Thursday, July 29, 2010

वोटिंग से क्यों डर रही है सरकार -


वोटिंग से क्यों डर रही है सरकार

महंगाई के सवाल पर विपक्ष जहां नियम 168 या 183 के अंतर्गत चर्चा किये जाने की मांग को लेकर अड़ा है , वहीं सरकार किसी भी हालत में इसके लिये राजी होते नहीं दिखती | इसी गतिरोध पर हंगामे के चलते तीसरे रोज गुरुवार को भी लोकसभा तथा राजसभा स्थगित हो गईं | विपक्ष के हंगामे की वजह से लोकसभा या राजसभा के स्थगित होने पर हमेशा जनता का पैसा बर्बाद होने का ढिंढोरा पीटने वाला मीडिया भी इस बार पहले दिन थोड़ा शोरगुल करने के बाद चुप लगा गया |इतना ही नहीं, कल तक सीना फुलाकर मंहगाई को विकास का द्योतक बताने वाले प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से लेकर सभी सरकारी नुमाईन्दों और सरकार के पक्ष में बोलने वाले बुद्धिजीवियों की जबान भी आज इस सवाल पर जबाब देते समय लड़खड़ा रही है | दरअसल , तमाम तर्कों से परे यह सचाई आम
देशवासियों के सामने खुलकर आ गई है कि वर्तमान महंगाई का कोई भी रिश्ता न सूखे से है और न ही खाद्यान्न की कमी से है , यह सिर्फ और सिर्फ मनमोहन सरकार की नीतियां हैं , जिनके फलस्वरुप आम देशवासियों को यह दिन देखना पड़ रहे हैं | बजट पेश करते समय ड्यूटी और टेक्स बढ़ाकर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में व्रद्धि के तीन महिनों के भीतर ही पुनः पेट्रो उत्पादों को छेड़ना यूपीए सरकार के लिये गले की हड्डी बन गया है , जो अब न उससे उगलते बन रही है और न निगलते |


इसके बावजूद कि भाजपा सहित विपक्ष के कमोबेश सभी दल पिछ्ले डेढ़ दशक में उन्ही नीतियों पर चले हैं , जिनसे महंगाई बढ़ने के साथ साथ आम देशवासियों के जीवन में त्रासदियां भी बढ़ी हैं , विपक्ष के लिये इस मुद्दे को छोड़ना , राज्यों में होने वाले आसन्न चुनावों को देखते हुए आत्मघाती होगा | आग में घी का काम प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , कृषिमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के बयान कर रहे हैं कि दिसम्बर तक महंगाई काबू में आ जायेगी , क्योंकि अच्छे मानसून से उत्पादन में वृद्धि होगी | तो क्या , खाद्यान्नों के पिछ्ले तीन सालों में बढ़े हुए मूल्यों के लिये मानसून और सूखा ही जिम्मेदार हैं ? या , सरकार की लचर और आम लोगों के प्रति सम्वेदनाहीन नीतियों का इसमें ज्यादा हाथ है ?


इससे ज्यादा दुखदायी और क्या हो सकता है कि सरकार महंगाई को नियंत्रित करने में तब असफल हुई है , जब भारतीय खाद्य निगम याने एफसीआई के गोदामों में 3.40 करोड़ टन गेहूं और 2.6 करोड़ टन चावल का स्टाक है | गेहूं , दलहन और तिलहनों के रबी के उत्पादन से भी खाद्य वस्तुओं की महंगाई कम नहीं हुई | सच यह कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली नाम की जिस सप्लाई चेन को मनमोहनसिंह और फिर उनके बाद आने वाली सरकारों ने बर्बाद किया , आज के हालातों में वही सबसे अधिक उपयोगी होती | इस पूरे दरम्यान सरकार ने एक बार भी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि एफसीआई के पास पड़े विशाल खाद्यान्न भंडार का वितरण , कैसे बेहतर तरीके से किया जाये | बजाय उस अनाज को जरुरतमन्दों तक पहुंचाने के प्रबंध करने के , सरकार की प्राथमिकता , उस अनाज को सड़ते रहने देने की रही | एक और हास्यास्पद परिस्थिति का निर्माण , इस दौरान
महंगाई और पेट्रो उत्पादों के मूल्यों में बढ़ोत्तरी के बाद इन पर टेक्स कम करने के सवाल को लेकर हुआ है | केंद्र और राज्यों के मध्य पेट्रो उत्पादों , विशेषकर , पेट्रोल , डीजल , एलपीजी पर टेक्स कम करने तथा महंगाई पर नियंत्रण करने के सवालों को लेकर एक दूसरे के उपर दोषारोपण | केंद्र सरकार जहां राज्य सरकारों से बार बार पेट्रोल , डीजल सहित एलपीजी पर टेक्स कम करने को कह रही है तथा बर्बाद हो रहे अनाज के लिये राज्यों को दोषी ठहरा रही है , वहीं राज्य सरकारें केंद्र को स्वयं अत्याधिक टेक्स वसूली के लिये तथा गैरकांग्रेसी राज्यों में अनाज का कोटा कम करने के लिये दोषी ठहरा रहीं हैं | केंद्र तथा राज्य , दोनों सरकारें लालची , मुनाफाखोर सेठों की तरह व्यवहार कर रही हैं और आम देशवासी बेबसी और लाचारी से देख रहे हैं |


