Thursday, July 20, 2017

क्यों नहीं पड़ता प्रधानमंत्री की अपील का प्रभाव?

क्यों नहीं पड़ता प्रधानमंत्री की अपील का प्रभाव?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार पुन: गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा पर चिंता व्यक्त की है| लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के द्वारा मानसून सत्र से पहले सभी राजनीतिक दलों की बुलाई गयी पारंपरिक बैठक के बाद सरकार की तरफ से बोलते हुए केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार ने बताया कि प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप से कहा है कि गौरक्षा के नाम पर हिंसा ठीक नहीं है| इसे साम्प्रदायिक रंग देना और इस पर राजनीति करना भी ठीक नहीं है| प्रशासन और पुलिस प्रशासन राज्य का विषय है और गौरक्षा के नाम पर हिंसा करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई होनी चाहिए| इस समाचार के साथ एक समाचार और छपा कि लुधियाना में चर्च के पादरी की चर्च के सामने ही दो नकाबपोशों ने गोली मारकर ह्त्या कर दी| यह पहली बार नहीं है कि प्रधानमंत्री ने इस तरह की हिंसा पर चिंता व्यक्त की हो| मेरी जानकारी के अनुसार पिछले तीन वर्ष में यह छटवीं बार और पिछले 10 माह में चौथी बार है, जब उन्होंने गौरक्षा के नाम पर की जा रही हिंसा पर चिन्ताएं जताई हैं| याने शुरू के 27 माह में दो बार और पिछले 10 माह में चौथी बार| यह दीगर बात है कि उनकी चिंता व्यक्त करने का ढंग हर बार अलग-अलग रहा है| जैसे जब वे ब्रिटेन के दौरे पर थे तब लन्दन में दोनों देशों के प्रधानमंत्रीयों की आयोजित पत्रकार वार्ता में एक पत्रकार के द्वारा अख़लाक़ की ह्त्या का हवाल देते हुए सवाल करने पर कि भारत में साम्प्रदायिकता जोर पकड़ रही है, प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत बुद्ध और गांधी का देश है और 120 करोड़ लोगों के देश में किसी एक घटना से निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है| महाराष्ट्र के प्रसिद्ध लेखक और वामपंथी कार्यकर्ता पनसारे तथा कर्नाटक के प्रसिद्ध लेखक कलबुरगी तथा अख़लाक़ की हत्या के बाद राष्ट्रपति के द्वारा व्यक्त की गयी चिंता के बाद उन्होंने एक आम सभा में कहा कि आप किसी की बात मत सुनो, विपक्ष के भी किसी नेता की बात मत सुनो, यहाँ तक कि मेरी, प्रधानमंत्री, की बात भी मत सुनो, पर राष्ट्रपति की बात तो सुनो| अब ब्रिटेन की महारानी और भारत के निर्वाचित राष्ट्रपति में कितना फर्क है, यह तो सभी जानते हैं| भारत में सरकारें, राजनीतिज्ञ राष्ट्रपति की बात कितनी मानते हैं, यह भी सभी जानते हैं| मानसून सत्र के एक दिन पहले बोले गए उनके उद्गारों के लगभग 20 दिन पूर्व भी उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना के अवसर पर आयोजित समारोह में चरखा कातते हुए कहा था कि गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा ठीक नहीं है और ठीक उसी दिन झारखंड के रामगढ़ में मांस ले जा रहे एक मुस्लिम ट्रक ड्राईवर की गौरक्षकों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी थी| इसके कुछ दिनों के बाद ही भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह की बयान आया कि गौरक्षा के मामले में कांग्रेस के जमाने में ज्यादा हत्याएं होती थीं| यहाँ दो प्रश्न खड़े होते हैं| पहला यह कि भाजपानीत सरकार कांग्रेस से बद्तर माहोल देने की होड़ में है या बेहतर| दूसरा कि क्यों नहीं पड़ता प्रधानमंत्री की अपील का प्रभाव?

