Tuesday, August 28, 2012

मनमोहनसिंह, न तो अर्थशास्त्री और न ही जिम्मेदार प्रधानमंत्री




 पिछले वर्ष 8 जुलाई को मैंने अपने एक लेख मनमोहनसिंह एक आत्मनिष्ठ, आत्ममुग्ध,अमेरिका परस्त प्रधानमंत्री में कहा था कि मनमोहनसिंह एक चतुर, आत्मनिष्ठ, आत्ममुग्ध व्यक्तित्व हैं, और ऐसे व्यक्तित्व जहां भी कार्यरत होते हैं, वहाँ सृजन की तुलना में विनाश हमेशा ही ज्यादा होता हैयूपीए प्रथम के अंतिम दो वर्षों और यूपीए द्वितीय के प्रथम तीन वर्षों का कार्यकाल इस बात की पुष्टि करता है केग की रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद से या हम कह सकते हैं कि मार्च में उस रिपोर्ट के सार के उजागर होने के बाद से कांग्रेस और भाजपा, कांग्रेस और अन्ना टीम तथा कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के बीच जिस तरह के आरोप प्रत्यारोप चल रहे हैं, उनसे सिर्फ एक और एक ही बात बार बार साबित होती है कि नवउदारवाद के दौर में भारतीय राजनीति का मकसद केवल भ्रष्टाचार करना ही रह गया है प्रत्येक बीतते जा रहे दिन के साथ, जितने घोटाले, रिश्वत लेने देने के प्रकरण सामने आ रहे हैं, वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि राजनीति की विषयवस्तु अब देशसेवा, जनसेवा या राज्य की व्यवस्था को देशवासियों के हित में सुचारू रूप से चलाना नहीं, बल्कि देश के संसाधनों और संपत्तियों को उद्योग घरानों के हवाले करना और उसकी एवज् में राजनेताओं और नौकरशाहों के घर भरना है


मुझे अपने ऊपर उल्लेखित लेख का स्मरण इसलिए हो आया कि रघुराम राजन ने, जिन्हें कुछ समय पूर्व ही कौशिक बसु के स्थान पर भारत सरकार का आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया गया है, अपनी बहुचर्चित पुस्तक फाल्ट लाईन्स के हालिया भारतीय संस्करण में लिखा है कि आत्ममुग्धता विनाश की तरफ पहला कदम है, व्यक्तियों के लिए भी और देशों के लिए भीरघुराम राजन आईएमएफ में उच्च पद पर रह चुके हैं और नियुक्ति पूर्व तक शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे फाल्ट लाइन रघुराम राजन की 2008 के सबप्राईम संकट पर लिखी गई चर्चित किताब है, जिसमें उन्होंने अमेरिकी सरकार के द्वारा हाऊसिंग फायनेंस के बिग गनों और वालस्ट्रीट के कॉरपोरेट दिग्गजों को दिए गए पैकेजों की तीखी आलोचना की थी अपनी इसी किताब के भारतीय संस्करण में रघुराम राजन ने भारत में दरबारी पूंजीवाद को विकसित करने और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने की भी आलोचना की है ऐसा नहीं है कि रघुराम राजन नवउदारवाद के विरोधी हैं वो सुधारों के घोर समर्थक और सरकारी हस्तक्षेप से निकालकर प्रत्येक चीज को बाजार के हवाले करने के हिमायती और मुक्त बाजार के कट्टर पक्षधर हैं रघुराम राजन के बारे में इस संक्षिप्त उल्लेख की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि देश के कुछ उन चुनिन्दा अर्थशास्त्रियों में से वे भी एक हैं, जो, टूजी और अब कोयला स्केम के बाद,  यह कह रहे हैं कि भारत दरबारी पूंजीवाद के उस दौर में हैं जहां देश के अमूल्य और बेशकीमती संसाधनों को कौड़ियों के मोल कॉर्पोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है देश के राजनीतिक और वित्तीय क्षेत्र में केग की रिपोर्ट के कुछ हिस्सों के उजागर होने के बाद से ही यह आम चर्चा थी कि कोयला खदानों के आबंटन में ठीक 2जी की तर्ज पर ही गड़बड़ी है, जिसमें स्पेक्ट्रम लगभग मुफ्त में ही दे दिए गए थे

