Wednesday, March 21, 2012


टाला जा सकता था आदिवासियों से हुए टकराव को -

क्या 19 मार्च , सोमवार को विधानसभा पर प्रदर्शन करने जा रहे आदिवासियों पर विधानसभा से लगभग  10 किलोमीटर दूर हुए लाठीचार्ज को टाला जा सकता था ? यह प्रश्न सोमवार शाम से ही रायपुर के प्रबुद्ध जनों के मानस में रह रह कर उठ रहा है |

आंदोलन को कुचलने की पूर्व तैय्यारी थी –

सर्व आदिवासी समाज ने दस सूत्रीय मांगों को लेकर विधानसभा को घेरने की घोषणा काफी पहले से कर रखी थी और प्रशासन भी उनके नेताओं के साथ बात करने के साथ साथ आदिवासियों की रैली को विधानसभा पहुँचने के पूर्व ही रोकने के लिए सभी आवश्यक तैय्यारियाँ कर रहा था | इस तैय्यारी में आदिवासियों के नेताओं के साथ बात करके रैली को पहले ही खत्म करने के वायदे को लेने की कोशिश के साथ साथ आदिवासियों को राजधानी में प्रवेश करने के पहले ही रोकने के इंतजाम और रैली को प्रारम्भ होने के स्थल पर ही तितिर बितिर करने का इंतजाम भी था | पहले दो इंतजाम के असफल हो जाने के बाद पोलिस प्रशासन ने तीसरा रास्ता अपनाने का निर्णय लिया , जिसने फौरी तौर पर प्रदेश के कोने कोने से आये लगभग तीन हजार से ऊपर आदिवासियों को उत्तेजित किया |

क्यों नहीं निकालने दी रैली -

गोंडवाना समाज भवन , जहां एकत्रित होने के बाद आदिवासी रैली की शक्ल में विधानसभा पर प्रदर्शन के लिए कूच करने वाले थे , उस स्थल , सिद्धार्थ चौक के एकदम पास है , जहां पोलिस ने उन्हें रोका | यह जगह विधानसभा से लगभग दस किलोमीटर से ज्यादा दूर है और पूरा रायपुर शहर क्रास करने के बाद विधानसभा जाने का मुख्य मार्ग शुरू होता है | इसके पूर्व अनेकों ऐसे प्रदर्शन हुए हैं जो कहने के लिए विधानसभा पर किये गए कहलाये हैं , पर उन सभी रैलियों को पोलिस ने विधान सभा से तीन किलोमीटर पहले लोधी पारा चौक पर या उसके थोड़े आगे रोका था | फिर आदिवासियों की ही रैली को दस किलोमीटर पहले और वह भी रैली प्रारंभ होने की जगह पर रोकने का निर्णय क्यों लिया गया , यह समझ से परे है ? यदि रैली को लोधीपारा चौक तक जाने दिया जाता तो आदिवासियों के साथ हुए टकराव को टाला जा सकता था |

कहाँ गए बड़े नेता –

रैली की शक्ल में निकलने के पहले गोंडवाना समाज के भवन में हुई सभा को कांग्रेस विधायक कवासी लखमा , पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरविंद नेताम , विधायक हृदयराम राठिया , पूर्व मंत्री और गोंडवाना समाज के नेता मनोज मंडावी तथा पूर्व आईएएस बीपीएस  नेताम ने संबोधित किया था | जब रैली निकली तो इनमें से कोई भी रैली के साथ नहीं था |

रैली शांतिपूर्ण थी –

रैली शांतिपूर्ण थी और उसी इरादे से निकाली जा रही थी , इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि रैली में भारी संख्या में महिलाएं शामिल थीं , बल्कि वे अपने परंपरागत परिधानों में सजकर नृत्य करते हुए रैली में जाने की तैय्यारी से आईं थीं |

पानी की बौछार और अश्रु गैस से मची भगदड़ और उत्तेजना –

रैली में शामिल आदिवासियों को जब रैली प्रारम्भ होते ही रोका गया तो उन्होंने रास्ता बंद करने वाले बेरीकेड्स को हटाकर आगे बढ़ाने का प्रयास किया | पोलिस की तरफ से तुरंत पानी की बौछार के साथ साथ अश्रु गैस के गोले फेंके गए और  लाठियां लहरा कर उन्हें तितिर बितिर करने और रोकने का प्रयास हुआ , जिसके कारण पथराव हुआ और उत्तेजना फ़ैली | आदिवासियों में से कुछ के पास तीर कमान और छोटे कुल्हाड़े थे , जिसे जो भी उनकी संस्कृति को जानता है , उसे मालूम है कि वे साथ रखते हैं | कुछ पत्थरों के चलने से उत्तेजित पोलिस ने उसके बाद आदिवासियों को आसपास की गलियों में और घर में घुसे लोगों को घरों से निकाल के बेतहाशा लाठियां बरसाईं | 1600 से ज्यादा आदिवासी महिला , पुरुषों को गिरफ्तार किया गया और रायपुर सेन्ट्रल जेल में जगह न होने के चलते , उनमें से अनेक को दुर्ग जेल भेजा गया | चालीस के लगभग आदिवासी जख्मी हुए और  दो पोलिस अफसरों सहित करीब दर्जन भर पोलिस वालों को भी चोटें आईं |

