Monday, May 14, 2012

सवाल गुणवत्तापूर्ण शिक्षण का है -


सवाल गुणवत्तापूर्ण शिक्षण का है –

यदि हंगामों के बीच से कोई अच्छी चीज निकल कर सामने आती है तो हंगामें अच्छे हैं | पर , हमारे देश की संसद में होने वाले हंगामों से किसी अच्छी चीज के निकल आने की उम्मीद रखना बेकार है | नेहरू-आंबेडकर कार्टून पर हुए हंगामें से भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण और देश के नौनिहालों के लिए सौभाग्यशाली बात निकलकर सामने आ सकती थी और वह थी सबसे ज्यादा उपेक्षित शिक्षा और शिक्षण पद्धति पर एक सार्थक बहस और उसका एक सार्थक परिणाम | पर , ऐसा होना तो कभी का बंद हो चुका है , इसलिए ऐसा नहीं हुआ और जितनी कम बुद्धि और सोच-विचार के बाद राष्ट्रीय शिक्षण अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने पाठ्यक्रमों में सीखने की प्रक्रिया को खुशनुमा और रोचक बनाने के लिए कार्टूनों का प्रयोग शुरू किया था , उससे भी कम बुद्धि खर्च किये बिना संसद के दोनों सदनों में हुए हंगामें के बाद निर्णय ले लिया गया कि आगामी सत्र से नेहरु-अंबेडकर ही नहीं सारे कार्टून वापस ले लिए जायेंगे | इस पूरे एपीसोड में तीन अहं कमियां उजागर हुई हैं , जो बताती हैं कि देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है , जब हमारे पास न केवल देश के आमजनों तथा देश के बच्चों की सोच को सामने रखकर नीतियों और व्यवस्था बनाने वाली बौद्धिक क्षमता का नितांत अभाव है बल्कि देश का जो भी बौद्धिक हिस्सा है , फिर चाहे वो राजनीति में हो , समाजसेवा में हो , शिक्षण व्यवस्था में हो या सरकार में हो , उसने सिर्फ अपने और नितांत अपने स्वार्थों के अनुसार ही अपनी सोच और आचरण को ढाल लिया है |


पहली कमी यह कि संसद के दोनों सदनों और संसद के बाहर हुए हंगामों में सिर्फ या तो अंबेडकर के अपमान का सवाल उठा या फिर नेहरू के | कहीं भी और किसी ने भी ये मूल सवाल नहीं उठाया कि क्या शिक्षण व्यवस्था में और वह भी कक्षा नौ से लेकर बारहवीं तक के विद्यार्थियों को किसी भी विषय को पढ़ाने के लिए इस तरह के व्यंगात्मक कार्टूनों की आवश्यकता है क्या ? शिक्षण को थोड़ा मनोरंजक और खुशनुमा बनाने के लिए चित्रों का प्रयोग हमेशा होता रहा है | विशेषकर , प्राथमिक शिक्षण में याने नर्सरी से लेकर पांचवीं कक्षा तक की पुस्तकों में | कार्टूनों का प्रयोग बहुत पुराना नहीं है और एनसीईआरटी के गठन के समान ही कार्टूनों के प्रयोग का आईडिया भी पश्चिम से आयातित है | पर , वहाँ भी शैक्षणिक कार्टून बिलकुल अलग होते हैं और निचली कक्षाओं में प्रयुक्त अधिकतर कार्टून शिक्षण पद्धति पर ही होते हैं | राजनीतिक प्रयोग से बचा जाता है | योगेंद्र यादव , जो एन सी ई आर टी के सलाहकार हैं ,  ने जिस तरह एनडीटीवी पर त्वरित प्रतिक्रया देते हुए कहा कि कार्टूनों पर बेन लगाने के लिए एक क़ानून पास कर देना चाहिये , वह अहं से आहत शिक्षाविद की प्रतिक्रिया है | साधारणजन भी जानते हैं कि व्यंग कार्टून या तो किसी विचारधारा या स्वयं की समझ पर आधारित होते हैं | व्यस्क हो सकता है कि इन्हें मुस्कराकर निकाल दें , पर बच्चों के मामले में सावधानी की जरुरत है | पाठ्यक्रम की विषय वस्तु कुछ भी हो , पर जिस तरह के कार्टून अवयस्क विद्यार्थियों याने बारहवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया , वे विषय की निरपेक्ष शिक्षा देने के बजाय , अपने अतीत को व्यंगात्मक तरीके से देखने की शिक्षा ज्यादा देने का काम करेंगे , इसमें कोई संदेह की गुंजाईश नहीं है और यह देश के लिए भी उचित नहीं है |



