Sunday, October 24, 2010

सी ज़ेड.आई.ई.ऐ. सम्मलेन और जनवाद – सम्मलेन अवैध है --


 

भोपाल में आज से सीजेडआईईऐ का त्रिवार्षिक सम्मलेन प्रारम्भ होने जा रहा है | मुझे तुरंत जबलपुर निकालना है , इसलिए सीधे सीधे बात को रख रहा हूँ | इसका विश्लेषण कभी बाद में समय आने पर करूँगा | इस सम्मेलन तक के लिये मैं तकनीकी सहित सभी नार्म्स के हिसाब से सम्मलेन का एक्स आफिसियो प्रतिनिधी हूँ , ठीक वैसे ही जैसे इस अपेक्स बाडी के अन्य वर्किंग कमेटी मेंबर हैं और मुझे न केवल सम्मलेन में शामिल होने का नोटिस मिलना चाहिये था बल्कि परंपरा के अनुसार रायपुर डिवीजन की मंडलीय इकाई को मेरा इंतजाम भी करना चाहिये था | लेकिन न तो मुझे नोटिस मिला और नहीं मूल संगठन ने उसके किसी साथी के साथ हो रही सांगठनिक प्रक्रिया के उल्लंघन के प्रति कोई ध्यान दिया और वे देते भी कैसे ? बासिज्म , फासिज्म और चमचागिरी की संस्कृति पर चलने वाले व्यक्ति से यह उम्मीद करना कि वह किसी अन्य साथी के जनवादी अधिकार के लिये संगठन को संघर्ष के लिय प्रेरित करेगा बुद्धिहीन से पहाड़ा सुनने की इच्छा रखने के सामान है | लेकिन नोटिस देने और सम्मलेन में प्रतिनिधि पहुंचे इसे इंश्योर करने की जिम्मेदारी तो संगठन के महासचिव की होती है , पर जनवाद के नाम पर फासिज्म और तानाशाही चलाने वालों से यह अपेक्षा तो और भी व्यर्थ है , जिसके लिये कोई उपमा भी नहीं दी जा सकती | मंडलीय इकाई के एक उच्च नेता को मैंने यह बताया , तो उसका सीधा कहना था कि कामरेड वे सीधा झूठ बोल देंगे कि उन्हें नोटिस दिया गया था पर वे स्वयं नही आये | उसके अनुसार सीजेडआईईऐ का क्रियाशील नेतृत्व के एग्रीकल्चर में खप नहीं पाया | एग्री याने सहमती और कल्चर याने संस्कृति |बहरहाल, ट्रेड यूनियन में जनवाद को दफनाने वाले जनवाद पर भाषण झाड़ेंगे , किसी भी संगठन का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है | कुल मिलाकर यह सम्मलेन अवैध है | जल्दी में हूँ और भी बातें है समय आने पर बताउंगा |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Saturday, October 23, 2010

अर्थ शास्त्र में नोबेल 2010 , बाजार की वास्तविकताओं से परे--


 

अर्थशास्त्र में दिया जाने वाला नोबेल , इस वर्ष " रोजगार के अवसरों की उपलब्धता के बावजूद बेरोजगारी कम नहीं होने के कारणों की पड़ताल " करने वाली थ्योरी पर अमरीका के पीटर डायमंड और डेल मोर्टेन्सन तथा ब्रिटेन के क्रिस्टोफ़र पिसारिदेस को दिया गया है | मैसच्यूसेट्स इन्स्टीट्यूट आफ़ टेकनालाजी में प्रोफ़ेसर पीटर डायमंड ने " खोज संघर्ष के सिद्धांत के साथ बाजार का विश्लेषण " करते हुए सिद्धांत दिया कि " किसी भी बाजार में विक्रेता और खरीददार को एक दूसरे को ढूँढने में कठिनाई होती है , क्योंकि इसमें बहुत समय और संसाधनों की जरुरत होती है |" नार्थवेस्ट यूनिवर्सिटी के डेल मोर्टेन्सन तथा लंदन स्कूल आफ़ इकानामिक्स तथा पालिटिक्स साईंस के क्रिस्टोफ़र पिसारिदेस ने इस सिद्धांत को श्रम बाजार पर लागू करते हुए निष्कर्ष दिया कि बहुत से बाजारों में नौकरी देने वाले ( नियोक्ता ) जिन्हें कर्मचारियों की तलाश है और ऐसे लोग ( बेरोजगार ) जिन्हें नौकरी की तलाश है , एक दूसरे के संपर्क में नहीं आ पाते क्योंकि तलाश की इस प्रक्रिया में समय और संसाधन दोनों की जरुरत होती है , जिसके कारण बाजार में " संघर्ष की स्थिति ( खोज संघर्ष ) " पैदा होती है | इसके फलस्वरूप , कुछ खरीददारों ( नियोक्ताओं ) की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं तो कुछ विक्रेता ( बेरोजगार ) भी अपना उत्पाद ( श्रम ) नहीं बेच पाते हैं | यही वजह है कि श्रम बाजार में रिक्तियां होने के बावजूद लोग बेरोजगार रह जाते हैं |

