Thursday, September 27, 2012

रोज सर कटाओ, रोज शहीद कहलाओ..



रोज सर कटाओ, रोज शहीद कहलाओ..

कल भगत सिंह का जन्म दिवस है| बीते हुए कल देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह का जन्म दिन था यह विडम्बना नहीं चुने हुए रास्ते पर चलने की अवश्यंभावी नियति है कि न तो मीडिया में और न ही इंटरनेट पर मनमोहन सिंह को जन्म दिवस की बधाई देते हुए कोई दिखाई दिया, सिवाय एक अपवाद के, वह भी फेसबुक पर अखबारों में कोई उल्लेख अगर मिला भी तो वह प्रशंसा या बधाई का न होकर, मनमोहन सिंह के पूरे कार्यकाल का आलोचनात्मक विवरण ही था जबकि, पिछले दो दिनों से अखबारों (निश्चित रूप से हिन्दी) के सम्पादकीय पृष्ठ उन लेखों से भरे हुए हैं, जो भगत सिंह की सोच और देश के लोगों के प्रति उनकी चाहत को न केवल प्रदर्शित करने के लिए लिखे गए हैं, बल्कि उनका उद्देश्य आज की परिस्थितियों में लोगों के अंदर उस क्रांतिकारी जागरूकता को पैदा करना है, जो भगत सिंह के अंदर बलवती थी और जिसने उन्हें (भगतसिंह को) देश के लिए उस आयु में बलिदान करने के लिए प्रेरित किया, आज जिस आयु में बच्चे अपना शिक्षण भी पूरा नहीं कर पाते हैं

मैं चंद (पांच) महीनों बाद अपने जीवन के 63 साल पूरे करूँगा लगभग 39 वर्ष की मेरी वेतन गुलामी में, (मार्क्स के शब्दों में, वैसे मैं अभी भी स्वयं को वेतन गुलाम ही समझता हूँ, क्योंकि मुझे अपर्याप्त ही सही, पर पेंशन प्राप्त होती है) मैंने लगभग 34 वर्ष एक ट्रेड युनियन कार्यकर्ता के रूप में बिताये हैंअपने ट्रेड युनियन जीवन में, मैं अक्सर अपने साथियों को मोटिवेट करने के लिए कहा करता था, रोज सर कटाओ, रोज शहीद कहलाओ इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में ट्रेड युनियन में काम करना कोई आसान काम नहीं है, विशेषकर, नवउदारवादी नीतियों के आक्रमण के बाद उन ट्रेड युनियन वर्करों के लिए तो ये एक जटिल और दुरूह कार्य था, जो वाकई सोचते थे कि नवउदारवादी नीतियां देश के किसानों, असंगठित मजदूरों और स्वरोजगारियों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं हैं और ये सब मिलाकर देश के 80% हिस्से से कम नहीं है उसके बावजूद, आज मुझे लगता है कि आजाद देश के ट्रेड युनियन आंदोलन और वह भी विशेषकर सार्वजनिक क्षेत्र के ट्रेड युनियन में यह कहना कि रोज सर कटाओ और रोज शहीद कहलाओ, भगत सिंह जैसे शहीदों के साथ किया गया अन्याय है देश के ट्रेड युनियन और विशेषकर वामपंथी ट्रेड यूनियन आंदोलन और वामपंथी राजनीतिक आंदोलन में भगतसिंह सिंह के साथ यह अन्याय रोज किया जाता है

जब में सेवानिवृत हुआ, अपने एम्प्लायर से सेवानिवृति लाभों के रूप में काफी धन भी मुझे मिला त्याग थे, पारिवारिक जीवन में खलल, अपने अनेक शौकों की तिलांजलि, कुछ सस्पेंशन, कुछ लेटर्स, मगर, आजाद देश के ट्रेड युनियन आंदोलन और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ते हुए शहीद होना, दोनों में कोई तुलना हो ही नहीं सकती मैं ऐसे ट्रेड युनियन नेताओं के बारे में भी सुना है, जिन्होंने सेवानिवृति के बाद लाखों रुपयों की थैली इसलिए ली है कि उन्होंने ट्रेड युनियन में काम करते हुए अनेक त्याग किये हैं और कुर्बानियां दी हैं

