Wednesday, June 23, 2010

Jangadna men Jaati unmoolen

जनगणना और जाति उन्मूलन
इस सचाई के बावजूद कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में 'गरीबी मिटाना' और 'जाति मिटाना' दो
प्रमुख उत्प्रेरक तत्व रहे हैं,जनगणना में जाति की पहचान के प्रश्न को राष्ट्रीय एकता की भावुक नजरों से देखना गलत होगा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तथा स्वतंत्र भारत के 63 वर्षों के दौरान भी , जातियता के उपर किये गये कड़ॆ प्रहारों के बावजूद , आज भी यदि भारतीय समाज की संरचना को समझना है तो जातीयता के प्रश्न से गुजरना ही होगा विडम्बना यह है कि जाति उन्मूलन पर बहस शुरु होते ही उच्च जाति से लेकर निचली जाति तक के सभी नुमांइदों का व्यवहार पाखंडी हो जाता है अधिकांश बुध्दिजीवी , राजनीतिज्ञ , स्तम्भकार , अखबारोंतथा चैनलों के सम्पादक जातियता के खिलाफ तरकश लेकर खड़े हो जाते हैं , जैसा कि अभी जनगणना में जातिकी गणना के सवाल को लेकर हो रहा है पर , जाति व्यवस्था से इस कदर नफरत करने वालों में से उंगलियों पर गिने जा सकने लायक कुछ ही होंगे , जिन्होनें अपने जाति सूचक कुलनाम या उपनाम छोड़े हैं , जिससे पता चले कि वे अपने प्रयासों में गम्भीर हैं यह काम स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भी नहीं किया गया , जब जाति व्यवस्था पर सबसे कड़े प्रहार हो रहे थे यहां तक कि गांधी और आम्बेडकर , दोनों ने भी अपना उपनाम
नहीं छोड़ा , जो हरिजनों और दलितों के उपर होने वाले उत्पीड़न , शोषण के खिलाफ संघर्ष के अग्रणी नेता थे
यह सब बताने का अर्थ कतई जाति व्यवस्था की तरफदारी करना नहीं है , बल्कि यह बताना है कि जाति व्यवस्थाकी जड़ें भारतीय समाज में बहुत गहरी हैं और इसे 'मेरी जाति हिन्दुस्तानी' या 'पीपलस आफ इंडिया' जैसे आदर्शवादी नारों या भावनाओं से समाप्त नहीं किया जा सकता है
जनगणना में जाति गणना पर बहस-
यह स्वागत योग्य है कि भारतीय लोकतंत्र स्वतंत्रता के 63 वर्ष के पश्चात आज सामाजिक विडम्बनाओं ,
उनके निराकरणों तथा आदर्श समाज के गठन जैसे गम्भीर प्रश्नों पर बहस में जुटा है यही कारण है कि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के सवाल पर बरसों लम्बी बहसें होती हैं और उसे लागू करने के सवाल पर अभी भीजद्दोजहद बाकी है यही स्थिति जनगणना में जाति की गणना को लेकर है किसी भी बहस में जाने से पहले अपनेअनुभवों को टटोल लेना अच्छा होता है आजाद भारत में जाति के आधार पर जनसंख्या का आंकलन jaatiव्यवस्था को मिटाने की पूर्ण सदभावना के साथ छोड़ दिया गया था समस्त सरकारी अभिलेखों , रजिस्टरों औरआवेदन प्रपत्रों से जाति का उल्लेख करने वाली प्रविष्टियां हटा दी गईं थीं जैसा कि मैने पूर्व में कहा है , भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का एक प्रमुख उत्प्रेरक घटक 'जाति व्यवस्था मिटाना ' था , अत: स्वाभाविक रुप से स्वतंत्र भारत का भी एक प्रमुख उद्देश्य इस सामाजिक बुराई को समाप्त करना बना किंतु, क्या पिछले 63 वर्षों में जाति व्यवस्था
