Saturday, December 10, 2016

जब इनका अपहरण हुआ था..
विनोद शंकर शुक्ल जी को एक विनम्र श्रद्धांजली 
जब  कलआदरणीय गुरुदेव प्रभाकर चौबे जी से सांयकाल दूरभाष पर विनोद शंकर जी के निधन का समाचार मिला तो मन व्यथा से भरना तो स्वाभाविक ही था, एक ऐसी स्मृति मष्तिष्क में बार बार आने लगी , जो न केवल इस महान साहित्यकार के साथ मेरी पहली मुलाक़ात बनी वरन उस पूरे घटनाक्रम ने जो विनोद जी की एक सहज, सीधे व्यक्तित्व की जो छवि मेरे मन में गढ़ी, उसने मुझे स्वयं के अन्दर भी उसने अनेक बार सहज होने के लिए प्रेरणा प्रदान की | बात शायद वर्ष 1990 की है|  अपनी उस समय तक की 19 वर्ष की नौकरी और ट्रेड युनियन जीवन में मैंने कभी किसी भी ट्रेड युनियन को किसी साहित्यकार की वर्षगाँठ अथवा ऐसा ही कोई आयोजन करते नहीं देखा था| हमारे अखिल भारतीय संगठन से आव्हान आया कि प्रेमचंद के जन्म दिवस पर कार्यक्रम आयोजित करना है| कर्मचारियों के मध्य कहानी प्रतियोगिता, स्कूली बच्चों के लिए कहानी प्रतियोगिता रखी गईं| स्टेशन के पास की सत्यनारायण धर्मशाला में शनिवार दोपहर 2 बजे से प्रेमचन्द पर व्याख्यान रखा गया| मुख्य अतिथि ट्रेन से बिलासपुर से आने वाले थे| ट्रेन को 1.30 बजे आना था| ट्रेन आधा घंटा देरी से 2 बजे आई और उस पर से कहर यह टूटा कि उसमें मुख्य अतिथि नहीं आये| हमारे पास रायपुर से कोई भी अन्य वक्ता नहीं था| पूरा नेतृत्व स्तब्ध था| रायपुर में प्रेमचन्द पर अन्य किसी हस्ताक्षर को हम जानते भी नहीं थे| उसी साथी ने जिसने, मुख्य अतिथि को बिलासपुर से लाने की जिम्मेदारी ली थी, हमें सुझाव दिया कि हम विनोद जी को लाने का प्रयास करें| मैं एक अन्य साथी के साथ जो उनका निवास जानता था, उनके घर एक अधिकारी से कार का इंतजाम कर दौड़ा| वहां पता चला कि वे एक गोष्ठी में कंकाली पारा में गए हुए हैं| मैंने, इसके पूर्व कभी विनोद जी को देखा नहीं था और चूंकि मेरी शिक्षा जबलपुर में हुई थी, उन्हें चेहरे से पहचानता भी नहीं था| किसी तरह, हम उस घर में पहुंचे, दरवाजे को ठेलकर मैं कमरे में घुसा| इत्तिफाक से सभी पहले कमरे में ही दरी पर आसन जमाये बैठे थे और मैं उनमें से ट्रेड युनियन की वजह से सिर्फ आदरणीय चौबे जी को जानता था| मैंने करबद्ध होकर पूछा कि श्री विनोद शंकर शुक्ल कौन हैं| वे बोले मैं हूँ, मैंने उन्हें बमुश्किल 30 सेकेण्ड में बताया होगा कि हमारा प्रेमचन्द पर व्याख्यान मुख्य अतिथि व वक्ता के अप्रत्याशित रूप से नहीं आने के कारण रुका पड़ा है और लगभग 200 लोग इंतज़ार में बैठे हैं, आप तुरंत चलिए| वे अचकचा कर बोले आप कौन हैं और किसने कार्यक्रम आयोजित किया है, मुझे कुछ भी तो पता नहीं| मैंने कहा, आप चलिए, मैं रास्ते में सब बता दूंगा और उनको लगभग जबरदस्ती हाथ पकड़कर उठाने लगा, उन्हें असमंजस में देखकर आदरणीय चौबे जी ने कहा चले जाईये..बीमा कर्मचारी हैं..| मैं उन्हें लगभग धक्का सा देते हुए बाहर लाया और उनसे पूछा कि आपकी पादुकाएं कहाँ हैं, उन्होंने एक तरफ इशारा किया, मैं उन्हें उठाकर उन्हें देने वाला ही था तो वे बोले अब तो मैं चल ही रहा हूँ | राह में उन्हें मैंने पूरी बात बताई और अपना परिचय भी दिया| जब हम सभा में पहुंचे तो सभा शुरु करने के अपने समय से लगभग दो घंटे देरी से थे, वहां विनोद जी ने अपने व्याख्यान की शुरुआत में पहला वाक्य यही कहा था आपका सहसचिव मुझे यहाँ अपहरण करके लाया है, पर उसका यह अपराध क्षम्य है क्योंकि उसने यह साहित्य और प्रेमचन्द के लिए किया है| उसके बाद, हमें पता चला कि रायपुर नहीं, प्रदेश नहीं, देश में विनोद जी प्रेमचन्द पर एक माने हुए सशक्त हस्ताक्षर हैं| उसके बाद तो वे हमारे यहाँ हुई प्रतियोगिताओं के निर्णायक भी बने ..और मेरे सेवानिवृत होने के बाद उनके साथ मैंने विभिन्न शालाओं में अनेक बार प्रेमचन्द जयंती पर आयोजित कार्यक्रमों में भागीदारी की, वे कहते थे इतना ज्ञान रखने के बाद आप छुपे कहाँ थे? उनका यह बड़प्पन हमेशा बना रहा|  साहित्य की दालान में मुझे बैठने देने में मदद करने वाले मेरे अनेक शुभाकांक्षियों में उनका नाम भी प्रमुख है| मेरे काव्य संग्रह 'दो तीन पांच' के विमोचन में वे न केवल उपस्थित हुए उन्होंने उस पर अपने विचार भी रखे| दुःख रहेगा, अंतिम समय उनसे भेंट न हो सकी और उनके दर्शन न हो सके..पर क्या उसकी जरुरत है, जब वे जीवित है स्मृति में..उन्हें विनम्र श्रद्धांजली..