रोजमर्रा के जीवन में काम में आने वाली वस्तुओं के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी का यह दौर हाल का नहीं है, बल्कि यह सिलसिला यूपीए शासन काल के पहले चक्र के अंतिम दो वर्षों से लगातार चला आ रहा है | वर्ष 2009 के आम चुनावों के समय विपक्ष और विशेषकर वाम मोर्चा महंगाई के सवाल को उतनी दमदार तरीके से नहीं उठा पाया क्योंकि कुछ समय पूर्व ही उसने नाभकीय समझौते का विरोध करते हुए यूपीए से समर्थन वापिस लिया था| वे जब महंगाई के सवाल को लेकर जनता के सामने पहुंचे तो आम आदमी ने इस पर , इस बिना पर विश्वास नहीं किया कि इन्होनें समर्थन तो नाभकीय करार के मुद्दे पर लिया था | सरकार ने खाद्य वस्तुओं की सप्लाई बढ़ाने के लिये अभी तक फौरी उपाय ही किये हैं | मसलन उसने दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिया | साथ ही यह घोषणा भी कर दी कि सरकारी एजेंसियों को दाल बेचने वालों को बोनस भी दिया जायेगा | जबकि यह जगजाहिर है कि किसान को खुले बाजार में ही दलहन की अच्छी कीमत मिल रही है | ऐसे में वह सरकार को दाल बेचेगा ही क्यों ? चीनी की कीमतों में भी इजाफा सरकार की नीतियों की वजह से ही हुआ | दूसरे जब दाम बढ़े तो सरकार मुनाफाखोरी और जमाखोरी पर लगाम नहीं लगा पाई |


मनमोहनसिंह एण्ड कंपनी दिलासा दे रही है कि आने वाले दिसम्बर तक खाद्य वस्तुओं की महंगाई 5 से 6 प्रतिशत तक सिमट जायेगी | जब सरकार के पास बाजार में वितरण और मूल्य नियंत्रण के पुख्ता तरीके ही नहीं हैं तो उसकी बात पर विश्वास कोई क्यों करे ? ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि सरकार का ध्यान फसल उत्पादन बढ़ाने से लेकर जल प्रबंधन और सिंचाई प्रबंधन , बीजों के विकास और बाजार में वितरण और मूल्य नियंत्रण तक , ऐसे
किन्हीं भी दीर्घकालीन उपायों पर है , जिनसे महंगाई पर वास्तविकता में अंकुश लग सकता है |

मनमोहनसिंह कुछ माह पूर्व ही कह चुके हैं कि उन्होने कि उन्होनें जानबूझकर महंगाई को रोकने के उपाय नहीं किये थे | समय आ गया है जब मनमोहनसिंह से पूछा ही जाना चाहिये कि क्या वो विकास दर को दोहरे अंक में देख्नने की खातिर देश के 70 करोड़ लोगों को महंगाई की आग में झोंक रहे हैं | यदि ऐसा है तो यह भयानक सौदा है | देशवासियों के सामने इसका पर्दाफाश होना ही चाहिये | ठीक इसी जगह आकर विपक्ष की महंगाई के मुद्दे पर चर्चा के बाद वोटिंग की मांग जिद्द नहीं बल्कि एक जायज मांग नजर आती है | यदि महंगाई पर नियंत्रण नहीं रख पाना सरकार की नीति है , तब भी , और यदि यह कार्यप्रलाणी सम्बंधित असफलता है तब भी सचाई जनता के सामने आना चाहिये ताकि जनता भी अपना रास्ता तय कर सके | वोटिंग होने से सभी राजनैतिक दलों की कलई भी जनता के सामने होगी | देशवासियों को कम से कम यह तो पता चलेगा कि कौन उनके पक्ष में है और कौन उनके विपक्ष में |