भगत सिंह को शहीद, उनके जोश और देश के लिए मर मिटने वाले जज्बे ने नहीं बनाया भगत सिंह को शहीद बनाया इन्कलाब के साथ खुद को एकाकार करने वाले जज्बे ने प्रसिद्द क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त ने अपनी किताब भगत सिंह और उनका युगमें फांसी के ठीक पहले लिखे गए भगत सिंह के एक पत्र का उल्लेख किया है, जो उन्होंने अपने साथियों को लिखा था पत्र में भगत सिंह ने मृत्यु के ठीक पहले ज़िंदा रहने की अपनी ख्वाहिश को किस जज्बे के साथ बयां किया था, वह इन्कलाब के बारे में उनकी उत्कृष धारणा को दिखाता है पत्र इस प्रकार हैः

ज़िंदा रहने की ख्वाईश कुदरती तौर पर मुझमें भी होनी चाहिये मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मेरा ज़िंदा रहना एक मशरूत (एक शर्त पर) है मैं कैद होकर या पाबन्द होकर ज़िंदा रहना नहीं चाहता

मेरा नाम हिन्दुस्तानी इन्कलाब का निशान बन चुका है और इन्कलाब पसंद पार्टी के आदर्शों और बलिदानों ने मुझे बहुत ऊंचा कर दिया है इतना ऊंचा कि ज़िंदा रहने की सूरत में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता

आज, जब, विश्व पूंजीवाद नवउदारवाद का चोला पहनकर नए सिरे से दुनिया की दबी कुचली आबादी और मेहनतकशों पर आमादा है और ट्रेड युनियन में काम करने वालों और वामपंथ में काम करने वालों से वक्त की गुजारिश है कि वे अपनी सम्प्पूर्ण उत्सर्गता के साथ इस आक्रमण के खिलाफ खड़े हों, हम सुविधाभोगी ट्रेडयूनियन आंदोलन और सुविधाभोगी वामपंथी राजनीति से दो चार हो रहे हैं वे सब, जो पूंजीवाद के फेंके टुकड़ों के अभ्यस्त हो गए हैं, आज, भगत सिंह को याद करेंगे, पर, वो विचार, जो भगत सिंह को शहीद बनाता है.. कहाँ से आएगा?
      

अरुण कान्त शुक्ला,                                                                   27 सितम्बर,2012           

Tuesday, September 18, 2012

20 सितम्बर का आह्वान, बहुत हुआ यूपीए, अब जाओ,



20 सितम्बर का आह्वान, बहुत हुआ यूपीए, अब जाओ,

आज शाम से चैनलों पर अंकगणित चालू है और कल के अखबार भी ममता के यूपीए सरकार से बाहर निकलने वाले समाचारों के साथ साथ उस अंकगणित से भी भरे रहेंगे कि किस तरह मुलायम और माया के बाहर से समर्थन के बल पर यूपीए सरकार 2014 तक टिकी रहेगी इसमें कोई शक नहीं कि ममता के तेवरों से जो निर्ममता यूपीए के लिए टपक रही थी, ढाई घंटे की मेराथन बैठक के बाद उसमें थोड़ी नरमी दिखाई दी और शुक्रवार तक के लिए मंत्रियों के इस्तीफे टालकर ममता ने यूपीए के लिए गुंजाईश छोड़ी है कि वो रिटेल में विदेशी निवेश, डीजल की कीमतों में एक-दो रूपये की कमी करके और सबसीडी से मिलने वाले सिलिंडरों की संख्या को 6 से 10-12 तक बढ़ाकर अपना स्पष्ट बहुमत बनाए रख सकता है

13 तारीख को डीजल की कीमत में पांच रुपये की बढ़ोत्तरी और सबसीडी से मिलने वाले सिलिंडरों की संख्या को छै तक सीमित करने तथा 14 तारीख को रिटेल, एविएशन में विदेशी निवेश की घोषणा तथा सार्वजनिक क्षेत्र के शेयरों को बेचने की घोषणा करने के बाद शनिवार को योजना आयोग की बैठक में मनमोहनसिंह का रुख दबंग के सलमान जैसा था कि जब मैं एक बार कुछ कमिट कर देता हूँ तो उसके बाद मैं अपनी भी नहीं सुनता। मनमोहन सिंह को तब शायद यह लगता होगा कि बार बार कमिट करके हर बार रिट्रीट करने वाली ममता इस बार भी ऐसा ही करेंगी। या, फिर उन्हें अपने जुगाड़ मेनेजमेंट पर पक्का भरोसा है क्योंकि जब वे वित्तमंत्री थे, उन्होंने नरसिम्हाराव को न केवल अल्पमत सरकार चलाते देखा था बल्कि उसे जुगाड़ करके बहुमत में लाते भी देखा था 2007 में वह अनुभव उनके काम आया, जब उन्होंने उसी जुगाड़मेंट के जरिये वामपंथियों को धता बताते हुए अमेरिका के साथ न केवल न्यूक्लियर समझौता किया, अपनी सरकार भी बचा ली

