Wednesday, August 27, 2014

लानत है..!



लानत है..!




सेन होज़े (sen josh) के एक भारतीय रेस्टुरेंट 'मधुबन' में लक्ष्मण नाम का एक छात्र वेटर का काम करता है| भारत से बी टेक करने के बाद वह अमेरिका गया हैं. वहां एमटेक कर रहा है| रेस्टोरेंट में काम करके खाली समय में कुछ पैसा इस काम से कमा लेता हैं. हो सकता है लक्ष्मण कल किसी कंपनी का सीईओ बन जायें |

क्या ये लक्ष्मण या ऐसे ही अन्य ढेरों किसी प्रशंसा या सलाम के हकदार हैं..?

लक्ष्मण और ऐसे ही अन्य ढेरों भारत में बुनियादी शिक्षा लेने के बाद अमेरिका चले जाते हैं| याने, बुनियादी शिक्षा देश में लो और फिर अमेरिका चले जाओ| वहां वेटर का काम करने में भी शर्म नहीं और देश में एक गिलास उठा कर दूसरी जगह रखने में भी शर्म | विदेश जाने के पहले ऐसे सभी लोगों को उनकी बुनियादी तालीम हासिल करने में जितना पैसा देश में लगा है, उसे वापस करके जाना चाहिए| यह जनता के टेक्स का पैसा है, जिससे उन सब ने बुनियादी तालीम हासिल की है| इसमें मेरा पैसा भी शामिल है जो मैंने टेक्स के रूप में चुकाया है और चुका रहा हूँ| वरना उनके पिताश्री के पिताश्री भी उन्हें नहीं पढ़ा सकते थे | ऐसे अधिकाँश लोग कभी वापस नहीं आते| मुझे विदेश जाकर शान बघारने वाले ऐसे सभी लोगों से सख्त चिढ़ है| फिर चाहे वह व्यक्ति किसी दिन अमेरिका का प्रेसिडेंट भी क्यों न बन जाए| ये राष्ट्र प्रेम तो छोडिये, भारतीय कहलाने के भी लायक नहीं हैं| ऐसे लोगों से गहरी पूछताछ कीजिये, वे उगल देंगे कि उन्हें अमेरिका की नागरिकता चाहिए और फिर दूसरी सांस में कहेंगे कि अमेरिका भारत से श्रेष्ठ है| सभी, ऐसे निकृष्ट लोगों को जो देश छोड़कर विदेश में बस जाते हैं और वहां सब करने तैयार रहते हैं..कि क्या प्रशंसा और उन्हें क्या सलाम..उन्हें तो लानत देनी चाहिए|
लानत है..!

अरुण कान्त शुक्ला, 27/8/2014

Thursday, August 14, 2014

लेह में प्रधानमंत्री ने अनावश्यक दिया छद्म युद्ध वाला बयान..




ये छद्म युद्ध क्या होता है? क्या जो माहोल स्वयं प्रधानमंत्री ने बनाया था, उसमें पाकिस्तान के खिलाफ इस तरह के बयान की कोई फौरी जरुरत थी? क्या यह कहकर कि पाकिस्तान चूंकि परम्परागत युद्ध की क्षमता खो चुका है, इसलिए आतंकवाद को बढ़ावा देकर छद्म युद्ध में लगा है, प्रधानमंत्री पाकिस्तान को युद्ध छेड़ने के लिये उकसाना चाहते हैं? क्या उनका यह बयान दोनों देशों के रिश्ते सुधारने में कुछ भी सहायक है? ये ही नहीं, इस तरह के अनेकों सवाल हैं जो प्रधानमंत्री के सीमा पर दिए गए बयान के बाद उठे हैं उनका बयान भले ही उनकी हर बात पर ताली बजाने वालों से वाह-वाही लूटे पर सही यही है कि लेह में प्रधानमंत्री ने अनावश्यक छद्म युद्ध वाला बयान दिया है प्रधानमंत्री का बयान उन्हीं की सरकार के गृहमंत्री के द्वारा दिए गए बयान का विरोधाभासी भी है। अभी कुछ दिन पहले ही भारत सरकार के गृहमंत्री और कल तक प्रधानमंत्री की ही पार्टी के अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह ने लोकसभा में कहा था कि सीमा पर छोटी मोटी वारदातें होती रहती हैंउन्होंने यह भी कहा था कि सीमा पर कोई भी बड़ी वारदात की कोई खबर भारत सरकार के पास नहीं है