समाप्त हो पाई ? इसके ठीक उलट ,आज अनेक समुदाय स्वयं को निचली जातियों अथवा आदिवासियों में शामिलकराने के लिये हिंसक आन्दोलन कर रहें हैं , ताकि उनको जाति आधारित आरक्षण का अधिकतम लाभ मिलसके इसी का नतीजा है कि तमिलनाडु में आरक्षण सत्तर प्रतिशत तक पहुंच गया है यद्यपि , उच्चतम न्यायलय ने इसे पचास प्रतिशत तक सीमित रखा है
बात केवल सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण प्रदान करने की नहीं है
स्वतंत्रता पश्चात अभी तक हुए समस्त लोकसभा , विधानसभा , स्थानीय निकायों व पंचायतों तक के चुनावों में जातियता का घनघोर (दुर)उपयोग समस्त राजनैतिक दल करते रहे हैं यहाँ तक कि वामपंथी राजनैतिक दल भी उम्मीदवार खड़ा करते समय जाति समीकरण पर अवश्य ध्यान देते हैं देश में पिछले 40 वर्षों में ऐसे अनेकराजनैतिक दलों का प्रादुर्भाव हुआ है ,,जिनके गठन का आधार ही जातियता और क्षेत्रियता है लालू, मुलायम, शरद,रामविलास पासवान, ममता, मायावती, करुणानिधि, जयललिता,चंद्रा बाबू, ठाकरे परिवार ऐसे ही राजनैतिक दलोंका प्रतिनिधित्व करते हैं ये सभी दल कांग्रेस या बीजेपी के साथ गठबंधन करके या स्वयं का अलग मोर्चाबनाकर अखिल भारतीय राजनीति का हिस्सा भी हैं इनमें अनेक ऐसे हैं , जिनका अन्य पिछड़ी जातियों मेंठोस आधार है इनका तर्क है कि जनगणना में जाति-आधारित गणना नहीं होने से पिछड़ी जातियों की संख्या ,उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का सही मूल्यांकन नहीं होता है , जिसके कारण केंद्रीय स्तर पर बनाई जाने वाली योजनाओं में उन्हें उचित प्रतिभाग नहीं मिलता है उनका तर्क एकदम खारिज नहीं किया जा सकता
यह दलील भी बेमानी है कि व्यवस्थाजन्य आर्थिक शोषण पूरी जनसंख्या पर समान रुप से असर डालता है भारत में एक व्यक्ति पैदा होते ही समर्थ या दीन घोषित हो जाता है जिस जाति में वह पैदा होता है , वह जातिउसे पैदा होते ही कुलीन , पिछड़ा या दलित बना देती है , साथ ही इसका निर्णय कर देती है कि वह क्या कामकरेगा और किस समूह में उसका विवाह होगा एक बार पेशा और सामाजिक स्थिति निर्धारित होने के बाद देश के सामाजिक और आर्थिक विकास का हिस्सा भी उसे उसी अनुपात में प्राप्त होता है इसलिये , जरुरी है , उस जड़ पर प्रहार करना , जिसके हित जातीय व्यवस्था में सुरक्षित हैं
जाति -गणना नया विचार नहीं -
जनगणना में अन्य पिछड़ी जातियों की गणना और उनके पिछड़ेपन को आंकने के लिये जाति को
आधार बनाने का विचार नया नहीं है इ पी डब्लयू रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक कनकसबापथी के अनुसार जनगणना में जाति की गणना को छोड़ देने के पश्चात भी 1955 में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग ने सिफारिश की थी कि 1961 की जनगणना में जनसंख्या की गणना जाति के आधार पर की जाये तथा पिछड़ापन निश्चित करने के लिये " जाति का मानक " रखा जाये आयोग ने पिछड़ी जातियों के रुप में 2399 जातियों