Tuesday, November 21, 2017

भारतीयों की भावनायें इससे भी आहत होती हैं

दक्षिण पूर्व एशियन देशों के संघ की 13 नवम्बर को मनीला में अमेरिकन प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प के साथ हुई बैठक के पहले जो कुछ प्रधानमंत्री ने कहा देश के समाचार पत्रों, मीडिया चेनलों और यहाँ तक कि राजनीतिक दलों ने भी भले ही उसे कोई तवज्जो नहीं दी है, पर वह चिंतित करने वाला जरुर है| इसमें कोई शक नहीं कि पिछले तीन दशकों में और विशेषकर 2007-08 में हुए न्यूक्लीयर समझौते के बाद से भारत की विदेश नीति में अमेरिका के साथ संबंधों में व्यापक बदलाव आया है| उसके बावजूद भी प्रधानमंत्री तो दूर की बात भारत के किसी राजनयिक की भी भाषा अमेरिका के प्रति इतनी प्रतिबद्ध और समर्पणकारी नहीं रही| मनीला में बैठक के पहले प्रधानमंत्री ने जो कहा उसका हिन्दी रूपांतरण यह है कि “भारत-अमेरिकी संबंध व्यापक तथा और गहरे हो रहे हैं और आप स्वयं महसूस कर सकते हैं कि ये संबंध अमेरिका के साथ भारत के हितों से ऊपर उठकर, एशिया के भविष्य और विश्व में मानवता की भलाई के लिए कार्य कर सकते हैं”| यह उस अमेरिका के बारे में कहा जा रहा है, जिसके ट्रम्प राष्ट्रपति हैं और इनका नारा है कि अमेरिका सिर्फ अमेरिकियों के लिए| उनके राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका की सारी वैश्विक और अन्दुरुनी नीतियाँ इसी के आधार पर तय हो रही हैं| प्रधानमंत्री उपरोक्त बयान देने के बाद रुके नहीं| उन्होंने भारत की ओर से अमेरिका के वैश्विक राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने का वायदा ही कर डाला| उन्होंने आगे कहा कि “मैं आश्वस्त करता हूँ कि भारत अपने सबसे अच्छे प्रयत्न करेगा कि वह उन आशाओं को पूरा करे जो अमेरिका और विश्व उससे करते हैं”| निश्चित ही उपरोक्त दोनों कथनों में सन्दर्भ में एशिया और विश्व वह एशिया और विश्व नहीं है जिसे हम जानते हैं या जैसा हम चाहते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री उस एशिया और विश्व की बात कर रहे थे जैसा डोनाल्ड ट्रम्प चाहते हैं|
बावजूद इस तथ्य के पिछले दो दशकों में भारतीय विदेश नीति और संपन्न तबके के भारतीयों में अमेरिका के प्रति रुझान बढ़ा है और व्यापारिक से लेकर सैन्य तक सभी प्रकार के समझौते किये गए है, पर, ऐसा कभी नहीं हुआ कि इस तरह का कोई भी आश्वासन किसी प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या राजनयिक ने दिया हो| भारत एक सार्वभौमिक राष्ट्र है और आर्थिक, सामाजिक, वैश्विक मामलों में स्वालंबन हमारी हमेशा विशेषता रही है| यदि हम याद करें तो स्वयं प्रधानमंत्री 2014 में जब चुनाव प्रचार में थे तो अनेक बार उन्होंने भारत की विदेश नीति के बारे में बोलते हुए कहा था कि आवश्यकता भारत को दूसरे देशों के साथ आँख में आँख डालकर बात करने की है| आज जब वे अमेरिका की उम्मीदों पर खरा उतरने का आश्वासन दे रहे हैं तो चिंतनीय यह है कि उस ट्रम्प का अमेरिका है जो आज विश्व शान्ति के लिए सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है और विश्व में जलवायु और पर्यावरणीय खतरे के प्रति एक देश के रूप में गैरजिम्मेदार देश सिद्ध हुआ है| प्रधानमंत्री एक ऐसे राष्ट्रपति के सामने आश्वासन परोस रहे हैं, जिसके स्वयं के उपर नैतिक और चुनावी जांचें चल रही हैं और हो सकता है निकट भविष्य में उसे अमेरिका में महा-अभियोग का सामना करना पड़े|
बेहतर होता प्रधानमंत्री ने मनीला में उसी वक्तव्य में अपना अभिप्राय स्पष्ट कर दिया होता तथा  अमेरिका को किस प्रकार की आशाएं भारत से हैं, वह भी स्पष्ट कर दिया होता| अमेरिका की तमाम धन और सैन्य ताकत से प्रभावित (डरने) के बावजूद यह ऐतिहासिक सच्चाई आज भी बनी हुई है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका की छवि दूसरे देशों में अशांति फैलाने वाले, आपराधिक गतिविधियों के बढ़ावा देने वाले, युद्ध थोपने वाले राष्ट्र की है और उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है| एशिया तथा अरब बेल्ट के देश इसके सबसे ज्यादा शिकार हुए हैं| किसी से छिपा नहीं रहा है कि अमेरिका की आशाओं या अमेरिका की वैश्विक आशाओं का मतलब एकाधिकारवादी और आपराधिक व्यक्तियों और ताकतों को एशिया तथा अरब देशों में सत्ता में स्थापित करना होता है जैसा हमने पाकिस्तान, सऊदी अरब, जॉर्डन, ईजराईल और अन्य देशों में देखा है| ईस्लामिक स्टेट और तालिबान बनाने वाला अमेरिका ही है| अमेरिका की वैश्विक राजनीति का केवल एक ही मकसद होता है कि पश्चिम, एशियन और अरब देशों में जो लूट मचा रहा है, उसकी तरफ से सारा ध्यान हटाकर यहाँ के देश सिर्फ इस्लामिक आतंकवाद के बारे में ही सोचें और आपस में लड़ते रहें ताकि अमेरिका की मिलिट्री इंड्रस्ट्री फलती फूलती रहे| पाकिस्तान हमारा पड़ौसी है और अमेरिका के या अमेरिका से प्यार की कितनी भारी कीमत उसे चुकानी पड़ रही है, यह हम देख रहे हैं| विश्व मानवता के लिए, विश्व शान्ति के लिए या संपूर्ण एशिया में शान्ति, एकता, सौहाद्र और आर्थिक सहयोग के लिए आगे बढ़कर कार्य करने में कोई बुराई नहीं, पर फिर उसके लिए अमेरिकी आशाओं पर खरा उतरने की बात करना और अमेरिका को आश्वस्त करना किसी भी प्रकार से देश हितेषी स्वाभिमानी विदेश नीति तो नहीं ही है| यह, आँख में आँख डालकर याने निगाहें मिलाकर बात करना भी नहीं है| भारत और भारतीयों की भावनायें इससे भी आहत होती हैं|

