Wednesday, November 17, 2010

क्या मनमोहनसिंह एक ईमानदार राजनीतिज्ञ हैं ?


 

सर्वोच्च न्यायलय की टिप्पणी ने मुझे एक बहुत पुरानी , लगभग सत्रह , अठारह वर्ष पुरानी घटना की याद दिला दी | बात उस समय की है , जब नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार में मनमोहनसिंह वित्तमंत्री थे | उस समय ऐसा कहा जा रहा था कि भारत अपनी देनदारियों को भी चुकाने की स्थिति में नहीं है और दिवालिया होने की कगार पर है | कहा जा रहा था , का प्रयोग मैंने इसलिए किया कि , न तो उस समय और न ही आज मैं भारत सरकार और उसके अर्थशास्त्रियों से सहमत हूँ कि भारत का ट्रेड बेलेंस दिवालिया होने की कगार पर था | यदि उस समय भी , और आज के दौर में भी यह बात उतनी ही सच है , स्विस बैंकों की बात छोड़ दीजिये , केवल भारत के अंदर छिपे हुए काले धन को बाहर निकाला जाता तो भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया के किसी भी देश से बेहतर होती | बहरहाल , एक ऐसी व्यवस्था में , जैसी कि हमारे देश में है , काले धन को बाहर निकालने की बात सोचना उतना ही मूखर्तापूर्ण है , जितना मनमोहनसिंह से आज यह पूछना कि वो राजा के कारनामों पर दो वर्ष खामोश क्यों रहे या उन्होंने सुब्रमणियम स्वामी को राजा पर आपराधिक मुकदमा चलाने की अनुमति क्यों नहीं दी | खामोश रहने की कला मनमोहनसिंह ने नरसिम्हाराव से सीखी या मनमोहनसिंह ने नरसिम्हाराव को सिखाई थी , यह भी राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिये शोध का एक अच्छा विषय हो सकता है | तो , मैं आपको उस दौर की बात बता रहा था , जब मनमोहनसिंह नरसिम्हाराव मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री थे और जगत प्रसिद्द शेयर मार्केट का घोटाला हुआ था , जिसे हर्षद मेहता कांड के नाम से उस दौर के लोग आज भी याद करते हैं | आज सारा का सारा विपक्ष , यह जानते हुए कि भी संयुक्त संसदीय समिति की जांचों का क्या हश्र होता है , टेलीकाम में हुए घोटाले के लिये संसदीय कमेटी से जांच करवाए जाने की माँग को लेकर अड़ा हुआ है | उस जगत प्रसिद्द घोटाले की जांच के लिये भी एक जेपीसी बनी थी , जिसके सामने मनमोहनसिंह पेश हुए थे | जब उनसे पूछा गया कि शेयर मार्केट में इतना बड़ा घपला हो रहा था , तब आप क्या कर रहे थे , तो मनमोहनसिंह का जबाब था , "मैं सो रहा था" | जब उनसे कहा गया कि आप ऐसा जबाब कैसे दे सकते हैं , तो उन्होंने जबाब दिया कि "मैं मजाक कर रहा था"|

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि देश और देशवासियों के साथ यह मजाक पिछले दो दशकों से निरंतर जारी है | आप यदि अपनी याददाश्त पर जोर डालेंगे तो पायेंगे कि हर प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री विशेषकर सरकारी विभागों में उदारीकरण की नीतियों को लागू करते समय किये जा रहे भ्रष्टाचार की तरफ से आँखे मूंदे रहा याने सोते ही रहा | चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र
की इकाइयों को निजी क्षेत्रों को ओने पौने दामों में सौंपने का मामला हो , जिसमें मार्डन फुड से लेकर व्हीएसएनएल और बाल्को तक सभी आ जाते हैं या फिर टेलीकाम इंडस्ट्री में हुए घोटालों का मामला हो , क्या कांग्रेसनीत और क्या भाजपानीत सभी सरकारों का रवैय्या जबाबदेही से भागने वाला ही रहा है | वैश्वीकरण के इस दौर में किये जा रहे निजीकरण को यदि रिश्वतीकरण और भ्रष्टाचारीकरण कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी |

भारत में 1991 , याने उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही जबाबदेही का बहुत ही संकुचित अर्थ लिया जा रहा है | जबाबदेही सिर्फ भ्रष्टाचार या अनैतिकता में लिप्त नहीं होने तक ही सीमित नहीं होती | जनतंत्र में व्यक्ति या संस्थान अपनी सार्वजनिक जिम्मेवारी के पालन के लिये उठाये गए कदमों के नतीजों के लिये भी जबाबदेह होते हैं | लेकिन भारत में इस तरह की जबाबदेही सरकार , प्रशासन और देश के विभिन्न संस्थानों तथा संस्थाओं से तो लुप्त हो ही चुकी है , विडम्बना यह है कि यह जबाबदेही हमारे देश के राजनेताओं , नौकरशाहों और संपन्न तबके के पास से भी गधे के सर से सींग की तरह गायब हो गयी है | जब चीजें गलत हो जाती हैं तो उसे व्यवस्था का दोष बताया जाता है और आजकल तो एक और नया फलसफा आ गया है , "गठबंधन" की मजबूरी | मानो व्यवस्था ईश्वर निर्मित हो और इसके लिये किसी इंसान को दोष देना पाप होगा या फिर गठबंधन बनाये रखना ऐसा ईश्वरीय आदेश है , जिसके लिये बेईमानी , भ्रष्टाचार और अनैतिकता को अनदेखा करना पुण्य का काम है |