की सूची भी तैयारकी थी , जिसमें से 837 जातियों का वर्गीकरण " अत्याधिक पिछड़ी " के रुप में किया गया था इस रिपोर्ट को उस समय इस डर से दाखिल दफ्तर कर दिया गया था कि पिछड़ी जातियों की बहुलता होने से सही या योग्य जरुरतमन्दों की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया जा सकेगा इसके पश्चात द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने ब्रिटिश राज में 1931 में हुई अंतिम जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाकर आंकलन पेश किया कि कुलजनसंख्या का 54 प्रतिशत ( दलित और आदिवासियों को हटाकर ) हिस्सा पिछड़ी जातियों और समुदायों का है आयोग ने 3743 जातियों और समुदायों की पहचान पिछड़े के रुप में की थी
जाति गणना पर आपत्तियां -
वह चाहे ' मेरी जाति हिंदुस्तानी ' आंदोलन हो , जिसके संयोजक वैद प्रताप वैदिक हैं और जिसमें
सोमनाथ चटर्जी , बलराम जाखड़ , राम जेठमलानी , पूर्व केंद्रीय मंत्री आरीफ खान से लेकर नृत्यांगना सोनल मानसिंह और उमा शर्मा हैं या अखबारों तथा चैनलों के संपादक , स्तंभकार और बुद्धिजीवी , सभी का सोचना है कि जनगणना मेंजाति की गणना के समावेश से देश पुन: पुराने जातीय दलदल वाले युग में पहुंच जायेगा कमोबेश , इन सभी का कहना है कि केंद्र सरकार अपने अस्तित्व को बचाये रखने के संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थ के चलते यादवी त्रिमूर्ति के समक्ष समर्पण कर रही है गरीबी केवल पिछड़ों तक सीमित नहीं है एक ऐसे देश में जहाँ की आबादी के 40 प्रतिशत लोग एक डालर प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं , सभी राजनैतिक दलों का संयुक्त प्रयास होना चाहिये कि लोगों की दारुण आर्थिक अवस्था को सुधारा जाये इनका यह भी कहना है कि वक्त आ गया है जब आरक्षण का आधार बद्लकर जाति के बजाय गरीबी किया जाये आरक्षण का आधार जाति नहीं बल्कि एक व्यक्ति कितना कमाता है , यह हो
जाति गणना का सकारात्मक पक्ष -
प्रश्न यह है कि जनगणना में सिर्फ पिछड़ी जातियों को ही क्यों छोड़ दिया जाये ? जनगणना में सभी धर्मों ,एस सी / एस टी की पहचान की जाती है चाहे जो भी कारण हो पर अन्य पिछड़ी जातियों को जानबूझकर छोड़दिया जाता है जब पिछड़ी जातियों को आरक्षण देना स्वीकार किया ही गया है , तो वह 1931 की जनगणना के आधार पर क्यों दिया जाये ? जनगणना में सेक्स , आयु , धर्म , व्यवसाय , उपार्जन , गतिविधि , शिक्षा , भाषा ,एस सी / एस टी से संबंधित अनेक जनसांख्यिकीय आंकड़े एकत्रित होते हैं , जो समाज के अन्दर व्याप्त विसंगतियों ,परिवर्तनों , विकास और अवरोहों की पहचान कराते हैं जनगणना के जरिये प्राप्त वास्तविक आंकड़े हमें बता सकते हैं कि कितनी जातियां अभी तक आर्थिक और सामाजिक रुप से वास्तव में कितनी पिछड़ी हैं तथा शिक्षा , व्यवसाय और आधारभूत संरचना के उपभोग के मामले में जातियों के मध्य का अंतर और भेदभाव कितना है जनगणना में जाति
