Sunday, June 28, 2015

छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगकर्म : चुनौतियां और संभावनाएं



छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगकर्म : चुनौतियां और संभावनाएं

सभी कलाप्रेमियों को यह समझना भी जरुरी है कि केवल लोक रंगमंच या लोक संस्कृति ही सर्वोपरी नहीं है, आधुनिक रंगमंच भी एक उच्च स्तरीय कलाकर्म है, जो भाषा को गढ़ने और उसकी प्रौन्नति में अपनी महती भूमिका निभाता है|

समकालीनता, प्रस्तुतीकरण का ढंग, नयी व्याख्या, खोज, रूप एवं कथ्य का समकालीन प्रयोग, विद्यमान मूल्य, एवं बदलते मूल्यों के प्रति प्रश्नाकुलता या प्रश्न वाचकता, सजगता, नए विषय, नई शैली आदि का समावेश हो उसे ही आधुनिक रंगमंच कहा जा सकता है| आधुनिक रंगमंच में टेकनॉलाजी का सृजनात्मक एवं कल्पनाशील उपयोग भी किया जा रहा है लेकिन केवल टेकनॉलाजी के बल पर कोई रंगमंच आधुनिक नहीं हो जाता|  टेकनॉलाजी या नेपथ्य कला नाटक का अलंकरण नहीं बल्कि नाटक का अंग या कहें उपांग ही है| उपरोक्त विचार प्रदेश ही नहीं देश के वरिष्ठ रंगकर्मी राजकमल नायक ने प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा 28 जून रविवार को वृन्दावन सभागृह में “छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगकर्म : चुनौतियां और संभावनाएं” विषय पर  आयोजित विचार गोष्ठी में प्रकट किये| उन्होंने कहा कि अनेक संस्कृत नाटकों में संस्कृत के अलावा प्राकृत का भी प्रयोग किया गया है, भले ही वह निम्न वर्ग के पात्रों के लिए प्रयोग की गयी है| शनैः शनैः संस्कृत के रंगमंच का ह्रास होने के बाद जब संस्कृत शैली के अनेक तत्व विच्छिन होकर लोक रंगमंच में गए तब प्राकृत का स्थान अन्य बोलियों को ले लेना था, पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया| उन्होंने कहा कि रंगमंच कोई ठहरी हुई विधा नहीं है| समय काल परिस्थिति के अनुसार इसमें भी परिवर्तन होते रहते हैं| लेकिन किसी भी कला में त्वरित बदलाव नहीं होता या नहीं होना भी चाहिए| कलाएं धीरे धीरे अपना आकार गढ़ती हैं| रंगमंच ने समय-समय पर यथार्थवादी, प्रकृतवादी, रीतिबद्ध, लोकशैली, एब्सर्ड, मनोशारीरिक, प्रयोगात्मक रंगमंच आदि शैलियों का सहारा लिया और इससे थियेटर रिच हुआ|

