Sunday, June 7, 2020

कोरोना काल में ‘ब्लेक लाईव्स मेटर’ आंदोलन और हम


क्या भारत में कोई कल्पना भी कर सकता है कि उस देश के राष्ट्र-अध्यक्ष को, जिसकी एक धमकी के बाद ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र को तुरंत अपनी दवा नीति में परिवर्तन करना पड़ा और जिन दवाईयों के निर्यात पर इसलिए रोक लगाई गई थी कि भविष्य में कोविद-19 के ज़ोर पकड़ने पर वे दवाएं देश में न कम पड़ जाएँ, उनके निर्यात को चालू करना पड़ा, कुछ दिनों के बाद अपने सफ़ेद-घर के तलघर में जाकर छुपना पड़ेगा? पर, ऐसा हुआ है। ट्रम्प-साहब जब व्हाईट-हाउस के सामने अमेरिका सहित दुनिया के बड़े-बड़े अखबारों-न्यूजचैनलों के साथ अपनी मन की बात करते थे तो उनके तेवर देखते ही बनते थे। लेकिन अब दुनिया में लंबे समय तक उनकी व्हाईट हाउस के पास वाले चर्च के सामने बाईबिल लहराती फोटो और व्हाईट हाउस के बंकर में जाकर छुपने की कहानी याद की जाती रहेंगी।

25 मई 2020 को एक गोरे अमेरिकन पुलिस अधिकारी और उसके सहयोगियों के द्वारा की गई जार्ज फ्लायड की नृशंस हत्या, अमेरिका में नस्लवाद संस्थागत और परंपरागत रूप से मौजूद है, इसका पहला प्रमाण नहीं है। इसके पहले अगस्त 2014 में फर्गुसन में एक पुलिस अधिकारी ने माईकल ब्राउन नाम के अफ्रीकी अमेरिकन की हत्या की थी। उसके पहले न्यूयार्क में जुलाई 2014 में एरिक गार्नर की हत्या भी एक पुलिस अधिकारी ने की थी। उस समय भी फर्गुसन और न्यूयार्क में लगभग चार माह तक आंदोलन चला था जिसे पुलिस ने बहुत ही बर्बर ढंग से दबाया था। यहाँ मेरा अमेरिका की पूरी व्यवस्था में गोरे अमेरिकियों का अमेरिका के मूल निवासियों, आफ्रिकी अमेरिकी, मेक्सिकन या एशियाई  अमेरिकी के प्रति नस्लवादी नफरत के इतिहास में जाने का कोई इरादा नहीं है। उसे आज जो आंदोलन अमेरिका में चल रहा है उस आंदोलन के आकार-प्रकार, सर्व-व्यापकता, जातीय विविधता, नौजवानों की सक्रियता तथा समानता तथा सम्मान के लिए किए जा रहे एकताबद्ध प्रयासों ने पूरी तरह नैपथ्य में डाल दिया है।

आंदोलन की शुरुवात के साथ ही ऐसा संदेश देने की कोशिश की गई मानो यह आंदोलन बुरी तरह हिंसक है और जैसा कि ट्रम्प महोदय ने कहा भी कि इसे सेना के हवाले ही करना होगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि प्रशासन और निहित स्वार्थ के तत्व, जो इस तरह के आंदोलन के समर्थक नहीं होते हैं, इन आंदोलनों को बदनाम करने के लिए उनमें घुसकर लूटपाट और हिंसा भड़काने की कोशिश जरूर करते हैं। हमने यह भारत में भी कुछ माह पूर्व हुए नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी के खिलाफ किए गए आंदोलन के दौरान देखा है। वास्तविकता यह है कि ब्लेक लाईव्स मेटर आंदोलन केवल अमेरिका में ही नहीं बल्कि उसके बाहर यूरोप, लेटिन अमेरिका के देशों के अलावा ब्रिटेन में भी लगभग 2013 से सक्रिय है और आज का आंदोलन उसकी ही अगुवाई में चल रहा है। ब्लेक लाईव्स मेटर आंदोलन की शुरुवात इतिहास में समानता, स्वतन्त्रता तथा न्याय के लिए हुए राजनीतिक संघर्षों से प्रेरणा लेकर हुई है। अपने जन्म से लेकर अभी तक का इसका इतिहास नागरिक-अधिकारों तथा प्रगतिशील, लोकतान्त्रिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के लिए संघर्ष करने का रहा है। लूटपाट और हिंसा की जो भी घटनाएँ हुई हैं उनकी सचाई कुछ दिनों में सामनी आ ही जायेगी, पर इन घटनाओं को ब्लेक लाईव्स मेटर आंदोलन और उसमें शामिल लोगों का कोई समर्थन नहीं था, यह स्पष्ट हो गया है। यदि ऐसा नहीं होता तो अमेरिका के 140 से अधिक शहरों के लोग कोविद-19 के जोखिम के बावजूद सड़कों पर न उतरते। आंदोलन यूरोप सहित लेटिन अमेरिकी देशों तथा ब्रिटेन की सड़कों पर नहीं दिखता। जैसा की होता है पुलिस इसे बर्बरता के साथ रोकने की कोशिश कर रही है पर लोग आज भी व्हाईट हाउस के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं।

ब्लेक लाईव्स मेटर आंदोलन ने दुनिया के कोने कोने में विभिन्न समाजों के अंदर जो नाना प्रकार के भेदभाव-घृणा समाज तथा प्रशासनिक स्तर पर पल रहे हैं, उनकी तरफ जबर्दस्त ढंग से उंगली उठाई है। मुस्लिमों, कश्मीरियों, ईसाईयों तथा छोटी जाति के दलित और आदिवासियों के साथ भारत में हो रहे भेदभाव, माब लिंचिंग, बंगला देश में गैर-बंगालियों तथा अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों के साथ हो रहा बर्ताव, पाकिस्तान में अहमदियों, बलूच लोगों, हिंदुओं तथा सिखों और ईसाईयों के साथ हो रहे भेदभाव, श्रीलंका में तमिलों के साथ किए जा रहे जुल्म, म्यंमार में रोहिंग्याओं के साथ, चायना में तिब्बतियों और उईगर मुस्लिमों के साथ किये जा रहे बर्ताव, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन तथा यूरोप और अमेरिका में एशियाई मूल के लोगों के साथ किये जा रहे भेदभाव तथा सामाजिक तौर पर उनके प्रति घृणा का वातावरण सब कुछ सतह पर आना चाहिये और इसके खिलाफ दुनिया के पैमाने पर प्रगतिशील, लोकतांत्रिक, सामाजिक तथा राजनीतिक ताकतों को एक एकजुट संघर्ष चलाना चाहिये। कोरोना काल को यदि दुनिया की पूंजीवादी ताक़तें दबे-कुचले वर्ग के ऊपर, श्रमजीवियों के ऊपर हमले का एक बेहतरीन अवसर मानकर चूकना नहीं चाहतीं तो दुनिया के दबे-कुचले वर्ग तथा श्रमजीवियों को इसी कोरोना काल में उन्हें प्रतिउत्तर भी देना होगा।