आदिवासी फिर भी पहुंचे विधान सभा –

जब विधानसभा से दस किलोमीटर दूर पोलिस आदिवासियों पर बेरहमी से लाठियां बरसा रही थी , एक दिन पहले से विधानसभा के पीछे की तरफ लगभग तीन किलोमीटर दूर स्थित बरौदा गाँव में एक दिन पहले से आकर रुके हुए आदिवासी रैली की शक्ल में विधानसभा पर प्रदर्शन करने पहुंचे | यहाँ अपेक्षाकृत पोलिस बल कम होने के बावजूद उनको रोकने की जबरदस्त कोशिश की गयी और डंडे लहराकर पोलिस उनको भगाते रही | पर , ऐसा लग रहा था मानो वे विधानसभा को कम से कम छूकर ये बताना चाह रहे हों कि लोकतंत्र का ये मंदिर किसी की जागीर नहीं है | पोलिस लाख प्रयत्नों के बाद भी उन्हें विधानसभा की पिछली बाऊंड्रीवाल तक पहुँचने से नहीं रोक पायी |

क्या रैली पर लाठीचार्ज का निर्णय राजनैतिक था –

यह मानना अत्यंत मुश्किल है कि विधानसभा के चलते हुए पोलिस अपने मन से रैली के ऊपर लाठीचार्ज का निर्णय ली होगी | रैली को कई कांग्रेसी नेताओं के द्वारा संबोधित किये जाने के चलते , इसकी संभावना ही अधिक है कि रैली को विफल करने के लिए ही राजनीतिक रूप से बल प्रयोग की अनुमति पूर्व से ही पोलिस के पास होगी या उसे ऐसे निर्देश होंगे | वैसे भी प्रदेश में जितने भी आंदोलन अभी तक पिछले नौ वर्षों में हुए हैं , उनमें से अधिकाँश कुचले ही गए है | चाहे वे किसानों के हों या मजदूरों के या आदिवासियों के |

प्रदेश का प्रबुद्ध वर्ग हतप्रभ और नाराज –

आदिवासियों के ऊपर हुए इस क्रूर प्रहार से प्रदेश का प्रबुद्ध वर्ग हतप्रभ और नाराज है | लोगों का कहना है कि प्रदेश में आदिवासी किसी न किसी राजनैतिक दल के साथ जुड़े ही रहते हैं और उनकी सभा रैलियों में राजनैतिक नेताओं का संबोधन करना और शामिल होना स्वाभाविक प्रक्रिया का ही अंग है | प्रश्न उनकी मांगों का है , जिन्हें लेकर वे लंबे समय से आंदोलित हैं | वैसे भी उनकी जमीनों और जंगल पर लगातार ओद्योगिक घरानों के बेजा कब्जे होते जाने से भी वे व्यथित हैं | ऐसे में जब कहीं भी , कोई भी सुनवाई न होने की दशा में , उनके पास राजधानी आकर अपनी मांगो को आम लोगों के सामने रखने के अलावा चारा ही क्या रह जाता है | लोगों का यह भी कहना है कि विधानसभा में जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही जाते हैं | ऐसे में यदि जनता का एक हिस्सा विधानसभा के सामने जाकर प्रदर्शन करना चाहता है या सीधे विधानसभा पहुंचकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन देना चाहता है तो उन्हें रोकने की क्या जरुरत है ? क्या एक बार चुनाव में हिस्सेदारी करने के बाद मत डालने वाली जनता के लिए लोकतंत्र का यह मंदिर क्या ऐसी जगह बन जाता है , जहां वह जा नहीं सकती ? ऐसे बहुत से प्रश्न आज उठ रहे हैं | लोग सोशल साईट्स पर फोटो डालकर पोलिस की इस कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं | नगर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार गिरीश पंकज ने फेसबुक पर लिखा कि वे आदिवासियों पर किये गए बेरहम लाठी चार्ज से बहुत आहत हैं | उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए फेसबुक पर लिखा है कि रायपुर में आदिवासियों पर हुए पुलिसिया दमन से जो पीड़ा हुई, उससे अब तक नहीं उबर सका हूँ | हम लोग आदिवासियों को पीट रहे हैं और अपने को सही कह रहे  हैं ?  उनके हाथों में तीर-कमान, फरसे को देख कर विचलित हो रहे हैं ? गोया वे  हमारी जान लेने पर तुले थे ? अरे, ये तो उनके सहज श्रृंगार हैं | सदियों से रखते आये हैं और हमारी खूनी-व्यवस्था उसे हथियार बता कर धाराएँ लगा रही  है ? क्या आदिवासियों को अपने तरीके या परम्परा से जीने का हक़ ही  नहीं ?  ये कैसा लोकतंत्र है ?

