Tuesday, March 24, 2020

कोरोना: हल एक, समस्याएँ अनेक



प्रधानमंत्री ने मात्र चार दिनों के पश्चात आज 24 मार्च को पुन: देश को संबोधित करते हुए भारत को 21 दिनों तक के लिए लॉक-डाउन मेँ डाल दिया है । वे सभी राज्य और केंद्र प्रशासित क्षेत्र जो पहले से ही या तो लॉक-डाउन में थे या कर्फ़्यू का सामना कर रहे थे, अब पूर्ण लॉक-डाउन मेँ होंगे। अब यह लॉक-डाउन संपूर्ण देश मेँ और कड़ाई से लागू किया जाएगा। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की ताजी रिपोर्ट के अनुसार अभी तक भारत संक्रमण  की तीसरी स्टेज याने सामुदायिक संक्रमण से दूर है। आईसीएमआर  के अनुसार संक्रमण अभी उन्हीं लोगों तक सीमित है जो या तो कोरोना वायरस प्रभावित देशों से आए हैं या ऐसे लोग जो विदेश से आए संक्रमित लोगों के संपर्क में आए हैं। यह एक राहत की बात हो सकती है। पर, इसका आधार कमजोर है क्योंकि देश में कोरोना से संक्रमित हैं या नहीं, इसकी टेस्टिंग सिर्फ उन्हीं लोगों की हो रही है जो उपरोक्त में से किसी श्रेणी में आते हैं। वह जैसा भी हो पर क्रूर सचाई यही है कि इस वायरस से संक्रमित होने के बाद इसका कोई इलाज नहीं है। कोई वेक्सीन नहीं है जो इससे बचा सके। हल केवल एक है संक्रमण से बचा जाये। अपने को सबसे अलग कर लो। किसी सार्वजनिक जगह पर न जाया जाये, जहां से संक्रमण आप तक और फिर आपके जरिये आपके परिवार और फिर उन सभी तक जो आपके संपर्क में आ रहे हैं, पहुंचे। यही सामाजिक दूरी है जिसे सोशल डिस्टेनसिंग भी कहा जा रहा है। चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, स्पेन से लेकर उन सभी देशों का अनुभव हमें बताता है कि उन्हें भी अपने लोगों को कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए कर्फ़्यू या लॉक डाउन में ही जाना पड़ा और सोशल डिस्टेनसिंग को ही बलपूर्वक लागू करवाना पड़ा। प्रधानमंत्री ने लोगों को किसी भी तरह के अंधविश्वास से दूर रहने की भी अपील की। याने, अपरोक्ष रूप से उन्होने अपने ही सिपलसहारों को नसीहत दी कि गौमूत्र या गोबर का लेप, कोरोना गो बैक गाना, जुलूस निकालना या राम रक्षा करेंगे, इसका हल नहीं है, जैसा कि कुछ भाजपा और सरकार में बैठे मंत्री कह रहे थे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चीन में इस वायरस के फैलाव और फिर अन्य देशों में इसके पहुँचने की रफ्तार को देखते हुए 30 जनवरी 2020 को ही इसे अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल घोषित कर दिया था। हमारी सरकारों तथा देशवासियों ने तब इसे उस गंभीरता से नहीं लिया, जिसकी आवश्यकता थी। वे सभी एहतियाती कदम जो पिछले दो हफ्तों में उठाए गए हैं कुछ पहले उठाए गए होते तो परिस्थिति और ज्यादा नियंत्रण में होती। विशेषकर, उन सभी लोगों की कड़ाई से जांच होनी चाहिये थी जो कोरोना प्रभावित देश से आ रहे थे और फिर उन्हें सरकारी स्तर पर, सरकारी खर्च पर आईसोलेशन में रखने की व्यवस्था करनी चाहिये थी ताकि वे आईसोलेशन की अवधि में समाज में घुलमिलकर संक्रमण को फैला न पायें। इन दो हफ्तों मेँ हमारे सामने ऐसे अनेकों उदाहरण आए जिनमें रसूखदार अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों एयरपोर्ट से न केवल बिना जांच के निकल आए, बल्कि सोसाईटी में भी जमकर घूमे-फिरे, नाचे-गाये और फिर कोरोना पाजीटिव निकले। विश्व के किसी भी देश के संपन्न तबके की तुलना में भारत का संपन्न वर्ग बहुत ज्यादा अहंकारी, दिखावा पसंद, केवल नियमों को तोड़ने वाला नहीं बल्कि नियमों को तोड़कर लाभ उठाने में शान समझने वाला  और समाज के प्रति अपने दायित्वों-कर्तव्यों से भागने वाला है। यह पिछले दो हफ्तों में बार बार प्रमाणित हुआ है।
