Monday, May 31, 2010

FIJOOL KYON DEN KACHARA TAX

फिजूल क्यों दें कचरा टेक्स ?
केंद्र सरकार दिल्ली , चैन्नई ,जयपुर से लेकर रायपुर , दुर्ग तक के करीब 433 शहरों के रहने वालों से " कचरा टेक्स " वसूलने की तैयारी में है शहरी विकास मंत्रालय की स्थायी समिति ने इसकी सिफारिश की है , जिसके अनुसार ठोस कचरे के निपटारे के लिये सरकार को लगभग 3000 हजार करोड रुपये की दरकार हर साल होगी और यह प्रत्यक्ष कर के रूप में ऐशो-आराम की जिन्दगी बिताने वाले नगरीय क्षेत्र के लोगों से वसूला जाना चाहिये
इसमै कोई शक नहीं कि पिछले एक दशक में गाँव , कस्बे से लेकर छोटे बडे सभी शहरों में कचरा या कूडे की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है आप कहीं भी जाईये , औसतन हर 100 मीटर के बाद सडक के किनारे , मोड पर , खाली पडे प्लाटों में आपको बदबू मारते कूडे के ढेर मिल जायंगे सफाई व्यवस्था के लिये जिम्मेदार नगरपालिकाऐं या नगरनिगमें भी शहर में फैले कूडे को ढोकर शहर के बाहर फेंकने के प्रति प्रथमत: तो लापरवाह हैं और दूसरे पिछले दो दशक में कर्मचारियों की संख्या कम करने और नयी नियुक्तियां नहीं करने के फैशन के चलते उनके पास पर्याप्त सफाई कर्मचारी नहीं हैं महाराष्ट्र , तमिलनाडु ,गुजरात जैसे राज्यों के गिनती के कुछ शहरों में घरेलु कचरे को एकत्रित करने के लिये निजि क्षेत्र को ठेके दिये जाते हैं यह समस्या की तीव्रता को तो कुछ कम करता है , पर समस्या का पूरा समाधान इससे नहीं होता यह काम भी नगरपालिका या नगरनिगम के सौजन्य से नहीं होता नागरिक इस सेवा के बदले प्रतिमाह निजि ठेकेदार को भुगतान करते हैं छत्तीसगढ के कुछ शहरों में भी इस व्यवस्था को लागू करने की कोशिशें हुई हैं , पर कुछ समय बाद ही अव्यवस्था का शिकार होकर बन्द हो गई
जिस तरह पानी की समस्या के चलते लोग सार्वजनिक नलों और टेंकर से पानी सप्लाई के समय झगडते और मारपीट करते दिखाई देते हैं ,ठीक उसी तर्ज पर आज दूसरों के घरों के सामने या नालियों में कचरा फेंकने पर लडते देखे जा सकते हैं समस्या का विकराल रूप बारिश के मौसम में दिखता है , जब बरसात के पानी की निकासी नालियों और नालों से नहीं हो पाती क्योंकि वे प्लास्टिक की झिल्लियों , थैलियों , बोतलों तथा कपों से अटे रहते हैं और सारा बरसाती पानी सडकों से होता हुआ निचली बस्तियों में भर जाता है मुंबई से लेकर रायपुर तक सभी शहरों का यही हाल है आश्चर्यजनक रूप से मीडिया और सरकारी नुमाईन्दों ने इसे बाढ का नाम दे दिया है , जोकि पूरी तरह गलत है
अच्छा है कि सरकार का ध्यान इस तरफ गया है पर , उसकी समझ हमेशा की तरह रोग को समझे बिना रोग का निदान करने की ही है जिस कचरे से हम दो-चार हैं , वह पूंजीवादी विकास का कचरा है , जो उपभोक्ता के रूप में नागरिकों पर थोपा गया है इससे दूर रहने , इसे न फैलाने का कोई विकल्प उनके पास नहीं है सातवें दशक के मध्य तक लोग जब बाजार जाते थे , तो उनके साथ सामान लाने के लिये कपडे या जूट का थैला होता था दवाई से लेकर किराने के सामान तक सभी चीजें खरीददार को कागज