अरुण कान्त शुक्ला

10/12/2016

Thursday, December 8, 2016

जयललिता और सम्मानित जीवन सुलभ कराने की राजनीति

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के निधन के बाद विचारकों और विश्लेषण कर्ताओं ने अनेक तरह से उस लोकप्रियता के पीछे छुपे कारणों में झांकने का काम किया है| प्राय: सभी लोगों ने कहा कि पूंजी परस्त आर्थिक उदारीकरण में जहाँ सब्सिडी खत्म करने की होड़ लगी है, वहीं जयललिता तमिलनाडू के राजस्व का चौथाई से अधिक 27% हिस्सा समाज कल्याण के कार्यो पर सब्सिडी के रूप में खर्च कर रही थी|  यही उसके प्रति जनता का उमड़े प्यार और सम्मान का राज है| लेकिन, प्राय: सभी ने यह भी माना कि जनता को दान और उपकार से बहलाए जाते रहने से बेहतर यह नहीं है क्या कि आवाम को अधिकार दे कर सम्मानित जीवन सुलभ करने की नीति अपनाने की राजनीति हो| यहाँ प्रश्न यह है कि क्या ऐसी राजनीति, जैसी राजनीति में हम रह रहे हैं, कभी आवाम के संपन्न हिस्से को छोड़कर, किसी अन्य तबको को वह अधिकार देगी?    
पूंजीवाद किसी को भी अधिकार देकर सम्मानित जीवन सुलभ करने की नीति अपनाने के सिद्धांत पर नहीं चलता| यहाँ एक वर्ग को हमेशा ,गुणगान करने और सत्ता में चुने जाने के लिए दान-भिक्षा पर रखा जाता है| इस काम को भी पूंजीवाद में सरकारें ईमानदारी और भरोसे के साथ नहीं करतीं | जयललिता ने तमिलनाडु में इसे किया और लोकप्रिय हुई| कांग्रेस ने यूपीए प्रथम के कार्यकाल को में इसे किया और 2009 में वापस आई| वामपंथ ने बंगाल में तीस साल इसे ईमानदारी से किया और जब पूंजीवाद की बुराई, बेईमानी और भ्रष्टाचार उस पर सवार हुई, वह सत्ता से बाहर हुई|  
पूंजीवाद अलग से अधिकार दे कर सम्मानित जीवन सुलभ कराने की नीति अपनाने के लिए ईजाद कोई नई व्यवस्था नहीं है|  इसका जन्म सामंतवाद की कोख से ही हुआ है| औद्योगिक क्रान्ति ने इसका बीज सामंतवाद के गर्भ में डाला|  इसलिए, परिणाम स्वरूप आये पूंजीवादी बच्चे को अपने औद्योगिक क्रान्ति के स्वरूप को बचाने के लिए स्वयं को सामंतवाद की कुछ परंपराओं को पूंजीवादी उत्पादन से संबंधित सामाजिक और आर्थिक जीवन के कुछ क्षेत्रों से दूर रखना पड़ा है| किन्तु, शासन प्रणाली में जनता के असंतोष को दबाने के अस्त्र के रूप में आये लोकतंत्र सहित अन्य सारे पुर्जे सामंतवाद के ढाँचे के ही हैं और जनता को सामंतवादी ढाँचे के अन्दर बांधे रखना ही उसके लिए हितकर है|  इसीलिये आवाम को भी अधिकार की जगह राहत, रोजगार की जगह रोजगार भत्ता , सस्ती और सुलभ शिक्षा की जगह लेपटाप, घर से दो मील के अन्दर की दूरी पर स्कूल की जगह मुफ्त गणवेश, मुफ्त किताब-कापी, रहने की साफ़-सुथरी  दशाओं की जगह दो कमरों का मुफ्त का आवास, काम के अधिकार की जगह मनरेगा, और सबसे बड़ी बात संघर्ष करके हासिल करने की बजाय भिक्षा माँगने की सीख दी जाती है| एक और दो रूपया किलो चावल उसी का उदाहरण है| इसके लिए सामंतवाद के दो प्रमुख गुण धर्म और युद्ध का भरपूर प्रयोग पूंजीवादी लोकतंत्र करता है और कर रहा है| शासक वर्ग के पास इसके लिए तमाम आधुनिक उपकरण, जैसे मीडिया, स्वयं के विज्ञापन, थोथे नारे, आश्वासन, सबसिडी या मुफ्त में देने की योजनाएं आदि उपलब्ध रहते हैं| जिनसे वह अपने फायदे के हिसाब से जनता की सोच को बदलता है और उसे अपने फायदे के हिसाब से ढालता है|