छत्तीसगढ़ में आधुनिक रंगमंच के एकमात्र उदाहरण प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर रहे हैं| उनके नाटक ‘लोक की आधुनिकता’ और ‘आधुनिकता के लोक’ के उत्कृष्ट उदाहरण कहे जा सकते हैं| उन्होंने अपना एक व्यक्तिगत अनुभव सुनाते हुए बताया कि जब वे भारत भवन में थे तब हमारी एक परीक्षा हुई थी और उसमें एक प्रश्न पूछा गया था कि हबीब तनवीर का थियेटर फ़ोक थियेटर है या मार्डन थियेटर| ज्यादातर कलाकारों ने इसका जबाब दिया था फ़ोक थियेटर| जबकि यह गलत उत्तर था| हबीब तनवीर का थियेटर मार्डन थियेटर है| हबीब तनवीर के इस काम को उन्हीं की परिपाटी या उनके बाद के रंगकर्मियों को उसी या उनसे भिन्न तर्ज पर आगे बढ़ाना था, पर दुर्भाग्य से यह हो नहीं पाया| बहुत देखना, गहराई से देखना, खोजना, खंगालना, तराशना, पढ़ना हमेशा नए सृजन को जन्म और धार देता है| हबीब तनवीर इसमें लिप्त रहे| विडंबना है, हबीब तनवीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगलेखन के विषय में कभी सोचा ही नहीं गया| हिन्दी नाटककार शंकर शेष या विभु कुमार ने राष्ट्रीय स्तर पर तो बहुत ख्याति अर्जित की लेकिन छत्तीसगढ़ी भाषा का कोइ नाटक राष्ट्रीय स्तर तो छोड़िये राज्य स्तर पर भी प्रतिष्ठा अर्जित नहीं कर पाया| उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ी में नाट्य लेखन की प्रक्रिया विच्छिन रही है उसमें निरंतरता कभी नहीं रही| खूबचंद बघेल, डॉ. प्यारेलाल गुप्त, डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, शुकलाल पांडे और अनेक लोगों ने छत्तीसगढ़ी में नाटक लिखे लेकिन निरंतर नाट्य लेखन या कालजयी रचना के अभाव में छत्तीसगढ़ी आधुनिक रंगमंच पनप नहीं पाया| स्वतन्त्र नाटककार जिनका आधुनिक रंगमंच से नाता रहा हो तथा जो छत्तीसगढ़ी में निरंतर नाट्य लेखन में संलिप्त रहे हों, ऐसा कोई नाम सामने नहीं आता| उन्होंने कहा कि इसके बावजूद हमें आशावादी होना चाहिये| संभावनाओं के द्वार हमेशा खुले रहते हैं| छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग, अन्य कला संगठनों, लेखक संगठनों को छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगमंच को प्रश्रय देने, बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए| उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगमंच को बढ़ावा देने के लिए सभी कलाप्रेमियों को यह समझना भी जरुरी है कि केवल लोक रंगमंच या लोक संस्कृति ही सर्वोपरी नहीं है, आधुनिक रंगमंच भी एक उच्च स्तरीय कलाकर्म है, जो भाषा को गढ़ने और उसकी प्रौन्नति में अपनी महती भूमिका निभाता है|

गोष्ठी में प्रलेस रायपुर के उपाध्यक्ष अरुण कान्त शुक्ला ने कहा कि छत्तीसगढ़ी में लिखा रचा गया रंगकर्म साहित्य पांच दशक के लगभग पुराना है| छत्तीसगढ़ी में आधुनिक रंगकर्म का प्रश्न छत्तीसगढ़ी भाषा में आधुनिक साहित्य की रचना से भी जुड़ा है, जिसमें आज की, आज के समाज की समस्याओं और उनके समाधानों का समावेश हो| वरिष्ठ साहित्यकार प्रभाकर चौबे ने कहा कि आधुनिकता से मतलब आधुनिक बोध से है| पांच छै दशक पूर्व लिखे गए नाटक आज की समस्याओं से मेल नहीं खाते और आज की पीढ़ी की समस्याओं के हल नहीं हैं| उन्हें आज के अनुरूप रूपांतरित करना होगा| उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के समय की साम्प्रदायिकता का उल्लेख करते हुए कहा कि आज साम्प्रदायिकता का रूप काफी बदला हुआ है और यदि इस पर नाटक खेलना है तो उसका कलेवर अलग होगा| गोष्ठी में सर्व/श्री निसार अली, तेजेंद्र गगन, योगेश चौबे ने भी अपने विचार रखे|

अरुण कान्त शुक्ला
28 जून 2015               

Thursday, June 18, 2015

बंसीलाल आज भी अंधा है..



          बंसीलाल आज भी अंधा है..


