Thursday, January 31, 2013

रमन सरकार को भारी पड़ेगा कर्मचारियों का ये असंतोष-



छत्तीसगढ़ देश के उन छै राज्यों में से एक है, जहाँ इसी वर्ष अक्टोबर में विधान सभा चुनाव होने हैं अमूमन, चुनावी वर्ष में राज्य सरकारें राज्य सेवा से जुड़े प्रत्येक कर्मचारी समूह को संतुष्ट रखने का प्रयास करती हैं पर, रमन सरकार ने जिस तरह पहले शिक्षाकर्मियों के आंदोलन को दबाया, फिर लिपिक वर्गीय कर्मचारियों के आंदोलन को तोड़ा और फिर आंगनवाड़ी कर्मियों के साथ आकड़ों की बाजीगरी दिखाकर एक भ्रामक वातावरण बनाने की कोशिश की है, उसने इन लाखों कर्मचारियों के असंतोष को और भड़काया है

इन लाखों शिक्षाकर्मियों, लिपिकों और आंगनवाड़ी कर्मियों का आक्रोश केवल इस बात को लेकर नहीं है की उनकी जायज मांगों में से किसी भी मांग को माना नहीं गया या उनके आंदोलन के प्रति राज्य सरकार का रुख अवेहलानाकारी रहा या उनके आंदोलन को  बलप्रयोग करके दबाने की कोशिश की गई बल्कि उनका आकोश की सबसे बड़ी वजह उनके साथ राज्य सरकार के द्वारा की गयी धोखाधड़ी है

यूँ तो, रमन सरकार की दोनों पारियों में, चाहे वे राज्य सरकार की सेवाओं से जुड़े हुए किसी भी तबके के कर्मचारियों के आंदोलन हों या असंगठित क्षेत्र के कामगारों के आंदोलन, सभी को  राज्य सरकार की अवेहलना और कट्टर रवैय्ये का शिकार होना पड़ा पर, पौने दो लाख शिक्षाकर्मियों, चालीस हजार से अधिक लिपिकों और चौरान्यावे हजार आंगनवाड़ी कर्मियों के साथ की गए धोखाधड़ी एकदम चुनाव पूर्व संध्या पर की गयी धोखाधड़ी है, जिसका असर अक्टोबर में होने वाले चुनावों पर पड़े बिना नहीं रहेगा

शिक्षाकर्मियों के संयुक्त मंच ने जब 3 दिसंबर से शुरू हुए आंदोलन को 38 दिनों बाद बिना नतीजे और बिना शर्त वापस लिया तो शिक्षाकर्मियों में से क्या पुरुष और क्या महिलाएं बिलख बिलख कर रो पड़े थे शिक्षा कर्मियों को संविलियन देकर पूर्ण शिक्षक का दर्जा दिया जाएगा, ये भाजपा का 2004 तथा 2008के चुनावों के समय चुनाव घोषणा-पत्र में किया गया वायदा था शिक्षाकर्मियों में असंतोष की दूसरी बड़ी वजह यह है की वे जब नवंबर 2011 में जब वो संविलियन और छटवें वेतनमान के अनुसार वेतन प्रदान करने की मांग पर आंदोलन पर थे तो स्वयं मुख्यमंत्री ने उन्हें सम्मानजनक वेतनमान देने का वायदा कर, उनका आंदोलन समाप्त कराया था पर, मार्च 2012 में, राज्य सरकार ने शिक्षाकर्मियों के पदनाम बदलने के नाटक के साथ वर्ग 3,2,1के लिए क्रमशः जिस 16, 18 तथा 27 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा की और उसका ढिंढोरा पीटा, वो पौने दो लाख शिक्षाकर्मियों के साथ की गयी धोखाधड़ी के अलावा और कुछ नहीं था, क्योंकि नए वेतनमानों का लाभ स्नातक  शिक्षाकर्मियों को 7 वर्ष और गैर स्नातकों को 10 वर्ष के सेवाकाल के बाद मिलना था याने  पौने दो लाख शिक्षाकर्मियों में से केवल 13000 को ही तुरंत नए वेतनमान का लाभ मिल रहा था राज्य सरकार भले ही इसे अपनी चतुराई माने किन्तु शिक्षाकर्मियों के साथ किये गए इस बरताव को राज्य के आम लोगों में से शायद ही किसी ने पसंद किया हो राज्य सरकार आंदोलन को कुचलने के बाद आज भले ही बर्खास्त और निलंबित शिक्षाकर्मियों को बहाल करने की सह्रदयता दिखाए, पर, प्रत्येक शिक्षाकर्मी के दिल में वो टीस तो बनी रहेगी, जो आंदोलन को वापस लेते समय मंच से उठी थी कि राज्य सरकार तुम्हें चुनावों में देख लेंगे