अरुण कांत शुक्ला

Sunday, July 25, 2010

मानसून सत्र न धुल जाए हंगामें में ----

                                           सोमवार , 26 , जुलाई , से , लोकतंत्र के सबसे बड़े मंच लोकसभा का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है | देशवासियों के बहुत बड़े हिस्से की हार्दिक इच्छा है कि उनकी जिंदगी से सम्बंधित समस्याओं पर लोकसभा के अंदर सरकार और विपक्ष दोनों गंभीरतापूर्वक बहस करें , जिससे कुछ ऐसे उपाय निकलें और नीतियां बनें , जो आम आदमी को राहत पहुंचाएं |  पिछले सत्र और सोमवार से शुरू होने वाले इस सत्र के मध्य यूपीए -2  ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि ,  मल्टीब्रांड खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ,  जैसे कदम उठाये हैं तो पिछले सत्र के महिला आरक्षण , खाद्य सुरक्षा ,परमाणु जबाबदेही , साम्प्रदायिक सौहाद्र जैसे महत्वपूर्ण विधेयक पहले से ही पेंडिंग पड़े हैं | इनमें से , सभी का , देशवासियों और विशेषकर आम देशवासियों के साथ बहुत सीधा और गहरा संबंध है |
                                          यदि विपक्ष गंभीरता पूर्वक और ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करे तो वह सरकार को अनेक मामलों में अपने कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर कर सकता है | बजट सत्र समाप्त होने के बाद से लेकर अभी तक का समय आम जनता के लिहाज से बहुत ही त्रासदायी , मुश्किलों से भरा गुजरा है | जिन उम्मीदों और विश्वास के साथ लोगों ने कांग्रेस को दुबारा और अधिक सांसदों के साथ लोकसभा में भेजा था , यूपीए - 2  ने न केवल उन उम्मीदों को बुरी तरह तोड़ा है बल्कि "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ " जैसे नारे पर जिन लोगों ने  कुछ  अधिक भरोसा कर लिया था , उन्हें लग रहा है कि उनके साथ विश्वासघात हो गया है | यहाँ मैंने विपक्ष से केवल गंभीरता और ईमानदारी की ही उम्मीद रखी है | एकता की मिसाल तो वे  5 जुलाई को पेश कर चुके हैं , जब पेट्रोलियम पदार्थों  के मूल्यों में वृद्धि तथा मंहगाई के खिलाफ  भारत बंद के सवाल पर ही भाजपा तथा गैरभाजपा दलों ने तो अलग अलग आह्वान किया ही , लालू और पासवान ने पांच दिनों के बाद 10 जुलाई को बिहार बंद किया |
                                               संसद के मानसून सत्र में विपक्ष के पास इतने मुद्दे हैं कि वह चाहे तो सरकार को वाकई में परेशानी में डाल सकती है | मंहगाई , यूनियन कारबाईड गैस कांड के मुकदमे में भोपाल की अदालत में हुए फैसले से उठे बड़े राजनीतिक बवाल , गोलीकांडों से अचानक खराब  हुए कश्मीर के हालात , भारत-पाकिस्तान विदेश मंत्री स्तरीय वार्ता के फुस्स होने  , देश के विभिन्न भागों में हुई हाल की दुर्घटनाएं , हाल की  सेंथिया में हुई रेल दुर्घटना , जनगणना में जाती को शामिल करने का सवाल  और सरकार के कुछ मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले ऐसे हैं जो विपक्ष यदि ईमानदारी से उठाये तो सरकार को बेकफुट पर जाने को मजबूर किया जा सकता है  | पर , सत्ता पक्ष की अनेक कमजोरियों के मुकाबले में  विपक्ष की कुछ कमजोरियां ही उसे भारी हैं | पर, उसे अपनी कुछ ही कमजोरियां बहुत भारी पड़ती हैं | अपने छै वर्षों के कार्यकाल के दौरान यूपीए विपक्ष के अंदर की फूट और विभिन्न मुद्दों पर उसके अंदर के मतभेदों को भुनाने में जबर्दस्त ढंग से कामयाब रहा है | अभी भी महिला आरक्षण विधेयक और हिन्दू उग्रवाद के खिलाफ विधायी पहल वे दो खास अस्त्र हैं , जो विपक्षी एकता को ध्वस्त करने के लिए काफी से ज्यादा हैं और सरकार के पास सुरक्षित रखे हैं |
                                           इसके अतिरिक्त गुड्स एंड सर्विसेज टेक्स तथा डायरेक्ट टैक्स कोड हैं जो देशवासियों के साथ सीधा और गहरा सम्बन्ध रखते हैं | वित्तमंत्री  प्रणव मुखर्जी का कथन बड़े बड़े अर्थशास्त्रियों की समझ में भले ही आता हो पर साधारण जनता को तो यह  जीसटी के नाम से धोखा धड़ी ही लगेगी कि जीसटी लागू होने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था बढकर दो खरब की हो जायेगी | प्रणव मुखर्जी के अनुसार जीसटी से भारतीय उद्योग और व्यापार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक हो जायेंगे | विश्वव्यापार संगठन लगभग पिछले एक दशक से लगातार विकासशील देशों और विशेषकर भारत पर कर ढाँचे को इस तरह बदलने के लिए दबाव डाल रहा था कि भारत सहित सभी विकासशील देशों में वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर याने अमरीका और यूरोप की बराबरी पर आ जायें | भारतीय अर्थव्यवस्था अभी एक खरब डालर की है जो जीसटी  लागू होने के कुछ समय बाद दो खरब की हो जायेगी | इसका अर्थ हुआ देशवासियों को आज की तुलना में लगभग दुगना कर चुकाने के लिए तैयार हो जाना चाहिये | सरकार पेट्रो उत्पादों पर पहले से ज्यादा टैक्स लेती है , इसलिए इन्हें जीसटी से बाहर रखा जा रहा है | मतलब , जीसटी को लेकर सरकार जिस एकीकृत अप्रत्यक्ष कर ढाँचे की बात कर रही है , वह वास्तविकता में हो नहीं रहा |
                                             पर , आज जब हम मानसून सत्र प्रारंम्भ होने के ठीक पहले के राजनीतिक हालात को देखते हैं , तो , मायूसी के साथ सोचना पड़ता है कि लोकसभा का यह मानसून सत्र भी पिछले अनेक सत्रों के समान आम जनता से कोई भी संबंध न रखने वाले मुद्दों पर होने वाले हंगामों की भेंट न चढ़ जाए | फिलहाल भाजपा और कांग्रेस के बीच गुजरात राज्य के गृह मंत्री अमित शाह के मामले को लेकर चल रहा वाक् युद्ध तो यही संकेत दे रहा है कि मानसून सत्र में हंगामा जनता के मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि अमित शाह के मामले में , केंद्र सरकार के ऊपर सीबीआई के दुरूपयोग को लेकर होगा | मेरा ऐसा सोचना कतई नहीं है कि केंद्र में सत्तारूढ़ सरकारें सीबीआई या अन्य किसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल विरोधियों को सेट राईट करने के लिए कभी नहीं करती हैं | केंद्र में कभी भी  रही  कोई भी सरकार इसका अपवाद नहीं है | पर , इस मामले में सीबीआई को केंद्र सरकार ने नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने जांच के लिए निर्देशित किया था | मामले के सच और झूठ होने से परे , एक दो अपवादों को छोडकर , ऐसे सभी मामलों का हश्र क्या होता है , हम सभी जानते हैं | अमित शाह के लिए सबसे अच्छा होता कि वे स्वयं को निर्दोष बताते हुए सीबीआईए के सुपुर्द हो जाते और जैसा कि उनके वकील बताते हैं कि सीबीआई का पक्ष बहुत कमजोर है , सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कम से कम समय में छोड़ दिया होता | यही ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के डायरेक्टर को फटकार भी लगाई होती | यह भी हो सकता है कि सीबीआई के डायरेक्टर को अपना पद भी छोडना पड़ सकता था | पर भाजपा और शाह के द्वारा अपनाया गया रवैया तो किसी को भी चौंकाने वाला है | इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शाह गायब हैं और भाजपा सीबीआई के दुरुपयोग के लिए केंद्र सरकार को कोस रही है | जहां तक प्रधानमंत्री के भोज को ठुकराने का सवाल है , वह कोई मुद्दा नहीं है  | अतीत में अनेक राजनीतिक दल ऐसा कर चुके हैं |                                               मेरा सरोकार इससे कुछ  अलग है | जब देश का सबसे बड़ा न्यायलय स्वयं किसी जांच की मोनिटरिंग करता है और आदेश देता है , वह भी एक ऐसे मामले में , जो ऊपरी  तौर पर एक कोल्ड ब्लडेड मर्डर दिखाई पडता हो , में समझता हूँ कि यह सभी की जिम्मेदारी हो जाती है , विशेषकर राजनीतिज्ञों की तो ज्यादा ही कि देश के सर्वोच्च न्यायलय के उद्देश्यों , मन्तव्य तथा जांच प्रक्रिया का आदर करें |