यही कारण है कि जनता को भी समाज को बदलने की बात को सुनने से ज्यादा अच्छा भागवत में दस दिन गुजारना लगता है| शान्ति-भाईचारे और एकजुटता की बातों से साम्प्रदायिक, युद्ध और हिंसा  की बातें ज्यादा अच्छी लगती हैं| वसुधैव कुटुम्बकं से ज्यादा अच्छा छोटा और थोथा राष्ट्रवाद लगता है| औचित्य, तर्क और वैज्ञानिक सोच से अंध-श्रद्धाभक्ति, वरदान( आश्वासन) ज्यादा अच्छे लगते हैं| पूंजीवाद की चरम अवस्था साम्राज्यवाद है और साम्राज्यवाद को अपने अस्तित्व को बनाए रखने और लंबा करने के लिए आज पूरी व्यवस्था को तीन सौ वर्ष के पूर्व के भक्ति और रीति काल में ले जाने की आवश्यकता है| वह इतनी वैज्ञानिक और भौतिक तरक्की हो जाने के बाद, इसे, आवाम के रहन-सहन, खानपान, पहरावे, शौक, आधुनिक रोजगार, उत्पादन के साधनों पर, उपलब्ध वैज्ञानिक और तकनीकि उपकरणों के होते हुए, आवाम के जीवन के स्तर पर नहीं कर सकती है|  यह इसलिए कि इन सभी से पूंजीवाद का आधार स्तंभ मुनाफ़ा ( संपत्ति एकत्रीकरण की प्राणवायु) जुड़ा हुआ है| तब इसे कैसे किया जाए?  
इस यक्ष प्रश्न का जबाब हाल के पिछले तीन दशकों में पूंजीवाद ने खोजा है और अब उस पर विश्व के पैमाने पर अमलीकरण हो रहा है|  वह तरीका है, जीवन आधुनिक जियो, उत्पादन के साधन आधुनिक रखो, पर वितरण पर पकड़ सामंतवादी रखो, आवाम के सोच का स्तर घोर सामंतकाल का रखो,याने, आवाम को सोच के स्तर पर पीछे ले जाने के पूरे प्रयास हो रहे हैं| यह काम भारत में रविशंकर, रामदेव, आशाराम जैसे कथित संत सरकार के सरंक्षण में निजी तौर पर कर रहे हैं तो सरकारें तीर्थ यात्राएं, हज के लिए पैसा देकर कर रही है| अनेक अन्य संतों के कारनामों की तरफ से सरकारें आँखें मूंदी रहती हैं, ताकि आम लोग भ्रमित और अन्धविश्वासी बने रहें| राधे मां, फतवे जारी करने वाले मौलवी, चंगाई देने वाले ईसाई गुरु, फिल्म बनाने वाले और उसमें काम करने वाले पंजाब के संत सब सरकारों के पालित ही हैं|   राजा और नबाब भी ऐसा करते थे , लोकतांत्रिक सरकारें भी ऐसा कर रही हैं| दुनिया के अन्य देशों में भी ऐसा ही हो रहा है| तभी, 19वी शताब्दी के मध्य से जन्मी आधुनिक सोच , जिसने बीसवीं शताब्दी में जाकर अमली जामा पहना , पूरी शताब्दी भी ज़िंदा न रह पाई और उसका कार्यप्रणाली में परिवर्तित रूप (समाजवाद) पूंजीवाद ने अपने पैने जबड़ों से चबा डाला|
इस सबके बीच यदि कोई संतोष का विषय है तो वह यह है कि वह बीज जो निकला पूंजीवाद के गर्भ से ही है, उसमें सामंतवाद का अंशमात्र भी असर नहीं आया है और वह एक आजमाई हुई शासन पद्धति के उदाहरण के रूप में प्रगतिशील, शोषित और मेहनतकश जनता के मष्तिष्क में हमेशा न केवल मौजूद रहेगा बल्कि समाज के अनेक तबके हमेशा उसे पुनर्स्थापित करने के लिए संघर्ष करते ही रहेंगे| अधिकार दे कर सम्मानित जीवन सुलभ करने की नीति, उसी बीज का पौधा है, जिसे संघर्ष रूपी खाद और त्याग रूपी वर्षा की जरुरत है| और, तब तक भारत में मोदी, जयललिता, शिवराज-रमन-वसुंधरा, अमेरिका में ट्रम्प आते रहेंगे,-जाते रहेंगे| सरकारें या तो घोर दक्षिणपंथी रास्ते पर चलेंगी या कांग्रेस के समान उससे समझौता करती रहेंगी| अफसोस, जिन्होंने पूंजीवाद और सामंतवाद के इस गठजोड़ का समूल नाश करने का बीड़ा उठाया था और वे भी जो इसके नाम से रोटी खा रहे हैं, पूंजीवाद के मोह जाल में फंसकर अपने को कमजोर कर चुके हैं| पर, मानव के कल्याण का रास्ता वहीं से निकलेगा और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक जयललिता जैसे नेताओं की लोकप्रियता और उनके लिए रोने वालों की संख्या हमेशा हमें चौंकाती रहेगी|
अरुण कान्त शुक्ला
7/12/2016



Sunday, November 20, 2016

क्या इस तरह खत्म होगा बस्तर में माओवाद ?