प्रदेश के 35000 से अधिक लिपिकों के आंदोलन को भी राज्य सरकार ने डंडों और दमन के साथ डील किया डी.एन.तिवारी की रिपोर्ट के अनुसार वेतनमान दिए जाने की मांग को लेकर किया जा रहा आंदोलन 34 दिनों बाद अचानक 5oo00 और 250 रुपये का टेकनीकल भत्ता दिए जाने की शर्त के साथ नेताओं ने वापस लिया तो समूचे लिपिक वर्ग ने अपने को ठगा महसूस कियाराज्य सरकार ने साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल करके लिपिकों की हड़ताल भले ही तुडवा दी हो, पर, ये 35000 कर्मी इस बात को कभी नहीं भूलेंगे कि कि नवंबर 2011 में स्वयं मुख्यमंत्री ने डी.एन. तिवारी की सिफारिशों को लागू करने का वायदा किया था| इन 35000 कर्मियों के लिए ये 500और 250 किसी धोखे से कम नहीं हैं

रमन सरकार की आकडों की बाजीगरी और झूठ को प्रचारित करने की महारथ को गोयबल्स भी देख लेता तो शर्मा जाता प्रदेश के 94000 आंगनवाडी कार्यकर्ता व् सहायिकाएं पिछले दो  वर्षों से अपना मानदेय बढ़ाकर 5000 रुपये प्रतिमाह करने के लिए धरना-प्रदर्शन इत्यादि करते रहे हैंविडम्बना यह है कि अत्यंत अल्प मानदेय पर काम करने वाले ये आंगनवाडी कार्यकर्ता और सहायिका एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में किये जा रहे कामों में प्रथम पंक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इनके उपर स्वास्थ्य, बच्चों की देखभाल और पोषण, गर्भवती स्त्रियों और नव-प्रसूताओं की देखभाल जैसी महती जिम्मेदारियां होती हैं इन्हें दिए जाने वाले मानदेय में केन्द्र और राज्य, दोनों सरकारों की भागीदारी होती है| केन्द्र सरकार ने 2011 में कार्यकर्ता का मानदेय 1500 से बढ़ाकर 3000, तथा सहायिका का 750 से बढ़ाकर 1500 रुपये किया था राज्य शासन से इन्हें क्रमशः 500 तथा 250 रुपये ही मिलता रहा जबकि, देश के अनेक राज्यों में आंगनवाड़ी कामगारों को केन्द्रीय मानदेय के अलावा राज्य सरकारों से उल्लेखनीय राशी मानदेय के रूप में दी जाती हैआंगनवाड़ी कामगारों के मानदेय में केन्द्र के हिस्से के अलावा बिहार सरकार 2500, महाराष्ट्र, झारखंड व् हरियाणा सरकारें 3000, गुजरात सरकार 3800, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश सरकारें 3500 तथा पंजाब एवं तमिलनाडु सरकारें 4000 रुपये देती हैं पुंडुचेरी में तो इन्हें शासकीय कर्मचारियों के समान वेतन दिया जाता है राज्य शासन ने अपने इसी 500 तथा 250 रुपये के हिस्से को बढ़ाकर 1000 तथा 500 रपये करने की घोषणा गणतंत्र दिवस पर ऐसे की मानो आंगनवाडी कामगारों का समूचा मानदेय ही दोगुना हो गया हो जबकि, वास्तविकता यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में राज्य सरकार अभी भी आधे से भी कम दे रही है निःसंदेह, आंगनवाड़ी कामगारों में असंतोष है और वे फिर प्रदर्शन करने वाले हैं

