Saturday, December 31, 2011

कुरबानियों की कीमत


सेवा निवृति पर मांगता थैली ,
कुरबानियों की कीमत लगाता है ,
मजदूरों का चाहे नेता समझे खुदको ,
मुझको तो भिखारी लगता है ,
 
चार पंक्तियाँ भेंट करते हुए , गिरीश पंकज की एक सुंदर कविता वाल पर साभार ले रहा हूँ | वे क्षमा करेंगे ..;
 
बातें बड़ी-बड़ी करता है अच्छा है
लेकिन क्या उसका जीवन भी वैसा है ?
कथनी-करनी में अंतर जो रखता है
इसका मतलब यही हुआ वो नेता है
केवल शब्दों को चरने से क्या होगा.
अच्छा है इंसान जो उसको जीता है
ढोंगी, पाखंडी, फरेब के सौदागर
किसको बोलें, किससे बोलें चलता है
नकली फूल यहाँ सम्मानित होते हैं
असली बेचारा कोने में सड़ता है
झूठ झूठ बस झूठ ही जिसका जीवन है
हीरो बन कर वही आजकल रहता है
प्रतिभा पर हँसती रहती है ये दुनिया
क्या बोलें ये दौर ही ऐसा-वैसा है
कहते है कि वो कविताएँ लिखता है
लेकिन हरकत से अपराधी लगता है
भेष बदल कर आ जाने से क्या होगा
पकडाता वो हुआ-हुआ जब करता है
मन की बातें 'फेसबुक ' में कह लो तुम
वैसे अपनी कौन यहाँ जो सुनता है?
पंकज अपनी राह चलों दुःख क्या करना
मंजिल को पाने में 'टाइम' लगता है

Wednesday, December 21, 2011

बिना दुर्योधन का महाभारत –


बिना दुर्योधन का महाभारत –

केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने लोकपाल बिल का जो स्वरूप लोकसभा में पेश करने का फैसला किया है , जाहिर है उसके एक दो बिंदुओं पर कुछ संशोधनों के साथ संसद की स्वीकृति भी उसे मिल ही जानी है , क्योंकि राजनीतिक दलों का कोई भी हिस्सा अन्ना के जनलोकपाल की अवधारणा से पूरी तरह सहमत नहीं है | यदि ऐसा नहीं भी होता है , तो भी , संसद में यह उस अवधारणा और रूप के साथ कभी पास नहीं होगा , जैसा टीम अन्ना चाहती है | टीम अन्ना और स्वयं अन्ना इसे सरकार या कांग्रेस का देश के साथ सबसे बड़ा धोखा बता रहे हैं और टीम अन्ना की यही समझ आंदोलन की सीमितता और भटकाव का सबसे बड़ा प्रमाण है | प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था स्वयं एवं अपने प्रतीकों को बचाये रखने के लिये अपनी पूरी शक्ति लगाती है | इसीलिये , अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करते हुए भी प्रत्येक राजनीतिक दल ने संसद की प्राथमिकता और सर्वोच्चता का प्रश्न सबसे पहले रखा और आज भी वे यही कह रहे हैं | फ़ौरन सियासी लाभ प्राप्त करने के लिये , वे कितना भी अन्ना के मंच पर न आ जाएँ , किन्तु , राजनीतिक व्यवस्था को बचाए रखने के खातिर , वे सभी एक हैं , यही सत्य नहीं समझना , टीम अन्ना सबसे बड़ा भटकाव है |

यह तय है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का एक और दौर देशवासियों को देखने मिलने वाला है | यदि अप्रैल’2011 से लेकर अभी तक अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आये उतार – चढ़ावों  को गौर से देखा जाये तो बेशक कहा जा सकता है कि इस पूरे दौर में केन्द्र सरकार अथवा कांग्रेस को यह सफलता मिली है कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन जैसे बड़े लक्ष्य को लेकर शुरू हुए आंदोलन को केवल कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन के स्वरूप में मोड़ने में कामयाब हुए हैं और टीम अन्ना और स्वयं अन्ना उस भटकाव का शिकार हुए हैं | यही कारण है कि अन्ना के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में जुटे समर्थकों का बहुत बड़ा मुखर और अमुखर हिस्सा आंदोलन से इसलिए अलग होता गया कि उसे टीम अन्ना के सदस्यों और स्वयं अन्ना के व्यवहार और नीतियों से यह आंदोलन मात्र कांग्रेस विरोधी लगने लगा |