क्या इस तरह खत्म होगा बस्तर में माओवाद ?
अरुण कान्त शुक्ला : 12 नवम्बर, 2016 
अभी कुछ दिनों पूर्व ही राज्योत्सव के शुभारंभ के लिए आये प्रधानमंत्री से मुलाक़ात करते हुए आई जी बस्तर, एसआरपी कल्लूरी ने प्रधानमंत्री से कहा कि वे चुनाव के पहले तक बस्तर में माओवाद को पूरी तरह खत्म कर देंगे| इस, अब विवादग्रस्त, मुलाक़ात में कही गई यह दंभोक्ति पुलिस सेवा में रत आईजी की कम तथा किसी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के छुटभैय्या नेता की अधिक लगती है| आईजी बस्तर की इस दंभोक्ति ने अगले दिन अखबारों में मुख्य पेज पर हेडलाईन बनाई थी| बावजूद इसके कि पिछले तेरह वर्षों में राज्य के मुख्यमंत्री पद पर आसीन रमन सिंह भी माओवाद के खात्मे के लिए कृतसंकल्पित होने के दावे के अलावा कभी कोई डेडलाइन इसके लिए घोषित नहीं कर पाए हैं, आई जी का यह दावा आने वाले समय में पुलिस-अर्धसैनिक तथा सैनिक बालों द्वारा बस्तर के आदिवासियों पर प्रताड़नाओं को और अधिक बढ़ाए जाने के खतरे की तरफ ही इशारा करता है|
पुलिस ने बनाया बस्तर को एक अभेद दुर्ग
पिछले लम्बे समय से बस्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों के रहवासियों, बाकी देश और दुनिया के लिए एक ऐसा अभेद दुर्ग बना हुआ है, जिसके बारे में सभी को उतना ही जानने का हक़ है, जितना वहां के पुलिस और सैन्य अधिकारी आपको बतायें| तनिक भी सत्यान्वेषण का प्रयास और उसे प्रसारित करने के प्रयास आपके ऊपर माओवाद को मदद पहुंचाने, माओवादी होने का ठप्पा लगा देता है| मैंने लगभग छै वर्ष पूर्व अपने लेख ‘आखिर चाहते क्या हैं माओवादी’ और फिर झीरम में हुए हत्याकांड पर त्वरित टिप्पणी करते हुए माओवाद के खिलाफ लिखा था| उस समय भी बस्तर के आदिवासी माओवाद और पुलिसया दमन के दो पाटों के बीच पिस रहे थे और आज भी वे दोनों पाटों के बीच पिस रहे हैं| पर, जो फर्क आया है वह बहुत बड़ा है| माओवादी घोषित रूप से शासकीय प्रतिष्ठानों, पुलिस और सैन्य बलों के दुश्मन हैं और उनके अधिकाँश हमले आज भी उन्हीं पर होते हैं| आदिवासियों में वे ही उनके शिकार होते हैं जिन्हें पुलिस दबाव डालकर, जबरिया या लालच देकर अपना मुखबिर बनाती है और माओवादियों के इसका संदेह हो जाता है| पर, पुलिस या सैन्यबलों के मामले में ऐसा नहीं है| गाँव के गाँव और सैकड़ों की संख्या में आदिवासी उनके संदेह के घेरे में आते हैं| गाँव के गाँव जलाने से लेकर, गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस देना, बिना गिरफ्तारी दिखाए वर्षों बंद रखना, आदिवासियों स्त्रियों के साथ बलात्कार, स्कूल के विद्यार्थियों को नक्सल बताकर मार देना, पुलिस कस्टडी में मौतें, मुठभेड़ दिखाकर ह्त्या कर देना, सब उसमें शामिल रहता है| इस सत्य को बस्तर से बाहर पहुंचाने वाले पत्रकार, आदिवासियों की मदद करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, कानूनी मदद करने वाले वकील सभी उनके लिए माओवाद के समर्थक हैं या माओवादी| उन्हें बार-बार गिरफ्तार करके, झूठे मुकदमे चलाकर तंग करने के अलावा येन-केन-प्रकारेण उनसे बस्तर छुडवाने का ही उनका उद्देश्य रहता है| यह काम दोनों तरह से होता है| पुलिस-सैन्यबल इसे प्रत्यक्ष तौर पर भी करते हैं और सलवा जुडूम को सर्वोच्च नयायालय दवारा अवैधानिक घोषित करने के बाद पुलिस द्वारा पिछले छै वर्षों में सामाजिक एकता मंच जैसे गठित अनेक समूहों द्वारा भी कराया जाता है| यूं तो ऐसे अनेक उदाहरण हैं लेकिन करीब आठ माह पूर्व एक वेबसाईट की पत्रकार मालिनी सुब्रमणियम को सामाजिक मंच के लोगों के द्वारा घर पहुंचकर मार पीट करना और उसके मकान मालिक को पुलिस द्वारा धमकाकर मकान खाली कराने का मामला तेजी से प्रकाश में आया था| सोनी सोरी का मामला सर्व विदित है| यह कहने की जरुरत नहीं कि राज्य शासन की सहमति के बिना यह सब करना न तो पुलिस और न ही उन निजी सेनाओं द्वारा संभव है, जिन्हें पुलिस ने खड़ा किया है|