राज्य में राजनीतिक समीकरण क्या हैं? कोरबा, जांजगीर-चांपा, रायगढ़, बस्तर, दुर्ग, में हजारों एकड़ जमीनें, वो भी वो, जिसका काफी हिस्सा सिंचित और दो फसली हो, किसानों से जबरिया और धोखा देकर अधिग्रहित करने के फलस्वरूप, ग्रामीण इलाके में पनप चुका असंतोष क्या रंग दिखायेगा? या, बस्तर में, जहां से भाजपा को 12 में से 11 विधानसभा क्षेत्रों में जीत मिली थी, अर्धसैनिक बलों और पोलिस के द्वारा आदिवासियों पर किये गए अत्याचार और यौन शोषण के नित नए खुलते मामले, भाजपा सरकार को कितना नुकसान पहुँचायेंगे, इस पर अभी विचार न भी करें, तब भी, एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि जिस 1.73 फीसदी वोटों की बढ़त लेकर भाजपा 13 सीटों पर आगे हुई है, वह बढ़त वोटों में मात्र 17.30 लाख बैठती है जबकि शिक्षाकर्मी, लिपिकों और आंगनवाडी कार्यकर्ताओं की संख्या ही 3.25लाख से अधिक है फिर, कोटवार हैं, पटवारी हैं, असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं, जो 9 साल में भाजपा की कथनी और करनी के अंतर से आजीज आ चुके हैं पूरे प्रदेश में फैले ये लाखों श्रमिक और कर्मचारी भाजपा की तीसरी पारी के मंसूबों को ध्वस्त करने के लिए काफी हैं

अरुण कान्त शुक्ला, 
जनवरी 31,2013          


  

Sunday, January 27, 2013

बड़े आदमी की पोती होने का फ़ायदा..



बड़े आदमी की पोती होने का फ़ायदा..