बंसीलाल आज भी अंधा है और गंगाराम आज भी लंगड़ा| आप सोचेंगे कि यह अचानक बंसीलाल और गंगाराम कहाँ से आ गए? दरअसल ये कहीं से आये नहीं हैं, मेरे अन्दर ही थे स्मृतियों में| आज प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अचानक उस स्मृति को कुरेद कर ताजा कर दिया| कल उत्सव धर्मी प्रदेश छत्तीसगढ़ में एक और उत्सव राज्य स्तरीय शाला प्रवेश उत्सव मनाया गया| पिछले कुछ वर्षों से यह एक नया उत्सव है, जो प्रदेश में मनाया जाता है| यह उत्सव पूरे प्रदेश में 16 जून से लेकर 30 जून तक चलेगा| कल रायपुर में, माना बस्ती में आयोजित ‘राज्य स्तरीय शाला प्रवेश उत्सव’ का शुभारंभ करते हुए प्रदेश के मुखिया मुख्यमंत्री रमन सिंह ने अपने पहले स्कूली दिन को कुछ इस तरह याद किया;

“स्कूल का पहला दिन 63 साल बाद भी याद है| मैं उस नेत्रहीन व्यक्ति जिसका नाम गुडनाईट था, को कभी नहीं भूलूंगा, जब पहली बार उनके कंधे पर बैठकर स्कूल गया| वे छुट्टी होने तक स्कूल के बाहर बैठे रहते थे| उनके हाथ में एक छड़ी होती थी| कभी स्कूल जाने के लिए आनाकानी करता तो वे छड़ी दिखाकर डराते किन्तु जब वह छड़ी मेरे हाथ लगती तो मैं भी बड़ों की तरह डांटता|”

उनके भाषण के इस हिस्से पर किसी भी तरह का कमेन्ट करने के बजाय मैं केवल अपने पाठकों से यह भर कहना चाहूंगा कि रमन सिंह 7 दिसम्बर 2003 से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं और नेट तथा अन्यत्र बिखरी पड़ी जानकारियों के अनुसार उनका जन्म 15 अक्टूबर, 1952 को हुआ था। उनकी स्कूली शिक्षा छुईखदान, कवर्धा और राजनांदगांव में हुई एवं उनके पिता कवर्धा के एक सफल और सदाशयी एडवोकेट थे| और, जिस दिन वे भाषण दे रहे थे, 16 जून, 2015 को उनकी आयु 62वर्ष, 8माह, 1दिन थी| जिन दिनों वे स्कूल में भर्ती हुए होंगे, नर्सरी, केजी-1, केजी-2 का रिवाज नहीं था| सामान्यत: बच्चे पांच वर्ष की आयु में माँ-पिता अथवा किसी अन्य के द्वारा स्कूल ले जाए जाते थे| पर, पैदा होने के तुरंत बाद स्कूल में भरती करने का कोई रिवाज तो कतई नहीं था| पैदा होने के बाद तुरंत स्कूल में भरती किये जाने का कोई उदाहरण पौराणिक ग्रन्थों में है या नहीं, मुझे नहीं मालूम| बहरहाल, इस बात को मैं यहीं छोड़ता हूँ, क्योंकि मुझे तो आपको बंसीलाल के बारे में बताना है, जो आज भी अंधा है और गंगाराम, जो आज भी लंगड़ा है| इनकी याद मेरी स्मृति में मुख्यमंत्री के भाषण के उपर उद्धृत अंश से आई|

जब मैं लगभग 56-57 में पहली अथवा दूसरी कक्षा में था तो हिन्दी की किताब में एक पाठ था| पाठ कुछ इस तरह था;

“बंसीलाल अंधा था| गंगाराम लंगड़ा था| दोनों मेले जाना चाहते थे| बंसीलाल ने गंगाराम को कंधे पर बिठाल लिया| गंगाराम रास्ता बताता जाता था और बंसीलाल चलता जाता था| इस तरह दोनों मेले पहुँच गए|” (पंक्तियाँ स्मृति के आधार पर)

मुझे याद नहीं कि मेरे शिक्षक ने उपरोक्त कहानी से क्या शिक्षा मिलती है बताया था? मुझे स्कूल जाने का पहला दिन भी याद नहीं है| पर, एक सवाल मुझे हमेशा परेशान करता रहा| मेले का सारा आनंद तो दृश्यों में है| गंगाराम देखकर मेले का आनंद ले सकता है| पर, वो चल नहीं सकता| बंसीलाल अंधा था, वह देखकर मेले का आनंद नहीं ले सकता था| फिर, बंसीलाल गंगाराम को कंधे पर बिठालकर मेले क्यों ले गया? जरुर गंगाराम ने बंसीलाल के मन में मेले के लिए लालच जगाया होगा, ताकि वो गंगाराम को अपने कंधे पर बिठा कर ले जाए| यहाँ बंसीलाल कर्म का प्रतीक है| वो कामगार है| गंगाराम योजनाकार है| वह अपनी बातों से बंसीलाल को बहला/फुसला सकता है|