अरुण कान्त शुक्ला
      

Tuesday, March 20, 2012

योजना आयोग की गरीबी और असमानता को छुपाने की बेईमान कोशिशें -


योजना आयोग की गरीबी और असमानता को छुपाने की बेईमान कोशिशें  -

योजना आयोग का गरीबों के बारे में  कैसा सोचना है , ये उसकी गरीबी रेखा के साथ बार बार खिलवाड़ करने से पता चलता है | अभी कुछ दिन ही हुए थे जब सर्वोच्च न्यायालय के सामने योजना आयोग  ने गरीबी रेखा में सुधार करते हुए कहा था  कि शहरी क्षेत्रों में 32 रुपये से कम और ग्रामीण क्षेत्र में 26 रुपये से कम कमाने वालों को गरीबी रेखा से नीचे याने गरीब माना जाएगा | तारीफ़ की बात यह है कि हाल ही में बजट पेश हुआ है और स्वयम सरकार ने माना है कि इस साल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) कम हुआ है और वह भी दो प्रतिशत के लगभग | इसका सीधा अर्थ हुआ कि लोगों की आय में भी कमी आई होगी याने जो पहले गरीबी रेखा से नीचे थे , उनके उपर उठने के पिछले नौ माह में तो कोई चांस नहीं हैं | लेकिन योजना आयोग को लगता है कि जून 2011से आज के मध्य में चीजें इतनी सस्ती हुई है कि अब शहर में 28.65 और ग्रामीण क्षेत्र में 22.42 रुपये कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं कहा जा सकता | आप सोच सकते हैं कि यह कमाल यूपीए की सरकार और उसका योजना आयोग ही कर सकता है | इस पर ये तुर्रा भी है  कि योजना आयोग के अनुसार यूपीए के प्रथम कार्यकाल के दौरान गरीबों की संख्या में बेहद कमी आई है | 2004-05 में जहां लगभग 40.72 करोड़ लोग गरीब थे , वो तादाद चार सालों याने  2009-10 में घटकर 34.47 करोड़ रह गयी है |


पूरे देश में जब भी  गरीबों की या लोगों की आय की बात होती है तो अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी के द्वारा पेश  की गयी रिपोर्ट का हवाला दिया जाता है जिसमें कहा गया था कि देश के लगभग  70%  प्रतिशत निवासी आज भी 20 रुपये से कम पर गुजारा करने को मजबूर हैं और ये सब गरीबी रेखा से कोसों नीचे हैं | पर , जनाब मंटोक सिंह एंड पार्टी ने फिर उसी तेंदुलकर कमेटी  के मापदंडों का उपयोग करते हुए ये आंकड़े तैयार किये हैं , जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने पहले आपत्ति उठाई थी और योजना आयोग को अपने आकलन में परिवर्तन करना पड़ा था | योजना आयोग का यह भी कहना है कि इन आंकड़ों में लोगों का स्वास्थ्य और शिक्षा पर किया गया खर्च भी शामिल हैं | याने शहर में एक व्यक्ति 28.65 रुपये में और गाँव में 22.42 रुपये में क्रमश: 2200  और 2400  केलोरी वाला भोजन करने के साथ साथ शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी खर्चा कर सकता है |

इससे पता चलता है कि योजना आयोग और उसके सदस्यों को देश और देश की जनता के बारे में कितनी कम और खोखली जानकारी है और देश के आम आवाम और योजना आयोग के बीच में कितनी बड़ी खाई है | अपनी आँखों को थोड़ा सा भी खुला रखने वाला व्यक्ति बता सकता है कि देश के जनगण का बहुसंख्यक हिस्सा अपनी अल्प आय में , इस बड़ी हुई महंगाई में किस तरह अपनी गुजर बसर कर रहा है , जो एसी कमरों में बैठकर आंकड़ों के साथ खिलवाड़ करने वाले योजना आयोग के सदस्यों को कभी दिखाई नहीं दे सकता | गरीबी की रेखा महज एक आंकड़ा नहीं होती , लोगों के जीवन के साथ और उनके अच्छे बुरे के साथ इन आंकड़ों की सीधा संबंध होता है | इससे अधिक शर्मनाक क्या होगा कि एक ऐसी संस्था , जिसका अध्यक्ष देश का प्रधानमंत्री हो , देश की जनसंख्या के बहुसंख्यक हिस्से को प्रभावित करने वाली नीति कि साथ ऐसा खिलवाड़ करे |

