहत मित्र-पूंजीवादी रास्ते पर चलकर पिछले दो दशकों में बेशुमार परिसंपत्तियां एकत्रित की हैं , जिनकी नींव मनमोहनसिंह ने ही रखी थी | जब वे भारत के उद्योगपतियों और धनाड्यों से सामाजिक भद्रता के पालन की बात कहते है , तो इसमें उच्च वर्ग के ही स्वार्थों को साधने का मंतव्य छिपा रहता है | मनमोहनसिंह अच्छी तरह से जानते हैं कि तुलनात्मक रूप से थोड़ा भी औचित्यपूर्ण दिखने वाले समाज में उच्च वर्ग के प्रति विद्रोह की संभावनाएं लगभग निर्मूल हो जाती हैं | इसलिए वे उच्च वर्ग को वैभव के अभद्रतापूर्ण प्रदर्शन से बाज आने को कहते हैं | पर , वे भी उस उच्च वर्ग को , जिसने सरकार से करों में अनाप शनाप रियायतें , मुफ्त में जमीनें और कौडियों के मोल लायसेंस प्राप्त करके अपनी परिसंपत्तियों में दिन-दूना , रात-चौगुना इजाफा किया है , देश की जनता के प्रति उसके कर्तव्य का बोध नहीं कराते |
एक प्रबुद्ध शासक वर्ग अच्छी तरह जानता है कि न केवल उसकी धन-संपदा में वृद्धि बल्कि लगातार तेज वृद्धि और उसकी सुरक्षा तभी सुनिश्चित हो सकती है , जब इस समृद्धता का एक अंश व्यापक रूप से समाज के निचले तबकों में जाये , सरकारें विकास के परिणामों को आंशिक रूप से ही सही , पर समाज के मध्यवर्गीय और निचले तबकों तक ले जाएँ और एकदम निचले तबके को फौरी स्वास्थ्य सुविधायें और जीवित रहने लायक खाद्य सामग्री उपलब्ध हो सके | ऐसा न होने पर शासक वर्ग का शासक वर्ग बने रहना मुश्किल होता जायेगा | वर्ष 2007 से पैदा हुई आर्थिक मंदी के दौरान करोड़ों लोगों को बेरोजगार करके भूखे मरने के लिये छोड़ देने वाले और स्वयं सीईओ बनकर करोड़ों रुपया सालाना वेतन और सरकारों से अरबों रुपयों के पैकेज डकारने वाले उद्योगपतियों को , अमेरिका के बिलगेट्स से लेकर भारत के अजीज प्रेमजी तक को , यदि अचानक अब समाज के प्रति उत्तरदायित्व का बोध हो रहा है , तो उसकी बुनियाद में चिंता वर्त्तमान व्यवस्था को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखने की ही है | रतन टाटा भारतीय उद्योगपतियों के इसी प्रबुद्ध हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं |

भारत में , पिछले दो ढाई दशकों में जो हास्यास्पद परिस्थिति निर्मित हुई है , वह यह है कि देश के शासक वर्ग ने सम्पूर्ण भारतीय समाज से सभी प्रकार के सरोकार तोड़ लिये हैं | जिसकी परिणिती , पहले , हमने किसानों की आत्महत्याओं , बेनामी और जालसाज कंपनियों के द्वारा जनता को लूटे जाने , हर्षद मेहता जैसे घोटालों , बंद होते लघु उद्योगों , बेरोजगार होते लोगों और बेरोजगार घूमते नौजवानों के रूप में देखी और अब किसानों से औने पौने दामों में उनकी पैतृक जमीन छीने जाने , नौकरीपेशा लोगों के पेंशन अधिकारों में कटौती , खाद्य पदार्थों के भावों में बेतहाशा वृद्धि , पेट्रोलियम पदार्थों के दामों मंक लगातार वृद्धि , खुदरा में विदेशी निवेश को लाने की तैय्यारी , आम आदमी के ऊपर सेवाकर सहित , सभी करों का दायरा लगातार बढ़ाये जाने और वित्तीय क्षेत्र को धीरे धीरे विदेशी पूंजी के हवाले करने के रूप में देख रहे हैं | जबकि , इस मध्य , यह उच्च वर्ग स्वयं के पूंजीगत लाभों तथा मुनाफों के हिस्सों पर टेक्स कम करवाने के लिये लगातार लाबिंग करता रहा | इस वर्ग के पास सरकारी तंत्र को प्रभावित करने की यह ताकत उस दौलत के बदौलत आती है , जो उसने सर्वदा मौजूद मित्र-पूंजीवाद की सहायता से तिकड़में करके कालाबाजारी , जमाखोरी और मुनाफाखोरी के जरिये कमाई है | इसी का एक अंश वो राजनीतिज्ञों के चुनाव प्रचार में खर्च करता है और फिर उनसे अपने पक्ष में मनचाही नीतियां बनवाता है |