उनका विश्लेषण , श्रम बाजार में खड़े करोड़ों लोगों की बेरोजगारी को इतने सहज और सरल ढंग से उचित ठहराते हुए रुक नहीं जाता , बल्कि एक कदम आगे बढ़कर वे कहते हैं कि बेरोजगारी भत्ता देने से बेरोजगारी बढ़ती है क्योंकि फिर नौकरी तलाशने में लोग ज्यादा वक्त लेते हैं |
यह विश्लेषण , चाहे वे शास्त्रीय हों या नवशास्त्रीय , दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों के पूर्व विश्लेषणों से अलग नहीं है , जिसके अनुसार लोग इसलिए बेरोजगार हैं क्योंकि या तो वे नियोक्ताओं के द्वारा न्यूनतम वेतन पर अपेक्षित उत्पादन क्षमता को पूरी करने में असमर्थ हैं या फिर लोग अपनी उत्पादन क्षमता की तुलना में अधिक वेतन की माँग कर रहे हैं | दोनों परिस्थितियों में निष्कर्ष एक ही है कि लोग बेरोजगार हैं क्योंकि उन्होंने ने बेरोजगार रहना पसंद किया है | इसलिए यह बेरोजगारी स्वैच्छिक है | उपरोक्त तीनों महानुभावों ने इसी थ्योरी को कुछ ज्यादा अच्छे सभ्य ढंग से प्रस्तुत किया है कि नियोक्ताओं और बेरोजगारों का मेल समय और संसाधनों की उपलब्धता की कमी की वजह से नहीं हो पाता है |

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि " ढूँढते ही रह गए " कि इस थ्योरी को नोबेल मिलने के दस दिनों के भीतर ही ब्रिटेन के वित्तमंत्री जार्ज आसबार्न ने सरकारी खर्चों में कटौती के प्रस्ताव संसद में पेश करते हुए लगभग पांच लाख नौकरियाँ अगले चार वर्ष में खत्म करने की घोषणा की है | यह केवल ब्रिटेन के साथ ही नहीं है | वैश्विक आर्थिक संकट के वर्तमान दौर में प्रत्येक देश में सरकारों तथा निजी नियोक्ताओं ने करोड़ों की संख्या में रोजगारशुदा लोगों का रोजगार छीनकर उनको पहले से बेरोजगार खड़े लोगों की फ़ौज में धकेला है | दरअसल , श्रम बाजार के अंदर रिक्तियों और बेरोजगारों , दोनों की एकसाथ मौजूदगी का यह एक बहुत ही सरलीकृत विश्लेषण है , जो "मुक्त बाजार" की अवधारणा के प्रबल समर्थक नवशास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के द्वारा दुनिया की विभिन्न देशों की सरकारों को मुंह छिपाने का अवसर प्रदान करने के
साथ ही नियोक्ताओं के द्वारा किये जा रहे श्रम के शोषण को ढकने का काम ही करेगा | अर्थशास्त्रियों के लिये , चाहे वे , शास्त्रीय हों या नवशास्त्रीय , विडम्बना यही है कि उनका मुक्त बाजार कभी भी उनके सिद्धातों पर नहीं चला बल्कि उन्हें हमेशा ही मुक्त बाजार की शैतानियों ( संकटों ) की तरफ से आँखें मूदनी पड़ी हैं या फिर पलटी मारकर अपने सिद्धातों को मुक्त बाजार के अनुसार ढालना पड़ा है | पूंजीवाद का इतिहास इस बात का गवाह है कि बाजार ने किसी भी दौर में अर्थशास्त्र के किन्ही भी नियमों का पालन नहीं किया है | बाजार को संचालित करने वाला एक ही नियम ( कारक ) है , और वह है , मुनाफ़ा और अधिक तेजी से अधिक मुनाफ़ा , चाहे उसके लिये बाजार को स्वयं को संकट में क्यों न डालना पड़े | मुक्त बाजार के इस व्यवहार पर इन अर्थशास्त्रियों का मुंह कभी नहीं खुलता और इनके बताए गए नुस्खे कभी भी बाजार को अनुशासित करने के लिये नहीं होते , बल्कि ये नुस्खे आमजनों की जेब से पैसा खींचकर बाजार की बेलगाम ताकतों के पास पहुंचाने का काम ही करते हैं | जैसा , हमने हाल के संकट के दौरान देखा कि दुनिया के करीब करीब सभी मुल्कों की सरकारों ने अपने अपने देश के भीमकाय वित्तीय और औद्योगिक निगमों को सार्वजनिक कोष से खरबों रुपयों के पैकेज दिए और जनता के ऊपर कर थोपे , जीवनोपयोगी वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि की और गरीब वर्ग के लिये चल रहे कल्याणकारी कार्यों के खर्चों में कटौतियां कीं |