पर, इस बार परिस्थिति में जमीन आसमान का अंतर है 20 सितम्बर के विरोध में, जो सभी प्रायोगिक लिहाज से भारत बंद में ही परिणित होने जा रहा है, न केवल सभी विरोधी राजनैतिक दल, एमएनएस जैसे एक दो दलों को छोड़कर, शामिल हैं बल्कि समाजवादी पार्टी, बीएसपी जैसे बाहर से समर्थन दे रहे दल भी शामिल हैं जो रिटेल में विदेशी निवेश के सवाल पर तीव्र खुला विरोध जता चुके हैं यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार है और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव घोषणा कर चुके हैं कि यूपी में वे विदेशी किराना स्टोरों को नहीं आने देंगे डीएमके जो तृणमूल की तरह ही यूपीए सरकार में शामिल है एफडीआई के सवाल पर 20 तारीख के बंद में शामिल होने जा रहा है एक बार विरोध में शामिल होने के बाद, उसके ऊपर अधिक नैतिक दबाव होगा कि यूपीए के पीछे नहीं हटने पर वो भी ममता के समान सरकार से हटे

रिटेल में एफडीआई का पूरा मामला, अब,  देश के किसानों, उपभोक्ताओं के लिए कितना लाभदायक है या इससे कितने रोजगारों का सृजन होगा, इससे हटकर यूपीए के लिए विश्वास और भरोसे के संकट में बदल चुका है कामनवेल्थ, 2जी, आदर्श सोसाईटी और अब प्रधानमंत्री की नाक के नीचे कोयला आबंटन में घपला और फिर पहले प्रधानमंत्री से लेकर सरकार के सभी जिम्मेदारों का उससे इनकार और फिर कोर्ट से मामलों के खुलने का नतीजा यह है कि यूपीए के पास विश्वासमत जुटाने के लायक आंकड़े आ भी जाएँ तो भी जनता का भरोसा खो चुकी सरकार ही वो रहेगी

यही कारण है कि बीस तारीख के विरोध के बाद यदि समाजवादी पार्टी इस आधार पर यूपीए को समर्थन देती है कि वो यूपी में इसे लागू नहीं होने देगी और साम्प्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए यूपीए का समर्थन जरूरी है तो अवसरवाद और अविश्वसनीयता(राजनीतिक धोखा देने) के लिए जाने वाले मुलायम अपनी बची खुची साख भी खो देंगेयही स्थिति माया के लिए भी है वो भी यूपीए को समर्थन देने के पीछे साम्प्रदायिक ताकत को रोकना सबसे बड़ा कारण बताती हैं पर, यदि अब वे ऐसा करती हैं तो उनका रिटेल का विरोध महज दिखावा ही होगा

दरअसल सभी क्षेत्रीय दलों की साख इस आधार पर इस पूरे प्रकरण में दांव पर लगी है कि यदि वे अखिल भारतीय राजनीति में अपनी भूमिका निभाना चाहते है, तो उन्हें, डीजल की कीमतों के  मामले, रसोई गैस का मामले और रिटेल में विदेशी निवेश का मामले में, जो देश और देशवासियों से संबंधित है, अपने राज्यों में लागू होने नहीं देंगे जैसे संकीर्ण सोच वाले निर्णय से बचना होगा ममता ने दो टूक फैसला करके उनके सामने उदाहरण रख दिया हैआखिर, समाजवादी पार्टी और बसपा के भी समर्थन वापस लेने के बाद, देश में होना तो मध्यावधी चुनाव ही हैं और उसमें सत्ता की बागडोर किसके पास जायेगी, ये निर्णय तो देशवासियों को ही करना है यदि आज समर्थन जारी रखा जाता है तो इसका मतलब है कि चुनाव 2014 में तय समय पर ही होंगे, तब भी देश की जनता ही चुनाव में सत्ता, जिसको वो पसंद करेगी, उसे ही सौपेंगी किन्तु रिटेल में एफडीआई आ जायेगी