इस मध्य तीन ऐसे वाकये भी घटे हैं जिन्होने न केवल सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है बल्कि विश्व के कोने कोने में जनसाधारण से इस पर सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ भी सामने आई हैं। पूंजीवादी प्रचारतंत्रों ने इन घटनाओं को पूरी तरह भुनाने की कोशिश की है मानो पूंजीवादी लोकतन्त्र में सब कुछ बहुत अच्छा अच्छा है। पहली घटना है, अमेरिका में कनसास शहर के पुलिस चीफ, मेयर तथा उनके अनेक साथियों का अपना हेलमेट उतारकर प्रदर्शनकारियों के सामने एक घुटने पर सिर झुकाकर बैठ जाना। इनमें से कोई भी आफ्रिकी अमेरिकन नहीं था। प्रदर्शनकारियों के साथ अपनी सहृदयता दिखाने का यह तरीका लंदन में भी अपनाया गया। दूसरी घटना है टेक्सास राज्य के होस्टन शहर के पुलिस चीफ का ट्रम्प महोदय को यह कहना कि यदि आप कुछ सकारात्मक नहीं बोल सकते तो अपना मुंह बंद रखें। तीसरा वाकया है ट्रम्प महोदय के पूर्व रक्षा सचिव जेम्स मेटिस का यह कहना कि “डोनाल्ड ट्रम्प उनके जीवन काल के पहले ऐसे राष्ट्रपति हैं जो अमेरिकयों को एकता में बांधकर रखने के लिये कोई प्रयास नहीं करते—यहाँ तक कि वे ऐसा करते दिखने का भी कोई प्रयास नहीं करते। जेम्स मेटिस का यह कथन केवल ट्रम्प महोदय के लिये नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के अनेक देशों के अंदर दक्षिणपंथी नस्लवादी संकीर्ण सोच रखने वाली ताक़तें देशों की सत्ता में आई हैं और सभी के राष्ट्र-अध्यक्षकों की सोच विभाजनकारी ही है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है, नारा चाहे कितना भी समावेशी क्यों न हो? जहां तक प्रदर्शनकारियों के सामने हेलमेट उतारकर, घुटने पर बैठने की बात है या एक शहर के पुलिस चीफ का अपने राष्ट्रपति को मुंह बंद रखने की सलाह देने की बात है, यह पूंजीवाद की खुबसूरती है कि वह एक कुकुर के समान अपने घाव खुद चाटकर ठीक कर लेता है। ये दोनों उसी का प्रमाण हैं।

भारत में हमें अमेरिका में चल रहे ये प्रदर्शन कुछ माह पहले देश भर में हुए नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शनों की याद दिलाते हैं जिनमें शहर दर शहर हिन्दू, सिख, ईसाई, मुस्लिम, दलित, आदिवासी सभी शामिल हुए थे। हम इसलिए भी खुश हो सकते हैं कि अमेरिका में चल रहे इन शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में गांधी के अहिंसात्मक आंदोलनों की उस विरासत को देख सकते हैं जो मार्टिन लूथर किंग जूनियर के आंदोलनों ने गांधी के आंदोलनों से प्राप्त की थी और जिसका जिक्र वो बार बार किया करते थे। मैं नहीं जानता, वे भारतीय आज अमेरिका में कैसा महसूस करते होंगे जो हौसटन में हाउडी मोदी कार्यक्रम में शामिल हुए थे और जिन्होने ट्रम्प महोदय का ज़ोर-शोर से स्वागत किया था।

जब अमेरिका की सड़कों पर लाखों प्रदर्शनकारी रंभेद के खिलाफ और समानता, स्वतन्त्रता तथा न्याय के लिये लड़ रहे हैं, जोधपुर की सड़क पर एक पुलिस अधिकारी एक नागरिक का उसी तरह गला दबाता है जिस तरह डेरेक चाउविन ने जार्ज फ्लायड का दबाया था। भारत की जेलों में 55% कैदी बिना सुनवाई के मुस्लिम,दलित तथा आदिवासी समुदाय से हैं जबकि भारत की कुल जनसंख्या में इनका प्रतिशत मात्र 39 के आसपास होगा। जार्ज फ्लायड ने कहा था वह सांस नहीं ले सकता तो लाखों अमेरिकी सड़कों पर उतर आये। भारत के उड़ीसा में एक 14 साल के लड़के को भीड़ मार देती है क्योंकि वह ईसाई है। जार्ज फ्लायड, हमारे देश में भी बहुत बहुत हैं जो सांस नहीं ले पा रहे या जिनकी साँसे बंद कर दी जाती हैं, पर हमारे देश की सड़कों पर अभी प्रवासी मजदूर हैं, जिनकी साँसे अपने घर पहुँच पाने की आस में अटकी हुई हैं।

अरुण कान्त शुक्ला
7/6/2020 


Sunday, May 10, 2020

कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (2)


श्रम क़ानूनों पर हमले की हड़बड़ी

दरअसल, कोरोना काल को तथाकथित सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’ बताने की शासक वर्ग में होड़ लगी है। नवउदारवाद के बाद के विश्व में सबसे अधिक यदि कुछ बदला है तो वह सुधार शब्द का अर्थ है। मेहनतकश के लिये सुधार का मतलब मौजूदा कानूनों में सुधार कर उसके अधिकारों, हितों और कल्याण के लिये और बेहतर कानून बनाना नहीं रह गया है बल्कि इसके ठीक उलट सुधार का मतलब ऐसे कानून बनाना हो गया है जो मेहनतकश के अधिकारों, हितों और कल्याण में कटौती कर उनका और अधिक शोषण करने का अधिकार मालिकों और सरकार को दें।  

कोविद-19 जैसी महामारी को भी जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित भारत का मेहनतकश ही हो रहा है अवसर में बदलने की यह मुहीम हमारे प्रधानमंत्री की अगुवाई में ही चल रही है जैसा कि उनकी मुख्यमंत्रियों के साथ हुई वीडियो कान्फ्रेंसिंग से पता चलता है। इस सोच को कैसे और कितनी जल्दी अमली जामा पहनाया जाये, आज उनकी चिंता का प्रमुख बिंदु है। नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगरिया कहते हैं कि यह अवसर तभी तक उपलब्ध रहेगा जब तक वेक्सीन नहीं खोज ली जाती। उसके बाद केवल पछताना हाथ रहेगा, इसलिए, भूमी अधिगृहण और एसएचआरएम क़ानूनों में वे सारे सुधार तुरंत कर लेना चाहिए जो शांति काल में करना कठिन है। अरविंद पनगरिया अकेले नहीं है। सबके अपने तर्क हैं पर उद्देश्य एक ही है भूर्जन और श्रम क़ानूनों पूंजी के पक्ष में लचीला बनाना। ‘बिजनेस स्टेंडर्ड’ के सह-मालिक तथा संपादक टी एन निनान का तर्क और ज्यादा अपीलिंग है| उनका कहना है कि; 

"नौकरी में सुरक्षा, वेतन, पेंशन आदि यह सब तो भारत की कुल श्रम-शक्ति के मात्र 6% श्रमिकों को उपलब्ध है। बाकी सब तो असंगठित क्षेत्र में हैं, सब के लिये उपलब्ध, और उनमें वो भाग्यवान है जिसे कभी एक नियुक्ति पत्र भी मिल जाये। सरकार और पब्लिक सेक्टर के ‘C’ श्रेणी के कर्मचारियों को श्रम बाजार की तुलना में दो से तीन गुना ज्यादा वेतन दिया जाता है। यह नहीं चल सकता। जब अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल चल रही है तो ऐसी अतार्किकता को समाप्त करना ही होगा। कोविद-19 का संकट यदि उसमें कुछ तार्किकता लाने में मदद करता है तो उसमें कुछ भी विनाशकारी नहीं है।"        

श्री गौतम चिकरमाने, आब्जर्वर रिसर्च फाउन्डेशन, जो रिलाएंस ग्रुप से फंडेड एक थिंक टेंक है, के उपाध्यक्ष हैं।  उन्होंने फाउन्डेशन के लिये 10 अप्रैल 2020 को लिखे अपने लेख में सुधारों की वकालत करते हुए कोविद-19 को एक प्रकार से उत्सव के रूप में लेने की सिफारिश की है। गौतम चिकरमाने के अनुसार; 

“संकट सुधारों के अगुआ होते हैं| संकट, पुरानी घाव बन चुकीं, समस्याओं को ठीक करने के लिये अगुआ के रूप में कार्य करते हैं। संकट हमें वैधानिक-कार्यपालिक-प्रशासनिक गफलतों से ऊपर उठाते हैं।  संकट बड़े संतुलनों के लिये रास्ता साफ़ करते हैं। और, संकट राष्ट्र को संगठित करते हैं...