                                 बहरहाल , देश की दो बड़ी पार्टियों के बीच बड़ा तनाव जनता के सवालों को लेकर नहीं , एक मंत्री को लेकर उभरा है | भारतीय राजनीति में ऐसी परिस्थिति अतीत में भी अनेकों बार आई है , जब लोकसभा को ऐसे मामलों पर ठप्प  किया गया है , जिनका जनता की रोजमर्रा की जिंदगी से कोई वास्ता नहीं रहा | भारतीय राजनीति का कहें या कि भारत की जनता का ,  यह अजीब दुर्भाग्य है कि जनता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल ही यह भूल जाते हैं कि उनके हर कदम के नीचे दबती जनता ही है | देखिये , मानसून सत्र में क्या होता है ?  हंगामें में न धुल जाए यह सत्र भी |
                                                                                     

                                                                                              अरुण कान्त शुक्ला

Sunday, July 18, 2010

खुदरा क्षेत्र का वाल मार्टिकरण


खुदरा क्षेत्र का वाल मार्टिकरण एक खतरनाक कदम
--

पेट्रोल के मूल्यों को अंतर्राष्ट्रिय मूल्यों के साथ जोड़ने के फलस्वरुप , जी-20 के विकसित देशों तथा विशेषकर अमरिका के प्रेसीडेंट ओबामा से मिली शाबाशी से उत्साहित मनमोहनसिंह अब भारत के खुदरा क्षेत्र का वाल मार्टिकरण करने में जुट गये हैं | इसमें कोई शक नहीं कि भारत का खुदरा बाजार अपने विस्तार और विशाल टर्नओवर के चलते पिछले दो दशक से देशी और विदेशी दोनो पूंजी के लिये लालच का कारण रहा है | बीएमआई (बिजनेस मानीटर इंटरनेशनल) ने हाल मे आंकलन पेश किया कि भारतीय खुदरा बाजार की कुल टर्न ओवर 2010 के 16.7 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2014 में 25 लाख करोड़ हो जायेगी | अमरिका की ग्लोबल मेनेजमेंट कंसल्टिंग फर्म ए टी करनी जून' 2009 में भारत को पिछले पांच वर्षों में चौथी बार निवेश के लिये आकर्षक बाजार बता चुकी है | बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत के मल्टीब्रांड खुदरा बाजार का अध्यन कितनी बारिकी से कर रही हैं , इसका दूसरा उदाहरण मेकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट है जिसमें बताया गया है कि वर्ष 2025 तक भारत दुनिया का पांचवा बड़ा बाजार बन जायेगा |

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आवश्यकता नहीं --

भारत के खुदरा क्षेत्र की जीवन क्षमता केवल आर्थिक टर्न ओवर तक सीमित नही है बल्कि पूरे देश में एक करोड़ बीस लाख से अधिक खुदरा दुकानों के विस्तार के साथ यह भारत की अर्थव्यवस्था का मजबूत सहारा भी है | भारत के जीडीपी में इसका योगदान 14 प्रतिशत का है | उद्योगपतियों के संगठन फिक्की के नवम्बर '2003 में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार उस समय खुदरा क्षेत्र में लगभग 11,00,000 करोड़ रुपये की बिक्री भारत के जीडीपी के 44 प्रतिशत के बराबर थी | फिक्की की 2003 की रिपोर्ट की तुलना यदि बीएमआई के उपर उल्लेखित मई ' 2010 के ताजा आंकड़ों से करें तो आसानी से समझा जा सकता है कि खुदरा क्षेत्र बिना किसी सरकारी सहायता के तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है | इसे किसी विदेशी पूंजी की आवश्यकता नहीं है |

