यदि दिल्ली पुलिस बाईक पर
चलने वाले इन आवारा शोहदों और उनके लापरवाह तथा पोलिस और प्रशासन को अपना गुलाम
समझने वाले माँ-बापों के खिलाफ सच में सख्त होती है तो ये एक बहुत ही राहत भरा कदम
होगा, जिसका पालन पूरे देश में किया जाना चाहिए| उस लड़के की मौत की वजह से अभी दिल्ली पोलिस को तथाकथित अच्छे लोगों से
गाली खानी पड़ रही है, जिन्हें उन जैसे बाईकर्स का आतंक अभी तक झेलना नहीं पड़ा है| लेकिन सच यही है कि इन बाईकर्स ने
आम लोगों विशेषकर महिलाओं,
बच्चों और
बूढ़ों का सड़क पर चलना मुश्किल कर दिया है| | ये बीमारी , नव धनाड्यों की औलादों की बेजा हरकतों की,
मेट्रों से होते
हुए छोटे शहरों और गांवों तक फ़ैल रही है| हाल ही में रायपुर में जितने भी नौजवानों
के एक्सीडेंट हुए हैं, उन
सब के पीछे नव धनाड्य, संभ्रांत, संपन्न
कहे जाने वाले घरानों के इन लड़कों का स्पीड और किसी को भी कुछ नहीं समझने वाला
क्रेज ही है| रायपुर
शंकर नगर रोड पर भी, जोकि
काफी व्यस्त सड़क है, इन बिगड़े नवजवानों को
मोटरसाईकिलों पर ऐसे करतब करते देखा जा सकता है| ये खुद तो मरते हैं, दूसरों की जिन्दगी को भी खतरे में डालते हैं| कोढ़ में खाज ये कि इनमें से
कोई भी कमाई धमाई नहीं करता है| देश के लिए इनका एक पैसे का भी योगदान नहीं है, न तो टेक्स के रूप में और न किसी ओर
तरह| जिस लड़के की
मृत्यु हुई है, उसकी
माँ अब रो रही है, लेकिन इतनी रात को उसका 19 साल का बेटा घर
से गायब था, ये उसे नहीं मालूम था?
क्या इस पर कोई विश्वास कर सकता है? एक और लड़के ने जिसे अपनी
ड्यूटी के बाद घर जाना था घर पर फोन करके कह दिया की वो दोस्तों के साथ रात में
आऊटिंग पर जा रहा है और सुबह वापस आयेगा| आप बताईये की ये कौन सा कल्चर है| उसके माँ ,बाप ने भी नहीं कहा कि नौकरी के बाद घर
वापस आओ| आऊटिंग
पर जाना है तो उसका कोई समय होना चाहिए| शहर
की सड़कों पर लोगों को परेशान करते हुए सर्कस करना और बहादुरी दिखाना कौन सा भला और
देशोपयोगी कार्य है? दिल्ली
में ये रोज की घटनाएं हैं, आखिर
पोलिस इनको कैसे नियंत्रण में लाये?
ये भाग जायेंगे ,
इनके तथाकथित संपन्न और
रसूखदार बाप इन्हें बचाने आ जायेंगे| ये दूसरे दिन फिर वही करेंगे और, और ज्यादा, दबंगई के साथ
करेंगे| कुछ
दिन पहले ही रायपुर में पंडरी बाजार में आधी रात को कुछ संपन्न घराने के लड़के
पकड़ाए थे, जो शौकिया
लोगों की कारों को तोड़ते थे और जब एक नागरिक ने इसे देखा और विरोध किया तो
उन्होंने उस नागरिक के साथ मार पीट भी की| | इन
संपन्न घरानों की औलादें
महिलाओं के गले
से चेन खींचकर
भागती हैं| ये कौन सा कल्चर है,
जिसे हम बढ़ावा दे रहे हैं,
कहीं तो रोक लगानी ही होगी|
अपने बच्चों को अच्छा नागरिक
और क़ानून का पालन करने वाला नागरिक बनाना माता-पिता के सामाजिक दायित्वों में है|
यदि वे ऐसा नहीं कर रहे हैं
तो उन्हें
सजा मिलनी चाहिए|
अरुण कान्त शुक्ला, 31जुलाई, 2013 Wednesday, July 31, 2013
Thursday, July 18, 2013
हम गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?
हम गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?