इस संक्षिप्त भूमिका की आवश्यकता, इसलिए पड़ी कि आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक लोगों की आँखों पर पड़ा पर्दा हट गया है, जिनमे ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री भी हैं, जो ये मानने लगे हैं कि मनमोहनसिंह ने भूमंडलीकरण और नवउदारवाद की नीतियों के नाम पर भारत में केवल दरबारी पूंजीवाद याने क्रोनी केपिटलिज्म को ही आगे बढ़ाया, जो आज बढ़कर  रिसोर्स क्रोनिज्म याने देश के बहुमूल्य संसाधनों को दरबारियों को बांटने के दौर में पहुँच गया है मनमोहनसिंह की, वित्तमंत्री रहते हुए भी और फिर प्रधानमंत्री रहते हुए भी, जो पूछ परख हुई, वह उनके एक अर्थशास्त्री के नाते ही हुई इसी बिना पर उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक अयोग्यता को न केवल कांग्रेस के अंदर नजरअंदाज किया गया, बल्कि, उनके राजनीतिक विरोधयों ने भी इसी बिना पर उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक कमजोरियों को नजरअंदाज किया तब मनमोहनसिंह जी से यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि क्या एक अर्थशास्त्री के नाते वे यह नहीं जानते थे कि जिन भूमंडलीकरण और नवउदारवाद की नीतियों को वे भारत में लागू कर रहे हैं, प्रतिस्पर्धा के बिना, वे नीतियां सामाजिक और आर्थिक रूप से भुरभुरा कर ढहने वाली हैं? 1991 में घरेलु अर्थव्यवस्था में गिरावट के चलते, जब उन्हें अमेरिका और वर्ल्ड बैंक तथा आईएमएफ जैसी संस्थाओं के दबाव में, भूमंडलीकरण और उदारवाद को देश में लागू करना पड़ा तो भी एक अर्थशास्त्री होने के नाते उन्हें ये अवश्य मालूम होना चाहिये था कि व्यापार और उद्योग जब बहुत बड़े हो जाते हैं और सत्ता और धन एक जगह एकत्रित होते हैं तो उनका प्रभाव अमानवीय और विनाशक होता है, जैसा कि हम अभी देख रहे हैं


भारत में भूमंडलीकरण के पिछले दो दशक में यदि किसी को सर्वाधिक समय भूमंडलीकरण को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए दवा के समान इस्तेमाल करने का मिला तो वे मनमोहनसिंह ही हैं यदि वो कहते हैं कि ऐसा हो नहीं सकता था तो वे गलत हैं पूंजीवादी व्यवस्था और भूमंडलीकरण के दौर के अंदर ही जापान, साउथ कोरिया, ताईवान जैसे देश हैं जहां देश के संसाधनों को कारपोरेशनस को हस्तांतरित करते समय राज्य ने सुनिश्चित किया कि उसके एवज् में उन उद्योग घरानों से भरपूर राजस्व और उत्पादकता प्राप्त हो और वे देश में उपलब्ध मानव संसाधन का भरपूर उपयोग उत्पादकता हासिल करने के लिए करें यहाँ, जिस रास्ते पर 1991 से  भारत चला, उसमें क्या हुआ? सरकारों ने, चाहे वह केन्द्र की हों या राज्यों की, देश के संसाधनों को कौड़ियों के मोल (सबसीडी देकर) उद्योग घरानों (देशी विदेशी दोनों) को दिया और उन उद्योग घरानों ने वही किया जो उन्हें उनके लिए हितकर लगा याने कार्टेल बनाए, बिना कुछ किये लायसेंस बेचकर ही मुनाफ़ा बटोरा, नए प्रतियोगियों को उद्योगधंधों और निर्माण क्षेत्र में आने से रोका और मनमाने ढंग से कीमतें तय करके सरकारी खजाने और देशवासियों को लूटा क्या मनमोहनसिंह, जो प्रधानमंत्री पद नवाजे जाने के पहले, 5 वर्ष वित्तमंत्री भी थे, इस बात को नहीं जानते हैं कि छांट बीनकर देश के किसी संसाधन को देने और प्रतिस्पर्धा के आधार पर हासिल करने में वही अंतर होता है, जो मेहनत से प्राप्त की गई उपलब्धी और भेंट में दिए गए उपहार में होता है यह अंतर हमें 2जी के बांटे गए लायसेंसों के मामले में भी देखने मिला अब कोयला आबंटनों में भी वही देखने मिला कि एक को छोड़कर, बाकी सभी लायसेंस पाने वाले, लायसेंस दबाकर बैठ गए और खनन शुरू ही नहीं किया  देश को कोयले के भारी संकट के बावजूद आयात पर निर्भर रहना पड़ा और संकटों का सामना करना पड़ा 