वैसे तो बड़े आदमी का कुछ भी होने का बड़ा फ़ायदा होता है  जैसे की, बड़े आदमी का बीबी होने का फ़ायदा  बड़े आदमी का माँ होने का फ़ायदा| बाप होने का फ़ायदा  दोस्त होने का फ़ायदा| सबसे बड़ा दामाद होने का या चमचा होने का फायदा| पर, बड़े आदमी की पोती होने का भी बड़ा फ़ायदा होता है, ये पहली बार समझ में आया बोले तो बड़े आदमी का पोती पैदा होते से ही बड़ा इंटेलीजेंट होता है अब, अमिताभ बच्चन का पोती बोले तो 14 महने का है, पर, टेबलेट पर मनपसंद नर्सरी का धुन लगा लेता है रिमोट हाथ में लेकर टीव्ही लगाने का ईशारा करता है| अमिताभ ब्लॉग पर लिखा तो वो न्यूज बन गया  वो ये नहीं बताया की जब सू सू आता है तो क्या ईशारा करता है या जब पॉटी आता है तो स्लीपर पहनकर बॉथरुम जाता है की नहीं? वैसे अपुन का पोती जब 6 महीने का था तो डॉक्टर के पास लेकर गया तो डॉक्टर का स्टेथिस्कोप पकड़ कर खेलने लगा  अपुन को लगा वो पक्का डॉक्टर बनेगा अपुन, अपने घर दोस्त आया, उसको बताया की पोती डॉक्टर का स्टेथिस्कोप पकड़ कर खींचा है, वो पक्का डॉक्टर बनेगा  दोस्त हो हो करके हंस दिया  बोला, कल को कोई हाथी निकलेगा और तुम्हारा पोती उसको देखकर दोनों हाथ बढ़ाएगा तो क्या वो महावत बनेगा? अपुन को ऐसा लगा मानो कोइ तीर सीने से निकलकर सोफे से होते हुए दीवार में धंस गया है  दोस्त समझ गया, बोला बुरा मानने का नहीं, अभी वो बहुत छोटा है| बड़ा होने पर क्या बन्ने का , उस पर छोड़ दो पर, अपुन को पूरा भरोसा है की अपुन का पोती भी बहुत इंटेलीजेंट है कायकू, इस वास्ते की 6 महने की उमर में ही वो दो बार अपुन का चाय गिरा दिया| पक्का, उसको मालूम था की चाय पीना कोई अच्छी बात नहीं है  दो बरस का होते होते अपुन के दो मोबाईल जमीन पर फेंक कर तोड़ दिया  अपुन समझ गया वो इंटेलीजेंट है, कायकू, कि मोबाईल पर पूरे समय लगे रहना कोई अच्छी बात नहीं है और उससे निकलने वाली रेज हार्ट को नुकसान पहुंचाती हैं, इसी वास्ते उसने दो दो मोबाईल तोड़ दिए एक साल की उमर से वो अपुन को न्यूज चैनल नहीं देखने देता पूरे समय कार्टून देखने की जिद करता है, कायकू, उसको मालूम है कि आजकल जो कुछ न्यूज में आता है, उससे टेंशन ही बढ़ता है और वो अपने दद्दू का टेंशन नहीं बढ़ाना मांगता  अब वो चार साल का हो गया है उसका स्कूल सुबह आठ बजे से लगता है  वो रोज स्कूल जाने से पहले , स्कूल नहीं जाने के लिए रोता है, कायकू उसको मालूम है, पढ़ने लिखने से कोई फ़ायदा नहीं, कितना भी पढ़ लो, पर कोई नौकरी तो मिलने से रही  पढ़ लिख भी गया, नौकरी भी मिल गया तो अपुन जैसे आदमी की पोती को सेफ्टी कहाँ से मिलेगा? अब, आप ही बताओ, अपुन का पोती इंटेलीजेंट है कि नहीं? अपुन सोचा कि ये सब ब्लॉग में लिख दें, लेकिन ब्लॉग भी तो बड़े आदमी का ही पढ़ा जाएगा  न्यूज तो बड़ा आदमी का ब्लॉग ही बनेगा  न्यूज बनने की बात दूर, अपुन का ब्लॉग भी कौन पढ़ेगा?

अरुण कान्त शुक्ला,
28,जनवरी,2013

Tuesday, January 22, 2013

छत्तीसगढ़ सरकार डायग्नोस्टिक सेवाओं के आउटसोर्सिंग के निर्णय को वापस ले –




छत्तीसगढ़ सरकार का डायग्नोस्टिक सेवाओं को निजी भागीदारी के हाथों में सोंपने का निर्णय एक ऐसे समय में आया है, जब प्रदेश का निजी चिकित्सा क्षेत्र केंसर का भय दिखाकर युवा लड़कियों तक के गर्भाशय निकालने के ऑपरेशनों को अंजाम देने से लेकर, बिना चिकित्सा के स्मार्ट कार्ड से पैसा निकालने के गंभीर आरोपों में फंसा हुआ है आरोपों के घेरे में प्रदेश की राजधानी रायपुर के साथ साथ अनेक जिलों के नामी गिरामी नर्सिंग होम और ख्याति प्राप्त चिकित्सक हैं प्रदेश के निजी चिकित्सा क्षेत्र की पेशेवर पवित्रता के ह्रास का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि स्मार्ट कार्ड से फर्जी तरीके से पैसा निकालने का खुलासा होने के बाद से रायपुर के एक निजी नर्सिंग होम का संचालक डॉक्टर लगभग तीन माह से फरारी पर है इसमें सबसे गंभीर बात जो उजागर हुई है, वो है, प्रदेश के निजी क्षेत्र के बड़े क्षत्रपों और प्रदेश के ग्रामीण तथा आदिवासी इलाकों में फैले नीम-हकीम तथा झोला छाप डॉक्टरों के बीच का दलाली का संबंध, जिसका शिकार प्रदेश के ग्रामीण तथा आदिवासी इलाके के रहवासी हो रहे हैं