की पुडियों या पुडों में दी जाती थीं इन पुडों का उपयोग रसोई में सिगडी , चूल्हा जलाने से लेकर अन्य कई तरह से होता था सामान्यत: घरों की सफाई से कुछ धूल , कागज इत्यादि ही निकला करते थे कागज बरसात में गल जाता था सातवें दशक के अंत आते तक कागज के पुडों की जगह प्लास्टिक की झिल्लियों ने ले ली सरकार ने भी बिना जांच-पडताल किये और परिणामों की परवाह किये बिना इस उद्योग के पनपने में बहुत मदद दी जबकि इस उद्योग ने जितने लोगों को रोजगार प्रदान किया ,उससे कई गुणा ज्यादा लोगो का रोजगार खाया पिछले तीस वर्षों में प्लास्टिक के इस बेजा इस्तेमाल की तरफ अनेक बार सरकार का ध्यान खींचने की कोशिशें हुईं तब जाकर हाल के कुछ वर्षों में कुछ राज्य सरकारों ने ऐसी प्लास्टिक की झिल्लियों पर रोक लगाई है , जिनकी रिसाईक्लिंग नहीं हो सकती पर , आम उपभोक्ता क्या करे ? पहले तो वह कैसे पहचाने कि दुकानदार उसे जो प्लास्टिक की झिल्ली या थैली थमा रहा है , उसकी रिसाईक्लिंग हो सकती है या नहीं ! दूसरे , उप्भोक्ता खुद तो रिसाईक्लिंग करने से रहा , उसे तो वह कचरा घर से बाहर ही फेंकना है तीसरे , कचरा फेंकने के लिये कोई नियत व्यवस्था नहीं है , उसे तो वह कचरा जहाँ जगह मिलेगी ,वहीं फेंकना है आखिर , कचरा फेंकने वह शहर से कई किलोमीटर दूर बाहर तो जायेगा नहीं मैं प्लास्टिक के उपयोग के खिलाफ नहीं हूँ , बल्कि प्लास्टिक के समझदारी पूर्ण उपयोग के पक्ष में हूँ प्लास्टिक सस्ता पडता है और विशेषकर बच्चों के खिलोनों को इसने बहुत सस्ता बना दिया है पर , झिल्ली , केरी बैग , कप्स के रूप में इसका प्रयोग पूर्णत: बन्द होना चाहिये , तभी स्वत: नष्ट नहीं होने वाले कचरे में कमी आयेगी ,जोकि नगरिकों का असली सरदर्द है
सरकार कचरा टेक्स क्यों लगाना चाहती है ? दरअसल सरकार जिस ठोस कचरे की बात कर रही है , उसमें से प्लास्टिक को छोड दिया जाये तो अधिकांश हिस्सा मोबाईल फोन , कंप्युटर तथा अन्य ईलेक्ट्रानिक चीजों का है , जो अंत में मिट्टी में तब्दील न होने के कारण ई-कचरा होती हैं अब जनता तो रोज अपने मोबाईल फोन , कंप्युटर या ईलेक्ट्रानिक आईटमों को बदलती नहीं है या घूरे पर फेंकती नहीं है फिर , सरकार का सरदर्द बना ई-कचरा आता कहाँ से है सरकार मुक्त व्यापार समझौतों के अंतर्गत भारी मात्रा में पश्चिमी देशों से , विशेषकर यूरोपिय देशों तथा जापान से कबाड आयात करने की अनुमति प्रदान करती है सितम्बर,2009 तक लगभग 30 देशों से मुक्त व्यापार समझौते लंबित थे हमारे देश का वाणिज्य मंत्रालय ऐसे समझौतें के बारे में कोई भी सूचना जनता तक पहुंचाना अपना काम नहीं समझता बजट सत्र में पर्यावरण मंत्री ने राज्यसभा में बताया कि इस्तेमाल किये गये कंप्यूटर के आयात पर पाबन्दी ई-वेस्ट मैनेजमेंट की गाइडलाईंस के तहत ही होना चाहिये दुर्भाग्य यह है कि पिछले तीन दशकों से कूडा आयात हो रहा है , पर कोई कानून इस देश में यह चेक करने के लिये नहीं है कि क्या मानव जीवन और पर्यावरण के लिये खतरनाक वस्तुएं तो आयात नहीं हो रहीं पानी सर के उपर निकल जाने के बाद सरकार 14 मई,2010 को एक ड्राफ्ट कानून लेकर आई है , जिस पर लोगों से सुझाव एवं आपत्तियां 15जुलाई, 2010 तक मांगी गईं हैं