एक बार पुनः 1992 में हुए उपर उल्लेखित वित्तीय घोटाले का स्मरण कीजिये | जब इस घोटाले का भेद खुला और उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे तब तात्कालीन वित्तमंत्री ने संसद में यह व्यक्तव्य दिया था कि , "अगर शेयर बाजार में एक दिन उछाल आ जाए और दूसरे दिन गिरावट हो तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपनी नींद हराम कर लूँ |" ( उद्धरण :प्रतिभूति एवं बैंक कारोबार में अनियमितताओं की जांच के लिये गठित संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट , खंड 1 , पेज 211 , लोकसभा सचिवालय , दिसंबर 1993 )| यह बताने की तो कोई जरुरत नहीं है कि 1992 में वित्तमंत्री कौन था | स्वतन्त्र भारत में मनमोहनसिंह पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो देश की जनता , संसद या फिर खुद के मंत्रीमंडल के सदस्यों का विश्वास हासिल किये बिना छै वर्ष का कार्यकाल पूरा कर चुके हैं | सार्वजनिक जीवन में उनकी छवि एक साफ़ सुथरे और ईमानदार व्यक्ति की है | प्रसिद्द पत्रकार खुशवंत सिंह ने अपनी किताब "
Absolute Khushwant : The low down on life , Death and most things in-between " में मनमोहनसिंह को जवाहरलाल नेहरू से भी बेहतर प्रधानमंत्री बताया है | शायद इसकी वजह वे दो लाख रुपये हों जो मनमोहनसिंह ने उनके जीवन के एकमात्र चुनाव लड़ने के लिये , लिये थे और फिर उपयोग नहीं होने पर वापस कर दिए थे | बहरहाल , खुशवंतसिंह के साथ कोई पंगा लिये बिना इतना तो कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण सादगी के साथ मनमोहनसिंह के अंदर किसी भी कीमत पर सत्ता के साथ नजदीकी बनाए रखने की चतुराई भी हमेशा मौजूद रही | क्या कभी यह भुलाया जा सकता है कि मनमोहनसिंह 1991 में आर्थिक सुधारों को लागु करने से पहले भी वित्त सचिव , रिजर्व बैंक के गवर्नर या भारत सरकार के वित्त सलाहकार के रूप में भारत में उन्हीं नेहरूवियन नीतियों को आगे बढ़ाने में लगे थे , जिनके बारे में उन्होंने पहला बजट पेश करते हुए संसद में कहा था कि "लम्हों ने खता की थी ,सदियों ने सजा पायी" | पर , भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रहते हुए मनमोहनसिंह ने कभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को उदार बनाने या लाईसेंस , परमिट राज खत्म करने की वकालत नहीं की |

मनमोहनसिंह के नरसिम्हाराव मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री रहते हुए और उनके प्रधानमंत्रित्व के प्रथम कार्यकाल के दौरान घटी दो घटनाएं भी सत्ता और राजनीतिक शुचिता के प्रति उनकी सोच को प्रगट करती हैं | नरसिम्हाराव की सरकार अल्पमतीय सरकार थी , जो बाद में जोड़ तोड़ कर बहुमतीय सरकार बनी | मनमोहनसिंह के प्रधानमंत्रित्व में भी जब न्यूक्लीयर समझौते के विरोध में वामपंथी दलों ने अपना समर्थन वापस ले लिया तो सरकार जोड़ तोड़ करके ही बचाई गयी | इससे पता चलता है कि सत्ता में बने रहने के लिये कुछ भी करने से उन्हें भी कोई परहेज नहीं है और इसा मायने में वे अन्य किसी राजनीतिज्ञ से बिलकुल अलग नहीं हैं और उनका स्वयं का कोई कनविक्शन नहीं है | वे नरसिम्हाराव के विश्वस्त थे , पर , जैसे ही सत्ता का केंद्र सोनिया गांधी बनीं , उन्होंने अपनी निष्ठा अविलम्ब बिना हिचक बदल कर सोनिया गांधी के प्रति कर ली | वे सौम्य हैं , पर अपने लिये चतुर भी हैं | सर्वोच्च न्यायालय कुछ भी पूछे , उन्होंने तो अपनी सफाई कैग को धौंसा कर दे दी , " जानबूझकर की गई गडबडी और भूलवश हुई गलती के बीच कैग को फर्क करना चाहिये , साथ ही आधिकारिक फैसलों के पीछे के संदर्भ और परिस्थितियों को समझना चाहिये | कैग पर भारी जिम्मेदारी है , इसलिए उसे ध्यान रखना चाहिये कि उसकी रिपोर्ट सटीक , संतुलित और समुचित हो "| अब आप चिल्लाते रहिये कि यह सटीक , संतुलित और समुचित की शब्दावली तो देश को दो लाख करोड़ की चोट देने वाली है | पर , जिसे ओबामा ध्यान से सुनता है , वो क्यों आपको ध्यान से सुनेगा ? वैसे , मैं आपको एक बात बता दूं कि सौम्यता और योग्यता बहत अच्छे गुण हैं , पर वे तो अमूमन हर सेल्समेन में पाए जाते हैं , एक अरब लोगों के देश के प्रधानमंत्री में तो लोग इससे कुछ ज्यादा ही देखना चाहेंगे |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"