कोढ़ में खाज यह कि उपहार के समान आबंटन करके प्रधानमंत्री को कभी यह याद भी नहीं आयी कि टाटा, आदित्य बिरला, जिंदल और एस्सार, अदानी जैसे बड़ों ने खनन शुरू भी किया है या नहीं? प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहनसिंह को कई बार निगरानी करनी थी और वो फेल हुए| उन्होंने जिम्मेदारी दूसरों पर डाली पर, इस बार वे केवल प्रधानमंत्री नहीं थे, स्वयं प्रभारी थे कोयला विभाग के इसीलिये उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी पड़ी है उन्होंने की भी, लेकिन चालाकी के साथ, एक शेर कहते हुए हजारों जबाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी अर्थशास्त्री तो मैं उन्हें मानता नहीं, एक जिम्मेदार प्रधानमंत्री के रूप में, मैं उनसे पूछना चाहूँगा, आबरू किसकी बचाना ज्यादा जरूरी है? देश की, देशवासियों की या भाजपा की, जिसके उपर भी कोयले की कालिख उड़ रही है मुझे मालूम है, जबाब नहीं मिलेगा, क्योंकि सवाल एक ऐसे व्यक्ति से किया गया है, जो आत्ममुग्ध, आत्मनिष्ठ हैअर्थशास्त्री नहीं है, पर, कहलाने में गर्व करता हैओबामा कहे तो चेहरे पर और रौनक आ जाती है प्रधानमंत्री है, पर, जिम्मेदार नहीं 

अरुण कान्त शुक्ला                                                       28अगस्त,2012                                                    

Saturday, August 18, 2012


परमाणु ऊर्जाः तितलियाँ बोल रही हैं..इससे बचो!!!

जी हाँ, तितलियाँ बोल रही हैं कि न केवल जापान सरकार बल्कि न्यूक्लियर एनर्जी से अरबों खरबों रुपयों का मुनाफ़ा कमाने वाले उद्योगपति, उनकी रहनुमा अमेरिका, फ्रांस, आस्ट्रेलिया और रूस की सरकारें, चेरनोबिल से लेकर फुकुशिमा तक दुर्घटना के बाद होने वाले रेडिएशन के बारे में न केवल झूठ बोलती रही हैं, बल्कि वे हर हथकंडा अपनाकर उन खबरों को दुनिया के बाकी  लोगों तक पहुँचने से रोकती भी हैं, ताकि न्यूक्लियर एनर्जी के बारे में विश्व स्तर पर कोई बड़ा प्रतिरोध या असंतोष न खड़ा  हो सके मानव के ऊपर रेडिएशन के दुष्प्रभाव के बारे में जहां लंबे समय के बाद पता चलता है, वहीं तितलियाँ इस दुष्प्रभाव के संकेत बहुत जल्दी दे देती हैं यही कुछ जापान में पिछले वर्ष मार्च में आई सुनामी के बाद फुकुशिमा प्लांट से हो रहे रेडिएशन के वहाँ के रहने वालों के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में हो रहा है  