वैश्विक आर्थिक संकट , जिससे पूरी दुनिया वर्ष 2008 से दो-चार हो रही है , बाजार की बेलगाम ताकतों की मुनाफे की हवस और उस मुनाफे को जल्दी से जल्दी बटोर लेने की लालच का ही परिणाम था , अब यह पुष्ट हो चुका है | अब समय आ गया है कि इन व इस तरह के सभी अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों की विकासपरक उपादेयता पर चर्चा की जाए | इन अर्थशास्त्रियों के द्वारा दिए गए सिद्धांतों में से किसी ने भी मुक्त बाजार की मुख्य समस्या "आर्थिक मंदी" या "दबाव" को रोकने के लिये कोई भी असरदायक रास्ता कभी नहीं सुझाया | नवशास्त्रीय अर्थशास्त्रीयों की पूरी फ़ौज , जिनमें हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी शामिल हैं , वर्तमान संकट को रोकने का कोई उपाय तो सुझा ही नहीं पाई , बल्कि उन्हें आने वाले संकट का भान तक नहीं हुआ | उनकी पूरी की पूरी जमात शेयर बाजारों में आ रहे उछाल पर मुग्ध होकर , बाजार के गुणगान करती रही | आश्चर्यजनक तो यह है कि मुक्त बाजार के पैरोकार इन अर्थशास्त्रियों को अपनी अक्षमता या असफलता पर शर्म भी महसूस नहीं हुई , उलटे , सरकारों के द्वारा दिए गए बेलआउट को उन्होंने अपने सिद्धांतों की विजय बताया और आज भी वे इन पैकेजों को जारी रखने की वकालत कर रहे हैं |

बद से बदतर यह है कि कोई भी आज यह बताने की स्थिति में नहीं है कि विश्वव्यापी आर्थिक संकट के किस मुकाम पर दुनिया आज खड़ी है | संकट के गुजर जाने या खत्म हो जाने के कयासों के बीच , हमें कुछ अर्थशास्त्रियों से , जिन्होंने वर्तमान संकट के लिये भी चेताया था , हमें अगले संकट की भविष्य वाणी भी मिल रही है | इस मध्य में "नियोक्ता और बेरोजगार , दोनों को एक दूसरे को तलाशने में कठिनाई है" का सिद्धांत उन अर्थशास्त्रियों को सुकून देने वाला है , जो मुक्त बाजार की अनुशासनहीनता के खिलाफ किसी भी तरह के कड़े फैसले से बचना चाहते हैं | नोबेल पुरूस्कार देने वाली समीती सहित मुक्त बाजार के हिमायतियों का कहना है कि यह सिद्धांत बेरोजगारी की स्थिति पर सरकार की आर्थिक नीतियों से पड़ने वाले प्रभाव को समझाने में मददगार होगा | प्रश्न यह है कि क्या वर्त्तमान में सरकारों के पास इस प्रभाव को जानने का कोई तरीका नहीं है क्या ? जबाब यही है कि एक नहीं ढेरों तरीके हैं , पर उनका नतीजा तब सामने आएगा , जब सरकारें बाजार को नियंत्रित करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति रखेंगी | जब आर्थिक सिद्धांत ही बाजार में हस्तक्षेप नहीं करने का है तो "ढूंढते रह गए" का सिद्धांत तो सरकारों के मुंह छिपाने के ही काम आएगा | यह उम्मीद करना बेकार ही है कि सरकारें बाजार में नियोक्ताओं और बेरोजगारों को मिलाने के कुछ नीतिगत कदम उठाएंगी |