अन्ना और उनकी टीम को इस बात का श्रेय हमेशा मिलेगा कि भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की आम आवाज की आवाज को उन्होंने स्वर प्रदान किया | पर , इस पूरे आंदोलन को अगर एक पंक्ति में व्यक्त करना हो तो इसे बिना दुर्योधन का महाभारत की संज्ञा देनी होगी | अन्ना के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का पूरा जोर सरकार में शामिल राजनीतिज्ञों और नौकरशाही के खिलाफ ही है | देश के कारपोरेट सेक्टर और शासक वर्ग में शामिल अन्य तबकों के भ्रष्टाचार पर प्रारंभ से लेकर  अभी तक अन्ना और अन्ना टीम ने मौन ही बनाए रखा है | इसीलिये मैंने इसे बिना दुर्योधन का महाभारत कहा है , क्योंकि किसी भी देश में वहाँ का कारपोरेट सेक्टर और शासक वर्ग में शामिल लोग ही , वे मुख्य लाभार्थी होते हैं , जिन्हें व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और प्रबंधकीय कुशलता याने इमानदारी और पारदर्शिता , दोनों से ही लाभ पहुंचता है |

सम्पूर्ण राजकीय प्रबंधन में भ्रष्टाचार , आम आदमी को कितना भी बैचेन क्यों न करे , वह एक छोटा हिस्सा ही है | दूसरा बड़ा हिस्सा , सैकड़ों वैधानिक तरीकों से ऐसी वैधानिक नीतियों का निर्माण होता है , जिससे कारपोरेट सेक्टर और शासक वर्ग के लोगों को अधिक से अधिक फ़ायदा और छूटें प्राप्त हों | इस नजरिये से देखें तो सम्पूर्ण राजकीय प्रबंधन में विधिक और अविधिक दोनों पहलू एक दूसरे का पूरक ही हैं | उदाहरण के लिये यदि आज देश की घोषित 70% संपदा वैधानिक रूप से मात्र 8200 लोगों के कब्जे में हो और शेष एक अरब और बीस करोड़ लोग बाकी 30% में गुजारा कर रहे हों , तो , यह देश की उन राजकीय आर्थिक नीतियों की बदौलत ही है , जो देश में पैदा हुई संपदा को निजी संपदा के रूप में कुछ लोगों के हाथ में सौंप देती है | उसके बाद तो उस निजी संपदा से और अधिक अतिरिक्त संपदा पैदा करना और इसके लिये कालेधन को एकत्रित करने से लेकर रिश्वत देने तक के सारे कार्य बच्चों के खेल के समान ही हो जाते हैं | एक बार आप कारपोरेट तबके को इतनी आर्थिक ताकत दे देते हो कि वह अपना काम करवाने के लिये भरपूर रिश्वत दे सके तो उसके बाद यह कल्पना कि वह तबका रिश्वत नहीं देगा और और सरकार में शामिल लोग रिश्वत नहीं लेंगे , पाखंड के अलावा कुछ नहीं है | यह टीम अन्ना और उनकी टीम की सोच में कहीं नहीं है कि निजीकरण की वैधानिक नीति ही कारपोरेट सेक्टर को वह आधार और ताकत प्रदान करती है कि वो उस निजीकरण की नीति लागू करने वाले मंत्रियों और नौकरशाहों को रिश्वत देकर खरीद सके और निजीकरण का फायदा उठा सके |

ठीक उसी तरह , जिस तरह भ्रष्टाचार शासक वर्ग के लिये राजकीय प्रबंधन का एक अनिवार्य हिस्सा है , भ्रष्टाचार विरोधी राजनीति भी शासक वर्ग की नीतियों का एक अनिवार्य हिस्सा है | 1970 के दशक का जयप्रकाश आंदोलन और 1980 के दशक का व्ही.पी. सिंह का बोफोर्स के खिलाफ खड़े होना , दोनों ने देश के मध्यम वर्गीय असंतोष को स्वर तो दिया लेकिन दोनों ही आन्दोलनों ने उसी व्यवस्था को पुख्ता  भी किया , जिसके खिलाफ लोग एकत्रित हुए थे | अन्ना व्यवस्था में परिवर्तन की बात करते हैं , उपरोक्त दोनों आंदोलन भी ऐसा ही कह रहे थे , लेकिन व्यवस्था पुख्ता हुई या परिवर्तित , नतीजा हमारे सामने है | वर्गीय दृष्टिकोण से विलग , कोई भी राजनीति आम आवाम के अंदर भ्रांति पैदा करती है कि व्यवस्था में बिना किसी आमूलचूल परिवर्तन के सुधार हो सकता है | पर , यह अंततः , उस आंदोलन के पीछे लामबंद हुए लोगों के लिये धोखा ही साबित होता है | अन्ना का भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन , उपरोक्त दोनों आन्दोलनों से ज्यादा उग्र है , इसमें कोई संदेह नहीं | लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या कुछ ठीक ठाक लोगों का समूह विधिक और अविधिक . दोनों तरह के भ्रष्टाचार से देशवासियों को मुक्ति दिला सकता है ?