जीवन में आती हुई परिपक्वता के साथ धीरे-धीरे कहानी के और भी अर्थ खुलने लगे| हम सब जो मेहनत करके अपनी रोजी रोटी कमाते हैं, मजदूर/किसान/कर्मचारी बंसीलाल ही हैं| आँखों वाले बंसीलाल, जिन्हें गंगाराम, राजनेता/उद्योगपति/नौकरशाह हर पांच साल में ही क्यों, हरदम बहलाते/फुसलाते रहते हैं| हम सब देखते और जानते हुए भी उनके बहलाने/फुसलाने में आ जाते हैं| वह डराते भी हैं, उनकी सत्ता की छड़ी से, जो हम उनके हाथों में हर 5 साल में दे देते हैं| गंगाराम आज भी कुछ नहीं करता, सिवाय हमारी पीठ पर सवारी के मगर हमारी पैदा की हुई दौलत पर उसका अधिकार है| वह कुछ नहीं बनाता पर हमारी बनाई हुई खूबसूरत दुनिया पर उसका अधिकार है| गंगाराम के सारे फायदे/ऐश/आराम बंसीलाल के अंधे बने रहने में हैं| गंगाराम बंसीलाल को अंधा बनाए रखने के लिए सारे जतन करता रहता है|

देश आज राजनीति में ‘मन की बात’ के दौर से गुजर रहा है| मष्तिष्क मनुष्य के विवेक का संरक्षक है| मनुष्य का विवेक सत्य-असत्य, भले-बुरे, सुख-पीड़ा के भेद को जानकर मनुष्य के मन पर नियंत्रण रखता है| विवेक अपने-पराये से उपर उठकर सोचने की सक्षमता देता है| पर, जब बातें मन की होती हैं तो विवेक के नियंत्रण से मुक्त होती हैं| तब यह सुधि नहीं रहती कि उसी उत्सव के दिन उसी राज्य शासन के शिक्षा विभाग ने 2918 स्कूलों को ‘युक्तियुक्तकरण’ योजना के तहत बंद करने का आदेश निकाला है| इन बंद होने वाले स्कूलों के हजारों बच्चे कहाँ जायेंगे? आगे पढ़ेंगे भी या नहीं? उत्सवधर्मी मन को इन सभी बातों से कोई मतलब नहीं| तब यह याद नहीं आता कि प्रदेश के लगभग 17000 स्कूलों में शौचालय नहीं है| 8164 स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय नहीं हैं| स्कूल शिक्षा सुविधाओं में राष्ट्रीय स्तर पर हमारा स्थान 27वां है| आधे से अधिक स्कूलों में खेल के मैदान, बाऊंड्रीवाल और करीब करीब 90% स्कूलों में कम्प्यूटरीकृत सुविधाएं नहीं हैं|  क्यों प्रायमरी स्कूल में दाखिला लेने वाले प्रत्येक दस बच्चों में से बमुश्किल 2 बच्चे हायर सेकेंडरी तक पहुँचते हैं|  क्यों स्कूलों में व्याख्याताओं, प्राचार्यों तथा प्रधान पाठकों के हजारों पद रिक्त हैं| यह सब मष्तिष्क की बाते हैं| मन तो उत्सवधर्मी है| गंगाराम को तो बस बंसीलाल के कंधे पर चढ़कर मेले पहुंचना है| बंसीलाल उत्सव के आँखों देखे हाल से संतुष्ट हो जाता है, यह वह जानता है|       

आज से 63 वर्ष पूर्व गुडनाईट ‘रात्री संबोधन’ के रूप में तक प्रचलित नहीं था| ‘गुडनाईट’ नाम मैंने पहली बार सुना है| 20-25 हजार की आबादी वाले कस्बों में भी मुश्किल से 10-20 मेट्रिक पास मिलते थे| गुडनाईट का दिन भर स्कूल के सामने बैठे रहना, उस समय व्याप्त सामंती शोषण का प्रतीक है| वैसे, गुडनाईट के बारे में तो नहीं मालूम, हाँ बंसीलाल, मुख्यमंत्री के संबोधन से जिसकी याद आई, आज भी अंधा है और गंगाराम आज भी उसके कंधे पर सवार|

अरुण कान्त शुक्ला
18/6/2015                    
                 
   

Monday, June 15, 2015

सिर्फ ग्रेकस बदला है नीति नहीं..