बिहार के एक
स्कूल में मिड डे मील की वजह से हुई बच्चों की मृत्यु ने बहुत दुखी कर दिया है|
यदि ये कोई साजिश है तो बहुत ही घृणित और
अक्षम्य है| यदि ये लापरवाही
है , जैसी कि अन्य कई जगहों पर
अनेकों बार हुई है तब भी जानबूझकर की गयी ह्त्या से ज्यादा सजा के लायक है|
पूंजीवादी समाज में सरकारों को देश के सभी
लोगों के लिए शिक्षा, नौकरी, रोजगार, काम, देने के बजाय
मुफ्त में खाना, चप्पलें, साईकिलें, बीमार गायें, मरियल बकरी बांटना पुसाता है| लेपटाप से लेकर
पोर्टेबल कलर टीव्ही तक क्या राज्यों की सरकारों ने नहीं बांटा है| इस तरह की योजनाओं से इन राजनीतिक दलों के पास
एक ऐसा तबका हमेशा के लिए तैयार हो जाता है, जो उनके रहमों करम और इशारों पर नाचने के लिए तैयार रहता है|
यही उनका वोट बैंक है और यही उनका समर्थक वर्ग|
यह एक राजनीतिक दल से दूसरे के पास शिफ्ट हो
सकता है, मगर रहता हमेशा उनके
रहमोकरम पर ही है| दान पे जीने वाला|
दान का अपना
मनोविज्ञान होता है| विशेषकर जब दान
को प्राप्त करने वाला गरीब और वंचित हो या पंडित पुजारी हो तो , दोनों को दिए गए दान की गुणवत्ता और ग्राहता
में यह मनोविज्ञान और भी साफ़ होकर दिखाई देता है| गरीबों को जब दान देने की बारी आती है तो करोडपति के घर से
भी फटे और फटे न भी हों तो पुराने कपड़े ही बाहर निकालेंगे| घर के नौकरों तक को, जोकि घर के अभिन्न अंग होते हैं , हमेशा सुबह का खाना शाम को, और रात का खाना सुबह ही दिया जाता है| यहाँ तक की कई घरों में मैंने देखा है कि कम से
कम तीन चार दिनों तक फ्रिज में पड़े रहने के बाद खाने को माँगने आने वाले भिखारियों
या घरेलु नौकरों को देते हैं| यह मानकर चला
जाता है की ऐसे लोग सब कुछ पचा लेते हैं और जो वस्तुएं सामान्यतया दानकर्ता के लिए
अखाद्य होती हैं , वे गरीब तबके के
लोग खा भी लेते हैं और उन्हें नुकसान भी नहीं होता|
दान का यह
मनोविज्ञान कुछ व्यक्तियों, परिवारों तक सीमित नहीं रहता| ये समाज से होते हुए सरकारों
की मनोदशाओं और सरकार की योजनाओं को अमल का जामा पहनाने वाली पूरी मशीनरी पर भी
गहरा और व्यापक असर डालता है| योजना आयोग जब यह कहता है कि एक आदमी 26 रुपये
प्रतिदिन में अपना भरण पोषण कर सकता है तो मनोविज्ञान गरीब को उसी लायक समझने का
है की इसे भर पेट और अच्छे भोजन की आवश्यकता ही कहाँ है? एक मंत्री, एक सरकारी
अधिकारी या कोई नेता जब मात्र 5 रुपये में अन्नपूर्णा योजना के तहत दिए जाने वाले
दाल-चावल योजना को लेकर अपनी पीठ थपथपाता है तो उसके पीछे भावना यही रहती है कि यह
तो सरकार की मेहरबानी है, जितनी मिले उतनी ही बहुत है| यही बात सरकार की मिड डे
मील योजना में भी साफ़ झलकती है|
चाहे वह केंद्र की सरकार हो
या राज्य की सरकारें, उनके प्रशासन का काला चेहरा यदि देखना है तो सस्ते में
उपलब्ध कराये जा रहे खाद्यानों में, मिड डे मील जैसी योजनाओं में, गर्भवती महिलाओं
के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रमों में, गरीबों के लिए लगाए गए नेत्र चिकित्सा
शिविरों में, मनरेगा जैसी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार में, उस काले चेहरे को
देखा जा सकता है| अधिकतर मामलों में सस्ते में दिए जाने वाला अन्न सडा गला और न
खाने लायक होगा, मुफ्त में दिया जाने वाला भोजन पूरी तरह घटिया सामानों से बना
होगा और ठेकेदार से लेकर किसी भी अधिकारी और मंत्री या नेता के जेहन में ये बात
नहीं होगी की इसे खाने वाले इंसान होंगे| बस किसी हादसे के बाद ही हायतौबा मचेगी
और फिर कुछ दिनों बाद सब जैसा का तैसा हो जाएगा| लालच पर आधारित व्यवस्था में दान
पर जीने वालों को इंसान नहीं समझा जाता, यही सबसे बड़ा सच है| इस व्यवस्था ने हमें
भी यही सिखाया है| हम भी गरीब या
वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?
अरुण कान्त शुक्ला
१८जुलाई, २०१३
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