हाल ही में आई जनगणना 2011 की प्राविजनल रिपोर्ट भी निजी चिकित्सा क्षेत्र के नैतिक आचरण के प्रति गंभीर संशय खड़ा करती है रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों में प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों का अनुपात 2001 की जनगणना के 975 की तुलना में गिरकर 964 हो गया है यह गिरावट प्रदेश के शहरी क्षेत्र में तो हुई ही है, साथ ही आश्चर्यजनक रूप से अधिकाँश आदिवासी क्षेत्र में भी हुई है इस गिरावट को इस तथ्य के साथ जोड़कर देखने पर निजी चिकित्सा क्षेत्र की पैसा कमाने की ललक और तमाम नैतिक मूल्यों तथा सरकारी नियम- कायदों को धता बताने की प्रवृति का पता चलता है कि माओवाद से प्रभावित प्रदेश के आदिवासी इलाकों में, जहाँ प्राथमिक शिक्षा और साधारण स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाना भी मुश्किल हो रहा है, निजी स्वास्थ्य सेवाएं अल्ट्रासाऊँड मशीनों के साथ तेजी से बढ़ी हैं उसी अनुपात में भ्रूण निर्धारण कर गर्भपात की संख्याओं में भी वृद्धि हुई है अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं और समूहों ने राज्य सरकार का ध्यान इस प्रवृति की ओर आकृष्ट करने की कोशिश की, किन्तु लोक स्वास्थ्य को निजी हाथों में सोंपकर, चैन की बंसी बजाने की तैय्यारी जो सरकार कर रही हो, वो सरकार उन सामाजिक कार्यकर्ताओं और समूहों की बातों पर ध्यान क्यों कर देती?

इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम देखें तो प्रदेश में डायग्नोस्टिक सेवाओं को निजी भागीदारी के लिए सोंपने का सीधा मतलब है कि सरकार अब चिकित्सा क्षेत्र के क्षत्रपों को अपने खुद के एजेंट सुदूर ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में बिठालने का अवसर सरकारी याने जनता की गाढ़ी  कमाई से चुकाए गए टेक्स के पैसों से दे रही है प्रदेश की घोषित चिकित्सा नीति का लब्बो लुआब भी यही है कि प्रदेश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार की लोक स्वास्थ्य सेवाओं में सुघड़ता और मजबूती लाने के लिए निवेश करने के बजाय प्रदेश सरकार निजी क्षेत्र को ही निवेश करने के लिए लगभग मुफ्त में जमीन उपलब्ध कराने से लेकर प्रत्येक तरह की सुविधाएं मुहैय्या करायेगी यही कारण है कि जहां एक ओर निजी क्षेत्र सरकार की तरफ से जानबूझकर पैदा किये गये कुप्रशासन और कमजोर निगरानी व्यवस्था का फ़ायदा उठाते हुए प्रदेशवासियों को स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर न केवल लूट रहा है बल्कि धोखाधड़ी करते हुए बीपीएल कार्ड धारियों को मिलने वाले बीमा लाभ के पैसे को भी हडप रहा है तो दूसरी और सरकारी क्षेत्र चरम भ्रष्टाचार, लापरवाही, लालफीताशाही और अव्यवस्था के चंगुल में फंसा हुआ हैसरकारी स्वास्थ्य विभाग में न केवल उपकरणों की खरीद में बड़े बड़े घपले हुए हैं बल्कि आम लोगों के स्वास्थ्य के साथ किया जा रहा खिलवाड़ नेत्र कांडों के रूप में सामने आ रहा है, जिसमें सैकड़ों लोगों को अपनी आँखों की रोशनी गंवानी पड़ी है