हमारे देश में कोविद-19 को लेकर जो भी जागरूकता-गंभीरता पिछले दो सप्ताह में दिखाई दी है, वह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 11 मार्च को कोविद-19 को वैश्विक महामारी घोषित करने के बाद आई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे महामारी तभी घोषित किया जब चीन ने अपने बल पर इस पर काबू पा लिया और इस महामारी का केंद्र बदल कर यूरोप हो गया। आज ब्रिटेन, अमेरिका सहित यूरोप के सभी देश इस महामारी से अपने देश के लोगों को बचाने के लिए अरबों रुपये खर्च कर रहे हैं। चीन में इसे पूरे देश को लॉक डाउन करके काबू में किया गया और अब यूरोप भी उसी रास्ते पर है। हमारे देश में भी उन्हीं 5 बातों पर ज़ोर दिया जा रहा है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताईं हैं, सामाजिक दूरी, स्वप्रेरित-अलगाव, बार बार हाथों को धोना, खाँसते और छीकते वक्त कोहनी का इस्तेमाल और जरा भी महसूस होने पर कोविद-19 का टेस्ट कराकर आईसोलेशन में जाना। हमारे जैसे देश में जहां हाशिये पर रह रहे लोगों की संख्या अमेरिका की जनसंख्या से भी ज्यादा होगी, ये सभी उपाय, सिर्फ कोहनी की आड़ लेकर खाँसना-छींकना को छोड़कर, हाशिये पर जीवित लोगों की समस्याओं को कई गुना बढ़ाने वाले हैं।     
सामाजिक दूरी का पालन भारत के वे लोग जो झुग्गी-झौपड़ी में रहते हैं, कैसे करेंगे? अभी ही इस सामाजिक दूरी के पालन में तथा उसे बनाए रखने के लिए लगाए जा रहे लॉक-डाउन तथा कर्फ़्यू के चलते हजारों छोटी तथा माध्यम औद्योगिक इकाईयाँ, ढाबे, रेस्टोरेन्ट, खुदरा दुकाने जो बंद हैं उनमें काम करने वाले कर्मचारी, निर्माण क्षेत्र में लगे मजदूर, स्टार्ट-अप से स्व-व्यवसाय चालू करके व्यवसाय करने वाले, बेरोजगार होकर अपने अपने गाँव वापिस लौटने वाले लाखों लोग, आने वाले समय में अपना गुजारा कैसे करेंगे, इस समस्या से जूझ रहे हैं? सबसे ज्यादा कुपोषण भारत में है। देश के ये कुपोषित पुरुष-महिला और बच्चे कोविद-19 के वायरस का मुक़ाबला कैसे करेंगे? जबकि, हमारे देश का संपन्न और उच्च मध्यमवर्ग इस खुशफहमी को फैलाने में लगा है कि क्योंकि हमारे देश के लोग पूर्व से ही यूरोप और चीन की तुलना में अधिक असुरक्षित (Vulnerable) दशाओं में रहते हैं, इसलिए कोविद-19 के प्रति हमारे शरीर में प्रतिरोधक शक्ति ज्यादा है। अमेरिका, ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय देशों में प्रति एक लाख लोगों में से हजारों की संख्या में कोरोना-परीक्षण कराया जा रहा है ताकि कम्यूनिटी ट्रांसमीशन को रोका जा सके। हमारे देश में ये प्रति लाख दस से भी नीचे है। जब परीक्षण ही इतने कम लोगों का हो रहा है तो कम्यूनिटी ट्रांसमीशन को कैसे जाना-रोका जा सकेगा?