इसके अतिरिक्त हमारे देश के छोटे बडे सभी कारखानों , व्यवसायिक प्रतिष्ठानों , और छोटे बडे निजि अस्पतालों से निकलने वाले बायो कचरे को भी नगरनिगमों के ठोस कचरे में मिला दिया जाता है शहरी विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रतिवर्ष 420 लाख टन ठोस कचरा निकलता है यानी रोज का करीब 1.15 मीट्रिक टन इसमें भी 83,378 मीट्रिक टन कचरा ए-वर्ग शहरों का है आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि नागरिक किसी भी मात्रा में प्लास्टिक की झिल्ली या अन्य सामान तथा ईलेक्ट्रानिक आईटम कचरे के रूप में बाहर फेंके पर वह वजन में मंत्रालय के द्वारा बताई गई मात्रा में नहीं हो सकता सीधी बात है कि जिस ठोस कचरे को निपटाने की बात सरकार कर रही है , उसमें घरेलु कचरे का हिस्सा बहुत कम है
दरअसल ,वर्तमान में रिसाईक्लिंग का काम जिस पैमाने पर होना चाहिये , नहीं हो रहा है जो हो रहा है , वह अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में है , जो प्रदूषण के मानकों का ख्याल नहीं रखते सरकार ई-कचरे के निपटान को प्रदूषण का एक मानक बनाकर निजि क्षेत्र के जरिये संगठित करना चाहती है केंद्र की योजना के अनुसार इसमें केंद्र व राज्य सरकार मिलकर 50 प्रतिशत फंड मुहैया करायेंगी ,शेष 50 प्रतिशत निजि उद्धमी लगायेगा यह 50 प्रतिशत राशी करीब 3000 करोड बैठेगी ,जिसे कचरा टेक्स के रूप में सरकार वसूलना चाह्ती है
प्रत्येक वर्ष वे सभी , जिनके पास स्वयं का मकान है , नगरनिगमों या नगरपालिकाओं को संपत्ति एवं अन्य करों के साथ स्वच्छता (सफाई) कर का भुगतान करते ही हैं इन समेकित करों की दरें अलग अलग शहरों में अलग अलग हैं किंतु कहीं भी ये सात-आठ प्रतिशत से कम नहीं हैं इसमें स्वच्छता कर का हिस्सा एक से दो प्रतिशत तक रहता है नागरिक कचरा सफाई के लिये टेक्स भर रहें हैं वे गन्दगी में रहने इसलिये मजबूर हैं , क्योंकि सरकार की नीतियों में समझ और दूरदर्शिता की कमी स्पष्ट नजर आती है ठोस कचरे की रिसाईक्लिंग से होने वाला मुनाफा निजि उद्धमी बटोरेगा और कचरा टेक्स जनता दे और गन्दगी में रहे यह फिजूल का टेक्स है और जनता फिजूल क्यों दे कचरा टेक्स
अरुण कांत शुक्ला

Thursday, May 27, 2010

Aaklan Do Dashak Ka Ho

आकलन दो दशक का हो -
एक साल पूरा होने पर सरकार के कार्यकाज का आकलन करने की परंपरा एक लम्बे समय से चली आ रही है विशेष रूप से गठबंधन सरकारों के सत्तारुढ होने के बाद से इस परंपरा को और बल मिला है इस लिहाज से यूपीए के दूसरे चक्र के पहले साल के कार्यो और उपलब्धियों के आकलन के साथ प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहनसिंह की सोच और कार्यों का भी आकलन , मीडिया सहित सभी क्षेत्रो में किया जा रहा है पर, वर्ष 2010 यूपीए सरकार के दूसरे चरण के पहले वर्ष का ही अंत नहीं है, यह देश में लागू हुए आर्थिक उदारीकरण और सुधारों के बीसवें वर्ष का अंत भी है संयोग से