Sunday, June 7, 2020

कोरोना काल में ‘ब्लेक लाईव्स मेटर’ आंदोलन और हम


क्या भारत में कोई कल्पना भी कर सकता है कि उस देश के राष्ट्र-अध्यक्ष को, जिसकी एक धमकी के बाद ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र को तुरंत अपनी दवा नीति में परिवर्तन करना पड़ा और जिन दवाईयों के निर्यात पर इसलिए रोक लगाई गई थी कि भविष्य में कोविद-19 के ज़ोर पकड़ने पर वे दवाएं देश में न कम पड़ जाएँ, उनके निर्यात को चालू करना पड़ा, कुछ दिनों के बाद अपने सफ़ेद-घर के तलघर में जाकर छुपना पड़ेगा? पर, ऐसा हुआ है। ट्रम्प-साहब जब व्हाईट-हाउस के सामने अमेरिका सहित दुनिया के बड़े-बड़े अखबारों-न्यूजचैनलों के साथ अपनी मन की बात करते थे तो उनके तेवर देखते ही बनते थे। लेकिन अब दुनिया में लंबे समय तक उनकी व्हाईट हाउस के पास वाले चर्च के सामने बाईबिल लहराती फोटो और व्हाईट हाउस के बंकर में जाकर छुपने की कहानी याद की जाती रहेंगी।

25 मई 2020 को एक गोरे अमेरिकन पुलिस अधिकारी और उसके सहयोगियों के द्वारा की गई जार्ज फ्लायड की नृशंस हत्या, अमेरिका में नस्लवाद संस्थागत और परंपरागत रूप से मौजूद है, इसका पहला प्रमाण नहीं है। इसके पहले अगस्त 2014 में फर्गुसन में एक पुलिस अधिकारी ने माईकल ब्राउन नाम के अफ्रीकी अमेरिकन की हत्या की थी। उसके पहले न्यूयार्क में जुलाई 2014 में एरिक गार्नर की हत्या भी एक पुलिस अधिकारी ने की थी। उस समय भी फर्गुसन और न्यूयार्क में लगभग चार माह तक आंदोलन चला था जिसे पुलिस ने बहुत ही बर्बर ढंग से दबाया था। यहाँ मेरा अमेरिका की पूरी व्यवस्था में गोरे अमेरिकियों का अमेरिका के मूल निवासियों, आफ्रिकी अमेरिकी, मेक्सिकन या एशियाई  अमेरिकी के प्रति नस्लवादी नफरत के इतिहास में जाने का कोई इरादा नहीं है। उसे आज जो आंदोलन अमेरिका में चल रहा है उस आंदोलन के आकार-प्रकार, सर्व-व्यापकता, जातीय विविधता, नौजवानों की सक्रियता तथा समानता तथा सम्मान के लिए किए जा रहे एकताबद्ध प्रयासों ने पूरी तरह नैपथ्य में डाल दिया है।