दूसरी अहं कमी है एनसीईआरटी जैसी शिक्षण संस्थान का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रयोग किया जाना | 1961 में इसकी स्थापना तकनीकि , कला और विज्ञान के क्षेत्रों में शोध और प्रशिक्षण प्राप्त बौद्धिक समूह को पैदा करने और पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था में शालेय शिक्षा के संबंध में केन्द्र और राज्य सरकारों को उस शोध और प्रशिक्षण के आधार पर उचित सलाह और मार्गदर्शन देने के उद्देश्यों से की गयी थी | चूंकि एनसीईआरटी के द्वारा प्रकाशित पुस्तकों का प्रयोग पूरे देश के उन सभी सरकारी और निजी स्कूलों में होता है जहां सीबीएसई (Central Board Of Secondary Education) का पाठ्यक्रम लागू है , सत्तारूढ़ दल इसका राजनीतिक प्रयोग करने में कभी नहीं हिचके और इसकी स्वायत्तता शनैः शनैः खत्म करते गये | इसकी शुरुवात मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व काल में हुई जब स्वयं मोरारजी देसाई ने यह कहते हुए कि शैक्षणिक जगहों पर कम्युनिस्टों ने घुसपैठ कर रखी है और वे अपने विचारों को शिक्षा में घुसाते जा रहे हैं , एनसीईआरटी के पाठ्यक्रमों के साथ छेड़छाड़ करते हुए आर.एस.शर्मा की पुस्तक आदिकालीन भारत (AncientAncient India) को पाठ्यक्रम से हटवा दिया | पहले 1977 से 1979 के मध्य और उसके बाद एनडीए सरकार के दौरान राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा बनाने के नाम पर एनसीईआरटी के पूर्ण हिंदुत्वीकरण के भरपूर प्रयास हुए | शिक्षा को निरपेक्ष रखने के सवाल पर इन प्रयासों का विरोध होने पर भाजपा ने हवाला दिया कि वह एनसीईआरटी जैसे संस्थान को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कम्युनिस्टों के प्रभाव वाली शिक्षण व्यवस्था से बाहर लाकर उसमें आये ठहराव को समाप्त करना चाहती है | 2004 में यूपीए की सरकार के आने के बाद एनसीईआरटी की पुस्तकों में फिर बदलाव शुरू हुआ और शिक्षा के निरपेक्ष चरित्र को पुनः बहाल करने की कोशिशें हुई | 1977 वह समय था , जब भारत में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और इस राजनीतिक परिवर्तन ने एनसीईआरटी से जुड़ी पूरी बौद्धिक जमात की सोच को बदल दिया और यह कहना गैर जायज नहीं होगा कि उसके बाद शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों की एक ऐसी जमात तैयार हो गयी , जिसका पूरा उद्देश्य यह हो गया कि पाठ्यक्रम में ऐसी विषय वस्तु शामिल करो , जो सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों को सूट करती हो | सत्तारूढ़ पार्टी के बारे में कुछ अच्छा कहो और उससे आपको सरकार का फेवर भी मिलेगा | इतिहास के उन बिंदुओं पर बल दो जो सत्तारूढ़ पार्टी को शक्ति और शान देते हों और सरकार की मेहरबानियों के हकदार बनो | आज हम जिस रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार की बात करते हैं , ये उससे भी पहले शुरू हुआ और उससे ज्यादा भयानक और खतरनाक है | कितनी दुखदायी बात है कि संसद में पहली बैठक की साठवीं वर्षगांठ के ठीक पहले हंगामा हुआ लेकिन देश के नौनिहालों की शिक्षा से खिलवाड़ और उन्हें भटकाने के इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई सार्थक बात नहीं हुई |