अरुण कान्त शुक्ला

Saturday, December 10, 2011

परी कथाओं से पेट नहीं भरता --


परी कथाओं से पेट नहीं भरता –

नवउदारवाद और भूमंडलीकरण के भारत में प्रवेश के दो दशकों में राजनीतिज्ञों , अर्थशास्त्रियों , उद्यमियों , बुद्धिजीवियों और बाजार के तथाकथित रणनीतिकारों की ऐसी जमात देश में तैयार हो गई है , जो उदारीकरण या सुधारों की सारे की सारी नीतियों को दादी माँ की परी कथाओं के समान पेश करने में लगी हुई है | भारत में विदेशी पूंजी को प्रवेश देने के सवाल पर ये पूरी जमात इतनी सम्मोहित है कि उन्हें विदेशी कंपनियों का देश के क़ानून को तोड़ना , जमीनों पर बेजा कब्जा करना , श्रम कानूनों का उल्लंघन करना और देश में कमाए गये लाभ को नियमों और कानूनों को धता बताकर देश के बाहर ले जाना भी इसका प्रमाण लगता है कि विदेशी पूंजी को भारत में खुले और आबाध तौर पर आने दिया जाये |

ये (कु)तर्क तब भी दिये गये थे , जब बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध हुआ था और आज जब खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध हो रहा है , तब भी ये (कु)तर्क दिये जा रहे हैं | इनके द्वारा पेश किये जा रहे आंकड़ों से इतर यदि देखा जाये तो बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जिस मात्रा में विदेशी पूंजी के देश में आने , रोजगार पैदा होने और आम आदमी को बीमा सुलभ होने का , जो सपना दिखाया गया था , उसमें से एक तिहाई की पूर्ति भी हुई हो तो गनीमत है | उल्टे , इन कंपनियों ने आने के बाद शेयर मार्केट पर आधारित बीमा की ऐसी लहर चलाई , जिसमें बीमा की मूल अवधारणा तो खो ही गई , बीमा धारकों के बड़े हिस्से को शेयर मार्केट के गच्चों का अनुभव भी हो गया |

यही कारण है , जब छत्तीसगढ़ में 6 दिसंबर 2011 को छपी खबर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के खिलाफ देश भर में विरोध लेकिन रायपुर में तो वालमार्ट के बेनर तले यह धड़ल्ले से जारी पर आई प्रतिक्रिया मैंने 7 दिसंबर के अखबार में पढ़ी तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ | अभी कुछ दिन पहले समाचार आया था कि भारत सरकार के अनेक विभागों में अति महत्वपूर्ण पद इसलिए खाली पड़े हैं क्योंकि सरकार उन पदों पर टेक्नोक्रेट्स को नियुक्त करना चाहती है | मेरे विचार से टेक्नोक्रेट (प्रोफेशनल) , चाहे वह किसी भी क्षेत्र से क्यों न जुड़ा हो , एक ऐसा व्यक्ति है , जो आंकड़ों की ऐसी परिकथा में खोया रहता है , जिसका समाज की वास्तविकताओं से कोई संबंध नहीं रहता और जिसके सपनों को पूरा करने की बहुत क्रूर कीमत देश के गरीब और कामगार तबकों को चुकानी पड़ती है | क्या इस सच को कोई झुठला सकता है कि एक टेक्नोक्रेट वित्तमंत्री के द्वारा प्रारंभ की गईं नीतियों की वजह से ही पिछले दो दशकों में दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है | देश में प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , योजना आयोग के अध्यक्ष , प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार , रिजर्व बैंक के गवर्नर सभी टेक्नोक्रेट हैं और पिछले चार सालों में महँगाई पर नियंत्रण पा लेने की उनकी सारी घोषणाएं गलत सिद्ध हुई हैं |

खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बिखरे खुदरा क्षेत्र को संगठित करेगा या नहीं , रोजगार निर्माण होंगे या नहीं , सप्लाई चेन और कोल्ड स्टोरेज ढांचा ठीक होगा या नहीं , इस संबंध में वर्ष 2009 में लोकसभा की स्थायी समिती (वाणिज्य) ने अपनी 90वीं रिपोर्ट में स्पष्ट निष्कर्ष दिये हैं | यह रिपोर्ट नेट पर भी उपलब्ध है | कमेटी के निष्कर्ष और सरकार की पहल के बीच का अंतर स्वयं अंदर के सारी कहानी कह देता है | रिपोर्ट के अनुसार कमेटी का स्पष्ट निष्कर्ष था कि भारत के खुदरा व्यापार में विदेशी एकल ब्रांड की भारी भरकम कंपनियों से विदेशी निवेश आमंत्रित करने से भारत के खुदरा व्यापारी हाशिए पर आ जायेंगे और रोजगार शुदा लोगों को बेरोजगार होना पड़ेगा | भारतीय उपभोक्ताओं के हितों पर भी विपरीत असर पड़ेगा क्योंकि विदेशी भीमकाय कंपनियां पूरी तरह लूटमार के नीतियों के तहत पहले बाजार पर नियंत्रण करने के लिये कीमतों को नीचे रखकर ग्राहकों को लुभाएंगी और बाद में स्थानीय खुदरा व्यापारियों को बाजार से खदेड़ने के बाद एकाधिकार कायम करके मनमानी कीमतों को भारतीय उपभोक्ताओं पर थोपेंगी | स्थानीय मेंन्यूफेक्चरर्स , विशेषकर छोटी औद्योगिक इकाईयां धीरे धीरे बाजार से बाहर हो जायेंगी | संगठित बड़ी विदेशी कंपनियों के प्रवेश का दुष्प्रभाव देश के आर्थिक स्थिति पर भी पड़ेगा और सधन(Haves) और निर्धन(Have nots) के बीच के खाई बढ़ेगी | स्थायी समिती के इतने स्पष्ट और प्रबल विरोध के बाद भी सरकार खुदरा में विदेशी निवेश क्यों लाना चाहती है , इसके जबाब में सरकार के पास भी केवल परीकथाएं ही हैं |

सप्लाई चेन , कोल्ड स्टोरेज , सबका निर्माण देश में ही हो सकता है , बशर्ते सरकार खुदरा क्षेत्र में कुछ निवेश करे और और पिछले दो दशकों में करों में अनाप शनाप छूटें लेकर सरकार के मदद से अपनी परिसंपत्तियों में इजाफा करने वाले और पिछले दो सालों में दो लाख करोड़ रुपये का पैकेज लेकर , धेला भर फायदा भी उपभोक्ताओं को नहीं देने वाले , भारतीय उद्यमी अपने निवेश के दिशा बदलें और विदेशों में संपत्तियों के खरीदी के बजाय देश में निवेश करें | खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की वकालत करने वाले पहले इसकी पड़ताल करें कि क्यों इन उद्धारकर्ताओं के रहते हुए भी अमरीका और यूरोपीय देशों में महँगाई बढ़ रही है और वहाँ के किसानों को खरबों रुपये के सबसीडी उन देशों की सरकारों को देनी पड़ रही है |