कोविद-19 सुधारों को लाने के लिये एक सही तूफ़ान है।  अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोंण से कोविद-19, 1991 के जैसा अवसर है। भूराजनीतिक दृष्टिकोंण से कोविद-19 बालाकोट जैसा अवसर है। संवैधानिक रूप से कोविद-19 आर्टिकल 370 को रद्द करने जैसा अवसर है।

भूमि, श्रम, ढांचागत जैसे साधारण सुधार हमारे सामने हैं।  ये तिकड़ी जो अभी तक हमारी आकांक्षा थी, जरूरत है कि कोविद-19 से अब उसकी शुरुवात हो। आज से तीन से छै माह के बाद भारत और दुनिया में इन सुधारों के बारे में भूतकाल की बातें मानकर बात की जायेगी। इन तीनों सुधारों को लागू करने के पीछे का तर्क बहुत सीधा है। भारत को रोजगार चाहिये। रोजगार निजी पूंजी के द्वारा निर्मित किये जाते हैं। निजी पूंजी को ऐसा व्यावसायिक वातावरण चाहिये जो उद्यमियों के लिये मित्रवत हो।  

कमेटियां, कमीशन, टास्क-फ़ोर्स बनाकर समय को व्यर्थ करने का समय चला गया है। हम 21वीं सदी के कुरुक्षेत्र में हैं और सारे मोल-तौल-समझौते पीछे छूट चुके हैं। कार्रवाई ही आगे एकमात्र रास्ता है। और, सरकार के मुखिया होने के नाते, भूतकाल के खिलाफ युद्ध और एक नए तथा ‘सुधारे गए’ भारत में ले जाने की घोषणा करने का शंख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में ही है। हमें स्वतन्त्र भारत के सामने आई सबसे बड़ी चुनौती कोविद-19 को भारत को उपलब्ध सबसे बड़े अवसर के रूप में बदलना होगा।”

कोविद-19 काल में शासक वर्ग की मेहनतकश वर्ग के ऊपर हमला करने की सारी तैयारियां, मंशायेँ और चरित्र खुलकर सामने आ गया है, जो दबे पाँव अन्य अनेक बहानों से लगातार चल रही थीं पर मेहनतकश के विरोध की वजह से पूरी नहीं हो पा रही थी। भूमि सुधार कानून, जिसके जरिये वे किसानों से उनकी ज़मीनें हड़पने का अधिकार चाहते हैं, श्रम क़ानूनों में सुधार, जिसके जरिये वे न केवल वेतन-मजदूरी ठहराने में मनमानी बल्कि मजदूरों को बिना कारण बताए कभी भी हकालने का अधिकार चाहते हैं, उनके लिए इतने जरूरी हैं कि उन सुधारों को लागू करन के लिये उन्हें कोविद-19 जैसी महामारी एक तूफान, बालाकोट जैसा सर्जिकल हमला, नव-उदारवाद का पुनर-आगमन या आर्टिकल 370 को रद्द करने जैसा समय लगता है। आज तक किसी भी देश के शासक वर्ग ने अपने ही देश के बहुसंख्यकों को तूफान से उड़ा दो, देश के दुश्मन (बालाकोट सर्जिकल स्ट्राईक), देश का अस्थायी हिस्सा( आर्टिकल 370) के रूप में नहीं देखा होगा। गौतम चिकरमाने का लेख, लेख नहीं, शर्मनाक वर्गीय घोषणापत्र है जो नग्न भाषा में हमारे सामने आया है।

असल में, किसानों की जमीन पर कब्जा करने के लिये संबंधित क़ानूनों में ढील, मजदूरों के वेतन या रोजंदारी को कम करने वाले कानून बनाने और श्रम क़ानूनों की होली जलाने का, कोविद-19 जैसी महामारी से निपटने के तरीकों के साथ या देश के बदतर होते जा रहे आर्थिक हालात के साथ दूर दूर का कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ होगा तो वह यह कि ये सभी कदम आम किसान-मेहनतकश, जो परिवार सहित मिलाकर देश में 80 करोड़ से ज्यादा हैं, का जीवन और दूभर होगा तथा बाजार में मांग और घटेगी क्योंकि तरलता ऊपर से नीचे तभी आती है जब श्रम नीचे से ऊपर जाता है। सचाई तो यही है कि देश की अर्थव्यवस्था कोविद-19 के संकट के पहले से संकट में थी। उसका सबसे बड़ा कारण तो बड़े बड़े कारपोरेट का पूंजी दबाकर बैठ जाना और पुराने निवेश में ही और निवेश करने से या नया निवेश करने से बिदकाव था। 2016 की नोटबंदी के लिए प्रधानमंत्री कितना भी अपनी पीठ खुद थपथपा लें अथवा अपने अनुयायियों से थपथपवा लें पर नोटबंदी में सूक्ष्म-लघु तथा मंझौली औद्योगिक इकाईयों को पहुंचे नुकसान की वजह से बढ़ी बेरोजगारी ने बाजार में मांग को जो धक्का पहुंचाया है, उससे देश अभी तक उबर नहीं पाया है। कोविद-19 की आड़ लेकर मजदूर और किसानों पर जो आक्रमण करने की मुहीम चलाई जा रही है, सरकारें और कारपोरेट जितनी जल्दी उससे तौबा कर लें, उतना बेहतर होगा।

बेशक, मेहनतकश के लिए समय कठिन है। सर्वहारा के वे सभी हिस्से किसान-छात्र-मजदूर-नौजवान आज जैसा कि सामने है, उठकर प्रबल विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। उन्हें पुन: संगठित होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए समय की दरकार है। पर, शासक वर्ग को यदि कोविद-19 एक अवसर लगता है तो लॉक-डाउन उनके लिए एक सबक भी होना चाहिए कि खेत, खदान, फेक्टरी, भट्टे, रेल, बस, बाजार, अस्पताल, सीवरेज़ सभी में तब ही काम होता है जब इन नंगे-पाँव विस्थापन वालों के हाथ लगते हैं। कामगार के श्रम के बिना, पूंजी के मालिक, तथाकथित संपदा उपार्जक (Wealth Creators), एक डबल रोटी से लेकर एक सुई तक नहीं बना सकते हैं। मई दिवस यदि मेहनतकश के लिये अंधकारमय होगा तो शासकवर्ग को याद रखना होगा उनका भविष्य भी उनके लिए अंधकार से कुछ कम नहीं होगा।

अरुण कान्त शुक्ला
8 मई 2020

Saturday, May 9, 2020

कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (1)


कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (1)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने किसी राजनीतिक विरोधी की कभी प्रशंसा भी करें और वह भी कांग्रेसी तो किसी को भी आश्चर्य होगा किन्तु 27 अप्रैल 2020 को ऐसा हुआ। प्रधानमंत्री की प्रशंसा के पात्र थे राजस्थान के कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। अवसर था राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ हुई वीडियो कान्फ्रेंसिंग। समाचार पत्रों में आई खबर के अनुसार उन्होंने कहा कि प्रत्येक राज्य में कोई न कोई पार्टी शासन में है जो महसूस करती है कि उसके पास देश को आगे ले जाने का अवसर है। हमें सुधार भी करना है | यदि सुधार करने कि दिशा में राज्य पहल करता है, आप देखिये इस संकट को हम बहुत बड़े अवसर में पलट सकते हैं| मैं अशोक गहलोत जी को बधाई दूँगा। उन्होंने कई पहल कीं। उन्होंने श्रमिकों के लिये समय सीमा की भी बढ़ौत्तरी की है| ठीक है आलोचना थोड़ी हुई होगी, लेकिन राजस्थान ने दिशा दिखाई है|”
स्पष्टत: प्रधानमंत्री राजस्थान सरकार के उस निर्णय का हवाला दे रहे थे जिसके अनुसार फेक्ट्रियों में काम का समय 8 घंटे से बढाकर 12 घंटे किया गया है| उनका आग्रह था कि अन्य राज्यों को भी  इसका अनुसरण करना चाहिये| वास्तविकता यह है कि दूसरे राज्य कार्य के समय बढ़ाने की इस दौड़ में पहले ही शामिल हो चुके थे| गुजरात, मध्यप्रदेश, हरयाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब, इन पाँचों राज्यों ने तो काम के घंटो को 8 से बढाकर 12 घंटे करने के लिये फेक्ट्रीस एक्ट 1948 में ही परिवर्तन कर डाला और वह भी प्रशासकीय आदेशों से| इन बढ़े हुए अतिरिक्त कार्य के घंटों के लिये बढ़ी हुई दर पर कोई भुगतान भी नहीं किया जाएगा|
2020 का यह मई दिवस भारत के मेहनतकश वर्ग के लिये इतिहास का सबसे अंधकारमय अथवा बुरा मई दिवस रहा है| भारत के मेहनतकश की आवाज कभी भी इतनी नहीं दबाई गई होगी| देश में लाखों लोग हैं जो अपने परिवारों से दूर जीवित बच पाने के लिये संघर्ष कर रहे हैं| रोजगार से निकाले गए, गाँठ में पैसा नहीं, खाने को कुछ नहीं, कल तक जैसी भी हो इज्जत से कमाकर खाने वाले हाथ फैलाकर कुछ मिल जाये तो पेट भरे की स्थिति में नंगे पाँव बाल-बच्चों के साथ पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पर अपने गाँव-घर जाने के लिये भटक रहे हैं| दुनिया का यह अब तक का सबसे बड़ा “नंगे-पाँव” विस्थापन होगा| स्वयं सरकार के आंकलन के अनुसार जैसा कि क्विंट ने 6 मई को रिपोर्ट किया है 5 से 6 लाख श्रमिक आज सड़कों पर हैं| वे जो इस आशा में कि सरकारें आश्वासन दे रही हैं तो उनके खाने और रहने की उचित व्यवस्था अवश्य करायेंगी, बदतर हालातों से लाचार होकर, जैसे बने वैसे, पैदल, साईकिल से पुलिस की लाठियाँ खाते या पुलिस वालों के इंतजाम से ही थोड़ा बहुत जो खाने मिले खाते अपने घरों को वापस लौट रहे हैं| सूरत, हैदराबाद, मुम्बई, दिल्ली में इन फंसे हुए लोगों ने ‘खाने दो या घर जाने दो’ की मांग करते हुए प्रदर्शन जरुर किये लेकिन प्रदर्शन करने वाले हजारों श्रमिकों को उतनी ही तत्परता से पुलिस ने खदेड़ भी दिया| इनके लिये बहुत बातें हुईं, टीव्ही पर बहस हुईं, सरकारों के आश्वासन आये, पर ठोस परिणाम यही है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भी वे फंसे हुए ही हैं और एक नई परिस्थिति अब इनके सामने पेश आने जा रही है वह है अपने मन (निर्णय) से अपने शर्म को बेचने का उनका अधिकार भी अब छिनने जा रहा है| आज कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने बेंगलोर से प्रवासी श्रमिकों के लिये चलने वाली सभी ट्रेन राज्य के प्रापर्टी डेवलपर्स के साथ बात करने के बाद केंसिल करवा दीं क्योंकि उन्हें राज्य की अर्थवयवस्था में सुधार के लिये श्रमिकों की जरूरत है| मत कहिये कि भारत के संविधान में लिखा है कि ‘बंधुआ मजदूर’ रखना अपराध हैं| आप किसी इंसान को एक अजनबी प्रदेश में जहाँ का वह रहने वाला नहीं है और मुसीबत के वक्त जिसे आपने एक रोटी नहीं दी, केवल इसलिए रोक सकते हैं या मजदूरी करने बाध्य कर सकते हैं क्योंकि वह अपने साधन से वापस नहीं जा सकता| गिनते रहिये आप लोकतंत्र की गिनती और पढ़ते रहिये संविधान का पहाड़ा, यह कोरोना काल का लोकतंत्र है और कोराना काल का संविधान। उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है कि सरकार लॉक-डाउन और लॉक-डाउन से जुड़े जो भी कदम उठा रही है, देशवासियों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिये ही तो उठा रही है। विश्वास करना कठिन हो सकता है पर केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा देकर बताया है कि 14 लाख विस्थापित श्रमिक राहत केम्प में रखे गए हैं और लगभग 1 करोड़ 34 लाख श्रमिक भोजन केन्द्रों से खाना खा रहे हैं। अब यह खाना तो उन्हें दोनों टाईम ही मिल रहा होगा? इसीलिये, जब मजदूरों को नगद राशी सहायता के रूप में देने की मांग की गई तो न्यायालय ने कहा कि उसकी समझ में जब खाना मिल रहा है तो नगद राशी का वो क्या करेंगे?
दुनिया के मजदूरों को 8 घंटे का कार्यदिवस मालिकों या सरकारों की मेहरबानी से नहीं बल्कि उनके द्वारा किये गए संघर्षों और दी गई शहादतों के परिणाम स्वरूप मिला है। मई दिवस मनाया ही जाता है शिकागो के उन शहीदों की स्मृति में जिन्होंने आज से 134 साल पहले पहली बार 8 घंटे के कार्य दिवस की मांग लेकर मशीनों के पहिये जाम किये थे और बदले में मालिकों के गुंडों और पुलिस न केवल उनके उपर गोलियाँ बरसाई थी, बल्कि उनके नेताओं को फांसी के तख्ते पर भी लटका दिया था| यह वह भयावह दौर था जब मजदूर के काम पर जाने का समय सूर्य के प्रकाश के साथ शुरू होता था और सूर्य के अस्त होने पर खत्म होता था। कालान्तर में बिजली के आविष्कार ने इन 12 घंटों की कार्यावधि को 16 और 18 घंटे तक बढ़ा दिया था। आज जिस 8 घंटे के कार्यदिवस का उपभोग दुनिया का मेहनतकश कर रहा है वह फेक्ट्री मालिकों की या सरकारों की मेहरबानी नहीं बल्कि मेहनतकशों के संघर्ष का नतीजा है। जैसा कि मार्क्स ने कहा भी है कि वे सभी कानून जिनसे मजदूरों के काम करने की अवधि सीमित (कम) की गई है “किसी संसदीय चाह या विचार का फल नहीं हैं। इसका नियमन, आधिकारिक मान्यता, और राज्य के द्वारा इसकी घोषणा, सब कुछ मेहनतकश वर्ग के लंबे संघर्ष का परिणाम हैं। एक सामान्य कार्यदिवस, इसलिए, पूंजीपति वर्ग और मेहनतकश वर्ग के बीच चले एक लंबे गृह युद्ध का परिणाम है...|”
भारत के मेहनतकश के लिये तो यह संघर्ष और भी कठिन था क्योंकि देश में ब्रिटिशर्स का राज था| देश में पहला कानून 1922 में बना जिसमें कार्य के घंटों को कम करके सप्ताह में 60 किया गया| फेक्ट्री एक्ट 1934 में इसे घटाकर 54 किया गया जिसे द्वतीय विश्व युद्ध के समय बढ़ाकर फिर से 60 कर दिया गया था| यह अद्भुत नहीं है कि हमारे देश की 6 राज्य सरकारों ने ब्रिटिशर्स के 1934 के फेक्ट्री एक्ट से भी 12 घंटे ज्यादा की कार्यावधि मजदूरों के लिये तय की है| बेशक, बताने की कोशिश यही की जा रही है कि यह एक अस्थायी कदम है जो 3-4 महिने या जब तक कोविद-19 रहेगा, तभी तक के लिये है| पर, जब प्रधानमंत्री इसे एक अहं सुधार बता रहे हों तो नीयत का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है।
9 मई 2020