प्रधानमंत्री जब 19 मार्च को देश के लोगों को संबोधित करने आए तो उनसे उम्मीद थी कि वे उन सारी सलाह के साथ साथ जो उन्होने दीं, लोगों के सामने आ रही और आने वाली आर्थिक और सामाजिक कठिनाईयों पर भी बोलेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। आज भी उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए 15000/- करोड़ के पेकेज देने के अलावा हाशिये के लोगों का गुजारा कैसे होगा, उसके लिए कुछ नहीं कहा।  राज्यों की सरकारों ने जरूर कुछ एलान किए हैं और केरल में तो बाकायदा 20,000 करोड़ रुपए का पेकेज लागू किया गया है। हाल ही में वित्त मंत्री ने राज्यों को तीन महीने का राशन का कोटा उधार देने की बात कही है। उद्योगपतियों और व्यापारियों को जीएसटी देर से जमा करने जैसी छूट भी दी गई है। रजिस्टर्ड कामगारों तक तो राज्य सरकारें बैंक के माध्यम से कुछ नगद राशी पहुंचा सकेंगी, पर उन मजदूरों का क्या होगा, जो दिहाड़ी पर काम करते हैं और रजिस्टर्ड नहीं हैं?
कोरोना वायरस से देश के सामने त्रिस्तरीय चुनौतियाँ पेश हैं। पहली, हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा आम लोगों को उपलब्ध कराने के लिए पहले ही बहुत कम पैसा खर्च किया जाता है और देश की सार्वजनिक सेवाओं में यह दिखता भी है, जब आम तौर पर ही मरीज सरकारी अस्पतालों में बरामदे लेटे दिख जाते हैं, जिनके लिए बिस्तर तक उपलब्ध नहीं हो पाता है। यदि, ऐसा कभी न हो तो बेहतर है, कोरोना वायरस कम्यूनिटी ट्रांसमीशन में प्रवेश कर जाता है तो आईसीयू की बात छोड़िए, हम बिस्तर तक उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं हैं, जैसा कि एबीपी न्यूज चैनल की एक एंकर चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि ये कोरोना संक्रमित लोग क्यों सोसाईटी में घूम रहे हैं, क्या ये नहीं जानते कि हम चीन नहीं हैं कि एक दिन में ही 1000 बिस्तरों वाला अस्पताल बना कर खड़ा कर देंगे। प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद भी इसमें संशय ही है कि भारत का निजी चिकित्सा सेवा वाला कारपोरेट सेक्टर दृण इच्छा-शक्ति के साथ सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के साथ संयोजन करके बिना शुल्क चिकित्सा सेवाओं को देने के लिए खड़ा होगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि हम कितना भी खुश हो लें कि प्रधानमंत्री के कहने पर 22 मार्च (रविवार) को जनता-कर्फ़्यू सफल रहा, पर, उसके पीछे की सचाई यही है कि आवाम का बहुत बड़ा हिस्सा इस बात को विश्वासपूर्वक समझता है कि महा-आपदाओं और त्रासदियों में उसे राहत पहुंचाने की सरकार की क्षमता बहुत ही सीमित है और उसे अपनी रक्षा और रोजी-रोटी का इंतजाम खुद ही करना होगा। इसीलिए, दूसरे दिन से ही लोगों का बाहर निकलना शुरू हो गया था। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि इन सारे उपायों से जो किए जा रहे हैं, कोरोना संक्रमण को हम सीमित रखने में सफल भी होते हैं तो पहले से ही जर्जर अर्थव्यवस्था को जो धक्का इससे लग चुका है, उसे संभालने की कोई भी ताकत इस सरकार के पास दिखाई नहीं देती है। कोरोना वायरस का हल एक ही है, जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है और विश्व के सभी देशों की सरकारे भी कह रही हैं रोकथाम, दूरी, बंद, लॉक-डाउन, कर्फ़्यू, पर, सबके सामने, इस वायरस के जीवित रहते भी और मर जाने के बाद भी समस्याएँ अनेक हैं और होंगी।
अरुण कान्त शुक्ला
24/3/2020                
     