जापानी सरकार ने हादसे के 6 माह बाद ही सितम्बर,2011 में फुकुशिमा और उसके आसपास के इलाके में रिहाईश के लिए लगाए गए प्रतिबंधों को इस बिना पर उठा लिया था कि अब वहाँ रेडिएशन का स्तर नुकसान पहुंचाने के स्तर से नीचे आ गया है, अर्थात सामान्य हो गया है आज हजारों परिवार उन क्षेत्रों में रह रहे हैं, विशेषकर फुकुशिमा के उत्तर पश्चिमी इलाके में, जहां वातावरण अभी भी बहुत ज्यादा प्रदूषित है अब जापान के वैज्ञानिक बता रहे हैं कि उन्हें वहाँ विकलांगता से प्रभावित तितलियाँ मिल रही हैं उन्होंने स्थानीय तितलियों के पांवों, परों, कोशिकाओं और आँखों में विकृतियों को बढ़ता हुआ पाया है यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि मानव के ऊपर रेडिएशन के प्रभाव के अध्यन के लिए तितलियों को अच्छा माध्यम माना जाता है क्योंकि तितलियों में रेडिएशन के खिलाफ प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है नेचर पब्लिकेशन समूह के ऑन लाइन जर्नल में प्रकाशित शोध के अनुसार फुकुशिमा के आसपास के इलाके से तितलियों के जो नमूने उन्होंने एकत्रित किये, उसमें से 10 प्रतिशत नमूनों में उन्हें ये विकृतियाँ मिलीं, जो अनुवांशिक हो सकती हैं  फुकुशिमा के न्यूक्लियर प्लांट के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद वहाँ के रहवासियों के ऊपर रेडिएशन के प्रभाव के ऊपर अनेक अध्यन हुए हैं, उनमें इस शोध को महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि यह शोध उन सारी रिपोर्टों और दावों के ऊपर उंगली उठाता है, जिनमें कहा गया है कि अभी तक रेडिएशन के दुष्प्रभाव का एक भी मामला वहाँ रिपोर्ट नहीं हुआ है

न्यूक्लियर प्लांटों के लिए हमेशा ऐसी ही जगह का चुनाव करना पड़ता है, जहां पानी अधिक मात्रा में और आसानी से प्राप्त किया जा सके| रेडिएशन को रोकने तथा मशीनों को ठंडा रखने के लिए ये आवश्यक है ऐसे स्थान समुद्र के नजदीक ही मिलेंगे| समुद्र के नजदीक और भूकंप की संभावना वाले स्थानों पर न्यूक्लियर प्लांट मानवता के लिए कितनी दुश्वारी वाले हो सकते हैं, यह हम फुकुशिमा में देख चुके हैं ये खतरा अब तो और बढ़ गया है, जब पृथ्वी के तापमान में हो रही वृद्धि और पर्यावरण के लगातार दूषित होने के परिणामस्वरूप सुनामी, भूकंप और पृथ्वी पर के तूफ़ान आये दिन की घटना बन रहे हैं पृथ्वी पर का कोई भी समुद्र सुनामियों और समुद्री तूफानों से बचा नहीं है

जापान की सरकार और फुकुशिमा से जुड़े अधिकारी पूरे एक वर्ष तक लोगों को गुमराह करने वाले बयान देते रहे लेकिन, फिर उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि 2011 की सुनामी के समाप्त होने के बाद, फुकुशिमा के चारों रिएक्टर भारी मात्रा में विकरण युक्त पानी से भरे हुए हैं, जिसमें से लगभग 12 टन वातावरण में लीक भी हो चुका है इस स्वीकारोक्ति के छै माह पहले वही सरकार उन इलाकों को रिहाईश के लायक बता चुकी थी सरकारें किसी भी देश की हों, जब सवाल पूंजीपतियों के मुनाफे और मानव जीवन के बीच झूलता है, तब उन्हें पूंजीपतियों के मुनाफे के खातिर, मानव जीवन को नुकसान पहुंचाने की कीमत पर भी पूंजीपतियों के पक्ष में झूठ बोलने में कोई हिचक नहीं होती है आज जब जापान में तितलियों पर रेडिएशन के प्रभाव के बारे में रिपोर्ट को मैंने पढ़ा, तो तुरंत ही कुंडाकुलम न्यूक्लियर प्लांट मेरे मष्तिष्क में कौंधा जो भूकंपी जोन में है और फुकुशिमा की तरह ही खतरों की जद में भी है  