वह चाहे यूपी हो या भाजपा शासित राज्य, जिन्होंने ये घोषणा करके रखी है कि वे अपने राज्यों में विदेशी रिटेल स्टोर नहीं खुलने देंगे, उन्हें एक बात समझनी होगी कि वे अधिक समय तक अपने उस रुख पर कायम नहीं रह सकते केन्द्र का यह कहना, कि राज्यों को छूट होगी कि वे चाहें तो अपने राज्यों में रिटेल स्टोरों को आने दें या नहीं आने दें, एक बहलावे के अलावा कुछ नहीं है जैसा कि जाने माने कृषि और खाद्य विश्लेषक देवेन्द्र शर्मा का कहना है कि जिन भीमकाय रिटेलर्स को भारत में आना है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नियमों के अंतर्गत बाईलेट्रल इन्वेस्टमेंट प्रमोशन एंड प्रोटेक्शन एग्रीमेंट्स (BBIPAs) के सदस्य देशों को विदेशी निवेशकों को राष्ट्रीय पहुँच और व्यवहार देना होगा भारत इसका सदस्य है और भारत को  रिटेल में आने वाली भीमकाय कंपनियों को राष्ट्रीय पहुँच उपलब्ध करानी होगी इस एग्रीमेंट पर सत्तर देश हस्ताक्षर कर चुके हैं यदि राज्य अड़ंगा लगाएंगे, तो आने वाली कंपनियां राज्यों को मजबूर करने के लिए कानूनी दबाव लाएंगी

बड़े शहरों तक ही ये स्टोर सीमित रहेंगे, एक झांसे के अलावा कुछ नहीं है थाईलेंड, मेक्सिको, अमेरिका और यूरोप के देशों का ही अनुभव बताता है कि ये राजनीतिक दलों , नौकरशाही के बीच करोड़ों रुपया लाबिंग पर खर्च करते है ताकि इनके पक्ष में नियम बनें और ये तेजी से विस्तार करें यह पहली बार हो रहा है कि केन्द्र सरकार के नीतिगत निर्णय के विरोध में वो राजनीतिक दल शामिल हो रहे हैं, जिनके संख्या बल पर सरकार टिकी है और जो सरकार की नीति के पूरी तरह खिलाफ हैं देशवासी समाजवादी पार्टी और बसपा की तरफ देख रहे हैं केवल यूपीए की नहीं इन दलों की भी साख दांव पर लगी है यदि, 20 सितम्बर के देश स्तरीय विरोध के बाद भी रिटेल में एफडीआई पर, डीजल की कीमत पर और गेस के सिलिंडरों की संख्या पर सरकार अपने निर्णय नहीं बदलती तो समाजवादी पार्टी और बसपा को कह देना होगा बहुत हुआ यूपीए, अब जाओ यदि, वो ऐसा नहीं कहते तो फिर उन्हें 20 सितम्बर को विरोध आयोजित करने का भी कोई नैतिक अधिकार नहीं है

अरुण कान्त शुक्ला                                                       19सितम्बर,2012    
          

Monday, September 10, 2012

व्यवस्था और व्यक्तियों की आलोचना को देश तक मत ले जाओ ..



व्यवस्था और व्यक्तियों की आलोचना को देश तक मत ले जाओ ..

त्रिवेदी के कार्टून बहुत पहले मैंने कार्टून अगेंस्ट करप्शन  पर देखे थे और उस समय भी दो कार्टून पर मैंने एतराज किया था एक जिसमें भारत माँ की तस्वीर बनाकर राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और कार्पोरेट्स को रेप करने के लिए कहता दिखाया गया है और दूसरा अशोक स्तंभ वाला

ये सच है कि राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, और कार्पोरेट्स ने जिस स्थिति में देश को
पहुंचाया है, वह देशवासियों के बहुसंख्यक हिस्से को उद्वेलित कर रहा है, पर, ये तो स्वयं को विचारवान कहते हैं और मानते हैं, क्या इन लोगों को देश के प्रतीकों और चलाने वाले व्यक्तियों और देश में चल रही व्यवस्था के बीच अंतर करने का भी शऊर नहीं है?