तीनों नोबेल प्रतिष्ठितों के इस निष्कर्ष का , कि बेरोजगारी भत्ता देने से बेरोजगारी बढ़ती है , बहुत से देशों में स्वागत हो सकता है जहाँ बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है या जहाँ इसकी माँग की जाती है | वैसे इस निष्कर्ष का निहितार्थ यही है कि ऐसे लोग जिनकी आय का कोई साधन नहीं है , कोई सा भी काम कितनी भी अल्प मजदूरी पर करने के लिये तैयार हों | भूखा मरे , क्या न करे | तीनों नोबेल सम्मानितों ने ठीक वही सुझाया है , मुक्त बाजार जो माँग रहा है |

Saturday, October 2, 2010

देश में अमन-चैन बनाए रखने की कीमत मत मांगो-


 

देश के अमन-चैन में सेंध लगाने वाले अमन-चैन बनाए रखने की कीमत के रूप में देश के संविधान , धर्मनिरपेक्ष चरित्र , न्याय प्रणाली और क़ानून व्यवस्था की कुर्बानी माँग रहे हैं | दुर्भाग्य से अयोध्या में विवादित स्थल के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला इस कीमत को चुकाता नजर आता है | हमारे देश के उच्चतम न्यायालय और अयोध्या मामले में 21 वर्ष पूर्व बनाई गई जस्टिस के सी अग्रवाल , जस्टिस यू सी श्रीवास्तव और जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास की खंड पीठ को यह अंदेशा पहले से ही था कि न्यायायिक प्रक्रिया का निष्पक्ष पालन इस मामले में मुश्किल होगा | शायद इसीलिए जब 21 वर्ष पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैजाबाद की जिला अदालत से रामजन्म भूमी बनाम बाबरी मस्जिद मुकदमा अपने पास बुलाया तो उपरोक्त तीनों जस्टिसों ने यथास्थिति बनाए रखने के आदेश के अंत में टिप्पणी की थी कि "इसमें संदेह है कि मुकदमे में शामिल सवालों को न्यायिक प्रक्रिया से हल किया जा सकता है |" इतना ही नहीं 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर राय देने से मना कर दिया था कि क्या वहाँ पहले स्थित कोई हिंदू मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी ? इसका अर्थ हुआ कि हमारे देश की न्याय प्रणाली को उस समय लगा कि न्यायिक प्रक्रिया में तर्कों के ऊपर भावनाओं और आस्था के हावी होने की पूर्ण संभावनाएं इस मामले में मौजूद हैं और एक निष्पक्ष फैसला देने में रुकावट पड़ सकती है | दुर्भाग्य से जस्टिस धर्मवीर शर्मा , जस्टिस सुधीर अग्रवाल , जस्टिस एस यू खान का फैसला न केवल इसकी पुष्टि करता है बल्कि अनेक सवाल भी खड़े करता है |