Sunday, May 3, 2020

भारत सरकार ने दिया विस्थापित मजदूरों को मई दिवस का तोहफा : हसें या रोयें


लॉक-डाउन के पांच सप्ताह के बाद सरकार का यह फैसला कि देश में अनेक जगह फंसे हुए विस्थापित श्रमिकों को अपने गाँव-घर जाने लिये विशेष ट्रेनें चलाई जायेंगी, मई दिवस के एक तोहफे के रूप में सामने आया। यह उम्मीद सभी को थी कि 3 मई को दूसरे लाक-डाउन की अवधि सामाप्त होने पर सरकार अपने कार्य-स्थलों से लेकर हाई-वे की सड़कों और विभिन्न राज्यों की सीमाओं पर फंसे इन श्रमिकों की घर वापसी के लिये कोई कोई कदम जरुर उठाएगी। शुक्रवार याने 1 मई को रेलवे ने सुबह-सबेरे अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के मौके पर पहली ट्रेन तेलंगाना में हैदराबाद से झारखंड के हटिया के लिये रवाना की जिसमें 1200 प्रवासी श्रमिक थे। महाराष्ट्र के नासिक से जो ट्रेन मध्यप्रदेश के भोपाल के लिये रवाना हुई उसमें लगभग 325 प्रवासी श्रमिक थे। 1 मई को कुल 6 ट्रेन चलाई गईं। आप अंदाज लगा सकते हैं कि एक करोड़ में से यदि आधे भी वापस लौटने वाले होंगे तो उनके वापस लौटने तक लॉक-डाउन का तीसरा दौर भी खत्म हो जाएगा।

प्रश्न यह है कि लॉक-डाउन के 5 सप्ताह के बाद सरकार के इस तोहफे पर वे श्रमिक जो सरकार की तरफ से निराश होकर भूखे-प्यासे पैदल, साईकिल से सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पर रवाना हो गए और आज देश में सड़कों के किनारे, राज्यों की सीमाओं पर लाखों की संख्या में फंसे हुए हैं, वे मई दिवस को मिले इस सरकारी तोहफे पर हसें या रोयें? ये पांच सप्ताह हिन्दुस्तान को गढ़ने वाले उन कामगारों के लिये बेरोजगार होने के साथ साथ भूख और लाचारी के थे और जिसमें कितनों ने तो अपनी जिंदगी भी गँवा दी जिन्हें विस्थापितों के लिये बनाए गए आश्रयस्थलों में रखा गया, उन्हें तो वहाँ जेल से भी ज्यादा बदतर ज्यादतियां झेलनी पड़ी हैं और अभी झेल रहे हैं
अर्थशास्त्रियों से लेकर सरकारी मशीनरी का छोटे से छोटा कर्मचारी भी जानता है कि कपड़े या गारमेंट्स से लेकर स्टील तक, खिलोनों से लेकर कार तक, सड़क बनाने से लेकर भवन निर्माण तक, सभी उद्योगों और निर्माण कार्यों में, तथा बड़े उद्योगों के लिये आवश्यक कल-पुर्जों के निर्माण के लिये जो सहायक छोटी और मंझौली औद्योगिक इकाई काम करती हैं, उनमें श्रमिकों की पूर्ति, चाहे वह स्थायी कर्मचारी के रूप में हो अथवा ठेकेदार के माध्यम से, भारत के सुदूर गाँवों और छोटे शहरों से आये इन श्रमिकों से ही होती है| सरकार ये भी अच्छी तरह से जानती थी कि इन बड़े अथवा छोटे उद्यमियों से कितना भी हाथ जोड़कर कहा जाये पर जब सरकारें खुद अपने कर्मचारियों को यथोचित वेतन तक देने की स्थिति में नहीं है तो ये उद्यमी जब उत्पादन और विक्रय दोनों बंद हैं, कहाँ से इन मजदूरों को वेतन का भुगतान करेंगे। तब देश में लॉक-डाउन घोषित करने के तुरंत बाद ऐसी ही विशेष ट्रेन चलाकर इन्हें अपने गाँव और घरों को वापस जाने का अवसर क्यों नहीं दिया गया? यहाँ यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि जब लॉक-डाउन घोषित किया गया तब देश में कोविद संक्रमितों की संख्या मात्र 500 के आसपास थी और साथ ही इस बात की संभावना भी बहुत कम थी कि इन हजारों श्रमिकों में से कोई संक्रमित भी हो क्योंकि तब संक्रमण उन्हीं लोगों के मध्य था जो विदेश से लौटे थे अथवा किसी ऐसे संक्रमित के संपर्क में आए थे जो विदेश से लौटा हो।
सरकार का जबाब ये हो सकता है कि यदि इन श्रमिकों को इनके गाँव जाने दिया गया होता और इनसे संक्रमण गांवों और छोटे शहरों तक फैलता तो वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं की समुचित व्यवस्था नहीं होने से संक्रमण के फैलाव को रोकना संभव नहीं हो पाता। लॉक-डाउन की अवधि में देश के छोटे से छोटे गाँव तथा नगर में कोरोना के परीक्षण तथा उपचार की व्यवस्था स्थापित हो जाएगी। पर धरातल पर इन पाँच सप्ताह के भीतर गांवों की बात तो छोड़ भी दें, बड़े शहरों में भी कोरोना परीक्षण का कोई माकूल ढांचा उस स्तर पर नहीं खड़ा हो पाया है कि संक्रमण को पहले ही पता करके रोका जा सके। न ही छोटे नगर अथवा जिला स्तर भी चिकित्सा सुविधाओं के विस्तार करने के कोई प्रयत्न भी किए गए हैं। अब जब इन्हें वापस ले जाने के लिए ट्रेन चलाई जा रही है देश बुरी तरह कोरोना संक्रमण की गिरफ्त में है। संक्रमितों की संख्या 42000 से ज्यादा है और संक्रमण से हुई मृत्यु 1400 के आंकड़े को छू रही है।
सरकार के इन्हें वापस लाने के लिए विशेष ट्रेन चलाने के निर्णय के बाद भी सभी जानते हैं कि देश में गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और अनेक जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। शायद ही कोई विश्वास करेगा कि रेलवे के लिए यह संभव है कि वह समुचित संख्या में ट्रेन चलाकर देश के अनेक राज्यों की सीमाओं और हाईवे पर भटक रहे इन लोगों को वापस इनके घरों को वापस भेजने की कोई माकूल व्यवस्था कर पाये। उस पर तुर्रा यह कि रेलवे इन सभी का किराया राज्य सरकारों से वसूल करने वाली है। राज्य सरकारें पहले से ही अपने कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दे पाने की स्थिति में हैं। यदि कोई व्यवस्था हो सकती थी तो वह केवल लॉक-डाउन की तिथी घोषित करने के बाद नियमित ट्रेनों को कुछ अवधि तक चलाकर इन्हें वापस जाने का अवसर प्रदान करने की ही हो सकती थी। तब इन श्रमिकों की आर्थिक हालत भी आज से बेहतर होती और ये रेलवे को खुद किराया दे सकते थे। वैसी स्थिति में अभी को यात्रा के पहले स्वास्थ्य परीक्षण हो रहा है उसका पैसा और राज्य में वापस जाने के बाद स्वास्थ्य परीक्षण पर को खर्च होने वाला है, सभी से बचा जा सकता था। जैसा कि सरकार ने स्वयं लोकसभा का सत्र समाप्त होने के बाद और मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने के बाद लॉक-डाउन घोषित किया ताकि सांसद अपने घरों को वापस लौट सकें और मध्यप्रदेश में सरकार बन सके। क्या, इन मजदूरों के लिए जो वास्तव में देश का निर्माण करते हैं लौटने के लिए दो दिन का समय लॉक-डाउन घोषित करने के बाद नहीं दिया जा सकता था?
अरुण कान्त शुक्ला
3 मई 2020