जहां तक आतंकवाद का सवाल है, आतंकवाद राजनीति का ही एक रूप है, जिसे बहुसंख्यक जनता का, चाहे वह उस देश की हो जहां से आतंकवाद शुरू हो रहा है या पीड़ित देश की, समर्थन नहीं मिलता है आतंकवाद बुमेरांग जैसा है जो लौटकर उस देश पर भी वार करता है, जिस देश से शुरू होता हैयह हम पाकिस्तान में भी देख रहे हैं और अमेरिका के साथ भी देखा है , जिसने अफगानिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा दिया और फिर खुद के घर में 9/11 को झेला आज ईराक में भी अमेरिका वही झेल रहा है अमेरिका और हमारे अन्दर फर्क यही है कि वह न केवल सैन्य रूप से बल्कि पैसे के मामले में भी धनवान है भारत एक अपेक्षाकृत कमजोर देश।हम आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के समान युद्ध छेड़ कर नहीं लड़ सकते। प्रधानमंत्री ने शपथ लेने के साथ ही जिस कूटनीतिक कदम को उठाया था,पड़ोसियों के साथ अपने संबंध सुधारने का, उनके बयान ने उसमें पलीता लगाने का काम ही किया है

भाषाई शब्दजाल से बाहर आकर सोचें कि यह छद्म युद्ध आखिर होता क्या है? जैसे ही प्रधानमंत्री ने इस शब्दावली का इस्तेमाल किया , मुझे तुरंत ही पूर्व एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की याद आ गयी कारगिल लड़ाई को उन्होंने ने एक बार नहीं अनेकों बार "युद्ध नहीं..युद्ध जैसा कुछ कहा था" और उसके बाद हुआ क्या? अमेरिका की एक घुड़की के बाद कारगिल की वह लड़ाई रुक गयी पाकिस्तान को एक बार नहीं अनेकों बार भारत की तरफ से मुंह तोड़ जबाब दिया गया है आखिर, बंगला देश का निर्माण पाकिस्तान के साथ युद्ध का ही नतीजा है देश का विभाजन, आजादी के समय, किसी को पसंद हो या नहीं हो, अंग्रेजों के दबाव में हुआ हो या भारत पाकिस्तान के उस समय के नेताओं की पसंदगी से हुआ हो, स्वीकार करके ही हुआ था पर, बंगला देश का निर्माण पाकिस्तान को सैनिक रूप से पराजित करके और शायद दूसरे विश्वयुद्ध की घटनाओं को छोड़ दें तो किसी भी देश के द्वारा किये गए सबसे बड़े सैन्य समर्पण के बाद हुआ है इसकी टीस बाराम्बारों के युद्ध से नहीं मिटेगी| इस टीस को मिटाने के लिए प्यार की भाषा ही काम आयेगी