  1. हमारे देश में धर्मस्थल क़ानून है जो 15 अगस्त 1947 की स्थिति को मान्यता देता है | भारत के बहुरंगी धार्मिक एवं सांस्कृतिक समाज में विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों की टकराहट सर्वज्ञात है | मंदिर टूटे , मस्जिद टूटे , गिरजा और मठ भी टूटे हैं | लेकिन , इस टकराहट ने गंगा-जमुनी संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता वाले समाज को भी जन्म दिया है , उसे आगे बढ़ाया है | इसीलिये अतीत के सारे धार्मिक सांस्कृतिक विवादों को विराम देते हुए विवेकपूर्ण फैसला किया गया था कि 1947 में जो जहाँ है , वैसा ही माना जाए | वर्त्तमान फैसले में लखनऊ खंडपीठ के इस कथन को कि किसी हिदू मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद खड़ी की गई थी , यदि सही भी मान लें , तब भी उक्त क़ानून के मद्देनजर न्यायालय का फैसला न्यायोचित नहीं है तथा उपरोक्त क़ानून को कमजोर बनाता है | इस फैसले से अतीत में जो धर्मस्थल तोड़े गए हैं , और जो ऐतिहासिक रूप से सत्य है , उनका विवाद बड़े पैमाने पर उभरने की संभावना बनती है | विहिप के तोगड़िया और अन्य कुछ संतों के बयान इसकी पुष्टि भी करते हैं |
  2. राम मिथकीय पुरुष हैं , न कि ऐतिहासिक | मिथकों का अपना इतिहास होता है लेकिन इतिहास मिथक नहीं होता | अतः कोई भी कोर्ट राम की पैदाइश स्थल का सर्टिफिकेट नहीं दे सकता | न ही किसी पक्ष ने राम के जन्म का प्रमाण पत्र ही कोर्ट के सामने रखा है | अतः विवेक और क़ानून से संचालित कोई भी कोर्ट यह नहीं कह सकता कि राम वहीं पैदा हुए थे , जहाँ बाबरी मस्जिद का केन्द्रीय गुम्बद था और जहाँ दिसंबर 1949 की एक रात को राम की मूर्ति चोरी छिपे रखी गई थी | यही कारण है कि संघ और उसके विहिप , भाजपा सहित सभी अनुषांग बार बार यही कहते रहे कि राम के जन्मस्थल का सवाल आस्था का सवाल है और कोई कोर्ट इसका फैसला नहीं कर सकता | भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र , संविधान , न्याय और क़ानून व्यवस्था के दुर्भाग्य से कोर्ट के फैसले पर तर्क और विवेक की जगह आस्था हावी हो गई | इसीलिये , यह फैसला किसी भी स्तर पर विवाद समाप्त करने में सहायक नहीं हो सकता | कोर्ट के सामने विवाद भूमी के स्वामित्व निर्धारण का था , न कि इसका कि राम कहाँ पैदा हुए थे ? वैसे भी पैदाइश स्थल का स्वामित्व से सीधा संबंध नहीं होता |
  3. कोर्ट को 1949 में दायर शिकायत का फैसला करना था | यह फैसला 1949 की स्थिति पर ही हो सकता था , ना कि 2010 की स्थिति पर , जैसा कि कोर्ट ने किया है | इस फैसले में सबसे ज्यादा आपत्तिजनक बात यह है कि ये हिंसा , अराजकता और साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली आक्रांता ताकतों के राजनीतिक उपद्रव फैलाने के बाहुबल को कानूनी मान्यता देता है | सच यही है कि पूरे विवाद के दौरान "यथास्थिति" बनाए रखने के अदालती आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए साम्प्रदायिक राजनीतिक ताकतों ने "यथास्थिति" को हमेशा ध्वस्त किया लेकिन कोर्ट ने उसके आदेशों की अवेहलना करने वालों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की |
  4. कोर्ट को विवादित भूमी के स्वामित्व का फैसला करना था | लेकिन , कोर्ट ने मान्यता के आधार पर भूमी का बटवारा कर दिया | मालिकाना हक के मामले में मान्यता की दलील को मानकर , उस आधार पर फैसला देना क़ानून और निष्पक्षता के सभी सिद्धांतों के खिलाफ है |
  5. कोर्ट के फैसले से ऐसा लगता है कि कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट को अहं महत्त्व दिया है | पर , यह जगजाहिर है कि जिस दौरान याने 5 मार्च 2003 से 5 अगस्त 2003 के मध्य एएसआई ने विवादग्रस्त स्थल की खुदाई की , केंद्र में भाजपानीत गठबंधन की सरकार थी , जिसने इस संस्था के साम्प्रदायिकीकरण में कोई कसर नहीं छोड़ी थी | देश के जाने माने इतिहासकारों ने 28 अप्रैल 2003 को कोर्ट के सामने पेश की गई एएसआई की पहली रिपोर्ट पर ही अपनी आपत्तियां जता दी थीं |
    हाल ही में फैसले के परिप्रेक्ष्य में देश के जाने माने 61 नामचीन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों ने बयान जारी कर कहा है कि फैसले में कई ऐसे साक्ष्यों का जिक्र नहीं है जो फैसले के विरोध में पेश किये गए थे | फैसले में शामिल तीन जजों में से दो ने कहा है कि बाबरी मस्जिद एक हिंदू ढाँचे के गिराने के बाद बनाई गई | लेकिन , इन इतिहासकारों का कहना है कि इस मत के विरोध में एएसआई ने जो साक्ष्य प्रस्तुत किये , उन्हें दरकिनार किया गया है | खुदाई में मिलीं जानवरों की हड्डियां और इमारत तैयार करने में इस्तेमाल होने वाली सुर्खी और चूना से मुसलमानों की उपस्थिति साबित होती है और ये भी साबित होता है कि वहाँ मस्जिद से पहले मंदिर था ही नहीं , जैसे सभी तथ्यों को कोर्ट ने इग्नोर कर दिया है | इन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों के अनुसार एएसआई की उस विवादित रिपोर्ट को फैसले का आधार बनाया गया है जिसमें खुदाई में खम्बे मिलने का उल्लेख है , जबकि खम्बे कभी मिले ही नहीं थे |
  6. यदि एकबारगी मान भी लिया जाए कि बाबरी मस्जिद के निर्माण में उपयोग की गई सामग्री में किसी हिंदू ढाँचे के अवशेष हैं भी तो इसमें अजूबा क्या है ? हमारे देश में अनेक इमारतें हैं , जिनमें मुस्लिम , इंग्लिश , फ्रेंच , हिंदू स्थापत्य कला का उपयोग किया गया है | मात्र क्या इस कारण से बाबरी मस्जिद गैर इस्लामिक हो जायेगी | कोर्ट ने एक सैकड़ों साल से जीवित खड़ी ऐतिहासिक इमारत को तरजीह न देकर , 1992 के बाबरी मस्जिद को ढहाने के आपराधिक कृत्य को ही मान्यता देने जैसा काम किया है , जो आने वाली पीढ़ियों के सामने कल्पनातीत मुश्किलें खड़ा करेगा |