कुंडाकुलम में न्यूक्लियर प्लांट का विरोध करने वाले अनेक संगठनों ने भारत सरकार को कुंडाकुलम के ऊपर रिपोर्ट दी है और यह अन्यथा भी साधारण जानकारी की बात है कि जहां न्यूक्लियर प्लांट लगाया जा रहा है, वह इलाका लाईम स्टोन बेल्ट है वहाँ कुछ समय पूर्व तक लाईम स्टोन की खदानें काम कर रही थीं न्यूक्लियर प्लांट के लिए अधिग्रहित पूरा इलाका समुदे तट उस हिस्से के बहुत नजदीक है, जहां कुछ समय पूर्व ही सुनामी का आक्रमण हुआ था इसी इलाके में धरती के नीचे भूकंपीय गतिविधियां भी कुछ समय रिकार्ड की गईं थीं केन्द्र और राज्य की सरकारें आश्वासन दे रही हैं कि सुरक्षा के समस्त उपाय किये गए हैं खतरे और चिंता की कोई बात नहीं है पर, देश के किसी भी कोने में, किसी को भी, सरकारों के इन आश्वासनों पर कोई भी कोई भी भरोसा हो सकता है क्या? इसका एक ही उत्तर हो सकता है, कदापि नहीं! क्योंकि उठाये गए किसी भी प्रश्न का न तो केन्द्र सरकार और न ही राज्य सरकार कोई संतोषजनक जबाब देने में समर्थ है बल्कि, फरवरी,2012 में देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने यह कहकर सबको हंसने के लिए मजबूर कर दिया कि देश में अमरीका से फंडित एनजीओ राष्ट्र के विकास में बाधा खड़ी कर रहे है परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में इनके कारण बाधा पहुँच रही है प्रधानमंत्री ने कहा कि कि अमरीका आधारित ये एनजीओ भारत की ऊर्जा शक्ति में कोई विकास हो, ये नहीं चाहते  

मनमोहनसिंह जी को 1991 से लेकर अभी तक वित्तमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप में हमने अभी तक जितना देखा है, उससे तो उनका आकलन यही बनाता है कि वो चाहे जीएम क्राप का मामला हो या परमाणु ऊर्जा का, प्रत्येक कदम पर प्रधानमंत्री की रुची और प्राथमिकता में अमेरिका और यूरोपीयन कंपनियों के हित ही रहे हैं उन्हें इस बात की चिंता कभी नहीं रही कि इन टेकनालाजियों का क्या दुष्प्रभाव देशवासियों और देश के पर्यावरण पर पड़ेगा फरवरी,2012 में भी जब वो न्यूक्लियर प्लांट के विरोध में शामिल एनजीओ को धमाका रहे थे, तब भी उनके दिमाग में रूस की कंपनी एमेस्त्रोएक्स्पोर्ट के हित ही घूम रहे होंगे

भारत में यूपीए प्रथम के कार्यकाल में अमेरिका के साथ किये गए न्यूक्लियर समझौते को लेकर लेफ्ट के साथ हुए टकराव और फिर लेफ्ट के समर्थन वापस लेने के बाद यूपीए ने किस तरह से विश्वास मत जीता, उसका व्यापक प्रचार होने के बावजूद भी सच्चाई यही है कि न्यूक्लियर विरोधी आन्दोलन अपनी प्रारंभिक अवस्था में बुद्धिजीवियों के कुछ हिस्सों तक ही सीमित रहा और इसका आधार भी मुख्यतः शहरी ही रहा लेकिन, आज परिस्थिति में व्यापक परिवर्तन आ चुका है आज यह आंदोलन व्यापक रूप धारण कर चुका है और इसमें वे सब स्थानीय लोग पूरी तरह जुड़ चुके हैं; जो प्लांट लगने के कारण विस्थापित हो रहे हैं; अपनी आजीविका खो रहे हैं और जिन्हें अपने रहवासी वातावरण से च्युत होना पड़ रहा है और सबसे बड़ी बात कि वो सब भी जो जानलेवा और विनाशकारी रेडिएशन के खतरे की जद में आयेंगे, आंदोलन के साथ जुड़े हैं याने, यदि साररूप में कहा जाए तो आज न्यूक्लियर विरोधी आन्दोलन प्रभावित क्षेत्र के लोगों की जीविका और जीवनयापन से जुड़ा संघर्ष है