को शामिल करके सरकार को भविष्य की योजनाएं बनाने की दिशा मिलेगी और भारतीय समाज की सही तस्वीर हमारे सामने होगी इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिक तत्व जो मौका मिलते ही समाज में धर्म , जाति और सम्प्रदाय के नाम पर भ्रांति और तनाव फैलाते हैं , हतोत्साहित होंगे यह तो तय है कि जनगणा में जाति को शामिल नहीं करके एक अवास्तविक आदर्श्वादी स्थिति जरुर बनाई जा सकती है , पर जाति व्यवस्था का उन्मूलन नहीं किया जा सकता
तो , क्या जाति व्यवस्था का उन्मूलन कभी सम्भव ही नहीं है ? क्या जाति व्यवस्था थोड़े बहुत
फेरबदल के साथ यूं ही बनी रहेगी ? इसी तरह के सभी प्रश्नों का जबाब एक बड़े नहीं में दिया जा सकता है आज जिस विकसित औद्योगिक समाज में हम रह रहे हैं , उसमें जाति व्यवस्था के लिये कोई स्थान नहीं है पर , भारत ही नहीं जाति का उभार एक या दूसरे रुप में पूरी दुनिया का सरदर्द आज बना हुआ है इसका कारण है कि विश्व पूंजीवाद ने , पूंजीवाद के जन्म के साथ ही समाज में पैदा हुई वर्गीय ताकत को तोड़ने के लिये जिन सामंती तौर तरीकों के साथ समझौता किया , जाति व्यवस्था के साथ समझौता उसी का हिस्सा है जाति व्यवस्था का समूल नाश न तो भारतीय लोकतंत्र के अकेले के बस की बात है और न ही कोरे आदर्शवादी नारों या भावनाओं से इसे समाप्त किया जा सकता है पूंजीवाद ने वर्गीय एकता और मजबूती को तोड़ने के लिये जाति व्यवस्था के साथ समझौता किया है , वर्गीय एकता को मजबूत बनाकर ही जाति व्यवस्था से छुटकारा मिल सकता है

Tuesday, June 8, 2010

BHOPAL GAS KAND KA SABAK

भोपाल गैस कांड का सबक
भोपाल गैस कांड में न्यायविद मोहन पी तिवारी ने कोई भी अनेपक्षित फैसला नहीं सुनाया है विश्व की सबसे बडी औद्योगिक त्रासदी के दोषियों को ढूंढने उन्हें सजा देने के लिये जिस मजबूत विधिक बुनियाद की जरुरत होती है ,उस बुनियाद को केंद्र सरकार एवं म.प्र.की राज्य सरकार के इशारों पर सीबीआई ने प्रारम्भ में ही कमजोर कर दिया था जिन्हें कानून का तनिक भी ज्ञान है , वे पहले से ही जानते थे कि अपराध दंड सहिंता की जिन धाराओं में यह मुकदमा चल रहा है , उनमें दो साल से ज्यादा की सजा किसी को नहीं होगी यूनियन कारबाईड के अमेरिकी चेयरमेन वारेन एंडर्सन को सजा की बात तो कोई सोच भी नहीं सकता था दरअसल , जब भोपाल गैस कांड जैसी त्रासदियां होती हैं , जिनमें 15000 से ज्यादा लोग मारे जायें और पाँच लाख से ज्यादा लोग उसी समय प्रभावित हों तथा बाद की तीन पीडियां अभी तक उस त्रासदी के दंश को भोग रही हों , तब दोषियों को सजा मिलने से भी ज्यादा अहं होता है , लोगों को फौरी और दीर्घकालीन राहत का पर्याप्त बन्दोबस्त ताकि उन्हे महसूस हो कि राज्य व्यवस्था और न्यायपालिका उनके साथ है दुर्भाग्य से भोपाल गैस कांड के हजारों लाखों पीडितों के साथ इसके ठीक उलट हुआ और केंद्र तथा म.प्र.