Sunday, November 14, 2010

बराक ओबामा जाना पहचाना चेहरा –


 

बराक ओबामा जब मुम्बई के रास्ते भारत आये तो मुझे उनका चेहरा बहुत जाना पहचाना लगा | ऐसा लगा वो इसके पहले भी भारत आ चुके हैं | जबकि ओबामा पहली बार भारत आये थे |

जबसे उनके भारत आने की बात पता चली थी , जेहन में उस व्यक्ति का चेहरा उभरता था , जो अश्वेत होने के बावजूद अमेरिका का प्रेसीडेंट चुना गया था | 47 वर्ष का एक व्यक्ति जो ईराक पर हमले से लेकर , हर उस गलती को ठीक करने की इच्छा रखे था , जो बुश और उसके पहले के जमाने में की गईं थीं | एक ऐसा व्यक्ति , जिसने अपने कार्यकाल के पहले साल में अमेरिका के चेहरे पर लगे बदनुमा दागों को धोने की कोशिशें की थीं और पूरी दुनिया को यह सन्देश देने की कोशिश की थी कि अमेरिका जैसे हठीले , गर्वीले और दुनिया को अपने इशारों पर नचाने की इच्छा रखने वाले राष्ट्र के अंदर भी अपनी गलतियों को सुधारने और उनसे सीख लेने का माद्दा है | एक ऐसा व्यक्ति , जो टर्की से लेकर त्रिनिदाद तक यह सन्देश दे रहा था कि वह अपने पूर्ववर्तियों से इस लिहाज से अलग है कि उसके अंदर राष्ट्र के प्रति गहन जिम्मेदारी के साथ साथ विश्व के नागरिक होने के दायित्व का बोध भी था |

पर , यह बराक हुसैन ओबामा , जो मुम्बई के रास्ते भारत आया और जिसने आते ही दस अरब डालर का माल भारत को बेचा , जिसने बच्चों के साथ मय पत्नी नृत्य किया , जिसने मुम्बई में आतंकीयों के शिकार लोगों को श्रद्धांजली दी और फिर सेंट जेवियर्स की क्षात्रा के सवाल के जबाब में न केवल भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू पर तोल दिया बल्कि पाकिस्तान में स्थायित्व भारत के नौजवानों के भी हित में है , यह भी कहा , वह ओबामा निश्चित रूप से नहीं था , जिसने दो वर्ष पहले अमरीका का राष्ट्रपति पद संभालते समय अमेरिका के बाहर भी करोड़ों लोगों के दिल में खुशनुमा ख्याल पैदा किये थे | दिल्ली पहुंचते ही ओबामा का असली चरित्र बाहर आ गया | दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष होने के गुमान को प्रदर्शित करने वाला चरित्र | दिल्ली के अंदर हैदराबाद हाऊस में हुई पत्रकार वार्ता के बाद ओबामा ने जिस तरह मनमोहनसिंह की पीठ थपथपाई , वह क्या प्रदर्शित करता है ? इस थपथपाहट से मनमोहनसिंह भले ही गदगद हो गए हों , लेकिन , भारत की अमेरिका परास्त लाबी को छोड़कर , शेष करोड़ों भारतीयों को यह थपथपाहट काटों से कम नहीं चुभी होगी | यही वह क्षण था जब मुझे बराक हुसैन ओबामा का चेहरा पहचाना हुआ लगा | लगा यही तो बुश है | यही क्लिंटन , यही कार्टर ,यही आईजनहावर है | हमारे देश की यह राष्ट्रीय विडम्बना है कि देश में राष्ट्रीय शर्म नहीं है | यदि है भी तो उसे राष्ट्रीय नहीं कह सकते , क्योंकि वह केवल आम  देशवासियों के पास है ,राजनेताओं के पास नहीं |

 अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"  

Friday, November 5, 2010

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं ---

ब्लॉग जगत के समस्त पाठकों , ब्लॉगर बंधुओं , समस्त नाते-रिश्तेदारों , मित्रों , प्रियजनों को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं | 
अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"