आंदोलन की शुरुवात के साथ ही ऐसा संदेश देने की कोशिश की गई मानो यह आंदोलन बुरी तरह हिंसक है और जैसा कि ट्रम्प महोदय ने कहा भी कि इसे सेना के हवाले ही करना होगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि प्रशासन और निहित स्वार्थ के तत्व, जो इस तरह के आंदोलन के समर्थक नहीं होते हैं, इन आंदोलनों को बदनाम करने के लिए उनमें घुसकर लूटपाट और हिंसा भड़काने की कोशिश जरूर करते हैं। हमने यह भारत में भी कुछ माह पूर्व हुए नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी के खिलाफ किए गए आंदोलन के दौरान देखा है। वास्तविकता यह है कि ब्लेक लाईव्स मेटर आंदोलन केवल अमेरिका में ही नहीं बल्कि उसके बाहर यूरोप, लेटिन अमेरिका के देशों के अलावा ब्रिटेन में भी लगभग 2013 से सक्रिय है और आज का आंदोलन उसकी ही अगुवाई में चल रहा है। ब्लेक लाईव्स मेटर आंदोलन की शुरुवात इतिहास में समानता, स्वतन्त्रता तथा न्याय के लिए हुए राजनीतिक संघर्षों से प्रेरणा लेकर हुई है। अपने जन्म से लेकर अभी तक का इसका इतिहास नागरिक-अधिकारों तथा प्रगतिशील, लोकतान्त्रिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के लिए संघर्ष करने का रहा है। लूटपाट और हिंसा की जो भी घटनाएँ हुई हैं उनकी सचाई कुछ दिनों में सामनी आ ही जायेगी, पर इन घटनाओं को ब्लेक लाईव्स मेटर आंदोलन और उसमें शामिल लोगों का कोई समर्थन नहीं था, यह स्पष्ट हो गया है। यदि ऐसा नहीं होता तो अमेरिका के 140 से अधिक शहरों के लोग कोविद-19 के जोखिम के बावजूद सड़कों पर न उतरते। आंदोलन यूरोप सहित लेटिन अमेरिकी देशों तथा ब्रिटेन की सड़कों पर नहीं दिखता। जैसा की होता है पुलिस इसे बर्बरता के साथ रोकने की कोशिश कर रही है पर लोग आज भी व्हाईट हाउस के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं।

ब्लेक लाईव्स मेटर आंदोलन ने दुनिया के कोने कोने में विभिन्न समाजों के अंदर जो नाना प्रकार के भेदभाव-घृणा समाज तथा प्रशासनिक स्तर पर पल रहे हैं, उनकी तरफ जबर्दस्त ढंग से उंगली उठाई है। मुस्लिमों, कश्मीरियों, ईसाईयों तथा छोटी जाति के दलित और आदिवासियों के साथ भारत में हो रहे भेदभाव, माब लिंचिंग, बंगला देश में गैर-बंगालियों तथा अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों के साथ हो रहा बर्ताव, पाकिस्तान में अहमदियों, बलूच लोगों, हिंदुओं तथा सिखों और ईसाईयों के साथ हो रहे भेदभाव, श्रीलंका में तमिलों के साथ किए जा रहे जुल्म, म्यंमार में रोहिंग्याओं के साथ, चायना में तिब्बतियों और उईगर मुस्लिमों के साथ किये जा रहे बर्ताव, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन तथा यूरोप और अमेरिका में एशियाई मूल के लोगों के साथ किये जा रहे भेदभाव तथा सामाजिक तौर पर उनके प्रति घृणा का वातावरण सब कुछ सतह पर आना चाहिये और इसके खिलाफ दुनिया के पैमाने पर प्रगतिशील, लोकतांत्रिक, सामाजिक तथा राजनीतिक ताकतों को एक एकजुट संघर्ष चलाना चाहिये। कोरोना काल को यदि दुनिया की पूंजीवादी ताक़तें दबे-कुचले वर्ग के ऊपर, श्रमजीवियों के ऊपर हमले का एक बेहतरीन अवसर मानकर चूकना नहीं चाहतीं तो दुनिया के दबे-कुचले वर्ग तथा श्रमजीवियों को इसी कोरोना काल में उन्हें प्रतिउत्तर भी देना होगा।