तो , फिर क्या , संगठित खुदरा क्षेत्र के कारपोरेट जगत को विदेशी निवेश की जरुरत है ? यह सच है कि भारत में कुल खुदरा व्यवसाय में असंगठित खुदरा क्षेत्र का हिस्सा 98 प्रतिशत है और कारपोरेट समूह केवल 2 प्रतिशत व्यवसाय कर पाते हैं | यद्यपि , इस स्थिती में बहुत परिवर्तन हो गया है और आज कारपोरेट खुदरा का हिस्सा 10 प्रतिशत के लगभग है | यह भी सच है , जैसा कि सरकार के द्वारा 7 जुलाई को जारी किये गये परिचर्चा पत्र में भी उल्लेखित है कि जिस अवधि में असंगठित खुदरा क्षेत्र 15 प्रतिशत की दर से प्रगति कर रहा था , खुदरा क्षेत्र के कारपोरेट दिग्गजों को अपनी बिक्री में कमी का सामना करना पड़ रहा था | यद्यपि ,सरकार ने उस अवधि को बताने से परहेज किया , जिसमें संगठित खुदरा याने कारपोरेट जगत बिक्री में कमी का सामना कर रहा था | पर , थोड़ा भी जानकार यह बता सकता है , कि , यह विश्वव्यापी मंदी का वही समय है , जब विश्व कारपोरेट जगत ने रोजगारों में छटनी तथा वेतनों में कमी करने का बड़ा चक्र चलाया था और अमरिका सहित युरोप और एशिया के सभी देशों में आम आदमी की क्रय शक्ति में भारी गिरावट आई थी | उस विश्वव्यापी मंदी के समय दुनिया के सभी देशों की सरकारों ने उद्योग जगत को तो सार्वजनिक कोष से बड़े बड़े पेकेज दिये , पर , आम लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने के कोई भी उपाय करने के बजाय उन्हें भाग्य भरोसे छोड़ दिया | उस दौर में भारत के कारपोरेट खुदरा ने ही क्या , वाल मार्ट ,केरीफोर , मेक्स जैसी भीमकाय कम्पनियों ने भी अमरिका और यूरोप में उनकी बिक्री में कमी का सामना किया था | वैसे भी बिक्री में कमी का अर्थ व्यवसाय में घाटा नहीं है और देश के कारपोरेट खुदरा ने घाटा उठाया भी नहीं है | जहाँ तक कुल खुदरा व्यापार में 2 प्रतिशत जैसे छोटे हिस्से का सवाल है , इसका कारण समाज के अन्दर आय और उपभोग में बिखरी पड़ी असमानता है | स्वयं सरकार की बनाई हुई अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार देश की 70 प्रतिशत आबादी बीस रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करती है | इस 70 प्रतिशत आबादी की जरुरतें ऐसी हैं कि न तो वह उनकी पूर्ति के लिये कारपोरेट खुदरा के पास जा सकती है और न ही कारपोरेट खुदरा उनकी जरुरतों की पूर्ति कर सकता है |

उपरोक्त तथ्यों के बावजूद , कारपोरेट खुदरा की बढ़ोत्तरी के आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं | अभी तक सरकारी गैर सरकारी जितने भी सर्वे हुए हैं , सभी इस पर एकमत हैं कि कारपोरेट के स्वामित्व वाला खुदरा व्यवसाय वर्ष 1999 में 15000 करोड़ का था , जो 2005 में बढ़कर 35000 करोड़ रुपये का हो गया | इसकी व्रद्धि दर 40 प्रतिशत वार्षिक है | इस तरह कारपोरेट खुदरा , जब बिना खुद के पूंजी निवेश में व्रद्धि किये तेजी से बढ़ रहा है , तब , विदेशी निवेश की जरुरत क्या है ? वस्तुतः भारत के खुदरा क्षेत्र को किसी विदेशी निवेश या विशेष टेकनालाजी की जरुरत नही है बल्कि ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं , जो उनके देशों की जनता को लूटने के बाद अब भारत के 25 करोड़ के मध्य वर्ग पर निगाहें टिकाये हैं | यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे देश की सरकार और शासक वर्ग उनके हितों की पूर्ति का माध्यम बन रहा है , चाहे इसके लिये उन्हें 70 करोड़ भारतीयों के हितों की कुरबानी ही क्यों न देना पड़े |


सामाजिक सुरक्षा का सर्वोत्तम उपाय --

भारत का असंगठित खुदरा अपनी 1 करोड़ 20 लाख दुकानों के साथ विश्व का सबसे बड़ा खुदरा व्यवसाय है | भारत के कारपोरेट खुदरा में जहाँ केवल 5 लाख लोग रोजगार पाये हैं , असंगठित खुदरा 4 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार दे रहा है | कृषि के बाद रोजगार देने के मामले में इसका पहला स्थान है | यह एक अंतर ही दोनों क्षेत्रों की सामाजिक उपादेयता के प्रति उनके रव्वैये को स्पष्ट कर देता है |भारत में खुदरा दुकानों का घनत्व विश्व में सबसे अधिक है | ए.सी. नेल्सन एवं के.एस.ए.टेकनोपक के द्वारा वर्ष 2001 में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में प्रति 1000 व्यक्ति 11 दुकानें हैं | देश की 1 करोड़ 20 लाख दुकानों में से बमुश्किल 4 प्रतिशत ऐसी होंगी जो 500 वर्ग फुट से बड़ी हों | इसका मतलब हुआ कि असंगठित खुदरा का 96 प्रतिशत हिस्सा खुदरा व्यापार में मुनाफा कमाकर धन्नासेठ बनने के लिये नहीं बल्कि येन-केन-प्रकरेण अपनी आजीविका चलाने के लिये है | इसीलिये , हम अपने घर से दस कदम की दूरी पर ही पान , किराना ,डेली नीड्स , जनरल स्टोर्स ,आईसक्रीम सेंटर , हार्डवेयर , नाश्ता चाय सेंटर , भोजनालय सभी कुछ पा जाते हैं |