जैतापुर, हरिपुर और कुंडाकुलम में चल रहे आन्दोलनों को, विकास विरोधी मानने के बजाय, नवउदारवाद के अंतर्गत न्यूक्लियर बिजली के भीमकाय कार्पोरेशनस की मानवभक्षी, अंधी, मुनाफे की हवस के खिलाफ चलाये जाने वाले संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें हमारे देश का शासक वर्ग देश के लोगों के साथ होने के बजाय भीमकाय विदेशी न्यूक्लियर कार्पोरेशंस के साथ है और उसने उन कार्पोरेशंस के हितों की रक्षा करने के लिए देशवासियों के बड़े हिस्से के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि नवउदारवादी, जीडीपी ग्रोथ को ही विकास का पैमाना मानने वाले, विकास का जब उत्पीड़ित देशवासी विरोध करते हैं तो उनके ऐसे विरोध को केंद्र और राज्य की सरकारें राष्ट्र विरोधी गतिविधि मानकर उनके ऊपर सेक्शन 121 लगातीं हैं, जिसका अर्थ होता है राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ना, या युद्ध छेड़ने का प्रयास करना, या युद्ध छेड़ने के लिए उकसाना या भड़काना अभी जुलाई माह के मध्य में जैतापुर प्लांट के खिलाफ चल रहे संघर्ष के समर्थन में गठित राष्ट्रीय एकता कमेटी ने जैतापुर के सभी छै रिएक्टरों और प्लांट की खामियों के बारे में अनेक कमियां बताईं और इस मुद्दे को संसद में उठाने का निर्णय लिया  अब इसे आप क्या कहेंगे कि जिस मुद्दे को संसद में उठाया जा सकता है, उसे सड़क पर उठाने से जनता के ऊपर राज्य विरोधी या राज्य द्रोह कि धारा लगती है  दरअसल, नवउदारवादी विकास की लौ में बह रहीं देश की सरकारों के किसी भी कार्य को उठाकर आप देख लीजिए, आप पायेंगे कि केंद्र हो या राज्य, दोनों की सरकारों ने बहुसंख्यक देशवासियों के स्वास्थय, सुरक्षा, जीविका और जीवनयापन के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है  

जर्मनी की सरकार 2022 तक अपने सभी परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों को समाप्त करने का निर्णय कर चुकी है इटली और स्विजरलैंड ने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों पर आगे काम नहीं करने का निर्णय लिया है परमाणु ऊर्जा का विकल्प साफ़, स्वच्छ और प्रदूषण रहित ऊर्जा के रूप में हवा, सोलर, जैव ऊर्जा, पानी और बायो ऊर्जा के रूप में मौजूद है प्रश्न, इसे बुद्धिमत्तापूर्वक और सावधानी के साथ इस्तेमाल करने का है एक उचित ग्रिड प्रणाली और विद्युत ऊर्जा के व्यर्थ उपयोग पर पाबंदी से इसे समाधान के रूप में आजमाया जा सकता है और हमारे समक्ष कोई अन्य विकल्प नहीं है हमें इसी समाधान पर आगे बढ़ना होगा, यदि हमें मानव प्रजाति को भविष्य में विकलांग पैदा नहीं करना है तोकम से कम, हमसे,  ये तितलियाँ तो यही बोल रही हैं कि परमाणु ऊर्जा, इससे बचो!!!                                    

Wednesday, August 15, 2012

आस्ट्रेलिया उच्चतम न्यायालय का स्वागत योग्य फैसला..


    आस्ट्रेलिया उच्चतम न्यायालय का स्वागत योग्य फैसला..