की सरकारों ने पीडितों का साथ देने के बजाय दोषी बहुराष्ट्रीय कंपनी का साथ दिया मैं 26 वर्ष तक चले इस मुकदमे के विवरण और इस दौरान घटी घटनाओं के क्रमिक विवरण में नहीं जा रहा हूँ क्योंकि उनका उल्लेख अनेकों बार अनेक तरह से हो चुका है मैं जिस बात पर जोर दे रहा हूँ , वह यह है , कि यूनियन कारबाईड के भोपाल कारखाने में मिथाईल आईसोसाइनेट नामक जहरीली गैस रिसने की घटना भले ही 26 वर्ष पूर्व हुई हो , पर इन 26 वर्षों में बीस वर्ष वे भी हैं , जिनके दौरान केंद्र में एक के बाद एक आई सरकारों ने न केवल भारत के आर्थिक तथा औद्योगिक जगत के दरवाजे ढेरों भीमकाय विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये खोले हैं , बल्कि अमरीका के साथ ऐसे अनेक समझौते कृषि , उद्योग , व्यापार और सामरिक क्षेत्रों में किये हैं ,जो विशुद्ध रुप से अमरिका और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों को ही ज्यादा साधते दिखते हैं पर ,किसी भी सरकार ने एक बार भी भोपाल गैस त्रासदी के लिये जिम्मेदार यूनियन कारबाईड की आर्थिक जिम्मेदारी तय कराने के मामले को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता से उठाने की ज्ररुरत तक नहीं समझी वारेन एंडर्सन ,यूनियन कारबाईड के अमरिकी चेयरमेन के साथ केंद्र और म.प्र.सरकार का बर्ताव बडी नरमी का था , जबकि भारत में तकनीकि रुप से खराब मशीनें भेजने , प्लांट के रखरखाव और सुरक्षा सावधानियों की अनदेखी करने के लिये वही प्रमुख रुप से जिम्मेदार था उसे 7दिसम्बर,1984 को गिरफ्तार करने के पहले ही बता दिया गया था कि गिरफ्तारी नाटक है और उसे तुरंत जमानत पर छोड दिया जायेगा ऐसा किया भी गया जब भोपाल की अदालत ने लगातार कोर्ट में उपस्थित नहीं होने के कारण वारेन एंडर्सन को 1 फरवरी 1992 को भगोडा घोषित करके भारत सरकार से कहा कि वह अमेरिका से भारत लाने का प्रयास करे, तब अमेरिका के साथ प्रत्यार्पण संधि होने के बावजूद सरकार ने अमरिका और एंडर्सन को परेशान करना उचित नहीं समझा एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य कि गैस कांड त्रासदी के बाद पीडितों की तरफ से ढेरों मुकदमे दायर किये गये थे , जिन्हे मेनेज करना मुश्किल बताकर , सरकार ने एक कानून बनाया और खुद समस्त पीडितों की प्रतिनिधी बन गई तथा यूनियन कारबाईडसे 3.3 बिलियन $ डालर के कंपनसेशन की मांग की यूनियन कार्बाइड ने पहले 350 $ डालर देने की पेशकश की और अंतत: भारत सरकार ने न केवल 470$ डालर में समझौता कर लिया , बल्कि यूनियन कारबाईड को समस्त देनदारियों तथा आपराधिक मामलों से भी मुक्त कर दिया जनता की दुर्दशा और पीडाओं को ताक पर रखकर ऐसा समझौता करने वाली दुनिया में शायद ही कोई दूसरी सरकार हो
इस संक्षिप्त विवरण को देने का उद्देश्य यह था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा पश्चिमी देशों , विशेषकर अमरिका के प्रति भारत की केंद्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के रुख को हम अच्छी तरह समझ सकें भोपाल गैस त्रासदी के निष्कर्ष गम्भीर हैं पहला कि भारत की केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारें भीमकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने बेबस और निरीह नजर आती हैं दूसरा यह कि पीडित जनताके गरीब और तबके की कोई भी सुनवाई न तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है और न ही देशी सरकारें उनकी गुहार पर कोई कान देती हैं तीसरा कि किसी भी त्रासदी में समान रुप से पीडित होने के बावजूद संपन्न तबका अपनी पहुंच और प्रभाव के बल पर गरीब और वंचित तबके की तुलना में हमेशा बेहतर मुआवजा प्राप्त करता है
आज ,जबकि देश की सरकारें जनता के वंचित तबके के प्रति अपने उत्तरदायित्व से लगातार हाथ खींचते जा रही हैं , उपरोक्त तीनो तथ्य बहुत अधिक सामयिक हैं और जनता के लिये उनमें सबक है कि वह किस हद तक सरकारों पर भरोसा कर सकती है विशेषकर , जब , पिछले 26 वर्ष में से 11 वर्ष मनमोहनसिंह ही भारत में वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री रहे हैं यह भी गौर करने लायक है कि मनमोहनसिंह के वित्तमंत्री रहते हुए ही भारत सरकार के द्वारा मांगा गया 3.3 बिलियन $ डालर का मुआवजा 470 मिलियन $ डालर हो गया था किसी भी देश की सरकार का कर्तव्य है कि वह देशवासियों के हितों के अनुरुप व्यवहार अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से करे , किंतु रीगन और थेचर के सिखाये उदारवादी रास्ते पर चलकर तो यह होने से रहा अब मनमोहनसिंह एक ऐसा नाभकीय क्षतिपूर्ति विधेयक लागू कराना चाहते हैं , जिसमें सारी जिम्मेदारी वह अपने और भारतीय आपरेटर के सिर ले रहे हैं याने यूनियन कारबाईड से तो मुआवजा मांगने की जहमत उठानी पडी थी , अब वे उससे स्वयं को तथा विदेशी रिएक्टर आपूर्तिकर्ताओं पूरी तरह मुक्त करना चाहते हैं यहाँ तक कि कोई विदेशी रिएक्टर आपूर्तिकर्ता यदि दोषपूर्ण और घटिया उपकरणों की सप्लाई भी करता है , तब भी उस पर कोई कानूनी देनदारी या जिम्मेदारी नहीं होगी जनहानी , पर्यावरण और अन्य सभी तरह के नुकसानों के लिये वो केवल 30 करोड यूएस डालर (2142.85 करोड रुपये) का प्रबंध कर रहे हैं अमरिका में वहां का कानून प्राईस-एंडर्सन एक्ट 10 अरब डालर ( 45000 करोड रुपये से ज्यादा ) , याने भारत से 23 गुणा ज्यादा ,की जिम्मेदारी तय करता है मनमोहनसिंह का अमरिकावाद केवल भारत के संपन्नों के लिये है , आमजनों के लिये नहीं
जिन्हें सजा सुनाई गयी , वे मोहरे हैं अदालत ने एक शब्द भी वारेन एंडर्सन के लिये नहीं कहा जैसी की न्याय व्यवस्था है , जिन्हे सजा सुनाई गई , उन्हें तुरंत जमानत भी मिल गई अपील होगी , अपील के बाद क्या होगा , फिलहाल कोई नहीं बता सकता फैसले से पीडित तबका छला गया है और नाखुश है यूनियन कारबाईड पर किया गया पाँच लाख का जुर्माना पूरी दुनिया में भारत की उस हैसियत की खिल्ली उडा रहा है , जिसका गुणगान करते मनमोहनसिंह और उदारीकरण के समर्थक थकते नहीं हैं सचाई यही है कि नाभकीय दुर्घटना की स्थिति में भारत सरकार बोझ नहीं उठा सकती जनता को दबाव बनाना होगा ताकि भारत सरकार नाभकीय क्षतिपूर्ति विधेयक में आमूलचूल परिवर्तन के लिये बाध्य हो
अरुण कांत शुक्ला