असंगठित खुदरा व्यवसाय की व्यापकता और विस्तार के प्रमुख कारणों में से एक कारण यह है कि खुदरा क्षेत्र विवश और निराश बेरोजगारों की शरणस्थली है | पूंजीवादी व्यवस्था में , जैसी कि हमारे देश में है , बेरोजगारी एक स्थायी फीचर है | आजादी के बाद भी शिक्षित और अशिक्षित रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या देश में 5 करोड़ से कम कभी नहीं रही | पर पिछ्ले तीन दशक में जिस रोजगार विहिन विकास के रास्ते पर सरकारें चलीं , उसने स्थिती को और भयावह बना दिया | सरकारी आंकड़ों से इतर आज देश में 6 करोड़ से उपर केवल शिक्षित बेरोजगार हैं | पिछले तीन दशकों से केंद्र एवं राज्य की सरकारों , सेवा क्षेत्र के सार्वजनिक प्रतिष्ठानों एवं निजी क्षेत्र ने रोजगारों का सृजन पूरी तरह बन्द कर दिया है ,जबकि इसी अवधि में सार्वजनिक और निजी प्रतिष्ठानों ने अपने व्यवसाय में वृद्धि की है और जबर्दस्त लाभ कमाया है | सार्वजनिक तथा निजी दोनों सेवा क्षेत्रों में हुए विस्तार और व्यवसाय में वृद्धि के फलस्वरुप कर्मचारियों पर काम का बोझ भी बढ़ा , किंतु रोजगार के नये अवसर नहीं पैदा किये गये | यही स्थिती मेन्युफेक्चरिंग क्षेत्र में बनी हुई है , जहाँ स्टेगनेशन का दौर चल रहा है | कृषि क्षेत्र में , सरकार की सेज तथा उद्योगों के लिये भूमि अधिग्रहण करने की नीतियों के चलते खेती का रकबा तो घटा ही है ,सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करने वाला क्षेत्र होने के बावजूद यह क्षेत्र ओवर क्राउडेड है और लोग रोजगार के लिये यहाँ से शहर का रुख कर रहे हैं |

तब , उचित अवसरों के अभाव में किसी भी व्यक्ति के लिये यह एक स्वाभाविक निर्णय होता है कि वह उसके पास उपलब्ध संसाधनों और पूंजी के अनुसार एक दुकान , रिपेयरिंग शाप या इसी तरह का कोई अन्य खुदरा व्यवसाय खोल कर बैठ जाये | यह उसकी पसन्द नहीं होती ,पर परिस्थियां उसे खुदरा बाजार में धकेल देती हैं | इस तरह , एक खुदरा व्यापारी का जन्म हो जाता है | हम रोज ऐसा होते अपने आसपास देखते हैं | हमारे आसपास की लाखों किराना , पान , सब्जी , फल ,कपड़ों की दुकानों की यही कहानी है | ये सब मुश्किल से अपने परिवार का भरण-पोषण कर पाते हैं | असंगठित क्षेत्र के 4 प्रतिशत व्यापार को छोड़ दिया जाये तो शेष व्यापार कम लागत-कम जगह , छोटा स्तर तथा कम मुनाफा के आधार पर काम करता है , जिसमें पूरा का पूरा परिवार रोजगार पा लेता है | ऐसे क्षेत्र में विदेशी निवेश लाने की कोशिश न केवल वर्तमान चार करोड़ रोजगारशुदा लोगों के भविष्य को बर्बाद करेगी बल्कि खुदरा क्षेत्र में अपनी आजीविका की तलाश में बाहर खड़े लोगों के भविष्य को भी मिट्टी में मिला देगी |

सारे आश्वासन झूठे हैं --

सरकार का सबसे बड़ा तर्क है कि किसानों और डाइनिंग टेबल के बीच से बिचौलिये हट जाने से उपभोक्ताओं को सामान सस्ते में मिलेगा | पर , एक बार आपूर्ति श्रंखला पर पूरी तरह से कब्जा हो जाने के बाद बिला शक कारपोरेट खुदरा स्वयं सबसे बड़ा बिचौलिया बन जायेगा | इसके अलावा देश की 70 प्रतिशत जनता की जरुरत अन्य प्रकार की है | क्या , कारपोरेट खुदरा की कोई दुकान , रिक्शा चलाने वाले व्यक्ति को सुबह छै बजे दुकान खोलकर , सिर्फ दो रुपये की श्क्कर और चाय की पत्ती देगा ताकि उसका पूरा परिवार काली चाय पी सके ? क्या , एक मध्यम वर्गीय आदमी को कारपोरेट खुदरा बेटी की शादी के लिये हजारों रुपये के कपड़े , बरतन और अन्य सामान उधार देगा ताकि पहले वह अपनी बेटी की शादी कर ले और बाद में उसका पैसा धीरे धीरे किश्तों में चुका दे ? नहीं , कारपोरेट खुदरा भारत के तीस करोड़ के मध्यवर्ग को लूटने के लिये 70 करोड़ वंचितों को और वंचनाओं में डाल देगा |