               
   



               
   


Saturday, April 25, 2020

कर्मचारियों के वेतन पर हमला गलत है


तेलंगाना, आंध्रा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु के बाद अब केंद्र सरकार ने भी अपने लगभग 60 लाख कर्मचारियों और 40 लाख पेंशनधारियों से कोरोना से लड़ने की कीमत वसूलने के आदेश निकाल दिए हैं। यदि कोई चाहे तो इसे संकीर्णता कह सकता है पर मैं मंत्रियों, सांसदों, विधायकों या इसी तरह के पदों पर बैठे लोगों के वेतन-भत्तों में कमी को कोई महत्व नहीं देता। यह कुछ वैसा ही है कि हाथी के खाने में से 100 ग्राम खाना कम कर लिया जाये और हाथी कहे मैंने त्याग किया। इसी तरह सांसदों या विधायकों को अपने क्षेत्र के विकास के लिए मिलने वाली रकम में कमी भी केवल दिखावा है। इधर खबरे आ रही थीं की सांसदों और विधायकों ने अपनी सांसद या विधायक राशी से पाँच-दस लाख रुपया पीएम केयर फंड में दिया, वह भी दायीं जेब से रुपया निकालकर बाईं जेब में रखने वाला ढोंग ही है। वैसे भी सभी जानते हैं कि इस राशी का कितना भाग कितनों की जेब में जाता है। प्रश्न यह है कि अभी भारत में सरकार को कोरोना महामारी को एक महामारी माने एक माह ही हुआ है। सरकार ने जो भी फंड इस महामारी से लड़ने के लिए घोषित किया है, उसका एक तिहाई भी अभी जारी नहीं किया होगा। यदि किया होता तो उसका परिणाम हमें देश के मेडिकल स्टाफ के पास पर्याप्त मात्रा में पीपीई किट, मास्क, पर्याप्त वेंटिलेटर और अन्य उपकरणों के रूप में दिखाई देने लगते। हमारे पुलिस विभाग के लोग, अन्य सुरक्षाकर्मी, सफाई कर्मचारी उस तरह निहत्थे न दिखते, जैसे दिखाई पड़ रहे हैं। राज्य सरकारें शिकायत कर रही हैं कि उन्हें पूर्व का ही जीसटी का हिस्सा, मनरेगा का पैसा नहीं मिला है और जो फंड दिया है वह अपर्याप्त है। देश के प्रत्येक समर्थ तबके ने, संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों सहित, पीएम केयर फंड में योगदान दिया है। उसमें कितना पैसा आया और उसका कितना हिस्सा इस्तेमाल हो चुका, यह किसी को नहीं पता है। पूर्व से मौजूद प्रधानमंत्री राहत कोष में पड़ी राशी का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा रहा है? यह अभी तक बताना भी मुनासिब नहीं समझा गया है। भारत के 63 अरबपतियों की कुल दौलत भारत सरकार के वर्ष 2019-20 के कुल बजट  27 लाख 83 हजार 349 रुपये से अधिक है। इन अरबपतियों की दौलत से एक पाई भी लेने में असमर्थ सरकार आश्चर्यजनक रूप से लॉक-डाउन के मात्र 27 दिनों के भीतर ही अपने कर्मचारियों को पूरा वेतन देने में अपनी असमर्थता दिखा रही है।  
तेलंगाना में मुख्यमंत्री, राज्य मंत्रिमंडल, एमएलसी, विधायकों, राज्य निगम अध्यक्षों और स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों के वेतन से 75%, आईएस, आईपीएस, आईएफएस और अन्य केंद्रीय सेवाओं के अधिकारी की सैलरी से 60% तथा अन्य सभी श्रेणी के कर्मचारियों के वेतन से 50% की कटौती होगी। चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के वेतन से 10% की दर से कटौती की जाएगी। पेंशनर्स की पेंशन का भी कुछ हिस्सा काटा जाएगा। खबरों के मुताबिक, राज्य में इस बार सभी पेंशन धारकों के खाते में सिर्फ आधी पेंशन आएगी। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वेतन में कटौती कब तक जारी रहेगी और क्या कर्मचारियों को भविष्य में कटौती की गई राशि का भुगतान किया जाएगा। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री, मंत्री और विधायकों की तन्ख्वाह में 60%, ए और बी श्रेणी के कर्मचारियों की सैलरी में 50%, सी श्रेणी के कर्मचारियों की सैलरी में 25% की कटौती की जाएगी। गनीमत है इस फैसले से डी क्लास के कर्मचारियों को अलग रखा है और उन्हें पूरी तन्ख्वाह मिलेगी। आंध्र प्रदेश में कर्मचारियों को वेतन देना ही बंद कर दिया गया है। मध्यप्रदेश के राज्य कर्मचारियों को भी बढ़ा हुआ महंगाई भत्ता नहीं दिया जाएगा। केंद्र सरकार इस मामले में बड़ी स्पष्टवादी है। उसने जनवरी तथा जुलाई 2020 और जनवरी 2021 में कर्मचारियों और पेंशनरर्स को मिलने वाले महंगाई भत्तों को देने से मना ही नहीं किया बल्कि यह भी कह दिया कि यह पैसा कभी मिलेगा ही नहीं। देश के वरिष्ठ नागरिक जो पेंशन पर ही निर्भर रहते हैं, कैसे यापन करेंगे, यह सरकार की चिंता का विषय नहीं है।
जाहिर है यह सिलसिला यहाँ रुकने वाला नहीं है। अन्य राज्य सरकारें भी देर-सबेर इसी रास्ते पर चलने वाली हैं। केंद्र सरकार भी निश्चित रूप से देश के बीमा, वित्तीय क्षेत्र के संस्थानों, कारखानों, पर दबाव बनायेगी कि वे भी ऐसा निर्णय करें और पैसा सरकार को सौंपें। प्रधानमंत्री ने अपने पिछले दो संबोधनों में हाथ जोड़कर देश के छोटे बड़े सभी उद्धमियों से प्रार्थना की थी कि वे अपने यहाँ काम करने वाले कामगारों की रोजी या वेतन न तो रोकें और न काटें। बुद्धूबक्से के समाचार वाले चैनलों से यह सुनते समय बहुत अच्छा लगा था। पर, प्रधानमंत्री ने उस समय यह नहीं बताया कि इन छोटे उद्धमियों, ठेकेदारों के पास काम बंद होने के बाद पैसा आयेगा कहाँ से, जिससे इन मजदूरों का वेतन दिया जाएगा? नतीजा, आज हम देख रहे हैं कि लाखों की संख्या में लोग अपने गांवों में पहुँचने के लिए बेताब हैं और पैदल निकल पड़े थे। सरकारों की आर्थिक स्थिति की बात को दरकिनार करके भी हम सिर्फ यह सोचें कि क्या जो व्यवस्था सामान्य समय में अपने पूरे नागरिकों को भोजन मिले इसकी गारंटी नहीं लेती, वह पूरे देश की अनगिनत सड़कों को नापते इन लोगों के पास पहुँचकर इन्हें भोजन मुहैया करा पायेगी? सामाजिक संस्थाएं लॉक-डाउन की परिस्थिति में कितनी मदद कर पाएँगी और क्या वह पर्याप्त होगी।
अब हम उन कामगारों की तरफ आते हैं जिनका नियोक्ता वह वर्ग है जिसका वेतन केंद्र और राज्य की सरकारें काट रही हैं या रोक रही हैं। संगठित क्षेत्र का यह कर्मचारी वर्ग मध्यवर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा तो है ही साथ ही घरेलु कामगारों का बहुत बड़ा नियोक्ता भी है। हमारे देश में इनकी संख्या भी कम नहीं है। लगभग चार करोड़ से अधिक लोग हैं जो घरेलु कामगार, माली, प्लमबर, धोबी, इलेक्ट्रिशियन, चौकीदार, गार्ड, ड्राईवर, आया, चाईल्ड केयर टेकर, तथा सफाई कर्मचारी के रूप में साप्ताहिक अथवा मासिक वेतन पर मध्यवर्ग से लेकर उच्च आयवर्ग तक के लोगों के घरों में काम करते हैं और लॉक-डाउन के बावजूद इनसे पूरा वेतन पा रहे हैं। इसके अतिरिक्त लगभग दो करोड़ से अधिक वे स्वरोजगारी हैं जो फेरी लगाकर घरों में लगने वाली रोज़मर्रा की जरूरतों जैसे सब्जी, फल इत्यादी की पूर्ति करते हैं। यह वह समानान्तर अर्थव्यवस्था है, जिससे समाज का वह वर्ग अपनी आजीविका चलाता है जो सरकार की जीडीपी में नहीं आता। जब सरकार के पास अपने कर्मचारियों को देने के लिए पूरे पैसे नहीं हैं तो सरकार, अन्य नियोक्ताओं से जिनके कारखाने बंद हैं, जिनके कार्यों पर रोक है और जो एकबार बंद करने के बाद श्रम-शक्ति की अनुपलब्धता के चलते तुरंत चालू भी नहीं कर सकते, उम्मीद ही कैसे कर सकती है कि वे अपने कामगारों को वेतन दें? यह अद्भुत बात सरकार को समझनी तो होगी कि बंद बाजार को भी तरलता की जरूरत होती है। और, ऐसे संकट के समय वह तरलता सरकार ही उपलब्ध करा सकती है। सीधे उनके हाथों में पैसे देकर जो खुद रोजगार के जनक हैं। केंद्र और राज्यों की सरकारों को कर्मचारियों के वेतन में कटौती करने या वेतन को रोकने के निर्णय पर पुनर्विचार कर इसे वापस लेना चाहिए। कर्मचारियों के वेतन पर हमला गलत है।   
अरुण कान्त शुक्ला
25/4/2020