लोगों के जीवनस्तर को मापने वाले अनुमानों को इतने नीचे ले जाने के बाद भी योजना आयोग के लिए ये छिपाना संभव नहीं हो पाया कि हमारे देश की जनता का बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे ही गुजर बसर करता है | उत्तरप्रदेश , झारखंड , मध्यप्रदेश और उड़ीसा में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या यदि 37 से 39 प्रतिशत के बीच है तो बिहार , छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह 50 प्रतिशत है | देश के उत्तर पूर्व के राज्यों में एक लंबे समय से केन्द्र की सरकारों के खिलाफ असंतोष चला आ रहा है | योजना आयोग की रिपोर्ट कहती है कि इन राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है | यूपीए सरकार की समावेशी विकास के दावों की पोल इससे खुल जाती है और यूपीए के ऊपर लगने वाले ये आरोप प्रमाणित होते हैं कि उसकी उदारवादी नीतियों के परिणाम स्वरूप देश में अमीर और अमीर हो रहे हैं और गरीब और गरीब | इतना ही नहीं अमीर और गरीब के बीच की खाई भी दिन प्रतिदिन चौड़ी ही हो रही है |

बेहतर होता कि योजना आयोग गरीबी रेखा के आंकड़े तय करने के पहले हाल ही में हुई जनसंख्या गणना के दौरान जुटाए गए तथ्यों पर बारीकी से गौर कर लेता जिसमें विभिन्न पहलुओं के आधार पर देश में गरीबी की संख्या बताई गयी है | जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत के 24.6 करोड़ परिवारों में से केवल 29 प्रतिशत के घर कांक्रीट की छत वाले हैं | केवल 32 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनकी पहुँच सार्वजनिक निकायों (नलों) से पूर्ती होने वाले पानी तक है | केवल 47 प्रतिशत के घरों में शौचालय की व्यवस्था है | 49.8 प्रतिशत शौच के लिए खुले एकांत में जाते हैं | 49 प्रतिशत परिवार अभी भी पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी का ही इस्तेमाल करते हैं और 17 प्रतिशत गोबर के कंडों या खेती के अवशेष पर निर्भर करते हैं | 39 प्रतिशत घरों में किचिन जैसी कोई पृथक जगह नहीं है |

देश में गरीबी , वो चाहे शहर हों या गाँव या आदिवासी इलाके सभी ओर बिखरी पड़ी है | वो रेलवे स्टेशन , बस स्टेंड हो या किसी नुक्कड़ पर जमा कचरे का ढेर , गरीबी आपको दिख जायेगी | वो काम की तलाश में अपने घर गाँव को छोड़कर जाने वाले लोग हों या चावड़ी पर बैठे मजदूर , गरीबी को देखने कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है | वो जहरीली शराब से मरने वाले लोग हों या फिर रेलवे स्टेशन या बस स्टेंड पर साईकिल पंचर सुधारने का सालुशन चाटकर नशा करने वाले बच्चे , गरीबी हमारे आसपास ही है | बस , उसे देखने की नीयत होनी चाहिए और उसे दूर या कम से कम , कम करने की ईमानदारी भरी कोशिश करने की मंशा | अफसोस कि वो मंशा न तो सरकार में दिखाई देती है और न ही योजना आयोग की कसरत में | जो दिखाई दे रहा है , वह है , देश के अंदर बढ़ती हुई गरीबी और असमानता को छुपाने की बेईमान कोशिशें |

अरुण कान्त शुक्ला 

Saturday, March 17, 2012

बजट 2012-13 : धनवानों के लिए दयावान और निर्धनों के लिए क्रूर –


बजट 2012-13 : धनवानों के लिए दयावान और निर्धनों के लिए क्रूर –

जब शुक्रवार को संसद में वर्ष 2012-13 के लिए बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि वे क्रूर होना चाहते हैं , दयावान होने के लिए” , वे उस सचाई का बयान कर रहे थे , जिससे पिछले लगभग तीन दशकों से इस देश का ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया का कमाने खाने वाला तबका दो-चार हो रहा है | पिछले तीन दशकों से जिन आर्थिक नीतियों पर अमूमन दुनिया के सभी देशों की सरकारें चल रही हैं , वे अपने देशों के जनगण को कुछ देने की बजाय , उनसे छीनकर धनवानों को देने की नीतियां हैं | केवल प्रणव मुखर्जी ही नहीं , उनके पूर्व के सभी वित्तमंत्री भी निर्धनों के लिए क्रूर हुए हैं ताकि धनवानों के प्रति दयावान हो सकें | हेमलेट के कहे को प्रणव ने दोहराया जरुर पर वे उस उद्देश्य और भावना से कोसों दूर हैं , जिस उद्देश्य और भावना से हेमलेट के मुख से शेक्सपियर ने यह कहलवाया था |