सिर्फ ग्रेकस बदला है नीति नहीं..

2014 के 16वीं लोकसभा के गठन के लिए हुए आम चुनाव से इस मामले में भिन्न हैं की भारत में पहली बार किसी राजनीतिक दल ने उजागर और घोषित रूप से पूंजीपतियों के लिए, पूंजीपतियों की मदद से चुनाव लड़ा और नरेंद्र मोदी की अगुवाई में उस भ्रमजाल को फैलाने में कामयाब हुआ, जो हमें हावर्ड फ़ास्ट की महाकथा ‘स्पार्टकस’ के ग्रेकस की याद दिलाता है|





दूसरी बात, यदि हम अमेरिका या ब्रिटेन से हमारे देश की राजनीतिक स्थिति का मिलान (तुलना) करें तो एक अद्भुत साम्य से हमारा सामना होता है| आधुनिक अमरीकन राजनीतिक ताने-बाने में दो राजनीतिक दलों के मध्य ही सत्ता की अदली बदली होती रहती है| एक तरफ रिपब्लिकन पार्टी है, जिसे अमेरिकन कंजर्वेटिव पार्टी भी कह सकते हैं, जो राजनीति में शास्त्रीय स्वतंत्रता का अनुशरण करती है| याने निजी संपत्ति की विचारधारा का समर्थन, बिना रोक-टोक की बाजार अर्थव्यवस्था की पक्षधरता, क़ानून का शासन, न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप, धर्म-पालन,  प्रेस की आजादी और मुक्त व्यापार आधारित विश्व शान्ति| दूसरी तरफ डेमोक्रेटिक पार्टी है, जो राजनीति और अर्थशास्त्र में आधुनिक स्वतंत्रता की पक्षधर है| याने मिश्रित अर्थव्यवस्था के तहत एक लोक-कल्याणकारी राज्य और प्रगति का सामाजिक रूप या ढंग| शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं की सुरक्षा, रोजगार के अधिकार इसी के तहत आते हैं|

कमोबेश, यही हमें ब्रिटेन में कंजर्वेटिव और लेबर पार्टी के रूप में दिखाई पड़ता है| लेबर पार्टी, जो संगठित ट्रेड युनियनों, श्रम-आन्दोलनों और राजनीति में समाजवादी विचारधारा के साथ साम्य बिठाने की बात करती है और कंजर्वेटिव पार्टी, जिसका झुकाव और रुझान राजनीति में वर्तमान स्थिति को यथावत रखने या रुढ़िवादी व्यवस्था को बढ़ाने और बनाए रखने की तरफ होता है| कंजर्वेटिव राजनीतिक दर्शन परंपरागत संस्थाओं और रूढ़िवादिताओं को सम्मानित करने के लिए जोर देता है| कंजरवेटिव सभी तरह के सामाजिक सुधार या समाज के उन्नयन के लिए सार्वजनिक धन के उपयोग या विधी जन्य उपायों के खिलाफ होते हैं| राजनीतिक पंडित यूके में लेबर पार्टी को और अमेरिका में डेमोक्रेटस को वाम राजनीति के ज्यादा नजदीक मानते हैं| विशेष बात यह है की दोनों देशों की दोनों पार्टियां पूँजीपरस्त राजनीति की ही अनुगामी हैं| उनकी राजनीतिक और सामाजिक नीतियों में अंतर शास्त्रीय स्वतंत्रता और आधुनिक स्वतंत्रता के मध्य का ही अंतर है|

