Friday, December 17, 2010

असली मुद्दा दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का है --

संसद का शीतकालीन सत्र अपनी तेईस दिन की अवधि पूरी कर , व्यवाहरिक रूप में बिना कोई कामकाज किये समाप्त हो गया | मीडिया , राजनीतिक दुनिया , सरकार के पक्षधरों और यहाँ तक कि आलोचकों ने भी , इस बार , इस बात पर ज्यादा माथा नहीं पीटा कि संसद के नहीं चलने से कितना चूना जनता की जेब पर लगा क्योंकि राजा के पौने दो लाख करोड़ के सामने सौ दो सौ करोड़ की कोई बिसात नहीं है और इसका सियापा करने वालों पर लोग हँसेंगे ही , ये सभी जानते थे | हमारे देश के राजनीतिक और सामाजिक वातावरण की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि यहाँ विकास से लेकर भ्रष्टाचार तक के सभी मुद्दे पार्टियों और व्यक्तियों के राजनैतिक और व्यक्तिगत हितों और स्वार्थों के हिसाब से निपटाए जाते हैं और देश या समाज का समग्र हित राजनीतिक दलों और व्यक्तियों के हितों और स्वार्थों के सामने गौण हो जाता है | यहाँ आरोप लगाने पर अपने साफ़ और निष्कलंक होने का सबूत देने के बजाय प्रत्यारोपों धमकियों की शरण ली जाती है | रोग का रूप धर चुकी इस विडम्बना का फैलाव राष्ट्रीय राजनीति से लेकर नगर , कस्बों की सरकारी गैरसरकारी संस्थाओं और जनसंगठनों के छुटभैय्ये नेताओं तक हो गया है |


 

2जी स्पैक्ट्रम के दौरान भी यह देखने में आया , जब शुरुवात में केंद्र सरकार और विशेषकर कांग्रेस ने विपक्ष (एनडीए) के समय के मामलों को भी जांच के दायरे में लेने की धमकी दी | पर , उस समय तक भाजपा स्वयं और गैरभाजपाई विपक्ष इतने आगे बड़ चुका था और उन्हें जेपीसी गठन के राजनीतिक फायदे इतने स्पष्ट दिख रहे थे कि पीछे वापस लौटने का तो कोई सवाल ही नहीं था | कांग्रेस और विशेषकर प्रधानमंत्री , जो इसके पूर्व हर्षद मेहता कांड के समय जेपीसी का सामना कर चुके थे , इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे कि मामले की तह तक जाने का सवाल तो बाद में आएगा , उसके पहले सरकार और प्रधानमंत्री की पदेन दायित्व के निर्वाह में लापरवाही बरतने और गठबंधन की मजबूरी के नाम पर भ्रष्टाचार की तरफ से आँखें मूंदने के सवाल पे जो छीछालेदर होगी और भद्द पिटेगी , उसके राजनीतिक नुकसान को संभालना एक कठिन काम होगा | कांग्रेस इस बात को भी अच्छी तरह समझ रही थी कि आज गठित जेपीसी को पूरे मामले की जांच पड़ताल करते करते दो से ढाई वर्ष का समय कम से कम लगेगा और याने जांच रिपोर्ट अगले आमचुनाव के छै महने या एक साल पहले आयेगी , जिसका पूरा पूरा राजनीतिक लाभ विपक्ष उठाएगा और नुकसान कांग्रेस के खाते में जायेगा | वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद को चलने देने के सवाल पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठकों में , ऐसा ही चलते रहने पर संसद को भंग करने की अप्रत्यक्ष धमकियां भी दीं |


 