जब विदेशी पूंजी निवेश में जटिलताएं इतनी हैं , तो केंद्र सरकार से यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि वह सोच समझकर तथा सावधानी के साथ निर्णय लेगी | किंतु ,हम देख रहे हैं कि सरकार अमरिकन साम्राज्यवाद तथा विश्व व्यापार संगठन के दबाव में विदेशी बहुराष्ट्रीय क्म्पनियों एवं भारत के उद्योगपतियों के हितों के बारे में ही सोच रही है | मल्टी ब्रांड खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का पहले भी विरोध हुआ है | इस बार देश का व्यापारी वर्ग भी पूरी ताकत के साथ विरोध में खड़ा है | सारी आवाम को इसके विरोध में ख्ड़ा होना चाहिये क्योंकि यह देश की अर्थव्यवस्था के लिये घातक है | आवाम के लिये घातक है |

अरुण कांत शुक्ला

Monday, July 5, 2010

Left Right Left

लेफ्ट राईट लेफ्ट

पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में व्रद्धि की खिलाफत करने के लिये विपक्ष के द्वारा की जा रही कवायद का असर यह हुआ है कि 5 जुलाई को विपक्ष के दोनों धड़ों वाम और गैर-बीजेपी विपक्ष तथा बीजेपी-एनडीए विपक्ष ने हड़ताल की घोषणा की है | बिना इस बात पर चर्चा किये की विपक्ष के अन्दर विपक्ष के इस तौर तरीके ने हमेशा सत्तापक्ष की कितनी मदद की है , मैं चर्चा इस बात पर करुंगा कि भारतीय राजनीति में आज विपक्ष जैसा कोई पक्ष है भी क्या ?

एनडीए के सयोंजक शरद यादव तालमेल की इस कार्रवाई को अदभुत बताते हैं | उनके अनुसार जेपी आन्दोलन और 1989 में विपक्ष की एकता के बाद विपक्ष की एकजुटता की यह सबसे बड़ी कवायद है | विपक्ष के दोनों धड़ों के अनुसार इस कार्रवाई से सरकार की यह गलतफहमी दूर हो जायेगी कि विपक्ष बंटा हुआ है और सरकार जो चाहे मनमानी कर सकती है | मेरे अनुसार ईधन के बढ़े दामों के खिलाफ यह संयुक्त कार्रवाई विपक्ष की एकता कायम करने की कवायद कम और विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों के अस्तित्व को बतौर विपक्षी दिखाने की कार्रवाई ज्यादा है | यूपीए अपने दूसरे चक्र में जुलाई '2009 में और चालू वित्तीय वर्ष का बजट पेश करते समय पेट्रो उत्पादों के दाम बढ़ा चुका है | बजट सत्र के दौरान सीपीएम के द्वारा लाये गये कट मोशन पर वोटिंग के समय मुलायम और लालू ने अंतिम समय में ' साम्प्रदायिक ताकतों को मदद मिलेगी ' कहते हुए संसद से बहिर्गमन किया था , हम देख चुके हैं | ऐसा ही हमने तब भी देखा था , जब नाभकीय समझौते के सवाल पर वाम मोर्चे ने यूपीए प्रथम से समर्थन वापस लिया था |

नरसिम्हाराव की अल्पमत सरकार से लेकर अभी तक का इतिहास कांग्रेसी सरकारों को पांच वर्षों तक चलते ही रहने देने का रहा है | इस मध्य कांग्रेस के समर्थन से बनी सयुंक्त मोर्चा की सरकार 18 माह में ही कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण गिरी , तो दूसरी बार भाजपा गठबंधन की सरकार जयललिता के समर्थन वापस लेने के कारण गिरी | यह प्रयोग असफल हुए एक दीगर बात है ,पर , भारतीय राजनीति की दो बातें स्पष्ट होकर सामने आयीं , पहली , कि आजादी के बाद देश में हुए असमान आर्थिक विकास के फलस्वरुप पैदा हुई कुंठा से भारतीय राजनीति में उभर कर आये छोटे क्षेत्रिय दल देश के दो बड़े राजनीतिक दलों के समर्थन के बिना सरकार नहीं बना सकते और तुरंत चुनाव नहीं होने देने की मजबूरी के चलते वे समर्थन दे भी दें तो सरकार पांच वर्ष नहीं चलने देंगे | इसका फौरी फायदा भाजपा को मिला , जिससे अनेक ऐसे क्षेत्रिय दल जुडे , जो कुछ समय पहले तक भाजपा को साम्प्रदायिक कहकर उससे परहेज करते थे | भाजपानीत एनडीए की सरकार ऐसी ही सरकार थी जो पूरे पाँच साल चलती यदि अति उत्साह में उसने थोड़ा पहले चुनाव नहीं कराये होते |