     
  

Wednesday, March 18, 2020

यह आखिरी किला नहीं है


मुझे ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति द्वारा पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने के बाद शायद लोगों को सबसे ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया जस्टिस मदन बी लोकुर(हाल ही में रिटायर्ड) की ही लगी होगी। उन्होनें कहा कि “अटकलें लगाई जा रही थीं कि जस्टिस गोगोई को क्या सम्मान मिलेगा? तो ऐसे में उनका नामांकन आश्चर्यजनक नहीं है लेकिन जो आश्चर्य की बात है, वह यह है कि फैसला इतनी जल्दी आ गया। यह न्यायपालिका की स्वतन्त्रता, निष्पक्षता और अखंडता को फिर से परिभाषित करता है। क्या आखिरी किला भी ढह गया है?” जस्टिस मदन बी लोकुर ने अपनी बात की अंतिम पंक्ति में जिस सवाल को किया है, उसका एक ही जबाब हो सकता है कि ढहा तो है, पर, न यह पहला किला था और न ही आखिरी। एक ऐसी व्यवस्था में, जिसमें कि हम रह रहे हैं किले पहले भी ढहे हैं और आगे भी   ढहते रहेंगे। इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं है कि सेवानिवृति के मात्र चार माह के अंदर राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिया। राजनीति में उपकार करने वालों को हमेशा सम्मान (रिवार्ड) मिलता रहा है, बस कुछ नया है तो आज केंद्र की सत्ता में जो राजनीतिक ताकत बैठी है, उसका इस हाथ दे, उस हाथ ले’, वाला तरीका, ताकि शेष उपकार करने वाले भी आश्वस्त हो जाएँ कि उन्हें भी उपकार का ईनाम तुरंत मिलेगा।
गोगोई जी का कहना है कि वे शपथ लेने के बाद बताएँगे कि उन्होंने राज्य सभा की सदस्यता क्यों मंजूर की। वैसे इस बात की संभावना नहीं के बराबर ही है कि वे कोई ऐसा रहस्योद्घाटन करें कि जिससे हिंदुस्तान की सियासत में वो भूचाल आए जो सब कुछ उलट-पलट कर रख दे। इसके ठीक उलट संभावना इसी की ज्यादा लग रही हैं कि वे ऐसा कुछ कहें, जिससे इस हाथ दे, उस हाथ ले वाला सूत्र ही ज्यादा मजबूत हो। गोगोई उन चार जज में से एक थे, जिन्होंने प्रेस कान्फ्रेंस करके पूर्व जस्टिस दीपक मिश्रा के निर्णयों और सरकार के न्यायालीन प्रक्रिया में असर डालने की कोशिश के खिलाफ खुलकर बातें की थी। पर, अपने मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के समय के उनके निर्णय लोगों को हतप्रभ करने वाले ही रहे। 2018 में जब वे एक 5 जजों वाली बेंच के प्रमुख थे, उन्होंने किसी संदर्भ में रिमार्क दिया था कि रिटायरमेंट के बाद जजों का लाभ वाले पदों पर जाना स्वतंत्र न्यायपालिका के माथे पर एक दाग है। बहरहाल इस लेख में मेरा उद्देश्य न्यायाधीश और न ही मुख्य न्यायाधीश रहते हुए उनके कार्यों, निर्णयों अथवा बातों को कुरेदना नहीं है।
बल्कि, उससे इतर मैं यह कहना चाहता हूँ कि राजनीति की जिस शैली में हम हैं सत्ता में जो भी दल हो वह राज्यसभा की सदस्यता, आयोगों के अध्यक्ष तथा सदस्य के पदों, विभिन्न बोर्डों के अध्यक्ष तथा सदस्यों के पदों, विश्वविद्यालयों के उपकुलपति के पदों, जांच आयोगों के पदों का इस्तेमाल कार्यपालिका और न्यायपालिका के बड़े और प्रमुख लोगों को लोभ देकर अपने पक्ष में कार्य कराने अथवा निर्णय पाने के लिए करता है। यह तरीका पहले भी अपनाया गया और आज भी अपनाया जा रहा है। फर्क सिर्फ यह है कि आज सिर्फ इसी तरीके को अपनाकर सरकार चल रही है। आज करीब करीब सभी स्वायत्त संस्थाएं, नाम के लिए भी स्वायत्त नहीं रह गईं हैं तथा सबके प्रमुखों को या तो संस्था को छोडकर जाना पड़ रहा है अथवा सरकार के इशारे पर सभी नियमों और संविधान के प्रावधानों तक की अवहेलना करके सरकार की मंशा के अनुसार कार्य करने मजबूर होना पड़ रहा है। देश के उच्च पदों पर बैठे ऐसे लोग जो भारत के 50 करोड़ गरीब लोगों की बात छोड़ भी दें तो ऊंचे दर्जे के मध्यवर्ग के रहन-सहन से भी ज्यादा बेहतर रहन-सहन से बल्कि ठसन और रुआब से जिंदगी भी बिताते रहते हैं और अपनी सद-इच्छा, भलमनसाहत और ईमानदारी तथा आम लोगों के प्रति अपने कर्तव्य को केवल इसलिए बेचते रहते हैं कि रिटायरमेंट के बाद कुछ और वर्ष के लिए पद तथा सुविधाएं मिल जाएँ, तब वे नहीं जानते कि वे लोकतन्त्र को एक ताबूत में बंद कर उसमें कील ठोक रहे हैं।हमारे देश में ही क्या, किसी भी देश में जहां हमारे जैसा लोकतन्त्र है, लोकतन्त्र की आवश्यकता कभी उस देश के संपन्न तबके को नहीं पड़ती। संपन्न तबका तो अपने कानूनी और गैरकानूनी सभी काम अपने रसूख और पैसे के दम पर करवाता रहता है। यह तो निचला तथा मध्य-वर्ग ही है जो जायज कामों के लिए भी अपनी एड़ियाँ रगड़ते फिरता है। यही वर्ग है जो सरकारी सेवा के बड़े अफसरों, न्यायपालिका के जजों और देश के संपन्न तबकों, जिनमें डाक्टर,वकील जैसे पेशों के लोग भी शामिल हैं, की ओर, हजारों बार धोखे खाने के बाद भी आशा भरी नजरों से देखता रहता है। उसने बहुत किले ढहते देखे हैं। उसी तबके का विश्वास एक बार और टूटा है। पर, वह जानता है की यह आखिरी किला नहीं है।        
अरुण कान्त शुक्ला
18/3/2020     