इस सबसे परे , इस प्रश्न पर ध्यान देने के लिये कोई तैयार नहीं दिखता कि देश के लिये सबसे ज्यादा नुकसानदायक क्या है ? भ्रष्टाचार या फिर संसद के नहीं चलने से अटकने वाले बिल और संसद पर जाया होने वाला रुपया ? निसंदेह सभी कहेंगे भ्रष्टाचार | प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह जिन आर्थिक सुधारों , आर्थिक प्रगति और जीडीपी में वृद्धि का हवाला देकर अपनी पीठ थपथपवाना चाहते हैं , उस प्रगति के लिये देशवासियों से ली गई कुरबानी की तुलना में लाभ देशवासियों के निचले तबके को नहीं के बराबर मिला है | केंद्र सरकार की हों या राज्य सरकारों की , गरीबों के लिये चलाई गईं योजनाएं , राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना से लेकर मितानिन तक , सभी भ्रष्टाचार के कोढ़ से ग्रसित हैं और गरीब तबके के हजारों करोड़ रुपये डकार कर नेता और अफसर मालामाल होकर बैठे हैं | ऐसे में यदि भ्रष्टाचार को पूरी ताकत और राजनीतिक ईमानदारी के साथ खत्म नहीं किया जाए तो सुधारों से जुड़े बिलों और योजनाओं का कोई फ़ायदा नहीं | कोई भी आर्थिक सुधार नीति और नियमों को भ्रष्टाचार से मुक्त रखे बिना पूरा नहीं हो सकता है | पर अफसोस की बात है कि जिस राजनैतिक ईमानदारी और इच्छाशक्ति की बात हम कर रहे हैं , स्वतन्त्र भारत में अपनाई गई व्यवस्था और एक के बाद एक आई सरकारों में उसका अभाव ही रहा है | यदि ऐसा नहीं होता तो देश के भ्रष्ट सम्पन्नों का करोड़ों खरब रुपया काले धन के रूप में विदेशों में जमा नहीं होता और भारत की गिनती सर्वाधिक भ्रष्ट देशों में न होती |


 

जहाँ तक आम लोगों की सोच का सवाल है , सर्वोच्च न्यायालय के यह कहने के बावजूद कि 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले की जांच वर्ष 2001 से और सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में ही कराई जायेगी , उनका अनुभव बताता है कि कुछ नहीं होगा | यह तूफ़ान (शीतकालीन सत्र) गुजरने के बाद राजनेता , मीडिया , कारोबारी , नौकरशाही किसी दूसरे काम में लग जायेंगे और 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला , भारत के अन्य बड़े घोटालों की तरह सूचीबद्ध होकर इतिहास में दफ़न हो जायेगा | यदि आम लोगों की इस सोच को बदलना है , तो राजनैतिक दलों के सामने , जेपीसी गठित होने या नहीं होने के निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर , यह सोचने का समय है कि राजनैतिक दलों , राजनेताओं , नौकरशाहों और कारोबारियों की जो भ्रष्ट छवि बनी है , उनकी साख में जो गिरावट आई है , क्या उसमें सुधार के लिये ही , लीपापोती छोड़कर , दोषी भ्रष्ट जनों को सजा देने की शुरुवात शीर्ष से करेगी ? असली मुद्दा दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का है , न कि जेपीसी के गठन का | आशा है , सरकार इस बात को समझेगी , तभी बजट सत्र सुचारू रूप से चल सकेगा |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

Friday, December 10, 2010

आज का ग्रेकस –


 

"घर और परिवार और इज्जत और शराफत और नेकी और जो कुछ भी अच्छा था और पवित्र था उसके मालिक गुलाम थे और वही उसकी रक्षा कर रहे थे – इसलिए नहीं कि वे अच्छे और पवित्र थे बल्कि इसलिए कि जो कुछ भी पवित्र था सब उसके मालिकों ने उन्ही गुलामों के हवाले कर दिया था |"

हावर्ड फ़ास्ट की महाकथा स्पार्टकस में उपरोक्त विश्लेषण रोम की सीनेट का एक सदस्य ग्रेकस करता है | "स्पार्टकस" में ईसा से 73 वर्ष पूर्व के रोम की कथा है जब गुलामी की प्रथा अपने चरम पर थी और उन्ही गुलामों में से एक "स्पार्टकस" ने उस पाशविक प्रथा को चुनौती देने का विवेक और साहस अपने आप में पाया था | ग्रेकस के उपरोक्त विश्लेषण का अर्थ कदापि यह नहीं लगाया जा सकता कि कि उसे विद्रोही गुलामों से कोई सुहानाभूति थी या फिर वह उस व्यवस्था को बदलना चाहता था | स्वयं ग्रेकस के अनुसार राजनीतिज्ञ चालबाज होता है और राजनीतिज्ञ के अंदर इस चीज (चालबाजी) को देखकर लोग अकसर इसको ईमानदारी समझने की भूल किया करते हैं | ग्रेकस की गणतंत्र के बारे में राय देखिये ;