प्रधानमंत्री मोदी का सीमा पर दिया गया छद्म युद्ध वाला बयान बीजेपी की सुपरिचित अमेरिका के पिछलग्गू बनने की और सैन्यीकरण की बीजेपी की नीति के ही अनुसार है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि अमेरिका में 9/11 होने के बाद यदि भारत पहला नहीं तो कम से कम उन पहले देशों में से एक था, जिसने अमेरिका की धमकी कि “या तो हमारे साथ या हमारे खिलाफ आतंकवादियों के साथ” के बाद अमेरिका को तुरंत समर्थन दिया था। वहीं से दशकों पुरानी भारत की विदेश नीति कि भारत किसी भी शक्ति के साथ उसके गुट में शामिल नहीं होगा, से अलगाव शुरू हुआ था। यह भारत की गुटनिरपेक्ष नीति और स्वतन्त्र विदेश नीति को तिलांजली देकर भारतीय हितों को अमेरिकी युद्ध योजनाओं के साथ जोड़ने की शुरुवात थी। तात्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उस समय दावा किया था कि भारत और अमेरिका स्वाभाविक सहयोगी हैं याने दो बड़े लोकतंत्र के बीच में यह स्वाभाविक जुड़ाव है। पर, भारत और अमेरिका के बीच में उस समय स्वाभाविक क्या था? स्वाभाविक यह था कि अमेरिका को उस समय बुश की ईजाद नयी सैन्य नीति कि अमेरिका संदेह होने पर ही अपनी रक्षा के लिए किसी के भी ऊपर हमला कर सकता है, के लिए भारत की बीजेपी सरकार में, बीजेपी के फासीवादी/सैन्य रुझान में एक स्वाभाविक साथी दिखा।

किसी भी देश में आतंकवाद को यदि स्थानीय प्रश्रय मिलता है तो फिर यह निश्चित है कि उस देश के घरेलु वातावरण में और सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक नीतियों में कहीं न कहीं कोई ऐसी गड़बड़ी जरुर है जो नागरिकों के समूहों को व्यथित और बेचैन किये है। यह आतंरिक और बाह्य दोनों तरह के आतंकवाद पर समान रूप से लागू होता है। आज आधा भारत घरेलु आतंकवाद से ग्रस्त है। जिसके लिए देश में आजादी के बाद से लेकर अभी तक अपनाई गईं सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नीतियाँ जिम्मेदार हैं, जिनके चलते देश के संसाधनों पर कुछ लोगों का कब्जा होते गया और एक आर्थिक आतंकवाद जनता के उपर थोपा गया और अब हम उसका प्रतिकार माओवाद और नक्सलवाद के रूप में देख रहे हैं। इस आतंकवाद में हम कुछ लोगों के द्वारा थोपा जा रहा साम्प्रदायिक आतंकवाद और फिर उसका प्रतिकार भी जोड़ लें तो आज पूरा भारत आतंकवाद की चपेट में है और इसके लिए शासक राजनीति ही जिम्मेदार है। प्रधानमंत्री की ही भाषा में कहें तो देश में चल रहे इस छद्म युद्ध के लिए तो शासक दल होने के नाते स्वयं सरकार और प्रधानमंत्री ही जिम्मेदार हैं।      

युद्ध को किसी भी समस्या का विकल्प नहीं मानने वाले शांतिकामी लोगों ने महसूस किया कि अभी हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भी चुनाव प्रचार के दौरान सेना को असंतुष्ट करने वाले और पड़ौसी देशों को सैन्य रूप से धमकाने वाले वक्तव्यों का प्रयोग बहुतायत में किया गया। एक बात है जो हमेशा याद रखनी होगी कि युद्ध 'छद्म' हो या 'युद्ध' ही हो, इसकी देशवासियों और विशेषकर देश के किसानों और कामगारों को भारी कीमत चुकानी होती है| यह कीमत बढ़े हुए टेक्स, महंगाई के रूप में ही नहीं होती, नागरिक होने के तमाम अधिकार खोने और कारपोरेट तथा मंझोले और बड़े व्यापारियों के द्वारा की जाने वाली लूट के रूप में भी होती है| युद्ध में जानें गवाने वाले सिपाही हमारे अपने ही होते हैं और उनके रिश्तेदारों और बाल-बच्चों की अपार पीड़ा भी हमारी ही होती है| 