Friday, June 4, 2010

Pappoo fail ho hee nahin sakta

पप्पू फेल हो ही नहीं सकता -
फतहपुर के बिन्दकी कस्बे में किराने की दुकान चलाने वाले 67 वर्ष के जब्बार दसवीं की परीक्षा में पैंतालिसवीं बार फेल हुए सभी अखबार वालों ने उनकी लगन और हिम्मत की दाद दी ,वहां तक तो ठीक था , पर खबर का शीर्षक " ....और45वीं बार फेल हो गया पप्पू " देकर उनकी अच्छी खासी तौहीन की है जब धोनी फेल हुए तब किसी ने नहीं कहा कि पप्पू फेल हो गया जबकि धोनी क्रिकेट की परीक्षाओं में भी फेल हो रहे थे और कालेज की परीक्षाएं तो दे ही नहीं रहे थे वैसे धोनी भी पप्पू तो नहीं ही हैं , क्योंकि पप्पूओं के बारे में मेरा सारा अध्यन बताता है कि पप्पू कभी फेल हो ही नहीं सकता
वैसे बात जब्बार साहब की हो रही है जब्बार साहब की तुलना यदि आप किसी से कर सकते हैं तो श्रीलाल शुक्ल की 'रागदरबारी' के लंगड से कर सकते हैं लंगड ने प्रणकिया था कि बाबू को बिना रिश्व्त दिये कचहरी से 'नकल' लेकर रहेगा बिचारा लंगड कचहरी और बाबू के चक्कर लगाते लगाते मर गया मगर 'नकल' नहीं पा पाया और जब्बार साहब ने प्रण किया है कि बिना नकल किये दसवीं पास होकर रहेंगे और 45वीं बार फेल हो गये तो ,जब्बार साहब को कोई उपमा देना ही था तो लंगड कह देते , पप्पू क्यों कहा ? पप्पू कभी फेल हो ही नहीं सकता बिग बी ने भी जब पप्पू के पास होने पर केडबरी खाईं थी , तो उसमें खुशखबरी यही थी कि दुनिया के सारे पप्पूओ खुश हो जाओ , तुम कभी फेल हो ही नहीं सकते
आप खुद ही सोचिये न कि फेल हो गया तो पप्पू कैसा ! चलिये ,मेरे इस विश्वास के कुछ उदाहरण मैं ही आपको दिये देता हूँ ,तब आप भी मान जायेंगे कि पप्पू कभी फेल नहीं हो सकता और जब्बार साहब पप्पू नहीं हैं हमारे मोहल्ले में एक सहायक जिला शाला निरीक्षक रहा करते थे , अचानक एक सज्जन का आना जाना उनके घर बहुत बड गया मैने उन सज्जन के एक मित्र से पूछा , क्या बात है ,आजकल फलां सज्जन और उन अधिकारी की बहुत पट रही है उनके मित्र ने जबाब दिया , पट नहीं रही है , वो पप्पूगिरी कर रहा है उसका लडका इस साल पांचवी में है और , उक्त सज्जन का लडका , जिसका नम्बर क्लास के पहले दस बच्चों में भी नहीं लगता था , पूरे जिले में टाप किया एक पप्पू की नौकरी का सवाल था ,पर पप्पू टाईपिंग टेस्ट में फेल हो रहा था बस नेताजी ने दूसरे से टाईप कराकर टेस्ट पेपर ही बदलवा दिये , पर पप्पू को फेल नहीं होने दिया लोग कहतें हैं कि पप्पू ने कभी टाईपराईटर को हाथ नहीं लगाया अब पप्पू नेताजी की अनुकंपा से खुद बड़े नेता हैं और हाल में ही पत्रिका में खबर छपी कि पप्पू अब बडे हो गये हैं और उन्हें पुष्पराज कहा जाये तो , पप्पू कभी फेल नहीं हो सकता , क्योंकि फेल होने से नाक पप्पू की नहीं , उसकी कटती है , जिसका वो पप्पू होता है चूंकि , जब्बार साहब फेल हुए हैं और वो भी 45वीं बार ,तो वो तो पप्पू हो ही नहीं सकते आप उन्हें लंगड जरूर कह सकते हैं वैसे , हम सब , जो पप्पू नहीं हैं , लंगड ही तो हैं
04/06/2010 मेघनाद