अरुण कान्त शुक्ला,
21/11/20
  


Monday, November 6, 2017

सवाल अधिनायकत्व और लोकतंत्र के बीच किस का अस्तित्व रहेगा, उसका है?

हाल ही में यह देखने में आ रहा है कि सोशल मीडिया में सक्रिय अनेक वामपंथी कार्यकर्ता और झुकाव रखने वाले लोग वर्तमान सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते समय उसी सांस में कांग्रेस को भी बराबर से कठघरे में रखने का प्रयास करते हैं| इसमें न तो कुछ गलत है और न ही अचंभित करने वाला क्योंकि देश में नवउदारवाद को जन्म देने वाली और प्रारंभिक तौर पर लागू करने वाली कांग्रेस सरकार ही रही है| पर, यह शायद रणनीतिक तौर पर सही लाइन नहीं है| सभी प्रमुख वामपंथी राजनीतिक दल इस बिंदु पर हमेशा ही बहुत स्पष्ट रहे हैं कि जब प्रश्न आर्थिक नीतियों के साथ साथ लोकतंत्र को बचाने और अधिनायाकत्ववादी ताकतों को अलग थलग करने के बीच चुनाव का आता है तो प्रमुख संघर्ष लोकतंत्र को बचाने का होता है और आर्थिक नीतियों के खिलाफ संघर्ष साथ-साथ चलने वाला दूसरी अहमियत का मसला होता है| मुझे नहीं लगता कि वामपंथियों की इस समझ में कोई बदलाव वर्तमान परिस्थितियों में आया होगा या उनकी रणनीतिक लाइन इससे कुछ अलग होनी चाहिए|   