तीसरी अहं कमी यह उजागर हुई कि पूरे मामले को शिक्षा से अलग थलग करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सवाल से जोड़ दिया गया | एक ऐसी व्यवस्था में जैसी में हम रह रहे हैं , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के उदाहरण सैकड़ों की संख्या में पूरे देश में बिखरे पड़े हैं | अभिव्यक्ति तो दूर की बात है , समाचार प्रेषण तक इससे बचा नहीं है और देश में इस सवाल पर कभी खामोशी भी नहीं रही और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हुए प्रत्येक हमले का विरोध माकूल तरीके से मीडिया और बुद्धिजीवियों सहित आमजनों तक ने किया है | पर , वर्त्तमान मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ अपनी शातिर सोच पर चादर डालने की कोशिश भर है | पाठ्यपुस्तक में शामिल वह कार्टून छात्रों की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उन्हें पढाने के लिए था , अतएव उनकी किसी स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं हुआ है | बरसों पूर्व ये कार्टून शंकर्स वीकली में छपा था और नेहरू और अम्बेडकर दोनों ने इस पर कोई आपत्ति या रोक नहीं लगाई थी | इसलिए दशकों बाद अब उस पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लंघन का आरोप लगाना भी गलत है | यह सच है कि पिछले कुछ दशकों में समाज के अंदर नियोजित तरीके से असहिष्णुता बढाने की कोशिशें हो रहीं हैं और उसके खिलाफ वातावरण बनाना और उसका विरोध करना बहुत अधिक आवश्यक है , जैसा कि योगेन्द्र यादव ने अपने बाद में लिखे लेख में कहा भी है | पर , उससे भी ज्यादा जरूरी है कि हमारे नौनिहालों को पूर्वाग्रहित होने से बचाया जाना है | जैसा नहीं होने का नतीजा हम समाज में बढ़ती असहिष्णुता के रूप में देख रहे हैं , जो आजकल सोशल साईट्स पर भी बिखरा पड़ा है | क्या इस तरह के कार्टूनों को कोर्स में शामिल करके उस असहिष्णुता को रोका जा सकता है ?


यह अत्यंत दुःख का विषय है कि इस विवाद के सतह पर आने के चलते योगेन्द्र यादव और सुहास पलशिकर जैसे विद्वजनों को एनसीईआरटी के मुख्य सलाहकार के पदों से इस्तीफा देना पड़ा | उससे भी ज्यादा दुर्भाग्यजनक सुहास पलशिकर पर पुणे में किया गया हमला है , जो हर दृष्टिकोण से निंदनीय है | पर , उससे भी ज्यादा दुखद यह है कि न तो हमारे सांसदों ने दोनों सदनों में और न ही मीडिया या देश के बुद्धिजीवियों या शिक्षाविदों ने और यहाँ तक कि स्वयं योगेन्द्र यादव ने इस पूरे घटनाक्रम का उपयोग देश की गुणवत्ताहीन शिक्षा व्यवस्था की खामियों को उजागर करने में नहीं किया | आज जब आर्थिक मोर्चे पर भारत के बुलंद होने की बातें की जाती हैं और भारत को एक उभरती हुई आर्थिक ताकत के रूप में पेश किया जाता है , तब क्या यह सोचनीय नहीं है कि दुनिया की सात उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में भारत का स्थान छटवां है , वह भी स्कूली शिक्षा में , जहां कार्टूनों से पढ़ाने को आधुनिकता का नाम दिया जा रहा है | ज्यादा पीछे की बात नहीं है , मात्र तीन वर्ष पूर्व एसोचेम ने अपने एक सर्वे कम्परेटिव स्टडी आफ इमर्जिंग इकानामीज ऑन क्वालिटी आफ एडुकेशन में भारत को चेताया था कि यदि भारत में शिक्षा की गुणवत्ता और व्यवस्था की तरफ गंभीर ध्यान नहीं दिया गया तो भारत आने वाले समय में अन्य देशों के मुकाबले प्रतियोगिता में पिछड़ जाएगा | अंत में , मैं अपनी बात और शिक्षा में गुणवत्ता की बात , तीन वर्षीय बच्चे को नर्सरी में पढ़ाई जाने वाली कविता से उपजे सवाल से खत्म करूँगा | कविता ऐसी है ;

दूर हवा में लटका है , जैसे उल्टा मटका है
घूम रहा है आवारा , रंग बिरंगा गुब्बारा

इस देश के शिक्षाविदों , बुद्धिजीवियों , राजनीतिज्ञों , शिक्षण संस्थाओं , बताओ , मैं अपनी तीन वर्षीय पोती को आवारा शब्द का मतलब कैसे और क्या समझाऊँ ?
अरुण कान्त शुक्ला         

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