आज जिन मनमोहनसिंह के कार्यों का आकलन प्रधानमंत्री के रूप में सभी लोग कर रहे हैं, उसी व्यक्ति ने 1991 में वित्तमंत्री रहते हुए वर्तमान आर्थिक सुधारों की शुरुवात देश में की थी इतिहास में मनमोहनसिहं को इसका श्रेय हमेशा मिलेगा कि 1995 से 2004 तक कांग्रेस और मनमोहनसिहं के सत्ता से दूर रहने के बावजूद , बीच में आयी सरकारों के सामने आर्थिक सुधारों के उसी रास्ते पर चलने के अलावा कोई चारा नहीं था ,जिन्हे 1991 में मनमोहनसिहं तय कर चुके थे इसलिये आकलन कांग्रेस या उस हेतु मनमोहनसिहं की उस सोच का भी होना है, जिसने भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक, सांस्क्रतिक जीवन में खलबली मचा कर रखी है
उदारीकरण वायदे और वास्तविकता-
वर्ष 1991 में उदारीकरण के रास्ते पर जाने के बाद 8वीं पंचवर्षीय योजना (92-97) में रोजगार के अवसरों को बढाने, जनसंख्या को नियंत्रित करने, पूर्ण साक्षरता प्राप्त करने प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौम बनाने , सभी को साफ पेय जल उपलब्ध कराने और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं को सभी तक पहुंचाने के लक्ष्य रखे गये थे पर, दो दशक के बाद स्थिति यह है कि यूएनडीपी की वर्ष 2009 की मानव विकास रिपोर्ट में , 182 देशो में भारत का स्थान 134वा है भारत अपने पूर्व स्थान 126 से नीचे खिसक गया है जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में 128वा , व्यस्क सक्षरता दर में 120वा , प्रसव दौरान महिलाओं के मरने कि दर में 153वा , महिला व्यस्क साक्षरता में 123वा ,40 वर्ष की आयु तक जीवन प्रत्याशा में 105वा , 5 वर्ष तक आयु के बच्चों के अंडरवेट के मामले में 137वा , साफ पीने के पानी की उप्लब्धता में 76वा स्थान है इन दो दशकों की एक और बडी उपलब्धि देश में बडा भ्रष्टाचार है मनमोहनसिहं के वित्तमंत्री रहते हुए ही तात्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव को लपेटते हुए जो हर्षद मेहता कांड हुआ , उसके बाद से देश में भ्र्ष्टाचार का पौधा लगातार पलता फूलता रहा है आज विश्व में भ्रष्ट देशो में भारत का स्थान 85वा और एशिया में चौथा है
पिछले दो दशक के दौरान लाखों किसानो ने आत्महत्या की हैं कारण स्पष्ट है उदारवादी नीतियों के चलते किसानो की मेहनत वायदा कारोबार के तहत सट्टाबाजार के हवाले कर दी गयी सरकार की तरफ से दी जाने वाली सबसीडी विश्व व्यापार संगठन और बहुराष्टीय क्म्पनियों के दबाव में लगातार कम की गयी और जो दी भी गयी ,उसका फायदा बडे किसानो तथा फार्मिंग करने वालों तक सीमित रहा अपने देश की फर्टिलाइजर उत्पादक इकाइयों को बंद करके किसानो को मोंसेंटो ,वालमार्ट ,डेनियल्स मिडलेंड जैसी कम्पनियों के रसायनो , खादों तथा बीजों के इस्तेमाल के लिये मजबूर करने का नतीजा यह निकला है कि आज पंजाब और हरयाणा जैसे उन्नत राज्यो में खेतिहर भूमि की उर्वरा क्षमता समाप्त हो चुकी है मिट्टी धूल में परिवर्तित हो रही है इन राज्यों के किसान आज मुश्किलों का सामना कर रहे हैं पंजाब स्टेट कौंसिल फोर साइंस एण्ड टेकनालाजी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में खेती करना अब फायदेमंद तो है ही नहीं मुश्किल भी हो गया है पंजाब की ही एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार रसायनों के बेतहाशा उपयोग से पंजाब में कैंसर के मरीज उन क्षेत्रों की तुलना में बढे हैं , जहाँ खेती के तरीके अभी बद्ले नहीं हैं