रतन टाटा देश में मौजूद और लगातार बढ़ती असमानता पर चिंता व्यक्त करते हैं , पर , जिस प्रश्न पर वे चुप्पी बनाये रखते हैं , वह यह है कि देश के शासक वर्ग में शामिल ये उद्योगपति , धनाड्य और नवधनाड्य देश को ये बताएं कि पिछले तीस वर्षों में वे देश के सौ करोड़ लोगों की तुलना में अधिक धनी कैसे बन गये और स्वयं के ऊपर लगाए जाने वाले टेक्सों में कमी करने के लिये , बेजा छूटें पाने के लिये , औने पौने दामों में जमीनें और लायसेंस हड़पने के लिये उन्होंने सरकारों के ऊपर कितना दबाव बनाया है ? भारतीयों का विदेश में जमा कालाधन , राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों और उच्चवर्ग की मिलीभगत से फैले भ्रष्टाचार के दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई निहायत जरूरी है , इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता | पर , उतना ही या उससे भी ज्यादा जरूरी उस सफ़ेद धन के एकत्रीकरण पर अंकुश लगाना और उसे बाहर निकालना भी है , जो मित्र-पूंजीवाद की सहायता से उच्चवर्ग ने अनाप-शनाप तरीकों से एकत्रित किया है और करते जा रहे हैं | थोड़ी सी ही बुद्धी लगाने से यह समझ में आ सकता है कि यदि देश से बाहर गया खरबों रुपये का काला धन पूरा का पूरा सरकारी खजाने में आ भी जाये , भ्रष्टाचारियों से हड़पी गयी लाखों करोड़ की राशी पूरी की पूरी वसूल भी हो जाये , तब भी इसकी गारंटी क्या है कि ये उच्च वर्ग सरकारों के ऊपर दबाब बनाकर नीतियां ही ऐसी नहीं बनवा लेगा कि सरकारी राजस्व का बहुतायत हिस्सा फिर उनकी तिजोरी में पहुँच जाये | यही वह बिंदु है , जहां पहुंचकर उच्चवर्ग के देश और देश के लोगों के प्रति दायित्व बोध का प्रश्न सामने आता है |

यदि उच्चवर्ग को वाकई देश और देशवासियों के प्रति कर्तव्यों और दायित्व का बोध है तो उसे जनता के ऊपर लगातार टेक्स बढ़ाने , सामाजिक कल्याण के खर्चों में कटौती करने और अनुदान राशियों में कटौती करने की सलाहें सरकारों को देने के बजाय , सरकार से स्वयं के लिये कर छूटें , मुफ्त जमीनें मांगना बंद करके स्वयं को अधिक कर देने के लिये और सार्वजनिक क्षेत्रों में निवेश करने के लिये प्रस्तुत करना चाहिये , ताकि देशवासियों के सामने सम्भावनाओं के द्वार खुलें और उनके जीवनस्तर में सुधार हो सके | पर , आज , भारत में तो यह वर्ग धनलोलुपता में ग्रस्त और साधारण नागरिक दायित्व बोध से भी दूर नजर आता है |

अरुण कान्त शुक्ला