देशवासियों ने जिस परिपक्वता , सौहाद्र और भाई-चारे को अभी निभाया है , उसमें न तो मंदिर समर्थकों की कोई भूमिका है और न ही मस्जिद समर्थकों की , और न ही सरकार के स्तर पर किये गए सुरक्षा प्रबंधों की कोई भूमिका है | यदि कोई बात महत्त्व रखती है तो वह यह है कि 1992 के बाद देशवासियों ने जिस साम्प्रदायिक तांडव को देखा है , उसने उन्हें साम्प्रदायिक मुद्दों की व्यर्थता का बोध अच्छी तरह करा दिया है और उन्होंने राजनीतिक रूप से साम्प्रदायिक ताकतों को हाशिए पर डालने के पूरे प्रयास किये हैं | उन्हें अच्छी तरह अहसास था कि हाई कोर्ट का निर्णय जो कुछ भी हो , कानूनी प्रक्रिया यहाँ समाप्त नहीं होती है | अब परिस्थिति यह है कि फैसला आने के तुरंत बाद जो प्रफुल्लित होकर जोरशोर से देशवासियों से मंदिर बनाने में सहयोग करने की मांग कर रहे थे , खुद सर्वोच्च न्यायालय जाने की तैयारी कर रहे हैं | निश्चित रूप से देश में अमन–चैन , साम्प्रदायिक सदभाव बहुत जरूरी है | पर , यह दिल में रंज या मलाल के साथ नहीं होना चाहिये | यह अमन-चैन , सदभाव , भाई-चारा , उसे देश के संविधान , धर्मनिरपेक्ष ढाँचे , क़ानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था से मिलना चाहिये | इनकी कीमत पर प्राप्त अमन चैन स्थायी नहीं होगा , सुकून नहीं देगा | एक बैचेन समाज आने वाली कई पीढ़ियों के लिये बैचेनी और तल्खी छोड़ जाता है , इतिहास का यही सबक है , जिसे सभी को याद रखने की जरुरत है |


अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"