Tuesday, March 24, 2020

कोरोना: हल एक, समस्याएँ अनेक



प्रधानमंत्री ने मात्र चार दिनों के पश्चात आज 24 मार्च को पुन: देश को संबोधित करते हुए भारत को 21 दिनों तक के लिए लॉक-डाउन मेँ डाल दिया है । वे सभी राज्य और केंद्र प्रशासित क्षेत्र जो पहले से ही या तो लॉक-डाउन में थे या कर्फ़्यू का सामना कर रहे थे, अब पूर्ण लॉक-डाउन मेँ होंगे। अब यह लॉक-डाउन संपूर्ण देश मेँ और कड़ाई से लागू किया जाएगा। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की ताजी रिपोर्ट के अनुसार अभी तक भारत संक्रमण  की तीसरी स्टेज याने सामुदायिक संक्रमण से दूर है। आईसीएमआर  के अनुसार संक्रमण अभी उन्हीं लोगों तक सीमित है जो या तो कोरोना वायरस प्रभावित देशों से आए हैं या ऐसे लोग जो विदेश से आए संक्रमित लोगों के संपर्क में आए हैं। यह एक राहत की बात हो सकती है। पर, इसका आधार कमजोर है क्योंकि देश में कोरोना से संक्रमित हैं या नहीं, इसकी टेस्टिंग सिर्फ उन्हीं लोगों की हो रही है जो उपरोक्त में से किसी श्रेणी में आते हैं। वह जैसा भी हो पर क्रूर सचाई यही है कि इस वायरस से संक्रमित होने के बाद इसका कोई इलाज नहीं है। कोई वेक्सीन नहीं है जो इससे बचा सके। हल केवल एक है संक्रमण से बचा जाये। अपने को सबसे अलग कर लो। किसी सार्वजनिक जगह पर न जाया जाये, जहां से संक्रमण आप तक और फिर आपके जरिये आपके परिवार और फिर उन सभी तक जो आपके संपर्क में आ रहे हैं, पहुंचे। यही सामाजिक दूरी है जिसे सोशल डिस्टेनसिंग भी कहा जा रहा है। चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, स्पेन से लेकर उन सभी देशों का अनुभव हमें बताता है कि उन्हें भी अपने लोगों को कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए कर्फ़्यू या लॉक डाउन में ही जाना पड़ा और सोशल डिस्टेनसिंग को ही बलपूर्वक लागू करवाना पड़ा। प्रधानमंत्री ने लोगों को किसी भी तरह के अंधविश्वास से दूर रहने की भी अपील की। याने, अपरोक्ष रूप से उन्होने अपने ही सिपलसहारों को नसीहत दी कि गौमूत्र या गोबर का लेप, कोरोना गो बैक गाना, जुलूस निकालना या राम रक्षा करेंगे, इसका हल नहीं है, जैसा कि कुछ भाजपा और सरकार में बैठे मंत्री कह रहे थे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चीन में इस वायरस के फैलाव और फिर अन्य देशों में इसके पहुँचने की रफ्तार को देखते हुए 30 जनवरी 2020 को ही इसे अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल घोषित कर दिया था। हमारी सरकारों तथा देशवासियों ने तब इसे उस गंभीरता से नहीं लिया, जिसकी आवश्यकता थी। वे सभी एहतियाती कदम जो पिछले दो हफ्तों में उठाए गए हैं कुछ पहले उठाए गए होते तो परिस्थिति और ज्यादा नियंत्रण में होती। विशेषकर, उन सभी लोगों की कड़ाई से जांच होनी चाहिये थी जो कोरोना प्रभावित देश से आ रहे थे और फिर उन्हें सरकारी स्तर पर, सरकारी खर्च पर आईसोलेशन में रखने की व्यवस्था करनी चाहिये थी ताकि वे आईसोलेशन की अवधि में समाज में घुलमिलकर संक्रमण को फैला न पायें। इन दो हफ्तों मेँ हमारे सामने ऐसे अनेकों उदाहरण आए जिनमें रसूखदार अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों एयरपोर्ट से न केवल बिना जांच के निकल आए, बल्कि सोसाईटी में भी जमकर घूमे-फिरे, नाचे-गाये और फिर कोरोना पाजीटिव निकले। विश्व के किसी भी देश के संपन्न तबके की तुलना में भारत का संपन्न वर्ग बहुत ज्यादा अहंकारी, दिखावा पसंद, केवल नियमों को तोड़ने वाला नहीं बल्कि नियमों को तोड़कर लाभ उठाने में शान समझने वाला  और समाज के प्रति अपने दायित्वों-कर्तव्यों से भागने वाला है। यह पिछले दो हफ्तों में बार बार प्रमाणित हुआ है।
हमारे देश में कोविद-19 को लेकर जो भी जागरूकता-गंभीरता पिछले दो सप्ताह में दिखाई दी है, वह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 11 मार्च को कोविद-19 को वैश्विक महामारी घोषित करने के बाद आई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे महामारी तभी घोषित किया जब चीन ने अपने बल पर इस पर काबू पा लिया और इस महामारी का केंद्र बदल कर यूरोप हो गया। आज ब्रिटेन, अमेरिका सहित यूरोप के सभी देश इस महामारी से अपने देश के लोगों को बचाने के लिए अरबों रुपये खर्च कर रहे हैं। चीन में इसे पूरे देश को लॉक डाउन करके काबू में किया गया और अब यूरोप भी उसी रास्ते पर है। हमारे देश में भी उन्हीं 5 बातों पर ज़ोर दिया जा रहा है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताईं हैं, सामाजिक दूरी, स्वप्रेरित-अलगाव, बार बार हाथों को धोना, खाँसते और छीकते वक्त कोहनी का इस्तेमाल और जरा भी महसूस होने पर कोविद-19 का टेस्ट कराकर आईसोलेशन में जाना। हमारे जैसे देश में जहां हाशिये पर रह रहे लोगों की संख्या अमेरिका की जनसंख्या से भी ज्यादा होगी, ये सभी उपाय, सिर्फ कोहनी की आड़ लेकर खाँसना-छींकना को छोड़कर, हाशिये पर जीवित लोगों की समस्याओं को कई गुना बढ़ाने वाले हैं।     