हमारे देश का खुदरा व्यापार समाज के साथ एकरस है | इसको धक्का लगाने का मतलब , देश के 80 करोड़ लोगों को धक्का लगना है | यह परिकथा का सुखद हिस्सा है कि किसानों और डाईनिंग टेबिल के बीच से बिचौलिए हट जाने से उपभोक्ताओं को सामान सस्ते में मिलेगा | पर, एकबार आपूर्ति श्रंखला पर  पूरी तरह से कब्जा हो जाने के बाद बिलाशक कारपोरेट खुदरा स्वयं सबसे बड़ा बिचौलिया बन जायेगा | देश की जनता की जरुरत अन्य प्रकार की हैं | क्या कोई बिगबाजार या वालमार्ट , रिक्शा चलाने वाले व्यक्ति को अलसुबह दुकान खोलकर दो या तीन रुपये की शक्कर और चाय की पत्ती देगा ताकि उसका पूरा परिवार काली चाय पी सके ? क्या , एक मध्यमवर्गीय आदमी को ये भीमकाय रिटेलर्स बेटी की शादी के लिये हजारों रुपये के कपड़े , बरतन , जेवर और अन्य सामान उधार देंगे ताकि पहले वह अपनी बेटी का ब्याह करवा ले और बाद में उसका पैसा धीरे धीरे किश्तों में चुका दे ? ऐसे अनेकों और प्रश्न हैं , जिनका जबाब बड़ा न है | जिस देश में महज 8200 लोगों के पास देश की संपत्ति का 70% हिस्सा हो , जहां की 70% जनता आज भी गाँवों में रहती हो , जहां 78% लोग 20 रुपये से कम पर गुजारा करते हों , वहाँ खुलने वाले भीमकाय रिटेल स्टोर सम्पत्तिवानों की तृष्णा पूरी करने के साधन तो हो सकते हैं , पर समाज की जरुरत पूरी करने के साधन नहीं | सीधी बात है , परिकथाओं से मन बहल सकता है , पेट नहीं भर सकता |

अरुण कान्त शुक्ला     

Sunday, November 27, 2011

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पीछे का सच –


 प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पीछे का सच –

यह संयोग तो कदापि नहीं है कि यूरोप के आर्थिक संकट से थर्राये भारतीय उद्योगपति जब विश्व आर्थिक फोरम के अंतर्गत आयोजित भारत आर्थिक सम्मेलन में सरकार से ताबड़तोड़ नीतिगत कदम उठाने और विदेश में छाई आर्थिक सुस्ती से भारत में पूंजी प्रवाह कम न होने देने की मांग कर रहे थे , तब , कोलकाता में उद्योग चेंबर एसोचेम के सदस्यों को वित्तमंत्री दिलासा दे रहे थे कि वैश्विक आर्थिक संकट का भारत पर असर तो हुआ है लेकिन इससे घबराने की जरुरत नहीं है और इससे निपटने के लिये सरकार कठोर कदम उठाने से नहीं हिचकेगी | एक सप्ताह के भीतर ही केन्द्र सरकार ने पेंशन सेक्टर में 26% तथा मल्टीब्रांड रिटेल में 51% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने के साथ सिंगल ब्रांड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को 51% से बढ़ाकर 100% करके बता दिया कि भारत के सबसे बड़े टेक्नोक्रेट , हमारे प्रधानमंत्री के अंदर बसी एडम स्मिथ की आत्मा भले ही लोगों को सुप्त लग रही हो , पर , वो अभी भी पूरी तरह जागृत है |

दरअसल , आज जब भारत सरकार या हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह , उदारीकरण का नया दौर लागू करने जा रहे हैं , तब , हमारे देश की अर्थव्यवस्था लगभग उसी दशा से गुजर रही है , जैसी कि वो 1991 में थी , जब मनमोहनसिंह के वित्तमंत्री रहते हुए भारत में उदारीकरण के सुधारों को प्रारंभ किया गया था | जो 1991 के दौर से गुजरे हैं , वो जानते हैं कि अर्थव्यवस्था आज भी उतनी ही अनिश्चितता और अस्थिरता से गुजर रही है , जैसी कि वो 1991 में थी | भारतीय मुद्रा का मूल्य डालर के मुकाबले लगातार गिरता जा रहा है | विदेशी मुद्रा का प्रवाह ही नहीं रुका है , घरेलु बाजार से लगभग सवा खरब रुपये की विदेशी मुद्रा पिछले कुछ समय में पलायन कर चुकी है | बजट घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है | व्यापार घाटा सुरसा के मुहँ के समान फैलता जा रहा है | मनमोहनसिंह हर आलोचना के जबाब में जिस विकास दर का दंभ  भरा करते थे , वह इस वर्ष 7.5% भी रहे तो गनीमत है | कुल मिलाकर अर्थशास्त्र का साधारण जानकार भी कह सकता है कि जो कुछ भी हो रहा है , वह निराशाजनक है | भारतीय अर्थव्यवस्था आज जिस दौर से गुजर रही है , वह समय मांग कर रहा है कि उदारीकरण के दो दशकों की समीक्षा कर सतर्कता के साथ फैसले लिये जायें | पर , मनमोहन सरकार ऐसा करने के बजाये , एक बार फिर से देशवासियों को अमृत बताकर उदारीकरण का विष पीने को कह रही है |