अब प्रथम प्रश्न याने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कथन का कि कांग्रेस के शासनकाल में गौरक्षा के सवाल पर ज्यादा हत्याएं होती थीं, का जबाब पहले ढूँढने की कोशिश करते हैं| इसके लिए मैंने पिछले आठ वर्षों (2010-2017) के आंकड़े इंडिया स्पेंड से लिए हैं, जिनमें लगभग 53 माह कांग्रेस के शासनकाल के हैं और लगभग 38 माह भाजपा शासनकाल के| यह मैं कांग्रेस या किसी भी राजनीतिक दल के बचाव अथवा उस पर आरोप लगाने के लिए नहीं कर रहा हूँ बल्कि पूरी कवायद सच्चाई को सामने लाने के लिए है| पिछले 8 वर्षों (2010-2017) में गौ-रक्षा के नाम पर हुए हिंसक हमलों में से 51% हिंसा का शिकार मुस्लिम हुए थे| 64 घटनाओं में मारे गए 29 भारतीयों में से 25 याने 86% मुस्लिम थे| लगभग 124 लोग घायल हुए थे| ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन 64 घटनाओं में से 97% घटनाएं मई 2014 के बाद हुईं, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने| उपरोक्त 64 में से 33 घटनाएं उन राज्यों में हुईं, जहां भाजपा का शासन है| इनमें से 52% घटनाएं मात्र अफवाह पर हुईं थीं| 64 में से 63 घटनाओं का पिछले तीन वर्षों में होना भाजपाध्यक्ष के कथन को स्वयं गलत साबित करता है| यह, यह भी साबित करता है कि सत्ता देश में धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिक सद्भाव को कायम रखने के बजाय अपने हिदुत्ववादी एजेंडे को लागू करने के लिए कृत-संकल्पित है|

अब हम दूसरे और अहं प्रश्न पर आते हैं कि क्यों प्रधानमंत्री की अपील का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है? ज्यादा अच्छा यही होगा कि उनके किसी भाषण से ही उनकी कथनी और करनी के अंतर को समझा जाए| मार्च, 2017 में लन्दन में पार्लियामेंट स्ट्रीट पर विश्व के अनेक प्रख्यात विभूतियों के समकक्ष महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित की गयी, जिसका अनावरण ब्रिटेन के प्रधानमंत्री केमरून के साथ भारत के वित्तमंत्री अरुण जेटली तथा वॉलीवुड के सितारे अमिताभ बच्चन ने किया| इस अवसर पर मोदी जी ने एक भाषण भेजा, जिसमें गांधी के प्रति अपनी श्रद्धा जताते हुए उन्होंने कहा कि उनकी सरकार ने अनेक मुद्दों पर गांधी को अपना आदर्श बनाया है| भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि भारतीयों और विशेषकर भाजपा ने गांधी से बहुत कुछ सीखा है| उन्होंने गौ-रक्षा का हवाला देते हुए कहा गांधी के शब्दों को इस मुद्दे पर दोहराया;

“ गाय की रक्षा के लिए हिदुओं के द्वारा प्रारंभ कोई भी आन्दोलन की नियति, मुसलमानों के द्वारा दिल से सहयोग दिए बिना, असफल होना ही है| प्रभावकारी और सम्मानजनक एक ही रास्ता है कि मुसलमानों के मित्र बनो और गाय की रक्षा का प्रश्न उनके सम्मान पर छोड़ दिया जाए| यह हिदुओं के लिए सम्मानजनक होगा यदि गौ-वध की समाप्ति किसी बल-प्रयोग से नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय तथा अन्यों के द्वारा स्वयं छोड़कर ही हो| मैं, इसलिए, इसे देश्द्रोहिता ही मानूंगा यदि देश में हिदू राज के बारे में सोचा भी जाए|”

“ हिदू धर्म इससे मजबूत नहीं होगा यदि कोई तानाशाह हथियारों के बल पर गौ-वध पर रोक लगाए|”