प्रत्येक वर्ष बजट के पहले प्रचार के सारे साधनों का इस्तेमाल करते हुए आयकर में छूट दिए जाने का ऐसा प्रचार किया जाता है कि मानो देश की 70 करोड़ श्रमजीवी जमात के सामने आयकर ही सबसे बड़ी समस्या हो और दवा , कपड़ा , खाना , आवास , यातायात , और अन्य सामाजिक दायित्वों का निर्वाह जैसी जरूरी बातों का उसके जीवन में कोई महत्त्व ही न हो | भारत में लगभग तीन करोड़ तेंतीस लाख लोग आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं | इसमें 10 लाख रुपये से उपर की आमदनी वाले लगभग एक करोड़ सत्तर लाख लोग हैं | 6 लाख के लगभग वो हैं जिनकी आय फर्मों और व्यवसाय से आती है | इस बात को जाने भी दें कि 10 लाख से ऊपर की आमदनी वाला तबका वह है , जो पिछले दो दशकों में नवउदारवाद की कृपा से स्थापित हुए लूटतंत्र की नीतियों के चलते अनाप शनाप कमाई करके धनी बना है और  इसके पास टेक्स चोरी से कमाया काला धन घोषित आय से काफी ज्यादा है , तो भी आयकर में दी गयी 4500 करोड़ रुपये की छूट तो मात्र कुल जनसंख्या के तीन प्रतिशत हिस्से के पास ही जाना है | जबकि एक्साईज ड्यूटी , सेवाकर में की गयी दो प्रतिशत की वृद्धि के फलस्वरूप रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वालीं वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि का कोप तो उन्हें ही झेलना पडेगा , जिनकी आय दो लाख रुपये सालाना से काफी नीचे है | इसे ही कहते हैं निर्धनों के लिए क्रूर और धनवानों के लिए दयावान |

राजकोषीय घाटा एक और ऐसा क्षेत्र है , जिसे लेकर प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , योजना आयोग , इनसे जुड़े नवशास्त्रीय अर्थशास्त्री और उद्योगपति और उनका पिठ्ठू और पेड मीडिया सभी हमेशा शोर मचाते हैं | इनके निशाने पर हमेशा पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सबसीडी के साथ साथ , फर्टिलाईजर्स , किसानों को दी जाने वाली बिजली पर दी जाने वाली सबसीडी और मनरेगा , एनआरएचएम जैसी ग्रामीण क्षेत्रों के लिए चलने वाली योजनाएं तथा गरीबों को दिए जाने वाले खाद्यान्न पर दी जाने वाली सबसीडी होती है | वित्तमंत्री ने पेट्रोलियम पदार्थों की सबसीडी में 25000 करोड़ , फर्टिलाईजर्स पर 6000 करोड़ , मनरेगा में 7000 करोड़ रुपये कम करके उद्योग जगत और वैश्विक संगठनों को सन्देश दिया है कि उनका रास्ता सुधारों का ही है | हास्यास्पद यह है कि इसी सरकार ने वित्तीय वर्ष 2011-12 में 5.3 लाख करोड़ रुपये के राजस्व की छूट विभिन्न तरीकों से उद्योग घरानों को दी थी , जिसमें से 50 हजार करोड़ तो केवल करों में छूट के माध्यम से दिए गए थे |

इससे भी ज्यादा हास्यास्पद यह है कि राजस्व घाटे को लेकर रोने वाली यह सरकार टेक्स और महंगाई बढ़ाकर आम देशवासियों से उगाही करने में तो माहिर है लेकिन टेक्स नहीं पटाने वाले और टेक्स चोरी करने वाले उद्योग घरानों और धनवानों से टेक्स वसूलने में न केवल ढीली है बल्कि कहा जाए तो उसकी रुची ही नहीं है कि धनवानों और ओद्योगिक घरानों से टेक्स वसूला जाए | दिसंबर, 2011 में संसद में पेश की गयी केग की रिपोर्ट इसका प्रमाण है | रिपोर्ट में बताया गया कि सरकार 1.96 लाख करोड़ रुपये का टेक्स वसूल नहीं कर पायी थी , जिसमें सिर्फ 12 लोगों पर 1.65 लाख करोड़ (90%) टेक्स बकाया था | 28 कंपनियों पर 65,816.58 करोड़ रुपये का टेक्स बकाया था | मार्च , 2010 में आयकर विभाग को कुल 2.29 लाख करोड़ रुपये वसूलने बाकी थे | यह राशी सरकार के कुल प्रत्यक्ष वसूली के 54% के बराबर होती है | वर्ष 2012-13 का बजट 14,90,925 करोड़ रुपये का है , जिसमें सरकार को करों से 9,35,685 करोड़ रुपये ही प्राप्त होने का अनुमान है , याने सरकार को 5,13,590 करोड़ रुपये उधारी और अन्य रास्तों याने अगले वित्तीय वर्ष में फिर कीमतें बढ़ाकर जुटाने होंगे | केग के अनुसार टेक्स की राशी जो वसूली जानी है , वह 3,90,816 करोड़ होती है | यदि प्रणव मुखर्जी उसे वसूल लें तो आने वाले वर्ष में , जिस राजस्व घाटे को जीडीपी के 5.1% तक रखने के लिए वो रो रहे हैं , वो पूरा हो जाएगा | पर , ऐसा होगा क्या ? कभी नहीं , कालान्तर में इसमें से अधिकाँश सेटलमेंट में चला जाएगा या माफ कर दिया जाएगा या कंपनियां दिवालिया हो जायेंगी याने और कुछ भी हो जाएगा , पर ये बकाया टेक्स वसूल नहीं होगा , क्योंकि यह धनवानों पर बकाया है और प्रणव जिस दर्शन में विश्वास करते हैं , उसमें निर्धनों पर इसलिए क्रूर हुआ जाता है कि धनवानों पर दयावान हो सकें |
अरुण कान्त शुक्ला   