उपरोक्त लम्बी भूमिका की आवश्यकता मुझे इसलिए पड़ी कि बस्तर के दरभा में नक्सल विरोधी टंगिया ग्रुप के लीडर सामनाथ बघेल की ह्त्या के मामले में सुकमा पुलिस ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव संजय पराते, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो.नंदिनी सुन्दर, प्रो.अर्चना प्रसाद सहित 22 लोगों पर एफ़आईआर दर्ज की है| पुलिस के अनुसार सामनाथ की पत्नी ने लिखित आवेदन देकर एफ़आईआर दर्ज करने की मांग की थी| आईजी बस्तर एसआरपी कल्लूरी के अनुसार नामा गाँव के ग्रामीणों की शिकायत पर धारा 302 से लेकर आर्म्स एक्ट सहित विभिन्न 8 धाराओं के तहत एफ़आईआर दर्ज हुई है| यह स्पष्ट है कि उपरोक्त तीनों ने पार्टी के कुछ अन्य लोगों के साथ लगभग छै माह पूर्व मई में दरभा में कुमाकोलेंग और नामा गाँवों का दौरा किया था| तभी से वे बस्तर पुलिस के निशाने पर थे| ज्ञातव्य है की तब नंदिनी सुन्दर ने ऋचा केशव के नाम से दौरा किया था| नंदिनी सुन्दर के अनुसार क्योंकि वे बस्तर पहले भी आती रही हैं और बस्तर पर उनकी खोजपूर्ण किताबें भी हैं, उनका नाम पुलिस के लिए पहचाना है और पुलिस उन्हें असली नाम से जाने नहीं देती, उन्होंने ऐसा किया था और वापिस लौटते ही अपना असली नाम उजागर कर दिया था| यह सच है क्योंकि पहले स्वामी अग्निवेश, ताड़मेटला की जांच करने वाली सीबीआई की टीम और मार्क्सवादी पार्टी के ही डेलिगेशन के साथ ऐसा हो चुका है| उसी समय आईजी पुलिस ने राज्य शासन को अलहदा रखते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय को पत्र लिखकर नंदिनी सुन्दर और अर्चना प्रसाद के खिलाफ कार्यवाही की मांग की थी| फिलवक्त जो खबर है, उसके अनुसार आईजी कल्लूरी ने डीजीपी को पत्र लिखकर पूरे मामले की जांच सीबीआई से करने की सिफारिश की है| वह जैसा भी हो और आगे पुलिस की जांच के बाद जो भी कार्यवाही हो, पर, पूरे मामले पर राय बनाने से पहले कुछ बातों का खुलासा आवश्यक है| 
राष्ट्रीय वामपंथी दल माओवाद के समर्थक नहीं हैं
पहली यह कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी देश के दो बड़े राजनीतिक दल हैं और अनेक बार राष्ट्रीय सरकारें इनके कन्धों पर चढ़कर बनी हैं| बंगाल में वामपंथ की सरकार स्वयं नक्सलवाद का सामना करती रही है| इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की नक्सलवाद-माओवाद के बारे में घोषित कार्यनीति है कि वे माओवादी गतिविधियों का समर्थन नहीं करती हैं और माओवाद के खात्मे के लिए संयुक्त राजनीतिक अभियानों और जन-आन्दोलन की पक्षधर हैं| उनकी स्पष्ट मान्यता है कि आदिवासियों को उनकी जमीन और जंगल से बेदखली की कार्यवाही को रोककर शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं को सुदूर ईलाकों तक पहुंचाकर माओवाद पर अंकुश लगाया जा सकता है| इन दोनों दलों की इस कार्यनीति का अवलोकन उनके राजनीतिक दस्तावेजों में किया जा सकता है, जो उनकी वेबसाईट पर उपलब्ध हैं| दूसरी बात कि दोनों राजनीतक दल इतने अनुशासित हैं कि केंद्र से लेकर कसबे स्टार तक कोई साधारण कार्यकर्ता भी इस कार्यनीति के उल्लंघन की बात सोच भी नहीं सकता| दोनों राजनीतिक दलों के अनेक कार्यकर्ता बस्तर व अंता:गढ़ क्षेत्र में नक्सली हमलों का शिकार होकर मारे गए हैं| पुलिस ने कभी भी किसी मामले में ठोस कार्यवाही नहीं की|
