Tuesday, February 19, 2013

नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ ट्रेड यूनियनों का संघर्ष काफी पुराना है-




प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की अपील के बावजूद यह तय है कि देश के संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और कर्मचारियों का बहुत बड़ा हिस्सा 20 और 21 फरवरी को महंगाई पर नियंत्रण रखने, सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये खाद्य सुरक्षा को निश्चित करने, न्यूनतम वेतन को 10000 रुपये करने, समान कार्य के लिए समान वेतन देने और कामगारों के शोषण के सबसे बड़े हथियार ठेका पद्धति को समाप्त करने, की मांगों को लेकर हड़ताल पर रहेगा प्रधानमंत्री ने यधपि ऐके एंटोनी, शरद पवार, पी चिदम्बरम और और श्रम मंत्री मल्लिकार्जुन खर्गे जैसे वरिष्ठ मंत्रियों को ट्रेड यूनियनों को फुसलाने के लिए लगाया है, पर, इसका कोई नतीजा निकलेगा, ऐसा लगता नहीं है इसका सबसे बड़ा और पहला कारण यह है की प्रधानमंत्री की झोली में इस देश के गरीबों और आम आवाम को देने के लिए वंचनाओं और गुरबत के सिवा कुछ भी नहीं है दूसरी बात, देश के अन्दर ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम होगी, जो प्रधानमंत्री या उनकी सरकार पर या उनके द्वारा किये जाने वाले वायदों पर भरोसा करते हों, फिर ट्रेड यूनियनों के द्वारा विश्वास करने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता तीसरी बात, भारत के कामगारों का बहुसंख्यक हिस्सा, विशेषकर असंगठित क्षेत्र के कामगार या निजी क्षेत्र के कामगार, आज जिस बदहाली और जिल्लत को झेल रहे हैं, वह नवउदारवाद की उन्हीं नीतियों के कारण है, जिन पर मनमोहनसिंह चल रहे हैं और उस रास्ते से टस से मस भी नहीं होना चाहते, जबकि ट्रेड यूनियनों का सारा संघर्ष ही उन नीतियों और उनके परिणामों के खिलाफ है और काफी पुराना है

वस्तुतः, भारत का ट्रेड यूनियन आन्दोलन बीसवीं सदी के नौवें दशक में ही आईएमएफ और विश्वबैंक निर्देशित नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोल चुका था, जब इंदिरा गांधी सरकार ने विश्वबैंक और आईएमएफ से लिए गए कर्जों के एवज में उनकी निर्देशित नीतियों को भारत के कामगारों पर थोपने की कोशिशें शुरू कीं ट्रेड यूनियनों की राष्ट्रीय अभियान समिती (National Campaign Committee) के आव्हान पर 19 जनवरी 1982 को की गयी उस हड़ताल ने ही भविष्य में नवउदारवाद के खिलाफ किये जाने वाले मजदूरों के संघर्षों की नींव रखी थी 19 जनवरी 1982 की उस हड़ताल में देश में पहली बार कामगार, किसान, कृषी मजदूर और बेरोजगार युवा एक साथ लामबंद हुए यह स्वतंत्र भारत में पहली संयुक्त एकताबद्ध कार्रवाई थी और कामगारों, किसानों, और युवाओं के उस एकताबद्ध संघर्ष का ही परिणाम था की इंदिरा सरकार को विश्वबैंक से कर्ज लेने वाले कदम को तो वापस लेना ही पड़ा, अन्य अनेक ऐसे क़दमों को भी वापस लेना पड़ा, जिनसे सामाजिक कल्याण की योजनाओं के खर्चों में मितव्ययिता के नाम पर कटौती की जाती और आम आदमी के जीवन को दूभर बनाया जाता राष्ट्रीयकृत बैंकों का निजीकरण, जीवन बीमा निगम को पांच टुकड़ों में विभाजित करने वाला प्रस्ताव, ऐसे कदम थे, जो इंदिरा सरकार आईएमएफ और विश्वबैंक के दबाव में नौवें दशक की शुरुवात में ही उठाना चाहती थी

1991 में, जब, नरसिम्हाराव की सरकार में वित्तमंत्री रहते हुए मनमोहनसिंह ने नवउदारवादी नीतियों  को लागू करना शुरू किया तो स्पान्सरिंग कमेटी और जनसंगठनों के राष्ट्रीय मंच के बैनरों के नीचे कामगारों को एकत्रित होने में कोई देर नहीं लगीतब से लेकर अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर न केवल संगठित और असंगठित क्षेत्र के कामगारों के सवालों पर बल्कि देश के आम आवाम के प्रत्येक तबके के सवालों को लेकर किसानों, बेरोजगार युवाओं और खेतिहर मजदूरों और महिलाओं के बड़े हिस्से के साथ एकता बनाते हुए 14 सफल हड़तालें की जा चुकी हैं

20 एवं 21 फरवरी को होने वाली यह पंद्रहवीं हड़ताल दुनिया के कोने कोने में नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ चल रहे संघर्षों का हिस्सा है इसमें केवल मजदूरों की मांगें नहीं हैं, यह हड़ताल देश के उन करोड़ों लिए है , जो रात दिन खटते हैं लेकिन दो जून की रोटी सम्मान के साथ जुटा पाना जिनके लिए दुश्वार होता है यह नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ कामगारों गुस्सा है| देश का मेहनतकश, देश के 70 करोड़ से अधिक लोगों के लिए एक खुशहाल और सम्मानजनक जिन्दगी की मांग कर रहा है वो यह एलान भी कर रहा है की देशवासियों के लिए उस सम्मानजनक और खुशहाल जिन्दगी को लाने का उसका संघर्ष पुराना कितना भी क्यों न होता जाए, बंद कभी नहीं होगा
अरुण कान्त शुक्ला
19जनवरी,2013