Tuesday, March 13, 2012

AUR KITANEE BAAR MAAFEE MAANGOGE OBAAMAA


और कितनी बार माफी मांगोगे , ओबामा –

और कितनी बार माफी मांगोगे , ओबामा ? पिछले एक माह में दो बार माफी मांग चुके हो | तुम्हारा देश तो किसी को माफ़ नहीं करता ! तुम तो किसी को माफ नहीं करते ! फिर , तुम्हें कोई क्यों माफ करे ?

अभी दो पखवाड़े पहले ही तो तुम्हारे सैनिकों ने कुरान को फाड़कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की थी | नाटो तुम गोरों का बनाया हुआ कसाई युद्ध संगठन है , जिसका उपयोग तुम दुनिया को धमकाकर अपने पाँव के अंगूठे के नीचे रखने के लिए करते हो | उसी बदनाम संगठन के अड्डे पर तुम्हारे देश के कायर सैनिकों ने आधी दुनिया में पवित्र मानी जाने वाली कुरान को फाड़ा था और तुम्हें माफी मांगनी पड़ी थी |

उसके कुछ पहले तुम्हारे सैनिक मरे हुए सैनिकों के शव पर पेशाब करते हुए पाए गए थे | मुझे याद नहीं कि तुमने माफी माँगी थी या नहीं | यदि माँगी भी होगी तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि तुम्हारे माफी माँगने से तुम्हारे देश के गोरों के क्रूर , कातिल और नस्लवादी और बेशर्म चरित्र में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला | उससे भी पहले ईराक के बंदी सैनिकों को बंदी गृहों में यातना देने की जो कायराना हरकतें तुम्हारे सैनिकों ने कीं थीं , तुमने उसके लिए भी तो माफी माँगी थी |

नस्लवादी जैसे कठोर शब्द का इस्तेमाल करने के लिए मुझे मजबूर होना पड़ा है | मैं तुम्हें बता दूं कि नस्लवाद से मैं उससे कई गुना ज्यादा नफरत करता हूँ , जितनी सनक तुम्हारे देश के गोरे में उसके लिए है | नस्लवाद के खिलाफ तुम लोगों का विरोध महज अपने नस्लवाद को छुपाने का हथकंडा है | तुम लोगों ने अपने अपने देशों में नस्लवाद के खिलाफ कड़े क़ानून बनाकर रखे हैं | पर , वे हम कालों के लिए हैं | वरना , आस्ट्रेलिया , इंगलेंड , फ्रांस , अमेरिका , केनेडा ऐसा कौन सा देश है जहां गोरी चमड़ी के लोग रहते हों और कालों पर हमला न हुआ हो |

अफगानिस्तान में मार्निंग वाक् पर निकले तुम्हारे सैनिक ने जिस निर्दयता से घरों में घुसकर महिलाओं और बच्चों सहित 16 लोगों को गोलियों से छलनी किया और फिर शवों को जला डाला , दुनिया के उन तमाम लोगों के मुंह पर जूता है जो अमेरिकी संस्कृति , तौर तरीकों , जीवन शैली के गुण गाते नहीं अघाते और तुम्हारे अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद , वो लोगों को ये समझा रहे थे कि अमरीकी गोरों की सोच में बदलाव आया है | यह घटना बताती है कि अमेरिका के गोरों की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया है बल्कि परिवर्तन तुम जैसे कालों की सोच में आया है और तुमने इन इंगलेंड से अमेरिका गए लुटेरों और बदमाशों के साथ सामंजस्य बिठा लिया है , जिन्होंने तुम्हारी पूर्वजों का आखेट किया था | इसीलिये , तुम अमेरिका के राष्ट्रपति बन पाए हो |

दुनिया में डेमोक्रेसी का झंडा उठाकर घूमने वाले ओबामा , क्या बताओगे कि तुम्हारा देश इस घटना को एक सप्ताह तक दबाये क्यों रखा रहा और उस सैनिक का नाम क्यों नहीं बता रहा , जिसने यह किया है ? तुम तो राष्ट्राध्यक्षों को सार्वजनिक रूप से अपराधी घोषित करके सार्वजनिक मौत देने वाले पारदर्शी हो , फिर उस सैनिक का नाम बताने में तुम्हें आपत्ति क्या है | क्यों नहीं , उस पर सार्वजनिक रूप से अंतरराष्ट्रीय आपराधिक अदालत में मुकदमा चलाते ? तुम ऐसा नहीं करोगे | क्योंकि तुम्हारा उसको सजा देने का कोई इरादा ही नहीं है | तुम गोरों की नज़रों में तुम्हारा खून खून है , हम कालों का खून पानी |