“आपको मुस्लिमों के साथ स्वयं के बराबर नागरिक के सामान व्यवहार करना होगा|”

आगे मोदी जी कहते हैं कि “ गांधी ने पाखंडपन के खिलाफ भी बहुत सी अच्छी बातें कही हैं जिन्हें मैं समय की कमी के कारण उद्धृत नहीं कर पा रहा हूँ|”

प्रधानमंत्री की इतनी अपीलों के बाद भी सभी जानते हैं कि शासन के, केंद्र के हों या भाजपा शासित राज्यों के, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, भाजपा तथा आरएसएस के लोगों द्वारा देश के मुस्लिम, दलित तथा क्रिश्चियन समाज के खिलाफ फैलाई जा रही घृणा जारी रही और गौरक्षा के नाम पर किये जा रहे हमलों तथा हत्याओं पर सरकार तथा भाजपा और संघ का मौन जारी रहा, पर प्रधानमंत्री ने कभी भी अपनी सरकार के मंत्रियों या भाजपा के नेताओं को इस तरह के व्यक्तव्य देने से नहीं रोका और न ही इस तरह की घटनाओं की निंदा की, उलटे वे मौन साधे रहे| इसका प्रमाण है कि अपने शासनकाल के प्रथम दो वर्षों में केवल दो बार उन्होंने इस विषय पर चिंता व्यक्त की| वह भी जब सर पर चुनावों का मौसम हो, जैसा कि अभी है| साबरमती में बोलते हुए भी गौरक्षा के नाम पर हो रहे शिकार, जिनमें मुस्लिम या दलित ही ज्यादा हैं, की तुलना अपरोक्ष रूप से उन्होंने कुत्तों को रोटी डालने से ही की, हाँ, एहितायत के तौर पर इस बार उन्होंने मछलियों को भी साथ ले लिया| जिस विस्तार के साथ या जिस विश्वास के साथ वे बुद्ध या गांधी का नाम विदेश में लेते हैं, वह विस्तार और विश्वास उन्होंने भारत में कभी नहीं दिखाया| बुद्ध या गांधी का नाम देश में लेने का अर्थ है अहिसा, सत्य, शान्ति, प्रेम और सद्भाव के रास्ते पर चलना| वे जानते हैं कि विदेशों में आज भी भारत को बुद्ध या गांधी के देश के रूप में ही जाना जाता है और इन दोनों को किनारे करके वे स्वयं की कोई इमेज विदेश में खड़ी नहीं कर सकते हैं| इसलिए उन्हें विदेश में गांधी विस्तार से याद आते हैं| पर, देश में उनकी पार्टी को गांधी राष्ट्रपिता नहीं ‘एक चतुर बनिया’ लगते हैं|

अब जिस राजनीतिक दल को शिक्षा में ही हिदुत्व मिला हो और जिसका अस्तित्व ही धर्म और वर्ण पर टिका हो, जिसे गौरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं में साम्प्रदायिकता नहीं दिखती हो, उस राजनीतिक दल के नेतृत्व में चल रही सरकार का मुखिया कितना भी विदेशों में गांधी का उद्धरण “प्रभावकारी और सम्मानजनक एक ही रास्ता है कि मुसलमानों के मित्र बनो और गाय की रक्षा का प्रश्न उनके सम्मान पर छोड़ दिया जाए| यह हिदुओं के लिए सम्मानजनक होगा यदि गौ-वध की समाप्ति किसी बल-प्रयोग से नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय तथा अन्यों के द्वारा स्वयं छोड़कर ही हो| मैं, इसलिए, इसे देशद्रोहिता ही मानूंगा यदि देश में हिदू राज के बारे में सोचा भी जाए” दोहराए, देश में उसके अनुयायिओं पर उसकी अपीलों का असर तो पड़ने से रहा|