दो दशक पहले जो सब्जबाग दिखाने की कोशिश की ग्यी थी , वह धूसरित हो चुकी है उदारीकरण आज और भी गम्भीर बहस में है कि क्या 1991 में शुरु किये गये आर्थिक सुधार लोगों को गरीबी रेखा से उपर लाने में सफल रहे हैं ? क्या इससे बडी तादाद में लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया है ? कांग्रेस ने सीखे सबक --
1996 और उसके बाद 8 वर्ष तक सत्ता से बाहर रहते हुए कांग्रेस ने यह सबक जरुर सीखा कि गरीबों के हितों की पैरवी करते हुए दिखना बहुत जरुरी है ताकि आपका वोट बैंक बना रहे यही कारण है कि सरकार की अनेक योजनाएं गरीबों की मदद करती दिखायी देती हैं उसके बावजूद देश के बडे हिस्से में गरीबी की हालत लगातार बिगडी ही है आर्थिक सुधारों के हिमायतियों का मानना था कि गरीबी 40 प्रतिशत से घटकर 26 प्रतिशत पर आ गयी है पर , सुरेश तेन्दुलकर कमेटी की रिपोर्ट ने उनके प्रचार को झूठा साबित कर दिया , जिसके अनुसार गरीबी का प्रतिशत आज भी 40 ही है अर्जुन सेंगुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार 70 प्रतिशत से अधिक परिवार 20 रुपये प्रतिदिन से कम आमदनी से गुजारा करते हैं 1990-91 में कुपोषण के शिकार लोगो की तादाद 21 करोड थी, लेकिन 2004-06 में यह 25.20 करोड हो गयी दुनिया के कुपोषित बच्चो में से आधे भारत में हैं पाँच साल नीचे के 42.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार है तीन साल से नीचे के 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं हमारे देश में अनाज के पहाड और करोडों भूखे एक साथ मिलते हैं
मनमोहनसिहं के प्रधानमंत्रित्व में भारत में विश्व बैंक और आइएमएफ की उन नीतियों के अंतिम चरण को पूरा किया जा रहा है ,जिन्हे मनमोहनसिंह ने 20 साल पहले भारत के लिये स्वीकार किया था मनमोहंसिंह जब कहते हैं कि उन्हे दिया गया टास्क अभी अधुरा है ,इसलिये रिटायरमेंट का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता तो समझ लेना चाहिये कि जिस टास्क की वे बात कर रहे हैं ,वह विश्व बैंक का वही एजेंडा है , जो बीस साल पहले भारत में रीगन और थैचर की नीतियों को लागू करने के लिये उन्हे दिया गया था
जब सरकार के फोकस में विश्व बैंक का एजेंडा हो और देश के आमजनों की सधारण खुशियाली से भी ज्यादा महत्वपूर्ण अमरिका की दोस्ती और हित हों तो युपीए-2 के पहले साल पूर्ण होने के अवसर पर अयोजित प्रेस वार्ता में गोल-मोल जबाब देने के अलावा प्रधानमंत्री कर ही क्या सकते थे ऐसे में सरकार के इन कल्याणकारी कदमों में गरीबी को ह्टाने या गरीबों की सहायता करने से ज्यादा गरीबों का भला करते दिखत्ते रहने की भावना ही ज्यादा नजर आती है

अरुण कांत शुक्ला