ओबामा तुम्हारे मुस्कराते और भोले भाले से दिखने वाले चेहरे के पीछे बुश बाप बेटों और ट्रूमन का चेहरा छिपा है , जिन्होंने ईराक को बर्बाद किया , जिसने हिरोशिमा पर बम गिराया | तुम्हारे देश में ऐसा क़ानून है कि ज़रा सा भी संदेह होने पर कि कोई अन्य देश तुम्हारे खिलाफ है , तुम उसके खिलाफ युद्ध छेड़ सकते हो | तुम खुद अपने देश के नागरिकों का वध कराने का अधिकार मांग रहे हो | तुम्हारा देश दुनिया में कलंक है | तुम्हारे देश की दुनिया को लूटने वाली और खून खराबे वाली नीतियां मानवता पर कलंक हैं | तुम कितनी भी माफी मांगो , तुम्हें कोई माफ नहीं करेगा | और हाँ , याद रखो , दुनिया का जनगण तुम्हारे खिलाफ होते जा रहा है | एक दिन इतिहास करवट लेगा और तब तुम्हारे एक एक अपराध का हिसाब किया जाएगा |
अरुण कान्त शुक्ला

Thursday, March 8, 2012

केवल सदिच्छा से “निदान” नहीं होता --


केवल सदिच्छा से निदान नहीं होता --

अंगरेजी में एक कहावत है , यदि इच्छाएं घोड़ा होतीं तो हर भिखारी घुड़सवार होता | मुझे यह कहावत इसलिए याद आई कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने मंगलवार याने होलिका दहन के ठीक एक दिन पहले एक ऐसी योजना निदान का शुभारंभ किया है , जो यदि सफल हो जाती है तो प्रदेश की जनता को मिलने वाली राहत की कोई सानी पूरे देश में नहीं होगी | निदान योजना के अंतर्गत राजधानी रायपुर समेत प्रदेश के दस नगर निगमों में पानी बिजली की शिकायत टोलफ्री नंबर 1100 पर की जा सकेगी और इन निकायों को 24 घंटों के अंदर उसका निराकराण करना होगा | रमण सिंह ने 1100 पर फोन करके कुकुरबेड़ा के इश्वरीचरण के घर की पानी की दिक्कत टोल फ्री नंबर पर नोट कराई | जब शिकायत दर्ज करने वाले आपरेटर ने मुख्यमंत्री से पूछा क्या आप संतुष्ट हैं तो मुख्यमंत्री ने कहा कि अभी से कैसे संतुष्ट हो जाएँ | जब आप शिकायत का निदान कर मुझे एसएमएस से सूचित करंगे तब मैं संतुष्ट हो जाऊंगा | ईश्वरीचरण निगम के दफ्तर में कई बार शिकायत कर चुके थे पर कोई सुनवाई नहीं हो रही थी | मुख्यमंत्री की शिकायत के बाद तो कुछ मिनटों के अंदर बिगड़ा पावर पम्प ठीक हो गया |


यही वो बिंदु है जब मुझे उपरोक्त अंग्रेजी की कहावत याद आई | केवल इच्छा मात्र होने से कोई घुड़सवार नहीं होता बल्कि उसके लिए घोड़े का होना भी जरूरी होता है | राजधानी में मैदानी हाल यह है कि निगम ने काल सेंटर तो खोल दिया मगर शिकायत दूर करने के लिए सामान और स्टाफ की किल्लत है | बिजली सप्लाई से जुड़ी दिक्कत आई तो निगम के स्टोर में सामान की समस्या है | यही हाल पाईप लाईनों के रखरखाव का है | सामान की कमी की वजह से आज भी यह काम समय पर नहीं हो पाता है | टेंकर है नहीं , ऐसी हालत में पानी की सप्लाई कैसे होगी | 24 घंटे में शिकायत का निदान कैसे किया जाएगा , यह सोच सोच कर अफसर और कर्मचारियों की नींद उड़ी जा रही है |


रमण सिंह देश के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्हें इस बात का श्रेय है कि उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली का कम्प्यूटराईजेशन करके ऐसी स्थिति का निर्माण किया है कि कम से कम उसके तहत होने वाले राशन के घोटालों पर लगभग निर्णायक रूप से रोक लग सकी है | यदि आज राज्य सरकार की दो रुपये किले में चावल बीपीएल से नीचे वालों को देने की , चना और नमक देने की योजनाएं राज्य में सफलता पूर्वक चल रहीं तो उसका श्रेय सार्वजनिक वितरण प्रणाली में किये गए सुधार को ही जाता है | पर , निदान याने प्रदेश की 23% आबादी , जो शहरों में रहती है , उसकी पानी , बिजली और सफाई की समस्याओं का निराकरण घर बैठे निकालने की योजना की सफलता का पूरा होना या न होना , केवल मुख्यमंत्री की सदिच्छा पर नहीं बल्कि मैदानी ढाँचे पर भी निर्भर करता है , जिसे मुख्यमंत्री की इस सदिच्छा को पूरा करना है |