यह बात अलग है कि पिछले दो दशकों में भारत ने जिन उदारवादी नीतियों पर चलना शुरू किया है, उसका हश्र स्वास्थ्य सेवा के बाजारीकरण के रूप में ही होना है 12वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में उसका पूरा खाका मौजूद है और रमन सरकार भी उसी रास्ते पर चल रही हैपर, यह भी एक वास्तविकता है कि उन सभी यूरोपीय देशों और यहाँ तक कि अमेरिका में भी आज यह शिद्दत से महसूस किया जा रहा है कि चिकित्सा के क्षेत्र में निजी भागीदारी को बड़ी भूमिका देने के परिणाम उन देशों की बहुसंख्यक जनता के लिए नकारात्मक ही रहे हैं आस्ट्रेलिया(1998), मलेशिया(1997) और अमेरिका(2007) में किये गए अध्यन बताते हैं कि चिकित्सा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के निवेश से न तो प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, न ही लागत में और रोगियों के ऊपर पड़ने वाले आर्थिक बोझ में कोई कमी आती है उल्टे, चिकित्सा के क्षेत्र में मुनाफे की लालच में कूदे बड़े कॉर्पोरेट न सरकार को कुछ समझते हैं और न ही किसी निगरानी की परवाह करते हैंबड़े कार्पोरेट्स को ऐसा करते देखकर मध्यम और छोटे निजी खिलाड़ी भी उसी रास्ते पर चलने लगते हैं नतीजे की तौर पर शनैः शनैः सरकारों की भी राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छा शक्ति कमजोर पड़ती जाती है और सरकारें इन पर से पूरा नियंत्रण खो देती हैं अमेरिका के अध्यन में तो यह भी कहा गया है कि अमेरिका के स्वास्थ्य क्षेत्र के कमजोर प्रदर्शन का पूरा पूरा कारण चिकित्सा के क्षेत्र में बाजार तंत्र और मुनाफाखोर फर्मों पर भरोसा करना है रिपोर्ट के अंत में अमेरिकी सरकार को ये सलाह भी दी गई है कि वो दूसरे देशों को चेताये कि वो इस रास्ते पर चलने से बाज आयेंखुद हमारे देश में कुछ समय पहले राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की एक रिव्यू कमेटी ने बिहार में डायग्नोस्टिक सेवाओं को बाहरी क्षेत्रों को दिये जाने की आलोचना की थी

वास्तविकता यह है कि छत्तीसगढ़ में राज्य संचालित स्वास्थ्य सेवाएं चिकित्सकों, विशेषज्ञों से लेकर स्वास्थ्य से संबंधित कर्मचारियों की प्रत्येक श्रेणी में अमले, उपकरणों और स्वयं के भवनों की कमी से जूझ रही है छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में जहां की आधी से अधिक आबादी गरीबी सीमा रेखा से नीचे हो जहाँ के पचास से अधिक प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हों जहाँ एक हजार आदिवासी जीवित जन्मे बच्चों में से 91 बच्चे एक वर्ष के भीतर ही मर जाते हों वहाँ राज्य शासन की प्राथमिकता में राज्य संचालित स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना और इस मूलभूत आवश्यकता को खुद नागरिकों तक पहुंचाने की दृढ़ इच्छाशक्ति को बनाए रखना होना चाहिये, पर, दुर्भाग्य से रमण सरकार में वो इच्छाशक्ति दिखाई नहीं दे रही है

राज्य सरकार भले ही कहती रहे, जैसा कि सरकार के जनसंपर्क आयुक्त बैजेन्द्र कुमार ने कहा भी है कि डायग्नोसिस सेवाओं को बाहरी लोगों के हाथों में देने की व्यवस्था लोक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने के लिए लाई गई है, वास्तविकता यही है कि जनता की गाढ़ी कमाई से टेक्स के रूप में वसूले गए पैसों को राज्य सरकार निजी क्षेत्र को सौंप रही है और प्रदेश के आम लोगों को चिकित्सा के बाजार में ग्राहक बनाकर भटकने के लिए छोड़ रही है

अरुण कान्त शुक्ला
जनवरी23’2013