अरुण कान्त शुक्ला
20 जुलाई 2017 
           


Friday, July 7, 2017

चम्पारण सत्याग्रह और आज के राजनेता

                 
आज देश का पूरा किसान समुदाय और कृषी क्षेत्र चम्पारण बना हुआ है| वर्ष 1915 में, दक्षिण अफ्रिका में सत्य, अहिंसा, सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसे हथियारों से रंगभेद के खिलाफ सफल संघर्ष चलाने के बाद भारत लौटे मोहन दास करमचन्द गांधी के लिए 1917 का चम्पारण सत्याग्रह अहिंसक प्रतिरोध, तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन के हथियारों को भारत में आजमाने के लिए प्रथम प्रयोगशाला था| यह 1917-1918 के दौरान गांधी के द्वारा चलाए गए उन तीन आन्दोलनों में से पहला था, जिसमें गांधी ने नागरिक असहमति को भारतीय राजनीति में प्रविष्टि के रूप में चिन्हित किया था| 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को तो अंग्रेजों ने देशी रियासतों की मदद से दबा दिया था, पर, उसके बाद देश में जगह-जगह किसान आन्दोलन फूट पड़े थे| नील पैदा करने वाले किसानों का विद्रोह, पाबना विद्रोह, तेभागा आन्दोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह, खेड़ा और अहमदाबाद सत्याग्रह, मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आन्दोलन के रूप में जाने जाते हैं, जिनका समय काल 1859 से लेकर आजादी प्राप्त करने तक फैला हुआ है| 1917 तक नील किसानों को तीनकठिया प्रणाली का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता था| जिसमें उन्हें अपनी कृषी भूमी के 20 भागों में से तीन भागों पर अनिवार्य रूप से नील की खेती करने के लिए बाध्य किया जाता था| एक ओर जहां नील की खेती पर लाभ न के बराबर होता था, वहीं उस पर 40% विभिन्न प्रकार के अवैध उपकर और कर लागू किये जाते थे, जिन्हें अबवाब कहा जाता था| गांधी जी पूरे एक वर्ष तक चम्पारण और आसपास के इलाके में रहे और उनके द्वारा चालू किये गए सत्याग्रह ने ब्रिटिश शासन को झुकाया तथा तीनकठिया प्रणाली को समाप्त करना पडा| गोरे बागान मालिकों को भी आंशिक रूप से उस अवैध धन को वापिस करना पडा जो उन्होंने किसानों से चूसा था| यद्यपि यह आंशिक रूप से सफल आन्दोलन था पर इसने उस हथियार की नींव रखी, जिस पर गांधी के नेतृत्व में पूरा राष्ट्र चला| उन्होंने देशवासियों के, विशेषकर आमजनों के मन से उस भय को समाप्त किया, जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता के रास्ते में बाद में रोड़ा बन सकता था| उनके जीवनी लेखक डी जी तेंदुलकर के शब्दों में “गांधी जी ने एक हथियार दिया, जिसके द्वारा भारत को स्वतन्त्र बनाया जा सकता था|”

