Sunday, November 27, 2011

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पीछे का सच –


 प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पीछे का सच –

यह संयोग तो कदापि नहीं है कि यूरोप के आर्थिक संकट से थर्राये भारतीय उद्योगपति जब विश्व आर्थिक फोरम के अंतर्गत आयोजित भारत आर्थिक सम्मेलन में सरकार से ताबड़तोड़ नीतिगत कदम उठाने और विदेश में छाई आर्थिक सुस्ती से भारत में पूंजी प्रवाह कम न होने देने की मांग कर रहे थे , तब , कोलकाता में उद्योग चेंबर एसोचेम के सदस्यों को वित्तमंत्री दिलासा दे रहे थे कि वैश्विक आर्थिक संकट का भारत पर असर तो हुआ है लेकिन इससे घबराने की जरुरत नहीं है और इससे निपटने के लिये सरकार कठोर कदम उठाने से नहीं हिचकेगी | एक सप्ताह के भीतर ही केन्द्र सरकार ने पेंशन सेक्टर में 26% तथा मल्टीब्रांड रिटेल में 51% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने के साथ सिंगल ब्रांड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को 51% से बढ़ाकर 100% करके बता दिया कि भारत के सबसे बड़े टेक्नोक्रेट , हमारे प्रधानमंत्री के अंदर बसी एडम स्मिथ की आत्मा भले ही लोगों को सुप्त लग रही हो , पर , वो अभी भी पूरी तरह जागृत है |

दरअसल , आज जब भारत सरकार या हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह , उदारीकरण का नया दौर लागू करने जा रहे हैं , तब , हमारे देश की अर्थव्यवस्था लगभग उसी दशा से गुजर रही है , जैसी कि वो 1991 में थी , जब मनमोहनसिंह के वित्तमंत्री रहते हुए भारत में उदारीकरण के सुधारों को प्रारंभ किया गया था | जो 1991 के दौर से गुजरे हैं , वो जानते हैं कि अर्थव्यवस्था आज भी उतनी ही अनिश्चितता और अस्थिरता से गुजर रही है , जैसी कि वो 1991 में थी | भारतीय मुद्रा का मूल्य डालर के मुकाबले लगातार गिरता जा रहा है | विदेशी मुद्रा का प्रवाह ही नहीं रुका है , घरेलु बाजार से लगभग सवा खरब रुपये की विदेशी मुद्रा पिछले कुछ समय में पलायन कर चुकी है | बजट घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है | व्यापार घाटा सुरसा के मुहँ के समान फैलता जा रहा है | मनमोहनसिंह हर आलोचना के जबाब में जिस विकास दर का दंभ  भरा करते थे , वह इस वर्ष 7.5% भी रहे तो गनीमत है | कुल मिलाकर अर्थशास्त्र का साधारण जानकार भी कह सकता है कि जो कुछ भी हो रहा है , वह निराशाजनक है | भारतीय अर्थव्यवस्था आज जिस दौर से गुजर रही है , वह समय मांग कर रहा है कि उदारीकरण के दो दशकों की समीक्षा कर सतर्कता के साथ फैसले लिये जायें | पर , मनमोहन सरकार ऐसा करने के बजाये , एक बार फिर से देशवासियों को अमृत बताकर उदारीकरण का विष पीने को कह रही है |