तीसरी बात की शुरुवात मैं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एक प्रतिनिधी मंडल की तात्कालीन डीजीपी से लगभग आठ दस पूर्व हुई मुलाक़ात का उदाहरण देकर करना चाहता हूँ| पार्टी के एक प्रतिनिधी मंडल ने बीजापुर क्षेत्र में जाने के पूर्व डीजीपी से रायपुर में मुलाक़ात की और उन्हें बताया कि वे बस्तर के हालात जानने के लिए बीजापुर, दोरनापाल इलाकों में जाना चाहते हैं| उन्होंने कहा आराम से जाईये पर थोड़ा सावधान रहियेगा| महत्वपूर्ण इसके बाद की बात है| उन्होंने कहा कि आप लोगों की भी जिम्मेदारी बनती है| क्योंकि, आप लोगों के जन-आन्दोलन आदिवासी क्षेत्र में बहुत कम और कमजोर हो गए हैं, उस जगह को माओवाद ने कब्जा लिया है| शहरी क्षेत्र तो ठीक है पर थोड़ा आदिवासी क्षेत्र पर भी ध्यान दीजिये| आप जानते हैं कि वामपंथी राजनीतिक दलों के आन्दोलन-जनसंघर्ष शोषित-पीड़ित जनता के उपर होने वाले व्यवस्था-जन्य उत्पीड़न के खिलाफ होते हैं| इसका अर्थ यह हुआ कि माओवाद अथवा नक्सलवाद को प्रारंभ से ही क़ानून-व्यवस्था का मामला मानने बावजूद, कहीं न कहीं, प्रशासन के अवचेतन में यह बात थी कि माओवाद केवल क़ानून-व्यवस्था का मामला नहीं बल्कि व्यवस्था से पैदा हो रही समस्याओं का भी परिणाम है| पिछले छै वर्षों में और केंद्र में भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद से प्रशासन और राजनीति की यह सोच पूरी तरह समाप्त हो चुकी है|
छत्तीसगढ़ में लोकतंत्र से ‘लोक’ गायब है
चौथी बात, छत्तीसगढ़ में आज हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं, उसमें से ‘लोक’ पूरी तरह गायब है| इसका सबसे बड़ा उदाहरण मुख्यमंत्री द्वारा आज से कुछ वर्ष पूर्व बुलाया गया विधानसभा का वह ‘गुप्त’ सत्र है, जो बस्तर में नक्सलवाद के खिलाफ रणनीति तय करने के लिए बुलाया गया था| इसमें भाजपा, कांग्रेस, राकपा, बसपा सभी शामिल थे, पर आज तक प्रदेशवासियों को इसकी जानकारी नहीं मिली की आखिर क्या रणनीति बनाई गयी थी? और क्यों, उसके बाद से बस्तर में माओवाद से कई गुना अत्याचार आदिवासी पर पुलिस का हो रहा है| यहाँ यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि क्या क्लोज सेशन में प्रताड़ित कर आदिवासियों को बस्तर से भगाने का निर्णय हुआ था? क्योंकि उसके बाद से लाखों आदिवासी या तो पलायन कर गए हैं या लापता हैं| शहरी क्षेत्र में आचानक पुलिस कस्टडी में होने वाली मौतें आम सी हो चली हैं| यदि यह कहा जाए कि पूरे प्रदेश में और बस्तर में तो पूरी तरह एक भयभीत करने वाला लोकतंत्र पसरा पड़ा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| आप सुरक्षित हैं, जब तक ‘राज्य’ के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाते| अधिकाँश प्रिंट मीडिया और स्थानीय चैनल पूरी तरह राज्य शासन के नियंत्रण में हैं और उनका काम पुलिस तथा शासन की प्रस्तुती को ही लोगों के समक्ष रखना है| इसे समझने के लिए सिर्फ दो उदाहरण पर्याप्त हैं| राज्य सरकार ने आदिवासियों को आदिवासियों से ही लड़ाने की मंशा रखते हुए सलवा जुडूम शुरू किया| यह कोई नक्सलवाद के खिलाफ शांतिपूर्ण मार्च या मोर्चा नहीं था बल्कि आदिवासी बालिग़-नाबालिग युवकों को कुछ हजार रुपये की तनख्वाह पर रखकर एसपीओ याने विशेष पुलिस बल कहकर उन्हें हथियार थमा दिए गए| इन एसपीओ की सहायता से पुलिस प्रशासन ने आदिवासियों को मजबूर