यह आज की सच्चाई है कि भारत ने अपने सभी पड़ौसी देशों के मध्य अपनी रणनीतिक हैसियत खोई है| यह भारत का गुटनिरपेक्ष नीति से भटकाव का ही परिणाम है कि भारत अपने पड़ौसी देशों के नेता होने के रुआब को भी खोता गया है। विडंबना यह है कि एनडीए के बाद आई कांग्रेस ने भी गुटनिरपेक्ष नीति को पुष्ट करने के बजाय अमेरिका के पिछलग्गू होने की नीतियों को ही बढ़ावा दिया, जिसका परिणाम लम्बे समय में देश की आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ सकता है। बेहतर हो कि प्रधानमंत्री युद्ध की भाषा का उपयोग करने के बजाय इस बात पर ध्यान लगाएं कि देश के विभाजन ने समाज में धर्म, पंथ, समुदायों के बीच घृणा, हिंसा, पृथकता और साम्प्रदायिकता के बीज बोये हैं और देश में कुछ ताकते हैं जो उसे कम करने के बजाय पुष्ट करने में लगी हैं, उन पर कैसे रोक लगे और देश में भाईचारे और समन्वय के बीज पड़ें ताकि किसी भी प्रकार के आतंकवाद को देश में प्रश्रय नहीं मिले।

अरुण कान्त शुक्ला
14 अगस्त, 2014

Tuesday, August 5, 2014

"खून पसीने की मिलेगी तो खाएंगे..नहीं तो यारो भूखे ही सो जाएंगे"



"खून पसीने की मिलेगी तो खाएंगे..नहीं तो यारो भूखे ही सो जाएंगे"

भारत की एक गुलाम देश के रूप में पहचान कायम रखने के लिए ही तो जाते हो कामनवेल्थ में खेलने के लिए..

ये तो अटल जी की राष्ट्रवादी सरकार से ज्यादा राष्ट्रवादी सरकार है..क्यों भेजा भारत से लोगों को खेलने के लिए ..अब तो ईटली वाली की सरकार नहीं है..शुद्ध साबरमती के जल की धुली सरकार है..इसे तो रोकना चाहिए था..

गोरों के देश में जाओगे और वो आपके साथ कोई नस्लवादी हरकत न करें ..ऐसा हो ही नहीं सकता..
वो जब आते हैं तो यहाँ होटल के कमरे में बैठकर गंगाजल पीते है और बाईबिल पढ़ते हैं..नहीं..पर यहाँ सब चलता है..

क्यों..क्योंकि उन्हें मालूम है कि भारत आजाद हो गया तो क्या हुआ..भारत में सरकारें तो आज भी उन्हीं के गुलाम चला रहे हैं..फर्क क्या आया है..पहले हम देशवासी अंग्रेजों के गुलाम थे..अब अंग्रेजों के गुलामों के गुलाम हैं.. आजादी तो भारत के उन लोगों को मिली है..जो बिलकुल अंग्रेजों के ही अंदाज में देश और देशवासियों की संपत्ति को लूट सकते हैं..
तो जो लूट रहे हैं..आजाद हैं..लुट रहे हैं..गुलाम हैं..वो भी गुलामों के गुलाम..    

पहले पूरी दुनिया में डिंडोरा पीट दिए कि भारतीय जहां जाते हैं..ऐसी ही हरकत करते हैं और अब कह रहे हैं कि पोलिस को उनके खिलाफ सबूत नहीं मिले..

इन गोरों को कौन समझाये कि..(धर्मेन्द्र की गालियां देने का मन होता है..)..हर साल जब आईपीएल होता है तो सबसे ज्यादा गोरी नचनियां तुम लोगों के कुनबों से ही आती हैं..और तुम हमको मॉरल सिखाओगे..

अब तो देश में 56 इंच के सरकार है..इसके पहले वाली याने अटल जी वाली के पास तो राष्ट्रवादी बनने के लिए पूरा बहुमत नहीं था..

अब तो है..यही मौक़ा है..सरकार जी बोल दो..नहीं भेजेंगे अब कामनवेल्थ वामनवेल्थ किसी को..न ब्रिटेन जायेंगे..न यूरोप जायेंगे और न ही यूएसए जायेंगे..न अपना पैसा देंगे..और न आपका पैसा लेंगे..उनको भी बता दो और देशवासियों को भी बता दो..
"
खून पसीने की मिलेगी तो खाएंगे..नहीं तो यारो भूखे ही सो जाएंगे"

ये जासूसी फासूसी पर घुड़की फुड़की क्या होती है..अपने ही किसी पत्रकार से प्रश्न करवा कर बोल देने से कोई घुड़की होती है क्या..