एक पुरानी कहावत है कि जब सब कुछ निराशाजनक हो तो दुस्साहसी बनना चाहिये और 1991 के बाद भारत सरकार एक बार पुनः दुस्साहसी बन रही है | पिछले एक सप्ताह के दौरान विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को लुभाने के लिये केन्द्र सरकार के द्वारा उठाये गये कदम उसी दुस्साहस का प्रतीक हैं | दर्दनाक यह है कि भारत सरकार का यह दुस्साहस भारत के मजदूरों , किसानों और वंचित तबके के प्रति अपनी प्राथमिक सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये न होकर , देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 30 करोड़ देशवासियों , देश के कुल बच्चों में से 40% कुपोषित बच्चों की छाती पर  पाँव रखकर , भारत के उद्योग जगत और संपन्न तबके को खुश करने तथा अमेरिका और यूरोप के रईस देशों की मालदार कंपनियों को मंदी के दौर से निकालने के लिये है , जिसके लिये साम्राज्यवादी देशों के तरफ से पिछले लंबे समय से भारत के ऊपर दबाव बना हुआ था | कुछ समय पूर्व वाशिंगटन में हुई अमेरिका–भारत आर्थिक और वित्तीय सहयोग परिषद की बैठक में अमेरिका के ट्रेजरी सेक्रेटरी टिमोथी गीथनर ने लगभग फटकार लगाते हुए कहा था कि अमेरिकन कंपनियां अभी भी भारत में बीमा , बैंकिंग , मल्टीब्रांड रिटेल और ढांचागत क्षेत्रों में रुकावटों का सामना कर रही हैं , जिसके फलस्वरूप दोनों देशों में रोजगार सृजन और आर्थिक विकास अवरुद्ध है | यदि भारत को मजबूत विकास दर की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करना है तो उसे पर्याप्त विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिये ठोस कदम उठाने के साथ घरेलु स्तर पर भी बाजार को निवेश मुहैय्या कराना होगा | यही तभी हो सकता है , जब भारत लंबित पड़े आर्थिक और वित्तीय सुधारों को तेजी से और तुरंत लागू करे | वह चाहे पीएफआरडीए जैसा घृणित क़ानून बनाकर लगभग 48 करोड़ कामगारों की गाढ़ी कमाई विदेशी और देशी पूंजी के हवाले करने का मामला हो या मल्टी रिटेल में 51% और सिंगल ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की सीमा को 51% से बढ़ाकर 100% करके जमीन , फसल और उत्पादों को विदेशी प्रबंधन को सौंपने का मामला हो , सभी कदम अंतर्राष्ट्रीय और घरेलु बड़ी पूंजी के निर्देशों के अनुसार ही उठाये जा रहे हैं | इन कदमों का परिणाम , पीएफआरडीए के मामले में चाहे कितने ही दावे भारत सरकार और उसके पिठ्ठू अर्थशास्त्री क्यों न कर लें , कामगारों की जीवन भर की कमाई लुटेरों के हाथों में सौंपने के अलावा कुछ नहीं है | लोकसभा में पास होने के बाद पीएफआरडीए 2011 क़ानून बन जायेगा और भले ही किसी न्यायालय में इसे चुनौती न दी जा सके , लेकिन नैतिकता की अदालत में सरकार का यह काम हमेशा घृणित ही ठहराया जायेगा कि उसने देश के 48 करोड़ कामगारों को कान पकड़कर अपने जीवन भर की कमाई को जुएं में लगाने को मजबूर किया , क्योंकि वह कमाई उसके पास जमा करने के अलावा कोई दूसरा चारा उन कामगारों के पास नहीं था |

इसी तरह , भारत सरकार और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा तीन वर्षों में एक करोड़ रोजगार पैदा होने , किसानों को वाजिब मूल्य प्राप्त होने और उपभोक्ताओं को वाजिब दामों पर सामग्री मिलने के कितने भी दावे क्यों न कर लें , वास्तविकता और अन्य देशों के अनुभव यही बताते हैं कि कि देश के छोटे किसान , छोटे फार्म्स और छोटी ओद्योगिक इकाइयां , विदेशी पूंजी के द्वारा संचालित संगठित रिटेल की जरूरतों की पूर्ति , बड़े घरेलु आपूर्तिकर्ताओं और विदेशी रिटेल आपूर्तिकर्ताओं की प्रतियोगिता के सामने नहीं कर पाएंगी और उन्हें या तो बिकना है या बर्बाद होना है | एक करोड़ रोजगार के अवसर भले ही पैदा हों , पर , वो होंगे खुदरा व्यापार में लगे पांच करोड़ से ज्यादा स्वरोजगारियों और रोजगार शुदा लोगों के रोजगार खोने की कीमत पर ही | इसमें कोई शक नहीं कि यदि मल्टीब्रांड में विदेशी निवेश आ जाता है तो कुछ समय के बाद बाजार विदेशी उत्पादों और वस्तुओं से भर जायेगा और देशी उत्पादकों को बर्बाद होना पड़ेगा | फार्मस , आपूर्ति श्रंखला और गोदाम क्षमता विकसित होने के बाद एकाधिकार बड़े नैगमों के पास ही होगा , उससे जमाखोरी और मुनाफाखोरी ही बढ़ेगी | ऐसी परिस्थिति में उपभोक्ताओं को कम दाम पर उत्पाद मिलने की बात एक मरीचिका पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है |