"देखो हम लोग एक गणतंत्र में रहते हैं | इसका मतलब है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है और मुठ्ठी भर लोग ऐसे हैं जिनके पास बहुत कुछ है | और जिनके पास बहुत कुछ है उनकी रक्षा , उनका बचाव उन्हीं को करना है जिनके पास कुछ भी नहीं |"

ग्रेकस के अनुसार इस तरह के गणतंत्र को बनाए रखने के लिये सीमेंट का काम राजनीतिज्ञ ही करते हैं | उच्चवंश (सम्पतिवान) इस काम को नहीं कर सकते क्योंकि उनकी निगाह में जनता भेड़ बकरी के सामान होती है | उच्चवंशीय को साधारण नागरिक के बारे में कुछ नहीं मालूम | अगर यह सब उसके भरोसे छोड़ दिया जाए तो समूचा ढांचा एक दिन में भहरा पड़े | इसे बचाने का काम राजनीतिज्ञ करते हैं | कैसे करते हैं , ग्रेकस से सुनिए ;

" ............ जो चीज नितांत असंगत है हम उसके अंदर संगती पैदा करते हैं | हम लोगों को यह समझा देते हैं कि जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता अमीरों के लिये मरने में है | हम अमीरों को यह समझा देते हैं कि उन्हें अपनी दौलत का कुछ हिस्सा छोड़ देना चाहिए ताकि बाकी को वे अपने पास रख सकें | हम जादूगर हैं | हम भ्रम की चादर फैला देते हैं और वह ऐसा भ्रम होता है जिससे कोई बच नहीं सकता | हम लोगों से कहते हैं – तुम्हीं शक्ति हो | तुम्हारा वोट ही रोम की शक्ति और कीर्ति का स्त्रोत है | सारे संसार में केवल तुम्हीं स्वतन्त्र हो | तुम्हारी स्वतंत्रता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है , तुम्हारी सभ्यता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है , तुम्हारी सभ्यता से अधिक प्रशंसनीय कुछ भी नहीं है | और तुम्ही उसको नियंत्रित करते हो ; तुम्हीं शक्ति हो , तुम्ही सत्ता हो | और तब वे हमारे उम्मीदवार के लिये वोट दे देते हैं | वे हमारी हार पर आँसू बहाते हैं , हमारी जीत पर खुशी से हँसते हैं | ................चाहे उनकी हालत कितनी भी गिरी क्यों न हो , चाहे वे नालियों में ही क्यों न सोते हों , .............. चाहे वे अपने बच्चों के पैदा होते ही उनका गला क्यों न घोंट देते हों , चाहे उनकी बसर खैरात पर ही क्यों न होती हो और चाहे पैदाईश से लेकर मरने तक उन्होंने एक रोज काम करने के लिये हाथ न उठाया हो , .......... यह मेरी कला है | राजनीति को कभी तुच्छ नहीं समझना |"