सामाजिक दूरी का पालन भारत के वे लोग जो झुग्गी-झौपड़ी में रहते हैं, कैसे करेंगे? अभी ही इस सामाजिक दूरी के पालन में तथा उसे बनाए रखने के लिए लगाए जा रहे लॉक-डाउन तथा कर्फ़्यू के चलते हजारों छोटी तथा माध्यम औद्योगिक इकाईयाँ, ढाबे, रेस्टोरेन्ट, खुदरा दुकाने जो बंद हैं उनमें काम करने वाले कर्मचारी, निर्माण क्षेत्र में लगे मजदूर, स्टार्ट-अप से स्व-व्यवसाय चालू करके व्यवसाय करने वाले, बेरोजगार होकर अपने अपने गाँव वापिस लौटने वाले लाखों लोग, आने वाले समय में अपना गुजारा कैसे करेंगे, इस समस्या से जूझ रहे हैं? सबसे ज्यादा कुपोषण भारत में है। देश के ये कुपोषित पुरुष-महिला और बच्चे कोविद-19 के वायरस का मुक़ाबला कैसे करेंगे? जबकि, हमारे देश का संपन्न और उच्च मध्यमवर्ग इस खुशफहमी को फैलाने में लगा है कि क्योंकि हमारे देश के लोग पूर्व से ही यूरोप और चीन की तुलना में अधिक असुरक्षित (Vulnerable) दशाओं में रहते हैं, इसलिए कोविद-19 के प्रति हमारे शरीर में प्रतिरोधक शक्ति ज्यादा है। अमेरिका, ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय देशों में प्रति एक लाख लोगों में से हजारों की संख्या में कोरोना-परीक्षण कराया जा रहा है ताकि कम्यूनिटी ट्रांसमीशन को रोका जा सके। हमारे देश में ये प्रति लाख दस से भी नीचे है। जब परीक्षण ही इतने कम लोगों का हो रहा है तो कम्यूनिटी ट्रांसमीशन को कैसे जाना-रोका जा सकेगा?
प्रधानमंत्री जब 19 मार्च को देश के लोगों को संबोधित करने आए तो उनसे उम्मीद थी कि वे उन सारी सलाह के साथ साथ जो उन्होने दीं, लोगों के सामने आ रही और आने वाली आर्थिक और सामाजिक कठिनाईयों पर भी बोलेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। आज भी उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए 15000/- करोड़ के पेकेज देने के अलावा हाशिये के लोगों का गुजारा कैसे होगा, उसके लिए कुछ नहीं कहा।  राज्यों की सरकारों ने जरूर कुछ एलान किए हैं और केरल में तो बाकायदा 20,000 करोड़ रुपए का पेकेज लागू किया गया है। हाल ही में वित्त मंत्री ने राज्यों को तीन महीने का राशन का कोटा उधार देने की बात कही है। उद्योगपतियों और व्यापारियों को जीएसटी देर से जमा करने जैसी छूट भी दी गई है। रजिस्टर्ड कामगारों तक तो राज्य सरकारें बैंक के माध्यम से कुछ नगद राशी पहुंचा सकेंगी, पर उन मजदूरों का क्या होगा, जो दिहाड़ी पर काम करते हैं और रजिस्टर्ड नहीं हैं?
कोरोना वायरस से देश के सामने त्रिस्तरीय चुनौतियाँ पेश हैं। पहली, हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा आम लोगों को उपलब्ध कराने के लिए पहले ही बहुत कम पैसा खर्च किया जाता है और देश की सार्वजनिक सेवाओं में यह दिखता भी है, जब आम तौर पर ही मरीज सरकारी अस्पतालों में बरामदे लेटे दिख जाते हैं, जिनके लिए बिस्तर तक उपलब्ध नहीं हो पाता है। यदि, ऐसा कभी न हो तो बेहतर है, कोरोना वायरस कम्यूनिटी ट्रांसमीशन में प्रवेश कर जाता है तो आईसीयू की बात छोड़िए, हम बिस्तर तक उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं हैं, जैसा कि एबीपी न्यूज चैनल की एक एंकर चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि ये कोरोना संक्रमित लोग क्यों सोसाईटी में घूम रहे हैं, क्या ये नहीं जानते कि हम चीन नहीं हैं कि एक दिन में ही 1000 बिस्तरों वाला अस्पताल बना कर खड़ा कर देंगे। प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद भी इसमें संशय ही है कि भारत का निजी चिकित्सा सेवा वाला कारपोरेट सेक्टर दृण इच्छा-शक्ति के साथ सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के साथ संयोजन करके बिना शुल्क चिकित्सा सेवाओं को देने के लिए खड़ा होगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि हम कितना भी खुश हो लें कि प्रधानमंत्री के कहने पर 22 मार्च (रविवार) को जनता-कर्फ़्यू सफल रहा, पर, उसके पीछे की सचाई यही है कि आवाम का बहुत बड़ा हिस्सा इस बात को विश्वासपूर्वक समझता है कि महा-आपदाओं और त्रासदियों में उसे राहत पहुंचाने की सरकार की क्षमता बहुत ही सीमित है और उसे अपनी रक्षा और रोजी-रोटी का इंतजाम खुद ही करना होगा। इसीलिए, दूसरे दिन से ही लोगों का बाहर निकलना शुरू हो गया था। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि इन सारे उपायों से जो किए जा रहे हैं, कोरोना संक्रमण को हम सीमित रखने में सफल भी होते हैं तो पहले से ही जर्जर अर्थव्यवस्था को जो धक्का इससे लग चुका है, उसे संभालने की कोई भी ताकत इस सरकार के पास दिखाई नहीं देती है। कोरोना वायरस का हल एक ही है, जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है और विश्व के सभी देशों की सरकारे भी कह रही हैं रोकथाम, दूरी, बंद, लॉक-डाउन, कर्फ़्यू, पर, सबके सामने, इस वायरस के जीवित रहते भी और मर जाने के बाद भी समस्याएँ अनेक हैं और होंगी।
अरुण कान्त शुक्ला
24/3/2020