इस गठबंधन की राजनीति का नतीजा यह हुआ है कि पिछले दस वर्षों में करीब करीब सभी छोटे क्षेत्रिय राजनैतिक दल भाजपा या कांग्रेस के साथ केंद्र की सरकार में शामिल हो चुके हैं | दूसरी बात जो स्पष्ट हुई कि नरसिम्हाराव की सरकार में वित्तमंत्री रहते हुए जिस उदारीकृत अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण की नींव मनमोहनसिंह रखी , बाद में आने वाली सभी सरकारें उन्हीं वर्ल्ड बैंक , आईएमएफ और डब्ल्यूटीओ निर्धारित नीतियों पर ही चलती रहीं | सभी सरकारों ने पीडीएस के दायरे को कम किया | उसके जरिये मिलने वाले राशन की मात्रा में कटौती की और पीडीएस के जरिये वितरित होने वाले अनाज के मूल्यों में व्रद्धि की | खाद , बीज , पेट्रो उत्पाद पर सबसीडी कम की | सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारयों की छटनी की तथा रोजगारों का ठेकाकरण किया |लघु उद्योगों में निवेश की सीमा बढ़ाकर उसमें बडे उद्योगपतियों के प्रवेश का मार्ग साफ किया | आयात पर से बंदिशें हटाकर विदेशी खिलाडियों के लिए भारत का बाजार खोला | पेटेंट एक्ट बनाया | कुल मिलाकर आर्थिक नीतियों के सवाल पर सत्तापक्ष और विपक्ष में कोई अंतर नहीं रहा | या , यूं भी कह सकते हैं विपक्ष , विपक्ष ही नहीं रहा | वाम मोर्चे को इस लिहाज से अपवाद में रखा जा सकता है कि उसके पास एक वैकल्पिक आर्थिक नीति थी और उसने कांग्रेस (भाजपा के साथ तो सवाल ही नहीं पैदा होता) के साथ सरकार में शामिल होने से परहेज किया , पर वर्ष 2004 में यूपीए की सरकार उसी के समर्थन से बनी थी और यह समर्थन चार साल से ज्यादा की अवधि तक यूपीए को मिलता भी रहा|

अब जरा ईधन के बढ़े मूल्यों के खिलाफ विपक्ष के भारत बंद के शोर का जायजा भी लें | भाजपानीत एनडीए गठबंधन ने 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 के बीच केंद्र की सरकार में रहते हुए छै वर्षों में पेट्रोल के मूल्यों में 10 रुपये 87 पैसे , डीजल में 11 रुपये 49 पैसे ,रसोई गैस में 105 रुपये 60 पैसे तथा केरोसिन में 6 रुपये की बढ़ोत्तरी की थी | अभी यूपीए के साथ जुड़ी , संपन्न मंत्रियों की बैठक से अनुपस्थित होकर विरोध जताने वाली रेल मंत्री ममता बनर्जी तब भाजपानीत एनडीए सरकार के साथ थीं | अभी गैरभाजापाई विपक्ष का हिस्सा बने चंद्राबाबू नायडू तब एनडीए सरकार के साथ थे |एक बात और पेट्रो उत्पादों को अंतरराष्ट्रीय बाजार के मूल्यों से जोड़ने की शुरुवात करने का श्रेय भाजपानीत एनडीए सरकार को ही है | वर्ष 2002 में भाजपाई एनडीए सरकार ने अमेरिका , डब्ल्यूटीओ और तेल कंपनियों के दबाव में पेट्रोलियम सेक्टर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया था | एनडीए के समय से ही पेट्रो उत्पादों पर से सबसीडी कम करने की शुरुवात भी हुई थी | वर्ष 2004 में आसन्न आम चुनावों के मद्देनजर 2003 में भाजपा ने इस कदम को वापस लिया था | कांग्रेसनीत यूपीए ने पिछले छै वर्षों में पेट्रोल के मूल्यों में 17 रुपये 72 पैसे ,डीजल में 18 रुप्ये 36 पैसे , रसोई गैस में 103 रुपये 65 पैसे तथा केरोसिन में 3 रुपये की व्रद्धि की है | राष्ट्रीय जनता दल , लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी यूपीए के प्रथम चरण में मंत्रीमंडल में थे और 4 वर्षों से ज्यादा तक वाममोर्चे का यूपीए को समर्थन था | सपा ने भी कांग्रेसनीत यूपीए को प्रथम चरण में भी समर्थन दिया था और अभी भी दिया हुआ है | राष्ट्रीय जनता दल का समर्थन यूपीए को आज भी प्राप्त है | एनडीए ने पेट्रोलियम सेक्टर को फ्री किया था और यूपीए उस परंपरा को आगे बढ़ा रही है | किसे विपक्ष कहें ?

याने , सरकारें बदलती रहीं पर नीतियां वही रहीं | साम्प्रदायिकता , जातिवाद जैसे कुछ सरोकारों को छोड़ दिया जाये तो आर्थिक मुद्दों , विदेश नीति , अमेरिका के साथ सहयोग जैसे मुद्दों पर , कम्युनिस्टों को छोड़कर किसी का कोई विरोध नही है | जो भी लड़ाई है , कुर्सी पर बैठकर मलाई खाने की है | भारत के गैरसंपन्न तबके के लिये चल रहा बुरा वक्त और भी बुरा होने वाला है | विडम्बना यह है कि भारत के आम आदमी के पक्ष में जो अपने आप को दिखाना चाहते हैं , वो भी उसके विपक्ष में ही हैं | यह सारा लेफ्ट राईट लेफ्ट अपने राजनीतिक वजूद को अलग दिखाने की कवायद से अधिक कुछ नहीं है |


 

अरुण कान्त शुक्ला