उपरोक्त भूमिका लंबी होने के बावजूद भारत की आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर एकदम सटीक बैठती है | एक तरफ , बड़े कारोबारियों , राजनीतिज्ञों , अधिकारियों , लाबिस्टों के अपवित्र गठबंधन हैं , जो देश की संपदा और आय (जोकि वस्तुत:देश के मेहनतकशों की खून पसीने की गाढ़ी कमाई है ) को लूटने में लगे हैं | जिनके सामने इज्जत और शराफत की कीमत दो कौड़ी भी नहीं है , जो नेकी और पवित्रता को त्याग चुके हैं क्योंकि नेकी और पवित्रता उनकी लालच , उनकी विलासिता , उनके ऐश-आराम के रास्ते में रुकावट पैदा करती हैं , क्योंकि देश की अस्मिता से लगाव , देशप्रेम उनके राह में बाधक है , इसलिए वे उसे त्यागकर , उनकी सत्ता में देश का जितना भी हिस्सा आया है , उसे बेचकर अपने घर को भरने में लगे हैं ताकि उनके बाद भी उनकी आने वाली बीसीयों पीढ़ी विलासिता और ऐश की जिंदगी गुजार सकें | इन्होने गणतंत्र के तीनों खम्भों को अपने अपवित्र घेरे में ले रखा है | इन्होने गणतंत्र के चौथे खम्भे पत्रकारिता को भी अपने अपवित्र घेरे में लेकर दलाली में लगा दिया है | दूसरी तरफ , देश की आबादी के लगभग पचास प्रतिशत याने पचास करोड़ लोग हैं जो भीषण गरीबी का शिकार हैं | सत्तर प्रतिशत परिवार बीस रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा कर रहे हैं | दुनिया के कुपोषित बच्चों में से आधे भारत में हैं | देश की आबादी का लगभग तीस प्रतिशत हिस्सा झुग्गी झोपडियों में अमानवीय जीवन जीने को अभिशप्त है और इनका बड़ा हिस्सा फुटपाथों , रेलवे स्टेशनों , बस स्टेंडों , दुकानों के सामने के पटियों , मंदिरों , घाटों पर रातें गुजारता है | लोगों को रोजगार देने के बजाय खैरात पर रहने की आदत डाली जा रही है | इस अपवित्र गठजोड़ के कारनामों की वजह से भारत को सर्वाधिक भ्रस्ट देशों में से एक माना जाता है | भारत में भी एक ग्रेकस है जो स्थिति की भयानकता के लिये जिम्मेदार भी है और इन विसंगतियों को संगत बनाने की पूरी कोशिश में लगा है | आईये , यह पता लगाने के लिये कि वह ग्रेकस कौन है , कुछ उद्धरणों पर ध्यान दें ;

"आगामी दशक , व्यैक्तिक वाणिज्य संस्थानों और सामूहिक प्रयासों के सृजन का दशक होना चाहिये | दरबारी पूंजीवाद (Crony Capitalism) और लोकप्रियता की राजनीति हमें अधिक दूर नहीं ले जायेगी |" (19.11.2004)

"क्या हम दरबारी पूंजीवाद को बढ़ावा दे रहे हैं ? क्या यह आवश्यक है या फिर आधुनिक पूंजीवाद को भारत में विकसित करने के दौरान की यह एक संक्रमण अवस्था है ? क्या हम उपभोक्ता और छोटे व्यवसायियों को दरबारी पूंजीवाद से सुरक्षित रखने के लिये पर्याप्त कर रहे हैं ?...... ऐसा तो नहीं कि उनको ( घरेलु व्यापारिक संस्थानों ) सुरक्षा देने के नाम पर दरबारी पूंजीवाद को बढ़ावा दे रहे हैं ?" (1.5.2007

"मैं मानता हूँ कि जब भी हमें नियमों की आवश्यकता होती है , मैं समझता हूँ कि वो नियंत्रक प्रभावी होने चाहिये , और , किन्तु , दरबारी पूंजीवाद वह खतरा है जिसे चाहने से दूर नहीं किया जा सकता | वह एक खतरा है , जिसके खिलाफ हमें सुरक्षा करनी होगी |" (6.11.2010)

दरबारी पूंजीवाद याने पूंजीवाद की वह अवस्था जिसमें कारोबार में सफलता कारोबारियों , राजनीतिज्ञों और सरकारी अधिकारियों के घनिष्ठ (मित्र) संबंधों पर निर्भर होती है | यह सरकारी ग्रांट , सरकारी परमिटों के वितरण में पक्षपात , टेक्सों में विशेष छूट के रूप में होती है | अपने बदतरीन रूप में दरबारी पूंजीवाद भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के रूप में विकसित कर लेता है , जहाँ राजनीतिज्ञ और सरकारी अधिकारी घूस लेना सम्मान समझते हैं तो कारोबारी टेक्स में चोरी अपना अधिकार | इस अवस्था को अर्थशास्त्र में कई बार प्लूटोक्रेसी (धनिकों का राज) या क्लेप्तोक्रेसी ( Kleptocracy - चोरों का राज) कहा जाता है | उपरोक्त उद्धरणों में कोई इसी दरबारी पूंजीवाद के खिलाफ बार बार सावधान कर रहा है | यह हमारे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह हैं जिनके कुछ भाषणों से उपरोक्त उद्धरण लिये गए हैं | यदि याद किया जाए तो ऐसी ही बातें उन्होंने तब भी की थीं , जब वो नरसिम्हाराव के मंत्रीमंडल में वित्तमंत्री थे |