                    गांधी जी पहले राजनेता थे जिन्होंने जनता की शक्ति को पहचाना| वे मानते थे कि आम आदमी यदि सत्यनिष्ठ होकर अपने अधिकार के लिए संघर्ष करें तो बड़ी से बड़ी शक्ति को भी झुकाने में अधिक समय नहीं लगता है| वर्तमान समय में भारतीय राजनीति एक दोराहे पर खड़ी है| राजनीति और राजनेताओं से राजनीतिक स्वच्छता, ईमानदारी, तथा आमजनों के प्रति निष्ठा का तो स्वतंत्रता के 15 वर्षों के अन्दर ही गायब होना शुरू हो चुका था| पिछले 27 वर्षों में, विशेषकर 1991 में लागू किये गये नव-उदारवाद के बाद एवं बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से राज्य की निष्ठा देश के आमजनों से हटकर बड़े कारपोरेट्स, बड़े उद्योगपतियों तथा संपन्न तबके की ओर ही नहीं हुई है बल्कि राजनीति में साम्प्रदायिक मामलों पर आँखें मूँद लेने की प्रवृति, आर्थिक आत्मनिर्भरता का रास्ता छोड़कर विदेशी निवेश तथा विश्व बैंक, मुद्राकोष व विश्व व्यापार संगठन के बताये रास्ते का अनुशरण करने की हो गयी है| इसके फलस्वरूप किसान-मजदूर-युवा-महिलाएं सभी कुंठा में हैं| आज देश के 8 से अधिक राज्यों में किसान आन्दोलन फैल चुका है| पिछले 15 वर्षों में 3 लाख से ज्यादा किसान कर्जों में दबे होने के कारण आत्महत्या कर चुके हैं| पिछले एक माह में ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में 55 से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं| यह अलग बात है कि सत्याचरण छोड़ चुका शासन इसे कभी स्वीकार नहीं करता कि किसान आत्महत्या कर्जों में दबे होने के कारण करता है, जैसे कि मध्यप्रदेश के मंदसौर में आंदोलनरत किसानों पर गोली चलाने के बाद, जिसमें 8 किसानों की मौत हुई, मध्यप्रदेश के गृहमंत्री और पुलिस दोनों ने मना कर दिया था कि गोली उन्होंने चलाई| बल्कि, दोनों की ओर से एक अजीबोगरीब बयान आया कि फायरिंग स्वयं किसानों ने खुद के ऊपर की थी|    
                  
                   आज किसान की वास्तविक हालत यह है कि स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश के 90 लाख किसान परिवारों में से लगभग 70% किसान परिवार का औसतन प्रतिमाह खर्च जो वे कमाते हैं, उससे बहुत ज्यादा है| यह उनको निरंतर कर्जे में डुबोते जाता है जो उनके आत्महत्या करने का प्रमुख कारण है| अपनी आय से कम आमदनी वाले इन 63 लाख किसान परिवारों में से लगभग 62.6 लाख वे परिवार हैं जिनके पास एक हेक्टेयर या उससे कम कृषी-भूमी है| इसके ठीक उलट 0.35 मिलियन (0.39) किसान परिवार जिनके पास 10 हेक्टेयर या उससे ज्यादा कृषी-भूमी है, उनकी मासिक आय औसतन 41,338/- रुपये है और उनका मासिक खर्च 14,447/- रुपये मात्र है| यह सभी आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (2013) के हैं| इन छोटे तथा हाशिये पर पड़े किसानों के पास संस्थागत कर्जों तक पहुँचने लायक साख भी नहीं है|

                   ऐसे में 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किसानों की आय दो-गुणा करने की घोषणा तथा उसके बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा 2016 के बजट में किसानों को देश की रीढ़ की हड्डी बताना और बजट में अलग से कोई प्रावधान नहीं करना कोरे गाल बजाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है| यह सभी जानते हैं कि जब मोदी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचार कर रहे थे तब भी और सत्ता में आने के बाद भी सरकार ने स्वयं को कभी भी किसानों अथवा गरीबों की तरफदार पार्टी या सरकार के रूप में प्रचारित नहीं किया बल्कि उसने स्वयं को देश के उस उच्चाकांक्षी वर्ग का नुमाईंदा बताया था, जो यह समझता है कि ‘सिर्फ विकास’ से देश की समस्त समस्याओं का समाधान हो जाएगा| प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि हमें, उनकी सरकार को, 2022 तक किसानों की आय को दो-गुणा करने का लक्ष्य रखना चाहिए| प्रधानमंत्री की इस घोषणा का प्रचार तो बहुत हुआ न तो उन्होंने न वित्तमंत्री ने यह दो-गुणा कैसे होगा को कभी परिभाषित किया| वह तो नीति आयोग के एक सदस्य, बिबेक देबरॉय, ने एक टेलीविजन साक्षात्कार में स्पष्ट किया कि दो-गुणा का अर्थ सांकेतिक है, वास्तविक नहीं है| याने, उसमें मुद्रास्फीति के कारण रुपये के मूल्य की गिरावट की गणना शामिल नहीं है| इस अर्थ में तो बिना किसी घोषणा या लक्ष्य के भी आय 5 वर्षों में दो-गुणी हो जायेगी| उदाहरण के लिए 2004-05 में कृषी और उससे जुड़े क्षेत्रों से जीडीपी रुपये 5,65,426 करोड़ रुपये से बढ़कर 2009-10 में बढ़कर 10,83,514 करोड़ रुपये हो गई थी याने 5,18,088 करोड़ रुपये की बढ़त| लेकिन, रुपये के 2004-2005 में स्थिर मूल्य याने मुद्रास्फीति को गणना में लेकर आकलन में यही आय 5,65,426 करोड़ रुपये से बढ़कर मात्र 6,60,897 करोड़ रूपये 2009-10 में हेई थी| इसका अर्थ हुआ कि मात्र वास्तविकता में केवल 95,471 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी जो दो गुणा से कई गुणा कम है| जबकि इसी मध्य कृषी क्षेत्र में रोजगार की संख्या 26 करोड़ 80 लाख से घटकर 24 करोड़ 49 लाख रह गयी थी (सभी आंकड़े इंडिया स्पेंड से) |