पेट्रोल डीजल में एकसाईज़ ड्यूटी बढ़ाना यह तो सरासर पाकेटमारी है


सरकार का प्राथमिक काम नागरिकों की तथा उनके अधिकारों की रक्षा करना होता है। यादी दो नागरिक किसी एग्रीमेंट में जाते हैं और उनमें से कोई एक उसे पूरा नहीं करता अथवा किसी अन्य तरीके से उसका उल्लंघन करता है तो पीड़ित नागरिक के पास यह अधिकार होता है कि वह दोषी के खिलाफ न्यायालय में कार्यवाही की मांग कर सके। सरकार की अनेक नीतियों के साथ भी बिलकुल वही स्थिति होती है। ये नीतियाँ एकतरफा घोषणाएँ नहीं होती हैं बल्कि सरकार की तरफ से नागरिकों के साथ किया गया एक प्रकार का करार ही होती हैं जिन्हें तोड़ना नागरिकों के साथ किए गए करार को तोड़ने के बराबर ही होता है। दरअसल, मैं पेट्रोल और डीजल में एक दिन पहले केंद्र सरकार के द्वारा बढ़ाई गई एकसाईज़ ड्यूटी के बारे में बात कर रहा हूँ।

आप कह सकते हैं कि यह तो कोई पहली बार नहीं हुआ है। यह सच है, यह पहली बार नहीं हुआ है, पर, एक बार नीतिगत निर्णय के रूप में यह तय करने के बाद कि क्रूड आईल की कीमतों को तय करने में सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो भी तेल के भाव होंगे उपभोक्ताओं को उसी के अनुसार भुगतान करना होगा। ये भाव भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर रोज जो भाव होंगे देश में उसी के अनुसार रोज़मर्रा तय किए जाएँगे। याने, सरकार ने स्वयं को उपभोक्ताओं और कंपनियों के बीच से हटा लिया तथा अब ग्राहक या कंपनी को होने वाले मुनाफे-घाटे से उसका कोई संबंध नहीं रहा। अब जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रूड आईल के दाम घटकर 34 डालर प्रति बेरल रह गए हैं तो दामों में यह कमी सीधे सीधे उपभोक्ता के पास पहुंचनी चाहिए थी। पर, सरकार ने तुरंत पेट्रोल और डीजल पर 3/- प्रति लीटर की बढ़ौत्तरी के साथ साथ स्पेशल एक्साईज ड्यूटी तथा रोड सेस में भी बढ़ौत्तरी करके लगभग 6/- से 7/- प्रति लीटर का फायदा जो उपभोक्ता की पाकेट में जाना चाहिये था, अपनी जेब में डाल लिया है। यह पहली बार नहीं है कि ऐसा किया गया है। प्रशासनिक स्तर पर भाव नहीं तय किए जाने की नीति आने के बाद से यह सरकार पेट्रोल डीजल के उपभोक्ताओं के साथ लगातार इस पाकेटमारी को कर रही है। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच 9 बार एक्साईज़ ड्यूटी बढ़ाई गई।

यह कहा जा सकता है कि टेक्स बढ़ाने का अधिकार सरकार के पास है और वह कभी भी इस अधिकार का प्रयोग कर सकती है। इसे पाकेटमारी कहना ठीक नहीं है। मैं इस तरह के तर्क से सहमत हो सकता था, यदि सरकार ने एक्साईज़ ड्यूटी नार्मल तरीके से नार्मल समय में बढ़ाई होती। पर, प्रत्येक समय यह तभी किया गया, जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रूड के दाम कम हुए और उसका फायदा उपभोक्ता को मिलने वाला था, उसे सरकार ने एक्साईज़ ड्यूटी बढ़ाकर उपभोक्ता के पाकेट में जाने से पहले छीन लिया। यह सरासर पाकेटमारी नहीं तो क्या है?

अरुण कान्त शुक्ला
16 मार्च 2020