एक पुरानी कहावत है कि जब सब कुछ निराशाजनक हो तो दुस्साहसी बनना चाहिये और 1991 के बाद भारत सरकार एक बार पुनः दुस्साहसी बन रही है | पिछले एक सप्ताह के दौरान विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को लुभाने के लिये केन्द्र सरकार के द्वारा उठाये गये कदम उसी दुस्साहस का प्रतीक हैं | दर्दनाक यह है कि भारत सरकार का यह दुस्साहस भारत के मजदूरों , किसानों और वंचित तबके के प्रति अपनी प्राथमिक सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये न होकर , देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 30 करोड़ देशवासियों , देश के कुल बच्चों में से 40% कुपोषित बच्चों की छाती पर  पाँव रखकर , भारत के उद्योग जगत और संपन्न तबके को खुश करने तथा अमेरिका और यूरोप के रईस देशों की मालदार कंपनियों को मंदी के दौर से निकालने के लिये है , जिसके लिये साम्राज्यवादी देशों के तरफ से पिछले लंबे समय से भारत के ऊपर दबाव बना हुआ था | कुछ समय पूर्व वाशिंगटन में हुई अमेरिका–भारत आर्थिक और वित्तीय सहयोग परिषद की बैठक में अमेरिका के ट्रेजरी सेक्रेटरी टिमोथी गीथनर ने लगभग फटकार लगाते हुए कहा था कि अमेरिकन कंपनियां अभी भी भारत में बीमा , बैंकिंग , मल्टीब्रांड रिटेल और ढांचागत क्षेत्रों में रुकावटों का सामना कर रही हैं , जिसके फलस्वरूप दोनों देशों में रोजगार सृजन और आर्थिक विकास अवरुद्ध है | यदि भारत को मजबूत विकास दर की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करना है तो उसे पर्याप्त विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिये ठोस कदम उठाने के साथ घरेलु स्तर पर भी बाजार को निवेश मुहैय्या कराना होगा | यही तभी हो सकता है , जब भारत लंबित पड़े आर्थिक और वित्तीय सुधारों को तेजी से और तुरंत लागू करे | वह चाहे पीएफआरडीए जैसा घृणित क़ानून बनाकर लगभग 48 करोड़ कामगारों की गाढ़ी कमाई विदेशी और देशी पूंजी के हवाले करने का मामला हो या मल्टी रिटेल में 51% और सिंगल ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की सीमा को 51% से बढ़ाकर 100% करके जमीन , फसल और उत्पादों को विदेशी प्रबंधन को सौंपने का मामला हो , सभी कदम अंतर्राष्ट्रीय और घरेलु बड़ी पूंजी के निर्देशों के अनुसार ही उठाये जा रहे हैं | इन कदमों का परिणाम , पीएफआरडीए के मामले में चाहे कितने ही दावे भारत सरकार और उसके पिठ्ठू अर्थशास्त्री क्यों न कर लें , कामगारों की जीवन भर की कमाई लुटेरों के हाथों में सौंपने के अलावा कुछ नहीं है | लोकसभा में पास होने के बाद पीएफआरडीए 2011 क़ानून बन जायेगा और भले ही किसी न्यायालय में इसे चुनौती न दी जा सके , लेकिन नैतिकता की अदालत में सरकार का यह काम हमेशा घृणित ही ठहराया जायेगा कि उसने देश के 48 करोड़ कामगारों को कान पकड़कर अपने जीवन भर की कमाई को जुएं में लगाने को मजबूर किया , क्योंकि वह कमाई उसके पास जमा करने के अलावा कोई दूसरा चारा उन कामगारों के पास नहीं था |