                          भारत में नवउदारवाद आने के बाद से तो सभी सरकारें जब कृषी संकट की बातें करती हैं तो उनके केंद्र में वे किसान परिवार नहीं होते, जो कृषी पर आश्रित होते हैं| सरकारों के समाधान ‘उत्पादकता’ और ‘मुनाफे’ पर आधारित होते हैं| हम ऊपर पहले यह बता चुके हैं कि भारत में 90 लाख किसान परिवारों में से 63 लाख ऐसे परिवार हैं जो गुजारे लायक आय भी अर्जित नहीं कर पाते हैं| इन छोटे तथा हाशिये पर पड़े किसानों के पास संस्थागत कर्जों तक पहुँचने की साख भी नहीं होती है और इन्हें बीज, खाद, दवाई, पानी परिवहन से लेकर कृषी से जुडी प्रत्येक जरुरत के लिए साहूकारों तथा उन अनाज व्यापारियों की पास जाना पड़ता है जो या तो अनाप-शनाप ब्याज वसूलते हैं या मनमानी कीमत पर उनका उत्पाद खरीद लेते हैं| शासक, दरअसल, इन छोटे किसानों या हाशिये पर पड़े किसानों को, जिस तरह का बदलाव वह कृषी क्षेत्र में लाना चाह्ती है, याने खेती का कारपोरेटाईजेशन, उस रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा समझती है| इसीलिए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन छोटे तथा हाशिये पर पड़े किसानों की तरफ से सरकार को निरंतर प्रतिरोध, आन्दोलन का सामना करना पड़ता है|