किया कि वे अपना घर द्वार छोड़कर शासन निर्मित केम्पों में जाकर रहें| गाँव के गाँव खाली करा लिए गए| आदिवासियों को इन केम्पों में अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर किया गया| हालात यह थे कि केम्प छोड़ कर गाँव वापिस जाने की कोशिश करने वाले परिवारों-व्यक्तियों को ये विशेष पुलिस बल के आदिवासी जवान ही मार डालते थे और उन्हें नक्सली कहा जाता था| इन केम्पों में बाहरी व्यक्तियों का प्रवेश असंभव था और उन इलाकों में जाने की कोशिश करने वालों को ये एसपीओ वर्चुअली मारपीट कर भागने को मजबूर कर देते थे| पूरे प्रदेश में इस सलवा-जुडूम और एसपीओ का विरोध हो रहा था,पर,राज्य शासन ने कोई कान नहीं दिया| अंतत: सर्वोच्च न्यायालय ने सलवा-जुडूम और एसपीओ के गठन दोनों को अवैधानिक घोषित किया| थोड़े अंतराल के बाद ही उन्हीं एसपीओ को राज्य शासन ने डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड के नाम से फिर नियुक्त कर लिया| उसके बाद से पुलिस और स्थानीय प्रशासन की शह और दबाव में ऐसे अनेक मंच बने हैं, जो लगातार बस्तर में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, वकीलों पर हमले करते हैं और पुलिस खामोशी से उन्हें देखती रहती है| यह कौनसा लोकतंत्र का मॉडल है जिसमें राज्य और प्रशासन गैरकानूनी ढंग से लोगों को डराने, धमकाने के लिए युवकों की भर्ती करता है?
दूसरा उदाहरण ताड़मेटला, मोरापल्ली, तिम्मापुर गाँवों में 250 से अधिक आदिवासियों के घरों को जलाने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने पेश की गयी सीबीआई की हाल में ही आई रिपोर्ट पर बस्तर के प्रशासनिक अमले की तरफ से व्यक्त की गईं प्रतिक्रियाओं का है| कथित तौर पर सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि न केवल घरों को फ़ोर्स ने जलाया बल्कि फ़ोर्स को दंतेवाड़ा के तत्कालीन एसपी और वर्तमान आईजी बस्तर एसआरपी कल्लूरी के निर्देश पर भेजा गया था| ज्ञातव्य है कि इस मामले में पुलिस और सैन्य-बलों दवारा यह स्टेंड लिया जा रहा था कि घरों को माओवादियों ने जलाया है| इस पर प्रदेश के राजनीतिक दलों ने उन्हें हटाने और उनके खिलाफ जांच करने की मांग की| अमूमन राजनीतिक दलों के द्वारा लगाए आरोपों और मांग पर राज्य शासन या सत्तारूढ़ पक्ष ही जबाब देता है| पर, आश्चर्यजनक रूप से इस पर प्रेस कांफ्रेंस करके कांग्रेस को चुनौती देते हुए आईजी बस्तर ने ही चुनौतीपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त की| इसके मायने हुए कि बस्तर के लोकतन्त्र को राज्य शासन और सत्तारूढ़ दल ने पूरी तरह पुलिस के हवाले कर दिया है| आई जी बस्तर से इस शह को पाकर दूसरे दिन बस्तर के कई इलाकों में डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड के जवानों ने ड्रेसबद्ध होकर (जोकि वास्तव में पुराने एसपीओ ही हैं) सर्वोच्च न्यायालय गए सामाजिक कार्यकर्ताओं के पुतले जलाए और पुलिस ने कोई प्रतिरोध नहीं किया| यहाँ न तो यह कहने की जरुरत है कि बिना सर्वोच्च अधिकारी की शह के ऐसा नहीं हो सकता था और न ही यह बतलाने की जरुरत है कि इसमें राज्य शासन की सहमती अवश्य ही रही होगी क्योंकि अभी तक राज्य शासन ने, जिसने की इन रिजर्व गार्डों की भर्ती की है, कोई ठोस कार्यवाही नहीं की है| क्या प्रशासन का कोई अंग विशेषकर पुलिस अथवा सेना लोकतांत्रिक कार्यवाही और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ ऐसा कदम लोकतंत्र में उठा सकता है?
क्या इस तरह खत्म करेंगे बस्तर में माओवाद को आईजी एसआरपी कल्लूरी?   