इस मध्य तीन ऐसे वाकये भी घटे हैं जिन्होने न केवल सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है बल्कि विश्व के कोने कोने में जनसाधारण से इस पर सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ भी सामने आई हैं। पूंजीवादी प्रचारतंत्रों ने इन घटनाओं को पूरी तरह भुनाने की कोशिश की है मानो पूंजीवादी लोकतन्त्र में सब कुछ बहुत अच्छा अच्छा है। पहली घटना है, अमेरिका में कनसास शहर के पुलिस चीफ, मेयर तथा उनके अनेक साथियों का अपना हेलमेट उतारकर प्रदर्शनकारियों के सामने एक घुटने पर सिर झुकाकर बैठ जाना। इनमें से कोई भी आफ्रिकी अमेरिकन नहीं था। प्रदर्शनकारियों के साथ अपनी सहृदयता दिखाने का यह तरीका लंदन में भी अपनाया गया। दूसरी घटना है टेक्सास राज्य के होस्टन शहर के पुलिस चीफ का ट्रम्प महोदय को यह कहना कि यदि आप कुछ सकारात्मक नहीं बोल सकते तो अपना मुंह बंद रखें। तीसरा वाकया है ट्रम्प महोदय के पूर्व रक्षा सचिव जेम्स मेटिस का यह कहना कि “डोनाल्ड ट्रम्प उनके जीवन काल के पहले ऐसे राष्ट्रपति हैं जो अमेरिकयों को एकता में बांधकर रखने के लिये कोई प्रयास नहीं करते—यहाँ तक कि वे ऐसा करते दिखने का भी कोई प्रयास नहीं करते। जेम्स मेटिस का यह कथन केवल ट्रम्प महोदय के लिये नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के अनेक देशों के अंदर दक्षिणपंथी नस्लवादी संकीर्ण सोच रखने वाली ताक़तें देशों की सत्ता में आई हैं और सभी के राष्ट्र-अध्यक्षकों की सोच विभाजनकारी ही है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है, नारा चाहे कितना भी समावेशी क्यों न हो? जहां तक प्रदर्शनकारियों के सामने हेलमेट उतारकर, घुटने पर बैठने की बात है या एक शहर के पुलिस चीफ का अपने राष्ट्रपति को मुंह बंद रखने की सलाह देने की बात है, यह पूंजीवाद की खुबसूरती है कि वह एक कुकुर के समान अपने घाव खुद चाटकर ठीक कर लेता है। ये दोनों उसी का प्रमाण हैं।

भारत में हमें अमेरिका में चल रहे ये प्रदर्शन कुछ माह पहले देश भर में हुए नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शनों की याद दिलाते हैं जिनमें शहर दर शहर हिन्दू, सिख, ईसाई, मुस्लिम, दलित, आदिवासी सभी शामिल हुए थे। हम इसलिए भी खुश हो सकते हैं कि अमेरिका में चल रहे इन शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में गांधी के अहिंसात्मक आंदोलनों की उस विरासत को देख सकते हैं जो मार्टिन लूथर किंग जूनियर के आंदोलनों ने गांधी के आंदोलनों से प्राप्त की थी और जिसका जिक्र वो बार बार किया करते थे। मैं नहीं जानता, वे भारतीय आज अमेरिका में कैसा महसूस करते होंगे जो हौसटन में हाउडी मोदी कार्यक्रम में शामिल हुए थे और जिन्होने ट्रम्प महोदय का ज़ोर-शोर से स्वागत किया था।

जब अमेरिका की सड़कों पर लाखों प्रदर्शनकारी रंभेद के खिलाफ और समानता, स्वतन्त्रता तथा न्याय के लिये लड़ रहे हैं, जोधपुर की सड़क पर एक पुलिस अधिकारी एक नागरिक का उसी तरह गला दबाता है जिस तरह डेरेक चाउविन ने जार्ज फ्लायड का दबाया था। भारत की जेलों में 55% कैदी बिना सुनवाई के मुस्लिम,दलित तथा आदिवासी समुदाय से हैं जबकि भारत की कुल जनसंख्या में इनका प्रतिशत मात्र 39 के आसपास होगा। जार्ज फ्लायड ने कहा था वह सांस नहीं ले सकता तो लाखों अमेरिकी सड़कों पर उतर आये। भारत के उड़ीसा में एक 14 साल के लड़के को भीड़ मार देती है क्योंकि वह ईसाई है। जार्ज फ्लायड, हमारे देश में भी बहुत बहुत हैं जो सांस नहीं ले पा रहे या जिनकी साँसे बंद कर दी जाती हैं, पर हमारे देश की सड़कों पर अभी प्रवासी मजदूर हैं, जिनकी साँसे अपने घर पहुँच पाने की आस में अटकी हुई हैं।

अरुण कान्त शुक्ला
7/6/2020