एक ऐसे देश में जहां जनसंख्या का 70% हिस्सा आज भी गाँवों में रहता हो | जहां दुनिया के कुल  गरीबों का 40% हस्सा बसता हो | जहां के 78% लोग 20 रुपये से भी काम पर गुजारा करते हों , उस देश के 10 लाख से ज्यादा की आबादी वाले 54 शहरों में खुलने वाले सुपरबाजार राष्ट्र के किस हिस्से का हित ध्यान में रखेंगे , इसे आसानी से समझा जा सकता है |
अरुण कान्त शुक्ला

Saturday, November 12, 2011

मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग –डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग ..


मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग –डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग ..

अब अरविन्द केजरीवाल और किरन बेदी के बीच ठन गई है | अरविंद केजरीवाल के यह कहने के बाद कि ऐसा फिर नहीं होगा , जो किरन ने किया , वह में कभी नहीं करता , किरन बेदी नाराज हो गईं हैं | बेदी का कहना है कि केजरीवाल ने मुद्दे को पूरी तरह नहीं समझा | अगर वह मुद्दे को अच्छी तरह समझते तो उनका जबाब अलग होता |

जो कुछ टीम अन्ना के अंदर चल रहा है , उससे , मेरा मन करता है कि अन्ना को नर्सरी के बच्चों को पढ़ाई जाने वाली कविता सुनाए जाये ;
आर यू स्लीपिंग , आर यू स्लीपिंग
ब्रदर जान , ब्रदर जान
मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग , मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग
डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग

कविता में सिर्फ ब्रदर जान की जगह अन्नाजी , अन्नाजी करने की जरुरत है | दरअसल , अपनी प्रारंभिक सफलताओं की खुमारी में डूबी टीम अन्ना को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सामने खड़ी दो गंभीर समस्याओं का अंदाज नहीं हो पा रहा है | दोनों में से लगातार बढ़ती मुद्रास्फिति और खाद्य पदार्थों की बढ़ती हुई मंहगाई को पहले स्थान पर रखा जा सकता है , जो आज देश के 100 करोड़ लोगों के लिये संस्थागत भ्रष्टाचार से भी ज्यादा त्रासदायी हो चुकी है | उनकी थाली में परोसी जाने वाली खाद्य वस्तुओं की मात्रा ही नहीं कम हो रही , बल्कि उस थाली में से कई सब्जियां , फल , दालें , दूध थाली से गायब हो चुके हैं | भारत का साधारण आदमी यदि थाली में से गायब की जा रही वस्तुओं से परेशान है , तो , उससे थोड़ा बेहतर , उसके साथ , बढ़ती ईएमआई . महंगी स्कूल फीस , बढ़ते मकान के किराए , सार्वजनिक परिवहन के बढ़ते खर्च , महंगी होती चिकित्सा और दवाईयां , बढ़ते पेट्रोल के दामों और  मनोरंजन के साधनों के मंहगे होने से परेशान है | अन्ना टीम की इस अहं मुद्दे पर खामोशी से इस तबके को भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का पूरा आंदोलन हाई प्रोफाईल सोच का लगने लगता है |