बिना इन राजनीतिक पार्टियों के इतिहास में जाए, इसमें एक रोचक तथ्य और जोड़ा जा सकता है| आज पूरी दुनिया में जिन भूमंडलीकरण, निजीकरण और मुक्त व्यापार की नवउदारवादी नीतियों के नाम पर हाहाकार मचा हुआ है, 1981 में उनकी दुनिया में शुरुवात करने वाले अमेरिकी प्रेसिडेंट रीगन (81-89) और यूनाईटेड किंगडम (ब्रिटेन) की प्रधानमंत्री मार्गेट थेचर (1979-1990) क्रमश: रिपब्लिकन और कंजर्वेटिव पार्टी के ही थे| यह वही दोनों थे जिन्होंने पूरी विश्व की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को, विशेषकर विकासशील और अविकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं को विश्व बैंक, आईएमएफ और गाट (आज का विश्व व्यापार संगठन) की मदद से बदलकर रख दिया| उनके राजनीतिक दर्शन और आर्थिक नीतियों का ही प्रभाव था कि पूरे विश्व में विनियंत्रित वित्तीय क्षेत्र, श्रम कानूनों से मुक्त श्रम बाजार, राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों के निजीकरण और ट्रेड यूनियनों के प्रभाव को निष्क्रिय करने का दौर 1981 में शुरू हुआ और आज तक चला आ रहा है| यही कारण है कि उदारवाद-भूमंडलीकरण-निजीकरण की इन नीतियों को रीगनवाद और थेचरवाद के नाम से भी जाना जाता है| अब इसमें दूसरा रोचक तथ्य यह जोड़ा जा सकता है कि एक बार (प्रचलित नाम) एलपीजी की नीतियों के लागू हो जाने के बाद चाहे वह अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आई हो या ब्रिटेन में लेबर पार्टी, सभी को उन्हीं थेचरी और रीगनी नीतियों पर ही चलना पड़ा| यदि कोई अंतर आया तो वह समाज के गरीब तबकों और असंगठित मजदूरों के लिए चलाई गईं कुछ कल्याणकारी योजनाओं और शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में किये गए श्रंगारिक कार्यों तक ही सीमित रहा, जिसका कोई भी ठोस प्रतिफलन उन तबकों के जीवनस्तर में भी सुधार के रूप में दिखाई नहीं पड़ा|

अब यदि उपरोक्त परिदृश्य में भारत में 2014 में हुए राजनीतिक परिवर्तन आकें तो हमें देश की आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में किसी भी मूलगामी परिवर्तन का संकेत नहीं मिलता है| सिवाय इसके कि लगभग ढाई दशक पहले नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहनसिंह ने एलपीजी के जिस रास्ते पर देश को डाला था, उस रास्ते पर मोदी सरकार और भी तेजी और कट्टरता के साथ बढ़ रही है| रीगन और थेचर के देश से साम्यता खोजें तो भारत में भाजपा रिपब्लिकन और कंजर्वेटिव है, अपने साम्प्रदायिक एजेंडे के साथ|