नवउदारवादी अर्थशास्त्री दरबारी पूंजीवाद को लायसेंस–परमिट राज के साथ जोड़ कर दिखाते हैं | यदि आप प्रधानमंत्री के 1 मई 2007 के भाषण पर गौर करें तो पायेंगे कि वो दरबारी पूंजीवाद को एक संक्रमण की स्थिति तो बता रहे हैं , साथ ही उसे आधुनिक पूंजीवाद के निर्माण के लिये आवश्यक भी बता रहे हैं | जहाँ तक मेरी याददाश्त जाती है , ऐसा ही उन्होंने 1994 में भी पंजाब नॅशनल बैंक के एक समारोह में भाषण देते हुए भी कहा था | समय ने सिद्ध कर दिया है कि कि यह भ्रष्ट आचरण कभी भी संक्रमण काल का नहीं हो सकता , बल्कि यह विशुद्ध रूप से उन नीतियों का प्रतिफलन है ,जो स्वयं प्रधानमंत्री ने वित्तमंत्री रहते हुए 1991 में शुरू की थीं | यह सच है कि आज दरबारी पूंजीवाद के स्वरूप में परिवर्तन आया है | तीन दशक पहले घूस देकर आउट आफ़ टर्न लायसेंस – परमिट हासिल कराने वाले दरबारी पूंजीवाद का अर्थ अब हो गया है स्पेशल इकानामिक जोन के अंतर्गत लाखों एकड़ जमीन हथियाना , एनरान जैसे सफ़ेद हाथी को प्रश्रय देना , वेदान्त , जिंदल , मोनेट , नेनो , जैसे बड़े घरानों को , किसानों से छीनकर हजारों एकड़ जमीन देना और उन्हें अनाधिकृत रूप से जंगलों को काटने देना और जंगल जमीन पर कब्जा जमाने देना | 2 जी स्पैक्ट्रम , कामन वेल्थ , आदर्श सोसाईटी , होम लोन और अब यू. पी. में अनाज घोटाले का पर्दाफ़ाश दरबारी पूंजीवाद का ही नतीजा हैं , जिसमें अरबों रुपये की घूस खाई गई होगी |

यक्ष प्रश्न यह है कि क्या मनमोहनसिंह प्रधानमंत्री के रूप में इस घूसखोरी और भ्रष्टाचार को रोकने के लिये कोई कदम उठा सकते हैं ? 2 जी स्पैक्ट्रम के मामले में कुछ दिन पूर्व दिया गया उनका बयान कि कैग को घोटाले और प्रक्रिया संबंधी गलती में अंतर करना आना चाहिये , जे पी सी बनाने से उनका इनकार , निराश करने वाला ही है | उनके द्वारा दरबारी पूंजीवाद का भय दिखाना या उसके खतरे के प्रति चेतावनी देना मात्र एक असंगत को संगत बनाकर लोगों के गले उडेलने की कोशिश ही है | वे , यदि इन परिस्थितियों से यदि खुद को पज़ल (परेशान) दिखाते हैं तो यह पाखंड लोगों को गुमराह करने के लिये किया जा रहा है | वे क्या सोचते हैं ? आज जिस असमानता , असंतुलन , अराजकता , भ्रष्टाचार , घूसखोरी , लूट , शोषण , अव्यवस्था को भारत के लोग झेल रहे हैं , उन्हीं की नीतियों का परिणाम हैं | यदि वे दरबारी पूंजीवाद से सचमुच में पज़ल हैं और परिस्थितियों में सुधार देखना चाहते हैं तो उनके पास वर्तमान समय एक अच्छे अवसर के रूप में उपस्थित है | वे उजागर करें कि देश के संसाधनों की यह भयावह लूट कैसे हुई है ? वे इस लूटी हुई राशी को देश के खजाने में वापस लाएं और उस रकम को स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधाओं तथा खाद्य सुरक्षा पर खर्च करें , जिसकी जनता को बहुत जरुरत है | यही एक रास्ता है , जिससे वे दिखा सकते हैं कि वे ग्रेकसनुमा राजनीतिज्ञ नहीं हैं |

अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"