दूसरी समस्या का स्त्रोत स्वयं अन्ना टीम है , जिसके सदस्य आचरण और व्यवहार में स्वयं का प्रदर्शन उन राजनीतिक ठगों के समान ही कर रहे हैं , जिनके खिलाफ वो तीर चलाते रहते हैं | टीम आना के सदस्य एक के बाद एक , या तो स्वयं की साख गिरा रहे हैं या आंदोलन से ही किनारे होते जा रहे हैं | इसमें ताजा एपीसोड किरन बेदी का है | शायद ही कोई हो , जिसने इस बात पर ध्यान न दिया हो कि किरन बेदी बड़ी आसानी के साथ खुद तथा खुद के एनजीओ के बीच एक हवाई लाइन खींचकर लोगों के भ्रमित करने में लगी हैं | किन्तु , उनसे कोई यदि यह पूछे कि इस तरह ज्यादा यात्रा-व्यय दिखाकर पैसा एकत्रित करना क्या उनके एनजीओ के कामों में शामिल है , तो वे नाराज हो जाती हैं | प्रश्न यह है कि उनको आमंत्रित करने वाली संस्थाएं , उनके एनजीओ को दान देने की इतनी इच्छुक थीं , तो वे उनसे कहकर उस राशी को प्राप्त कर सकती थीं , वनिस्पत इस सारे चक्कर को करने के | पर , किरन बेदी इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगी , और उन सब पर बिफरती रहेंगी , जो इसे गलत कहेगा , जैसा कि अभी वो केजरीवाल के साथ कर रही हैं | यही काम अरविंद केजरीवाल ने स्वयं के मामले में किया है |

मतलब साफ़ है , यदि अन्ना टीम का कोई सदस्य गलत करता है तो उनके पास ढेरों स्पष्टीकरण , औचित्य और प्रतिदावे हैं , किन्तु अन्य किसी से वे कोई तर्क या स्पष्टीकरण सुनना पसंद नहीं करेंगे , औचित्य और अनौचित्य तो दूर की बात है | इससे भी बदतर यह कि टीम अन्ना और उनके समर्थक किसी भी परिस्थिति , घटनाक्रम पर न तो पुनरावलोकन , न ही चिंतन और न ही आत्म विश्लेषण के लिये तैयार हैं | उनकी यह शैली , शनैः शनैः आंदोलन से विचारवान लोगों को दूर करके आंदोलन को जड़ लोगों के आंदोलन में तब्दील करती जा रही है | यदि कोई अन्ना की टीम या आंदोलन के संबंध में कुछ भी ऐसा कहे जो टीम अन्ना को पसंद नहीं तो वे कहने वाले को तुरंत ही कांग्रेस का भाड़े का टट्टू बोलना शुरू कर देंगे | अन्ना अथवा उनके आंदोलन की कोई भी आलोचना उनके समर्थक बर्दाश्त नहीं करेंगे और विरोध में उनकी भाषा संयम की कोई भी सीमा नहीं मानेगी | मेरी समझ में तो ऐसा करके वो यही दिखा रहे हैं कि मुद्दा जरुर उनके पास ठोस है लेकिन आचरण में , वे कांग्रेस या फिर अन्य किसी बुर्जुआ राजनीतिक दल की टीम से अलग नहीं |

इसमें कोई शक नहीं कि देश को एक सख्त लोकपाल बिल की जरुरत है | हमें आशा करनी चाहिये कि पिछले लगभग दो वर्षों के घटनाक्रमों ने कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों की आँखें खोल दी होंगी और शीतकालीन सत्र में संसद एक शक्तिशाली और ठोस लोकपाल देश को देगा | उसके बावजूद , आज की सबसे बड़ी और फौरी आवश्यकता मुद्रास्फिति पर काबू करने और खाद्यान की कीमतों को नीचे लाने की है | डर इस बात का है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति अन्ना और उनकी टीम की अक्खड और उन्मुक्त सोच कहीं देश को ऐसे वातावरण में न धकेल दे कि देश के लोगों को भ्रष्टाचार और महँगाई की दोहरी मार आने वाले आम चुनावों तक झेलना पड़े | यदि ऐसा हुआ तो साधारण आदमी के लिये उससे ज्यादा विनाशकारी और क्या होगा ?