2014 के लोकसभा के चुनावों के दौरान हमारे सामने दो अहं सच्चाईयां थीं| पहली, यूपीए सरकार के द्वारा जनता के अपेक्षाकृत कमजोर हिस्से के लिए लाई गईं मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार, जैसी तमाम योजनाओं के बावजूद उजागर हुए कोयला, कामनवेल्थ, 2जी और अन्य घोटालों ने साधारण से साधारण देशवासी को भी मानसिक रूप से त्रस्त कर दिया था और उन्हें किसी भी कीमत पर कांग्रेसनीत सरकार से छुटकारा पाना ही एकमात्र उपाय लगा था| यह फिलवक्त सच है कि इस एक वर्ष के दौरान केंद्र के स्तर पर कोई भी बड़ा स्केम सामने नहीं आया है| पर, यह तो यूपीए के साथ भी था| याद कीजिये यूपीए-1 के पहले या दूसरे वर्ष में कोई बड़ा स्केम नहीं था, मगर अन्दर ही अन्दर घोटालों की तैय्यारियाँ चालू थीं| फिर यदि क़ानून के द्वारा ही अवैधानिक कार्यों को वैध बना दिया जाए तो स्केमों की संख्या तो वैसे ही कम हो जाती है| यदि हम इस एक वर्ष के दौरान भाजपानीत एनडीए (मोदी) सरकार के द्वारा जारी किये गए अध्यादेशों या लोकसभा में पास हुए कानूनों का गहराई से अध्यन करें तो पायेंगे कि करीब- करीब सभी या तो अवैधानिकता का नियमतिकरण (वैधानिक जामा पहनाना) करते हैं या देश के प्राकृतिक संसाधनों और देश की श्रम शक्ति तथा लोगों की खून-पसीने की कमाई से की गईं बचतों की लूट में आ रही बाधाओं दूर करने के लिए लाए/बनाए गए हैं| इंश्योरेंस बिल(2015), कोयला खदान(विशेष प्रावधान) 2015, खदान और खनिज (विकास एवं नियंत्रण) संशोधन बिल 2015, भू अधिग्रहण उचित मुआवजा/ पारदर्शिता, पुनर्व्यवस्थापन एवं स्थानान्तारण (संशोधन) बिल 2015, लघु कारखाना(रोजगार एवं अन्य दशाएं नियंत्रण) क़ानून 2014, राष्ट्रीय कामगार वोकेशनल संस्थान क़ानून 2015, और श्रम संबंधित अन्य कानूनों का भी उद्देश्य देश के संसाधनों को लुटाना, श्रम कानूनों से कारखानेदारों को मुक्ति दिलाकर श्रम के शोषण के रास्ते की बाधाओं को हटाना ही है| इन सभी कानूनों के पूर्व के रहते हुए कार्पोरेट्स-राजनेता-अफसरशाही के पास घोटाले करने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं था| अब सभी अवैधानिकता को वैधानिकता का जामा पहनाया जा रहा है|        

दूसरी कि, भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री के लिए नामांकित नरेंद्र मोदी ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस शासन की खामियों और बुराईयों को उजागर करने के अलावा अपनी या अपनी पार्टी की तरफ से कोई भी ठोस वायदा देश के लोगों के साथ नहीं किया| भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और मोदी दोनों स्वीकार कर चुके हैं कि ‘अच्छे दिन आयेंगे’ या ‘100 दिनों में काला धन वापस आ जाएगा’ राजनीतिक जुमलेबाजी थी| इतना ही नहीं, चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी सेना के सेवानिवृत अधिकारियों और जवानों के बीच गए थे और वायदा करके आये थे कि शासन में आते ही ‘वन रेंक वन पेंशन’ लागू कर देंगे| अब वह मन की बात में कह रहे हैं कि उन्होंने इस कार्य को जितना सरल समझा था यह उतना सरल नहीं है| स्वतन्त्र भारत में अभी तक हुए सभी आम चुनाव, 2014 के 16वीं लोकसभा के गठन के लिए हुए आम चुनाव से इस मामले में भिन्न हैं की भारत में पहली बार किसी राजनीतिक दल ने उजागर और घोषित रूप से पूंजीपतियों के लिए, पूंजीपतियों की मदद से चुनाव लड़ा और नरेंद्र मोदी की अगुवाई में उस भ्रमजाल को फैलाने में कामयाब हुआ, जो हमें हावर्ड फ़ास्ट की महाकथा ‘स्पार्टकस’ के ग्रेकस की याद दिलाता है|

स्पार्टकस में ग्रेकस राजनीतिज्ञ है, जो रोम की सीनेट का सदस्य है| स्पार्टकस में ईसा से 73 वर्ष पूर्व के रोम की कथा है जब गुलामी की प्रथा अपने चरम पर थी और उन्ही गुलामों में से एक स्पार्टकस ने उस पाशविक प्रथा को चुनौती देने का विवेक और साहस अपने आप में पाया था| मैं नीचे एक उद्धरण देने के बाद  गणतंत्र, पूंजीपति, राजनीतिज्ञ, आम लोगों के बारे में ग्रेकस के विचार क्या थे, उन्हें जैसा का तैसा दे रहा हूँ| आपको ऐसा प्रतीत होगा मानो ग्रेकस इस देश के बारे में ही बोल रहा है...     