मामले में ताजा घटनाक्रम यह है कि प्रो. नंदिनी सुन्दर की सर्वोच्च न्यायालय में एफआईआर रद्द करने के लिए लगाई गयी याचिका पर राज्य शासन ने सर्वोच्च न्यायालय के रुख को भांपते हुए भरोसा दिलाया है कि 15 नवम्बर तक किसी की गिरफ्तारी नहीं की जायेगी और राज्य शासन जांच की पूरी कार्यवाही की रिपोर्ट और अन्य दस्तावेज सीलबंद लिफ़ाफ़े में 15नवम्बर तक सर्वोच्च न्यायालय को सौंपेगा| यह भी खबर है कि सामनाथ की पत्नी ने कहा है कि उसने पुलिस को कोई नाम नहीं दिए थे| किंतु, पिछले छै साल में बस्तर में माओवाद से निपटने के नाम पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने वाले अनेक मामले में आरोपित व्यक्तियों को बेदाग़ अदालतों ने छोड़ा है बल्कि पुलिस तंत्र और राज्य सरकार की कटु आलोचना भी की है| सोनी सोरी की गिरफ्तारी और पुलिस हिरासत में उस पर की गयी अमानवीय ज्यादती सर्व विदित है| हाल ही में सोनी सोरी पर रसायन फिकवाने का आरोप भी पुलिस पर लगा है| किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए अदालतों में उसके कार्यों को पलटा जाना और उसकी निंदा होना न केवल सरकार और तंत्र के लिए शर्म का विषय होना चाहिए बल्कि यह यह भी दर्शाता है कि वह सरकार कितनी अलोकतांत्रिक ढंग से परिस्थिति से निपटती है| बस्तर की स्थिति को बेहतर ढंग से समझने के लिए मैं एक उद्धरण देना चाहता हूँ;
“ जिन घटनाओं से हमारा साबका पड़ा है उन पर यकीन नहीं होता; लेकिन ये हुईं तो हैं| दरअसल, रिपोर्ट में भयानक घटनाओं को पूरी तरह बयान नहीं किया जा सकता| और न ही उन लोगों की नाक़ाबिले-बयान क्रूरता और हैवानियत का ब्यौरा दिया जा सकता है, जो जिले के प्रशासन और पुलिस की जिम्मेदारी संभाले थे| जिस सवाल का जबाब चाहिए वो है; सरकार की नौकरी में रहते हुए कैसे इन लोगों को लगा कि उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया जा सकता है| कैसे उनकी हिम्मत हुई कि सरकारी साधनों का इस्तेमाल करके वे ऐसे अकथनीय गुनाह कर सके, जिनके लिए हमारे सामने पेश किये गए सबूतों के बिना पर हम आपको जिम्मेवार समझते हैं?”
उपरोक्त उद्धरण 1930-1934 के बीच हुए चिटगांव विद्रोह पर मानिनी भटाचार्य की किताब ‘करो या मरो’ से लिया गया है| मानिनी आगे लिखती हैं; “ चिटगांव शस्त्र भंडार पर हमलों के कुछ दिन ही बाद बकरगंज के पुलिस डीआईजी, जे सी फारमर ने इन्सपेक्टर खान साहब असानुल्ला का तबादला बरिसाल से चिटगांव कर दिया| उसको क्रांतिकारियों को ढूँढने में पुलिस की मदद करनी थी| 6मई 1930 को फारमर ने असानुल्ला के बारे में कहा कि ‘जानकारी एकत्रित करने और निगरानी में वो काफी चालू है’ और सबसे बड़ी बात है कि वो खुद बहुत सक्रिय है’|” चिटगांव की घटनाओं पर आई रिपोर्ट और ताड़मेटला पर आई सीबीआई की रिपोर्ट में पूरा साम्य होने के बावजूद एक बड़ा फर्क है जो काबिले-गौर है| चिटगांव पर आई रिपोर्ट एक गैर सरकारी जांच कमेटी की थी और सीबीआई की रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर ‘सरकारी एजेंसी सीबीआई’ की है| ठीक यही परिस्थिति आज बस्तर के अन्दर मौजूद है| केंद्र और राज्य शासन ने माओवाद के खिलाफ लड़ने के नाम पर बस्तर में युद्ध छेड़ दिया है| आदिवासियों पर जुल्म ढाने के लिए पुलिस के उन तमाम लोगों को बस्तर में तैनात किया है जिनके ऊपर पूर्व से ही मानवाधिकार उल्लंघन के गंभीर आरोप हैं| बस्तर आईजी, जो पहले वहां एसपी थे, के ऊपर फर्जी मुठभेड़ आयोजित करने से लेकर आदिवासी स्त्री से बलात्कार जैसे आरोप भी लग चुके हैं|

यह वह परिप्रेक्ष्य है, जिसमें हमें बस्तर में हो रहे माओवादियों के नकली आत्मसमपर्ण, मुठभेड़ के नाम पर हो रही हत्याओं, बलात्कारों तथा राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के ऊपर होने वाले आक्रमणों तथा उनके खिलाफ फर्जी एफआईआर दर्ज करने के प्रकरणों का अवलोकन करना पड़ेगा| यह सच है कि क्रान्ति की माओवादी अवधारणा, जिसकी राह पर माओवादी चल रहे हैं, न तो भारतीय समाज और न ही भारतीय परिस्थति के अनुरूप है| पर क्या, बस्तर में लोकतंत्र को ताक पर रखकर, वहां पर उपस्थित राजनीतिक और सामाजिक ताकतों को अपराधी घोषित करके, माओवाद के नाम पर आदिवासियों पर राज्य की हिंसा को लादकर क्या बस्तर में माओवाद का खात्मा कर पायेंगे, बस्तर आईजी एसआरपी कल्लूरी?