अरुण कान्त शुक्ला

Monday, November 7, 2011

कसौटी पर अन्ना टीम –


 कसौटी पर अन्ना टीम –


टीम अन्ना के आचरण के बारे में नित नए हो रहे खुलासे और  टीम में उभरते मतभेदों की खबरें उन लोगों के मन में हताशा पैदा करने के लिये पर्याप्त हैं , जो अन्ना को सत्याग्रह के गांधीवादी तौर तरीकों का प्रतिनिधि मानकर , आंदोलन को सिद्धांतों पर आधारित ऐसा आंदोलन मान रहे थे जो सही और गलत तथा अच्छे और बुरे में सही और अच्छे के पक्ष में लड़ा जा रहा था | अरविंद केजरीवाल , किरण बेदी और प्रशांत भूषण के आचरण और अन्ना के मौनव्रत के दौरान तथा मौनव्रत के पूर्व और बाद में दिये गये नित नए बयानों तथा धमकियों ने मध्यवर्ग के उस बड़े हिस्से की भावनाओं को तगड़ी चोट पहुंचाई है , जो अन्ना के साथ , उनकी साफ़ सुथरी छवि के साथ जुड़ा था और उन्हें उनकी टीम में सबसे ज्यादा साफ़ सुथरा और विश्वसनीय मानकर उम्मीद लगाए बैठा था कि वो गलत को कभी भी प्रश्रय नहीं देंगे | हाल में पैदा हुए हालात बताते हैं कि लोगों की इस धारणा को चोट पहुँची है | विशेषकर , अन्ना के ब्लॉग मेनेजर राजू पारुलेकर ने स्वयं अन्ना की हस्तलिपि में हस्ताक्षर की गई चिठ्ठी को ब्लॉग में डालकर अन्ना के एक दिन पूर्व दिये गये बयान को असत्य के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है |


अन्ना टीम के दो महत्वपूर्ण सदस्य किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल अपने कदाचार को इस बिना पर दबंगई के साथ उचित ठहरा रहे हैं  क्योंकि वे समाज सेवा के पुनीत कार्य में लगे हैं | गोया , समाज सेवा या एक एनजीओ चलाना ऐसा पुनीत कार्य है कि वह साधारण नागरिक से भी अपेक्षित सदाचार के अनुपालन से उन्हें छूट दे देता है | किरण बेदी स्वयं भारत सरकार में जिम्मेदार पदों पर रह चुकी हैं और वे बेहतर ढंग से जानती हैं कि यात्रा व्यय बिल में हेरफेर कितने भी पुनीत उद्देश्य के साथ क्यों न किया जाये , कदाचार और अनैतिकता ही है | कमोबेश यही स्थिति अरविंद केजरीवाल के साथ है | प्रशासनिक सेवा में रहते हुए किये गये नियमों के उल्लंघन को वे इस बिना पर ठीक ठहराना चाहते हैं , क्योंकि वे सूचना के अधिकार जैसे आंदोलन के लिये काम कर रहे थे | प्रधानमंत्री को जो पत्र उन्होंने लिखा है , वो एक ढिटाई से अधिक कुछ नहीं है | उनसे , क्योंकि उन्हें संविधान की गहरी जानकारी है , यह अपेक्षा तो रखी जा सकती है कि वो पैसा और पत्र भारत के राष्ट्रपति को भेजते , जिसके वे मुलाजिम थे | बहरहाल , विडंबना यह है कि दोनों समाज के लिये उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों की कीमत चाहते हैं और वह कीमत है , थोड़े बहुत कदाचार की छूट |
मेरा कोई भी उद्देश्य अन्ना टीम की व्यक्तिगत नीयत पर प्रश्नचिन्ह लगाने का नहीं है | भारत में भ्रष्टाचार के ताने बाने की ढिलाई को समझाने के लिये उपरोक्त विश्लेषण आवश्यक है , इसीलिये किया गया है | भ्रष्टाचार स्वयं में अलग थलग कोई स्वतान्र कृत्य नहीं है , जिसका मनुष्य के आचरण के अन्य मूल्यों , मसलन , नैतिकता , सदाचार या सद्विवेक के साथ कोई संबंध न हो | बल्कि , ये वे मूल्य हैं जो मनुष्य को भ्रष्ट होने से रोकते हैं | यदि व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित नहीं होना ही नैतिकता ,सदाचार और सद्विवेक की एकमात्र कसौटी है तो प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की , सद्विवेक को इस्तेमाल नहीं करने के लिये की जा रही , सारी आलोचनाएं व्यर्थ हैं क्योंकि आज तक व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने के लिये सद्विवेक का इस्तेमाल नहीं करके भ्रष्टाचार होते रहने का दोष किसी ने भी उन पर नहीं लगाया है |