                           अब बात चम्पारण सत्याग्रह और गांधी पर| गांधी जब मोतीहारी पहुंचे और उन्होंने रेल, पैदल, हाथी पर बैठकर उस क्षेत्र का दौरा किया तो वे वहां जम गए| वे केवल पीड़ित परिवारों से मिलकर और आश्वासन देकर वहां से वापिस नहीं हुए| उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ एक-एक परिवार के लोगों की समस्याओं को दर्ज किया और उनके आधार पर मांगे रखीं| जब उन्हें बिहार ओर विशेषकर मोतीहारी जो उनका मुख्यालय था, छोड़कर जाने के लिए कहा गया तो उन्होंने जबाब दिया इस देश का नागरिक होने के नाते उन्हें देश में कहीं भी जाने और रहने का अधिकार है| मैं नहीं जाऊंगा| अशांति फैलाने के आरोप में जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो उन्होंने जमानत लेने से इंकार कर दिया और जब अदालत उन्हें बिना किसी मुचलके के जमानत देने की पेशकश की तब भी उन्होंने जमानत पर छूटने से इंकार किया और सजा की मांग की| अंतत: अदालत को उन्हें बिना शर्त रिहा करना पड़ा| अब इसकी तुलना हम वर्तमान में चल रहे किसान आन्दोलन से करें तो जब तक महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में किसान सब्जियां, आलू, टमाटर, दूध सड़कों पर फेंक रहे थे, न तो केंद्र सरकार न ही राज्य सरकारों ने और न ही राजनीतिक दलों और मीडिया ने उस आन्दोलन को कोई तवज्जो दी| राजनीतिक नेता दूर से बैठकर गाल बजाते रहे| जब मध्यप्रदेश के मंदसौर में गोली चली और बड़ी संख्या में किसान मारे गए तब सत्तारूढ़ से लेकर विरोधी दलों के नेताओं के बीच मंदसोर जाने की दौड़ शुरू हुई| कोई उजागर गया तो किसी ने छिप-छिपाकर वहां पहुँचने की कोशिश की| गिरफ्तारी हुई, जमानत हुई और पुलिस प्रशासन की रहनुमाई में पीड़ित परिवारों से मुलाक़ात की| इसमें आश्चर्य की बात यह है कि जिस सरकार के गृहमंत्री यह कह रहे थे कि गोलियां किसानों ने स्वयं चलाईं, उसी के मुखिया ने आनन-फानन में दो लाख रुपये मुआवजे की घोषणा भी कर दी| मुख्यमंत्री शिवराज सिंह शान्ति स्थापना के लिए गांधी की तस्वीर के नीचे बैठकर उपवास करने लगे| यह किसी को भी समझ नहीं आया कि यह उपवास किसके लिए था| अशांति फैलाने वाले किसानों के लिए या गोली चलाने वाली पुलिस के लिए? यदि किसानों के खिलाफ था तो वे प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और बजाय अपनी चम्मच संगठन के साथ बैठकर मामला निपटाने के वे सभी पक्षों के साथ वार्ता करके इसे पहले ही निपटा सकते थे और यदि यह उपवास पुलिस के खिलाफ था तो वह उनके ही नियंत्रण में थी और उसे वे पहले ही गोली चलाने के रोक सकते थे| किसी भी नेता के अन्दर यह इच्छा-शक्ति और नैतिक साहस नहीं था कि वे गांधी के समान वहां जम जाते और जब तक किसानों की समस्याएँ नहीं सुलझतीं और पीड़ित परिवारों को न्याय नहीं मिलता, वहीं रहकर आन्दोलन को दिशा देते, आगे बढ़ाते तथा आन्दोलन में यदि कोई अराजक तत्व थे तो उनसे आन्दोलन को मुक्त कराकर, उसे शांतिपूर्वक आगे बढ़ाते|

पर, विकास उस दौड़ में, जिसमें छोटे और हाशिये पर पड़े किसानों को रास्ते का रोड़ा समझा जाता है तथा जिससे कमोबेश सभी राजनीतिक दल कम या ज्यादा सहमत हैं, यह होना असंभव ही है| गांधी का दर्शन स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी भारत के सर्व-समावेशी विकास के लक्ष्य की पूर्ति कर सकता है, इससे पूंजीपतियों और कारपोरेट के पक्षधरों का विश्वास खत्म हो गया है और गांधी दर्शन का आदर्श अब उनके लिए गाल बजाकर उपयोग करने भर के लिए जरुरी रह गया है| पर, गांधी आज भी, स्वतंत्रता के 70वर्षों के बाद भी किसानों, वंचितों, दलितों और अल्पसंख्यकों की लाठी हैं, इसे वे नहीं मानते| गांधी ने देशवासियों के मन से शासन के आतंक का, चाहे वह विदेशी ही क्यों न हो, भय मिटाया था| उन्हें शासकीय आतंक के खिलाफ लामबंद किया था| आज देशवासियों को यह स्वयं करना है और शासकीय आतंक के खिलाफ भय मुक्त होकर लामबंद होना है| शासक वर्ग ने भले ही गांधी को बिसरा दिया है पर वे आज भी हमारी लाठी हैं|

अरुण कान्त शुक्ला
7 जुलाई 2017