मुझे तभी लगा था कि आज नहीं तो कल त्रिवेदी की इस करतूत पर किसी न किसी का ध्यान जाएगा और फिर त्रिवेदी को  देशद्रोह में धरा जाएगाआखिर जिस व्यवस्था में हम रह रहे हैं, उसमें ये  उम्मीद आप कैसे कर सकते हैं कि वह आप को अपने प्रतीकों के साथ, चाहे वे कितने भी खोखले क्यों न हो गए हों, कोई भी खिलवाड़ करने देगी

त्रिवेदी, इस देश के एकमात्र, पहले और सबसे अधिक बड़े कार्टूनिस्ट नहीं हैं इससे पहले भी बड़े बड़े कार्टूनिस्ट हुए हैं और उनमें से अनेक राजनीति से भी जुड़े रहे उनके कार्टून भी राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और कार्पोरेट्स को तिलमिलाते रहे हैं उनमें से अनेक ने प्रताड़नाएं भी झेली हैं, पर, प्रतीकों  के साथ उन्होंने खिलवाड़ किया हो, ऐसा मामला कभी सामने नहीं आया

इस देश के अंदर ऐसे बहुत से लोग हैं, जो, वर्त्तमान संविधान के अनेक प्रावधानों को नहीं मानते और पहला अवसर मिलते ही उनमें परिवर्तन चाहेंगे और वह भी इस देश की दबी कुचली जनता के पक्ष में  क्या वे सब संविधान को इसी  तरह अपमानित करें? फिर, आपकी लड़ाई क्या संविधान के खिलाफ है?

भूलो मत कि आज जो भी आधे अधूरे और टूटे फूटे अधिकार इस देश के 80 करोड़ बेचारगी झेल रहे लोगों को प्राप्त हैं, उसी संविधान के तहत हैं उन्हें वो प्यारा है क्योंकि, वो उनकी झूठी और दिखावटी ही सही, पर, आजादी का प्रतीक है, जिसके लिए उन्होंने और उनके पुरखों ने जानें गंवाईं हैं और त्याग किये हैं  

उससे भी बड़ी बात कि क्या आप किसी व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में जुटे हैं  नहीं, सारे आंदोलनों और अब तक की उठापठक का एक ही सार निकला है कि आप उसी  मैदान के खिलाड़ी बनाना चाहते हैं शायद दूसरों की तुलना में कुछ कम बुरे  फिर, राष्ट्र के प्रतीकों के साथ खिलवाड़ क्यों?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निश्चित रूप से पूंजीवादी लोकतंत्र में एक बड़ा अधिकार है, जनता के पासपर किसी भी देश में, ये कभी भी निरापद रूप से प्राप्त नहीं हुआ हैये पूंजीवादी व्यवस्था का सोने का वो गहना है, जिसमें हमेशा तांबा (खोट) ज्यादा रहता है उस आधे अधूरे अधिकार को भी आप यदि बुद्धिमानी से अपने पक्ष में इस्तेमाल नहीं कर सकते तो सोचिये आप इस देश के आमजनों का हित कर रहे हैं या अहित

यह किसी विडंबना है कि व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाले बस्तर के अनेक आदिवासी नेताओं पर , जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं , देशद्रोह के आरोप लगते हैं, जिन्होंने कभी भी देश के खिलाफ कोई  काम नहीं किया है और वे सारे जुल्मों का मुकाबला कर रहे हैंपर, उन्होंने व्यवस्था को ललकारने के बाद भी देश के प्रतीकों के साथ कभी खिलवाड नहीं किया

विनायक सेन दो साल अंदर रहते हैं रमेश अग्रवाल को गोली मारी जाती है इनमें से कोई भी हाय तौबा नहीं मचातावे अपने संघर्ष में लगे रहते हैं पर, उनमें से किसी ने भी देश के प्रतीकों के साथ खिलवाड़ नहीं किया है

व्यवस्था के साथ संघर्ष बंदरों की तरह उछल कूद  करने और सियारों जैसे चिल्लाने से नहीं किया जाता, उसमें अपने उद्देश्य के प्रति गंभीरता का अहसास होना चाहिये .. जो अन्ना और रामदेव दोनों के आन्दोलनों से गायब है

भगत सिंह के रास्ते पर चलने का दम भरने भर से कुछ नहीं होता, उसमें भगत सिंह की वैचारिकता, सहन शक्ति और गंभीरता भी चाहियेपहले देश का सम्मान करना सीखोव्यक्तियों का असम्मान करते करते  देश के असम्मान की तरफ नहीं बढ़ो

व्यवस्था और व्यक्तियों की आलोचना को देश तक मत ले जाओ ..!                     


अरुण कान्त शुक्ला                                                     10,सितम्बर,2012
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