दरअसल , शुरुवाती जूनून खत्म होने के साथ यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अन्ना टीम की समझ भी भ्रष्टाचार के मामले में उन करोड़ों भारतीयों की औसत समझ से ऊपर नहीं है , जो ये मानते हैं कि भ्रष्टाचार बहुत बुरा है , किन्तु नैतिकता , सदाचार और सद्विवेक को उसमें शामिल नहीं करते | या इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भारत में भ्रष्टाचार का ताना बाना इतना ढीला है कि इसके अनेक स्वरूप नैतिकता , सदाचार और सद्विवेक के दायरे से बाहर ही रहते हैं | इसका प्रमुख कारण यह है कि भारतीय समाज में पारिवारिक , व्यक्तिगत और मित्रता के संबंधों को सामाजिक संबंधों से ज्यादा महत्व दिया जाता है | अपने पद और प्रभाव का इस्तेमाल परिवार , मित्रों और खुद से संबंधित संस्थाओं के लिये करने वाले व्यक्ति को सम्मान और प्रतिष्ठता के साथ देखा जाता है | मसलन , कोई प्रभावशाली व्यक्ति अपने परिवार या मित्र समाज के सदस्य का कार्य शासकीय या निजी संस्थान में स्वयं के प्रभाव के चलते नियमों की अवेहलना करके करवाता है , तो उसे अनैतिक या कदाचारी नहीं माना जाता , बल्कि सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है | जो ऐसा नहीं कर सकता , वह प्रभावहीन समझा जाकर असम्मानित होता है | उदाहरण के लिये यदि कोई अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके परिवार या मित्र समाज में किसी ऐसे व्यक्ति को ड्राईविंग लाईसेंस दिलवा सकता है , जिसे गाड़ी चलाना नहीं आता तो वह व्यक्ति प्रभावशाली मानकर सम्मान की दृष्टि से देखा जायेगा | यह समाज में ऊपर से नीचे तक याने संपन्न तबके से लेकर सबसे निचले तबके तक समान रूप से लागू है |


इसी तरह धन , राजनीतिक या पद के प्रभाव के चलते अपने घर पर या कहीं भी अपने अधीनस्थ लोगों से बेगार कराने को भारतीय वातावरण में सम्मान समझा जाता है | प्रभावशाली व्यक्ति न केवल स्वयं से जुड़ी संस्थाओं बल्कि अनेक सार्वजनिक कामों के लिये भी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके धन एकत्रित करते हैं और इसे वे स्वयं तथा समाज भी सम्मान की दृष्टि से देखता है | विडम्बना यह है कि इस सचाई को कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता है कि जब भी किसी पक्षपात के लिये किसी नियम को तोड़ा जाता है तो उस संस्था की विश्वसनीयता घटती है | इस तरह का पक्षपात बाकी समाज के टूटते विश्वास की कीमत पर किया जाता है , इसे मानने को नियम तोडने वाला तैयार नहीं होता है क्योंकि वह समझता है कि उसने कोई व्यक्तिगत फायदा नहीं उठाया है और अपने कृत्य को वह नैतिकता , सदाचार और सद्विवेक के दायरे से बाहर रखता है | प्रभावशाली व्यक्तियों का यह व्यवहार समाज को नियमों को तोड़ने और फिर उसका बचाव करने के अनैतिक , कदाचारी और अविवेकपूर्ण रास्ते पर ले जाता है |


एक फायदे के लिये किया गया कदाचार , चाहे वह कितने भी अच्छे प्रयोजन के लिये क्यों न हो , समाज की कार्यशैली को भ्रष्ट करता है | दरअसल , भ्रष्टाचार को पनपने के लिये जिस जमीन की जरुरत होती है , यह कदाचार वह जमीन मुहैय्या कराता है | समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष तभी पुख्ता होगा , जब नैतिकता , सदाचार और सद्विवेक के सिकुड़े दायरे को विस्तृत किया जायेगा | यह बात अन्ना टीम को समझना होगी , हर आरोप के जबाब में जनलोकपाल के विरोधियों की साजिश करार देने से काम नहीं चलेगा |
अरुण कान्त शुक्ला