अरे वो ठहरे व्यापारी देश..एकदम बिजनेस माईंडेड..आप तो कह दो हमको नहीं चाहिए एफडीआई फेफडीआई..न डिफेन्स में..न इंश्योरेंस में और न बैंक में..और अटल जी ने जो बुलवा ली थी..इंश्योरेंस में..सिगल ब्रांड में...वो थोड़ा कम राष्ट्रवादिता का मामला था..हम पूरे 56 इंची राष्ट्रवादी हैं..अब आप अपनी पूरी पोरी एफडीआई समेटो और यूके, यूरोप और यूएएसए अपनी मंदी को खुद संभालो..

अरे आप काहे को उनका पाप ढोयें..एक तो वे हमारे देश के बड़े बड़े लोगों की बचत चुरा कर ले जाते हैं और ऊपर से सबको कहते फिरते हैं..भारत में सबसे ज्यादा गरीब बसते हैं..सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे भारत में हैं..महिलाएं सबसे ज्यादा भारत में कुपोषित हैं..

अरे एक तो आप ये एफडीआई वगैरह से कमाई करवा कर उनके घर भरने का इंतजाम करते हैं..उसके लिए आपको हमें और हमारे लोगों को तकलीफें देकर कितना मानसिक कष्ट उठाना पड़ता है .उसका अहसान मानना तो दूर..आपकी ही कमियाँ निकालते रहते हैं..ज़रा जोर से डपट दीजिये..फिर देखिये कमाल..

इधर की चिंता मत कीजिये..अभी देश के लोग आपके लिए पागल हैं..एकदम..जैसे बहुत समय पहले इंदिरा जी के लिए हुए थे..राजीव के लिए हुए थे..एक समय अन्ना के लिए थे..फिर केजरीवाल के लिए थे..या फिर गणेश जी को दूध पिलाने के लिए हो जाते हैं..या रामदेव बाबा के लिए ..या आशाराम बापू के लिए रहते हैं..ठीक वैसे ही आज आपके लिए हैं..और सब अभी आपकी मुठ्ठी में हैं..अकबर से लेकर बीरबल तक सारे पत्रकार भी अभी आपकी जेब सॉरी मुठ्ठी में ही हैं..बस रास्ता एकदम साफ़ है..आप कहेंगे तो देश के लोग सप्ताह में एक दो दिन भूखे भी रह लेंगे..अब सप्ताह में दो दिन उपवास/वृत तो रखना ही चाहिए न..

सरकार जी पहली बार कोई राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री बना है..बहुत उम्मीद है..करके दिखाईये  न..कल लोकसभा में खड़े होकर कह दीजिये कोई एफ़डीआई नहीं चाहिए..और आगे से कोई कामनवेल्थ नहीं..
ये महंगाई फहंगाई की आप बिलकुल चिंता मत करिए..टमाटर मंहगा हो गया..कुछ दिन नहीं खायेंगे..प्याज महंगी हो जायेगी..उसे भी कुछ दिन नहीं खायेंगे..गेहूं,दाल,चावल कुछ भी महंगा हो जाए..कुछ दिन नहीं खायेंगे तो सबके होश ठिकाने आ जायेंगे..नहीं चाहिए कलर टीव्ही..ब्लेक से काम चलेगा..क्या केवल कालाबाजारी, जमाखोर और लुटेरे ही ब्लेक से काम चलाते हैं..हम भी चला सकते हैं..बस आप हमारे पाले से खेलो जी..
माँ कसम एक बार हो जाए पूरा राष्ट्रवाद वर्सेज लूटवाद.. आप तो कल दूरदर्शन पर आओ जी..और कह दो सबसे..
“न एफडीआई के लिए हाथ जोड़ेंगे..न कामनवेल्थ जायेंगे..                 
खून पसीने की मिलेगी तो खाएंगे..नहीं तो यारो भूखे ही सो जाएंगे"

अरुण कान्त शुक्ला
5 जुलाई, 2014