इसी तरह , भारत सरकार और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा तीन वर्षों में एक करोड़ रोजगार पैदा होने , किसानों को वाजिब मूल्य प्राप्त होने और उपभोक्ताओं को वाजिब दामों पर सामग्री मिलने के कितने भी दावे क्यों न कर लें , वास्तविकता और अन्य देशों के अनुभव यही बताते हैं कि कि देश के छोटे किसान , छोटे फार्म्स और छोटी ओद्योगिक इकाइयां , विदेशी पूंजी के द्वारा संचालित संगठित रिटेल की जरूरतों की पूर्ति , बड़े घरेलु आपूर्तिकर्ताओं और विदेशी रिटेल आपूर्तिकर्ताओं की प्रतियोगिता के सामने नहीं कर पाएंगी और उन्हें या तो बिकना है या बर्बाद होना है | एक करोड़ रोजगार के अवसर भले ही पैदा हों , पर , वो होंगे खुदरा व्यापार में लगे पांच करोड़ से ज्यादा स्वरोजगारियों और रोजगार शुदा लोगों के रोजगार खोने की कीमत पर ही | इसमें कोई शक नहीं कि यदि मल्टीब्रांड में विदेशी निवेश आ जाता है तो कुछ समय के बाद बाजार विदेशी उत्पादों और वस्तुओं से भर जायेगा और देशी उत्पादकों को बर्बाद होना पड़ेगा | फार्मस , आपूर्ति श्रंखला और गोदाम क्षमता विकसित होने के बाद एकाधिकार बड़े नैगमों के पास ही होगा , उससे जमाखोरी और मुनाफाखोरी ही बढ़ेगी | ऐसी परिस्थिति में उपभोक्ताओं को कम दाम पर उत्पाद मिलने की बात एक मरीचिका पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है |

एक ऐसे देश में जहां जनसंख्या का 70% हिस्सा आज भी गाँवों में रहता हो | जहां दुनिया के कुल  गरीबों का 40% हस्सा बसता हो | जहां के 78% लोग 20 रुपये से भी काम पर गुजारा करते हों , उस देश के 10 लाख से ज्यादा की आबादी वाले 54 शहरों में खुलने वाले सुपरबाजार राष्ट्र के किस हिस्से का हित ध्यान में रखेंगे , इसे आसानी से समझा जा सकता है |
अरुण कान्त शुक्ला

Saturday, November 12, 2011

मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग –डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग ..


मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग –डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग ..

अब अरविन्द केजरीवाल और किरन बेदी के बीच ठन गई है | अरविंद केजरीवाल के यह कहने के बाद कि ऐसा फिर नहीं होगा , जो किरन ने किया , वह में कभी नहीं करता , किरन बेदी नाराज हो गईं हैं | बेदी का कहना है कि केजरीवाल ने मुद्दे को पूरी तरह नहीं समझा | अगर वह मुद्दे को अच्छी तरह समझते तो उनका जबाब अलग होता |

जो कुछ टीम अन्ना के अंदर चल रहा है , उससे , मेरा मन करता है कि अन्ना को नर्सरी के बच्चों को पढ़ाई जाने वाली कविता सुनाए जाये ;
आर यू स्लीपिंग , आर यू स्लीपिंग
ब्रदर जान , ब्रदर जान
मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग , मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग
डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग

कविता में सिर्फ ब्रदर जान की जगह अन्नाजी , अन्नाजी करने की जरुरत है | दरअसल , अपनी प्रारंभिक सफलताओं की खुमारी में डूबी टीम अन्ना को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सामने खड़ी दो गंभीर समस्याओं का अंदाज नहीं हो पा रहा है | दोनों में से लगातार बढ़ती मुद्रास्फिति और खाद्य पदार्थों की बढ़ती हुई मंहगाई को पहले स्थान पर रखा जा सकता है , जो आज देश के 100 करोड़ लोगों के लिये संस्थागत भ्रष्टाचार से भी ज्यादा त्रासदायी हो चुकी है | उनकी थाली में परोसी जाने वाली खाद्य वस्तुओं की मात्रा ही नहीं कम हो रही , बल्कि उस थाली में से कई सब्जियां , फल , दालें , दूध थाली से गायब हो चुके हैं | भारत का साधारण आदमी यदि थाली में से गायब की जा रही वस्तुओं से परेशान है , तो , उससे थोड़ा बेहतर , उसके साथ , बढ़ती ईएमआई . महंगी स्कूल फीस , बढ़ते मकान के किराए , सार्वजनिक परिवहन के बढ़ते खर्च , महंगी होती चिकित्सा और दवाईयां , बढ़ते पेट्रोल के दामों और  मनोरंजन के साधनों के मंहगे होने से परेशान है | अन्ना टीम की इस अहं मुद्दे पर खामोशी से इस तबके को भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का पूरा आंदोलन हाई प्रोफाईल सोच का लगने लगता है |