घर और परिवार और इज्जत और शराफत और नेकी और जो कुछ भी अच्छा था और पवित्र था उसके मालिक गुलाम थे और वही उसकी रक्षा कर रहे थे – इसलिए नहीं कि वे अच्छे और पवित्र थे बल्कि इसलिए कि जो कुछ भी पवित्र था सब उसके मालिकों ने उन्ही गुलामों के हवाले कर दिया था|                                                                    (ग्रेकस का कथन गुलामों के बारे में)

ग्रेकस के उपरोक्त विश्लेषण का अर्थ कदापि यह नहीं लगाया जा सकता कि कि उसे विद्रोही गुलामों से कोई सुहानुभूति थी या फिर वह उस व्यवस्था को बदलना चाहता था| स्वयं ग्रेकस के अनुसार राजनीतिज्ञ चालबाज होता है और राजनीतिज्ञ के अंदर इस चीज (चालबाजी) को देखकर लोग अकसर इसको ईमानदारी समझने की भूल किया करते हैं| ग्रेकस की गणतंत्र के बारे में राय देखिये;

देखो हम लोग एक गणतंत्र में रहते हैं | इसका मतलब है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है और मुठ्ठी भर लोग ऐसे हैं जिनके पास बहुत कुछ है| और जिनके पास बहुत कुछ है उनकी रक्षा, उनका बचाव उन्हीं को करना है जिनके पास कुछ भी नहीं |”

ग्रेकस के अनुसार इस तरह के गणतंत्र को बनाए रखने के लिये सीमेंट का काम राजनीतिज्ञ ही करते हैं| उच्चवंश (सम्पतिवान) इस काम को नहीं कर सकते क्योंकि उनकी निगाह में जनता भेड़ बकरी के सामान होती है| उच्चवंशीय को साधारण नागरिक के बारे में कुछ नहीं मालूम| अगर यह सब उसके भरोसे छोड़ दिया जाए तो समूचा ढांचा एक दिन में भहरा पड़े| इसे बचाने का काम राजनीतिज्ञ करते हैं| कैसे करते हैं, ग्रेकस से सुनिए;

............ जो चीज नितांत असंगत है हम उसके अंदर संगती पैदा करते हैं| हम लोगों को यह समझा देते हैं कि जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता अमीरों के लिये मरने में है| हम अमीरों को यह समझा देते हैं कि उन्हें अपनी दौलत का कुछ हिस्सा छोड़ देना चाहिए ताकि बाकी को वे अपने पास रख सकें| हम जादूगर हैं| हम भ्रम की चादर फैला देते हैं और वह ऐसा भ्रम होता है जिससे कोई बच नहीं सकता| हम लोगों से कहते हैं–तुम्हीं शक्ति हो| तुम्हारा वोट ही रोम की शक्ति और कीर्ति का स्त्रोत है| सारे संसार में केवल तुम्हीं स्वतन्त्र हो| तुम्हारी स्वतंत्रता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है, तुम्हारी सभ्यता से बढ़कर मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है, तुम्हारी सभ्यता से अधिक प्रशंसनीय कुछ भी नहीं है| और तुम्ही उसको नियंत्रित करते हो; तुम्हीं शक्ति हो, तुम्ही सत्ता हो| और तब वे हमारे उम्मीदवार के लिये वोट दे देते हैं| वे हमारी हार पर आँसू बहाते हैं, हमारी जीत पर खुशी से हँसते हैं| ................चाहे उनकी हालत कितनी भी गिरी क्यों न हो, चाहे वे नालियों में ही क्यों न सोते हों, .............. चाहे वे अपने बच्चों के पैदा होते ही उनका गला क्यों न घोंट देते हों, चाहे उनकी बसर खैरात पर ही क्यों न होती हो और चाहे पैदाईश से लेकर मरने तक उन्होंने एक रोज काम करने के लिये हाथ न उठाया हो, .......... यह मेरी कला है| राजनीति को कभी तुच्छ नहीं समझना|

यही आवाज तो आज हम सुन रहे हैं !

अरुण कान्त शुक्ला,                                                            जून15, 2015