आस्ट्रेलिया के उच्चतम न्यायालय ने एक स्वागत योग्य फैसला देते हुए आस्ट्रेलिया सरकार के उस क़ानून को रद्द करने से मना कर दिया है, जिसमें सिगरेट कंपनियों को सिगरेट के पैकेट के उपर ब्रांड नाम और लोबो लगाने से रोकने के साथ यह प्रावधान किया गया है कि ब्रांड नाम और लोबो की जगह उन्हें सिगरेट के पैकेट और सभी तरह के तम्बाखू उत्पादों पर तम्बाखू के दुष्प्रभावों को अनिवार्य रूप से दिखाना होगा


याने, अब आस्ट्रेलिया में सिगरेट के पैकेटों और तम्बाखू के पैकेटों के उपर विकृत मुँह, अंधी आँखे और जले हुए कलेजे दिखाने होंगेयह क़ानून आस्ट्रेलिया में इसी वर्ष दिसंबर से लागू होगाभारत में सिगरेट के पैकेट और तम्बाखुओं के पैकेट पर पर केंसरग्रस्त फेफड़ा तो छपा रहता है, लेकिन ब्रांड नाम और सिगरेट का नाम उससे ज्यादा बड़े में रहता है भारत में आज सिगरेट के समकक्ष क्या बल्कि उससे भी बड़ी समस्या के रूप में जर्दा युक्त गुटखे के कारण फैला हुआ केंसर है अनेक राज्यों में इस पर बेन लगाया जाता है और कभी कोर्ट के आदेशों से और कभी गुटखा लाबी के दबाव में इसे उठा भी लिया जाता है


अभी कुछ दिनों पूर्व का वाकया है, एक लड़के को, जो मुश्किल से 18/19 वर्ष का होगा, मैंने देखा कि उसका मुँह बिलकुल नहीं खुल रहा था और बात करने से उसकी बातें आसानी से समझ में नहीं आती थींउसके पिता ने बताया कि वो लगभग पिछले पांच सालों से गुटखा खा रहा है और इतना एडिक्ट हो चुका है कि कहता है कि मर जाऊँगा, पर गुटखा नहीं छोडूंगा यह तो अच्छा है कि छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने अभी लगभग 15/20 दिनों पूर्व से गुटखे की बिक्री पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगाया हैपर, अभी भी गुटखा ब्लेक में ज्यादा दामों में आसानी से मिल रहा है ऐसा नहीं कि इस प्रतिबन्ध को हटाने के लिए गुटखा लाबी दबाव नहीं बना रही है, पर, अभी तक राज्य सरकार गुटखा लाबी के दबाव में आई नहीं है


गुटखे से जुड़ा एक अचंभित करने वाला तथ्य यह भी है कि इसका अधिकाँश काम नंबर दो में होता हैइसका पता, तब चला, जब राज्य सरकार ने बेन लगाया तो गुटखा लाबी की तरफ से कहा गया कि इससे पूरे प्रदेश में लगभग 100 करोड़ का डंप पड़ा माल खराब हो जाएगा, जबकि सरकार के अनुमानों के हिसाब से ये लगभग 50 करोड़ सालाना का ही व्यवसाय था


भारत में जब सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट पीना प्रतिबंधित किया तो शुरुवात में काफी हायतौबा मची, लेकिन आज यह एक सुखद स्थति है कि ट्रेन, बस, पार्क, अस्पताल इत्यादि स्थानों पर आपको सिगरेट पीते व्यक्ति कम ही मिलेंगे ऐसा ही कदम गुटखे के मामले में पूरे देश में उठाने की जरुरत है सिगरेट और गुटखे का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि गरीब और मध्यम तबके के लोगों की आय का एक बड़ा हिस्सा परिवार और बच्चों पर खर्च होने की बजाय, इस व्यसन पर खर्च हो जाता है, जिसे सख्ती करके रोका जा सकता है क्या देश का सुप्रीम कोर्ट इस तरफ भी ध्यान देगा?


अरुण कान्त शुक्ला
15 अगस्त, 2012