दूसरी समस्या का स्त्रोत स्वयं अन्ना टीम है , जिसके सदस्य आचरण और व्यवहार में स्वयं का प्रदर्शन उन राजनीतिक ठगों के समान ही कर रहे हैं , जिनके खिलाफ वो तीर चलाते रहते हैं | टीम आना के सदस्य एक के बाद एक , या तो स्वयं की साख गिरा रहे हैं या आंदोलन से ही किनारे होते जा रहे हैं | इसमें ताजा एपीसोड किरन बेदी का है | शायद ही कोई हो , जिसने इस बात पर ध्यान न दिया हो कि किरन बेदी बड़ी आसानी के साथ खुद तथा खुद के एनजीओ के बीच एक हवाई लाइन खींचकर लोगों के भ्रमित करने में लगी हैं | किन्तु , उनसे कोई यदि यह पूछे कि इस तरह ज्यादा यात्रा-व्यय दिखाकर पैसा एकत्रित करना क्या उनके एनजीओ के कामों में शामिल है , तो वे नाराज हो जाती हैं | प्रश्न यह है कि उनको आमंत्रित करने वाली संस्थाएं , उनके एनजीओ को दान देने की इतनी इच्छुक थीं , तो वे उनसे कहकर उस राशी को प्राप्त कर सकती थीं , वनिस्पत इस सारे चक्कर को करने के | पर , किरन बेदी इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगी , और उन सब पर बिफरती रहेंगी , जो इसे गलत कहेगा , जैसा कि अभी वो केजरीवाल के साथ कर रही हैं | यही काम अरविंद केजरीवाल ने स्वयं के मामले में किया है |

मतलब साफ़ है , यदि अन्ना टीम का कोई सदस्य गलत करता है तो उनके पास ढेरों स्पष्टीकरण , औचित्य और प्रतिदावे हैं , किन्तु अन्य किसी से वे कोई तर्क या स्पष्टीकरण सुनना पसंद नहीं करेंगे , औचित्य और अनौचित्य तो दूर की बात है | इससे भी बदतर यह कि टीम अन्ना और उनके समर्थक किसी भी परिस्थिति , घटनाक्रम पर न तो पुनरावलोकन , न ही चिंतन और न ही आत्म विश्लेषण के लिये तैयार हैं | उनकी यह शैली , शनैः शनैः आंदोलन से विचारवान लोगों को दूर करके आंदोलन को जड़ लोगों के आंदोलन में तब्दील करती जा रही है | यदि कोई अन्ना की टीम या आंदोलन के संबंध में कुछ भी ऐसा कहे जो टीम अन्ना को पसंद नहीं तो वे कहने वाले को तुरंत ही कांग्रेस का भाड़े का टट्टू बोलना शुरू कर देंगे | अन्ना अथवा उनके आंदोलन की कोई भी आलोचना उनके समर्थक बर्दाश्त नहीं करेंगे और विरोध में उनकी भाषा संयम की कोई भी सीमा नहीं मानेगी | मेरी समझ में तो ऐसा करके वो यही दिखा रहे हैं कि मुद्दा जरुर उनके पास ठोस है लेकिन आचरण में , वे कांग्रेस या फिर अन्य किसी बुर्जुआ राजनीतिक दल की टीम से अलग नहीं |

इसमें कोई शक नहीं कि देश को एक सख्त लोकपाल बिल की जरुरत है | हमें आशा करनी चाहिये कि पिछले लगभग दो वर्षों के घटनाक्रमों ने कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों की आँखें खोल दी होंगी और शीतकालीन सत्र में संसद एक शक्तिशाली और ठोस लोकपाल देश को देगा | उसके बावजूद , आज की सबसे बड़ी और फौरी आवश्यकता मुद्रास्फिति पर काबू करने और खाद्यान की कीमतों को नीचे लाने की है | डर इस बात का है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति अन्ना और उनकी टीम की अक्खड और उन्मुक्त सोच कहीं देश को ऐसे वातावरण में न धकेल दे कि देश के लोगों को भ्रष्टाचार और महँगाई की दोहरी मार आने वाले आम चुनावों तक झेलना पड़े | यदि ऐसा हुआ तो साधारण आदमी के लिये उससे ज्यादा विनाशकारी और क्या होगा ?

अरुण कान्त शुक्ला