ईश्वरीचरण के समान प्रदेश के नगर निगमों में सैकड़ों लोग रोज शिकायते लेकर पहुँचते हैं | उनमें से अनेक लोगों की दिक्कतें कभी दूर नहीं हो पाती हैं | सही परिस्थिति यह है कि निगमों के पास इन शिकायतों को त्वरित तौर पर निराकरण के लिए न तो पूरा स्टाफ है और न ही आवश्यक साजो सामान दो दशकों से ज्यादा हो गया , निगमों में ग्राऊंड स्टाफ की भरती कुछ मामलों को छोड़कर , लगभग बंद है |यह निर्णय सीधे सीधे दो दशक पहले स्वीकार कर ली गईं नवउदारवादी नीतियों से जुड़ा है , जिन्हें स्वायत संस्थाओं पर लादा गया और उनकी उन सेवाओं में सबसे अधिक कटौती की गयी , जिनका संबंध पानी , बिजली , सफाई जैसी आवश्यक सेवाओं से था | कहने की जरुरत नहीं कि इन सेवाओं में धीरे आ रही शासन की अनदेखी से छोटे मोटे आंदोलन हुए हों तो हुए हों , पर लोगों को भी उस गन्दगी और सेवाओं में कमी के साथ रहने की आदत सी पड़ गयी है | लोगों के सामने सेवाओं में कटौती के राज भी धीरे धीरे खुलते गए जब उहें मालूम पड़ा कि सफाई व्यवस्था को निजी क्षेत्र को सौंपने की बात हो रही है | पानी से संबंधित अनेक कार्यों को आज निजी क्षेत्र से ही कराया जा रहा है | विशेषकर गर्मी के मौसम में टेंकरों को हायर करने से लेकर अनेक कामों में प्राईवेट ठेकेदारों की बड़ी भूमिका रहती है | यह भी कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें निगम की शासकीय अधिकारियों सहित चुने हुए प्रतिनिधि तक लाभकारी होते हैं | निजीकरण का यह मुद्दा भी नवउदारवादी नीतियों से जुड़ा है | अब परिस्थिति यह है कि प्रदेश की सरकार भी उन्हीं उदारवादी नीतियों की अनुशरण करती है | याने कि स्वायत संस्थाओं में नई नियुक्तिया जो खाली जगहों पर हों , उसकी कोई संभावना नहीं और सेवाओं की पूरी जिम्मेदारी आने वाले कुछ समय में निजी क्षेत्र को चला जाएगी , जिस पर सरकारों या स्वायत संस्थाओं का कितना बस चलता है , हम जानते हैं | याने घोड़ा तैयार नहीं है | उधर निगमों की आर्थिक हालत भी खस्ता है | निगमों के पास समय पर अपने कर्मचारियों को वेतन देने का पैसा नहीं रहता है तो उपकरण और सामान खरीदने की बात तो दूर है | स्थिति यह कि ट्यूबलाईट , मर्करी बल्ब जैसे सामान खरीदने के लिए तक निगम में टेंडर बुलाये जाते हैं तो ठेकेदार पुराने बिलों का भुगतान नहीं होने की स्थिति में सप्लाई करने से मना कर देते हैं | जैसा कि मुख्यमंत्री चाहते हैं , 6 माह के बाद इसमें अन्य सेवाओं को भी जोड़ा जाएगा , तब स्थिति कितनी विकट होगी , सोचा जा सकता है |


यही कारण है कि मंगलवार को इस योजना का आरम्भ होने के तत्काल बाद रायपुर नगर निगम की महापौर श्रीमती किरणमयी नायक ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि निदान तभी सफल हो सकता है , जब निगमों के पास आधारभूत संरचना उपलब्ध हो | सही बात तो यह है कि निगम के पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं रहते हैं तो फिर बल्ब , फ्यूज , खम्भे , पाईप लाइन , वायरिंग कहाँ से खरीदेगा | राज्य शासन मद के हिसाब से पैसे दे रही है | निगम अपने हिसाब से कुछ खरीदी कर ही नहीं सकता है | उन्हें तो पक्का लगता है कि योजना चंद दिनों में ही विफल साबित हो जायेगी | निगम के अधिकारी और कर्मचारी भी इस योजना को लेकर चिंतित हैं | उनका कहना है कि उपकरण और सामान के अभाव में किसी की दिक्कत के समाधान न होने की दशा में जनाक्रोश और अधिक भड़कने की संभावना पैदा हो जाती है |


यदि रमनसिंह अपनी निदान योजना को कामयाब होते देखना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें इन निगमों को सिर्फ निदान के लिए अमला रिक्रूट करने और साजोसामान खरीदने के लिए वित्तीय मदद सुनिश्चित करनी होगी , तभी उनकी सदिच्छा परवान चढ़ सकेगी |
अरुण कान्त शुक्ला