बहरहाल, वह जो कुछ भी हो और वामपंथ राजनीति का जो भी फैसला हो, उससे इतर जो बात मैं कहना चाहता हूँ कि यह कांग्रेस को कोसने का समय नहीं है| यदि हम उन तमाम आर्थिक परिवर्तनों पर नजर डालें, जो नवउदारवादी दौर में हुए हैं तो पायेंगे कि आम देशवासियों को जिन परिवर्तनों से बुनियादी नुकसान पहुंचे हैं, मसलन बीमा का निजीकरण, पेट्रोल को बाजार के हवाले करना, फेरा में मूल बदलाव, विनिवेश के लिए अलग से मंत्रालय का निर्माण, सिंगल और मल्टीब्रांड में विदेशी कंपनियों को प्रवेश, सेज प्रावधान, सरकारी उपक्रमों जैसे विदेश संचार निगम को प्राईवेट बनाना, आई टी पार्क स्थापना, अप्रवासी भारतीयों को भारत की नागरिकता देना, विदेशी निवेश को बढ़ावा देना जैसे अन्य अनेक कार्य अटल जी के कार्यकाल में हुए हैं| मोदी जी श्रम कानूनों में बदलाव, नोटबन्दी, जीएसटी, बुलेट ट्रेन, डिजिटल मार्केट जैसे कामों में जुटे हैं| इन सभी के लिए देशी विदेशी पूंजी का दबाव था| कांग्रेस इनमें से अनेक कार्य करने में हिचक रही थी या उसने अत्यंत धीमे चलने की नीति अख्तियार की थी| इसीलिये कांग्रेस के खिलाफ वातावरण बनाने में देशी-विदेशी पूंजी ने पूरा जोर लगाया| यह 2014 के लोकसभा के चुनावों में स्पष्ट दिखा|    

जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, कांग्रेस इसको काबू रखने में नाकामयाब रही, नि:संदेह| पर, भाजपा के इस शासन में या एनडीए के पहले कार्यकाल में यह कम न था| एक बात जो कभी न भूलने वाली है कि विश्व पूंजीवाद, नवउदारवाद का चेहरा लेकर 1991 से भारत में नए तेवर में ज्यादा क्रूर और समर्थ होकर आया है और कांग्रेस ने कहीं न कहीं उसमें थोड़ा ही सही पर विवेक लगाकर उसे लागू किया| कृषी में सभी असफल रहे क्योंकि यह नवपूंजीवाद का रुख था कि देश के संसाधनों के ऊपर केवल पूंजीपतियों का कब्जा हो फिर वे चाहें देशी हों या विदेशी| भूमि के अधिकरण के बिना किसी भी संसाधन पर न तो कब्जा हो सकता है और न ही उसे बनाया जा सकता है| देश में शहरीकरण के लिए इसीलिये सभी राज्यों की सरकारें उत्सुक हैं| स्मार्ट सिटी, स्मार्ट गाँव इसी के लिए हैं| इसका विरोध न हो, इसलिए जरुरी है कि किसानी निरंतर हानि में हो और मध्यवर्ग का विकास हो| सभी नीतियों के नींव में यही है| यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है| अमीर देश ज्यादा क्षतिपूर्ति करते हैं और गरीब देश कम, उनकी औकात के हिसाब से| मध्यवर्ग के विकास में भी जोर इस पर रहता है कि निम्न और मध्य मध्य वर्ग ज्यादा बढ़े , न कि उच्च और उच्च मध्य वर्ग| कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई अंतर नहीं है, सिवाय उस रफ़्तार और हिचक के जिसका जिक्र मैंने पहले किया है| इसलिए केवल आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार से कांग्रेस और भाजपा के मध्य तुलना करने से काम नहीं चलने वाला| मूल में हिंदु राज कायम करने की मंशा याने एक नस्लवादी शासन का देश में उदय का सवाल है| देश में जाती, सम्प्रदाय, धर्म प्रमुख भूमिका निभाते हैं| यहाँ आकर भी कांग्रेस स्वतंत्रता के बाद से भगवा सेक्युलर जरुर रही , पर भाजपा से हमेशा बेहतर है क्योंकि वह स्वतंत्रता आन्दोलन से निकली पार्टी है और उसे उस विरासत को अधिक नुकसान न पहुंचे, इसका हमेशा डर रहता है| पर, एक बात तय है कि हिंदु राज जैसे किसी छिपे लक्ष्य से वह कोसों दूर है और उसकी भगवा धर्मनिरपेक्षता भी मात्र वोट की खातिर होती है, जो चुनावी मजबूरी है| इसका यह अर्थ नहीं कि कांग्रेस में सभी सेक्युलर हैं| कट्टर उसमें भी हैं, पर वह इन पर काबू रखना जानती है| इसके ठीक उलट भाजपा है| यह तय है कि भारतीय राजनीति में अभी या आने वाले लम्बे समय तक कोई भी तीसरा विकल्प देने के लिए तैयार नहीं है| ऐसे में आर्थिक नीतियों या अन्य साम्यताओं को लेकर उसकी इस कदर आलोचना केवल भाजपा का ही मार्ग सरल करेगी|

सवाल केवल अर्थव्यवस्था का ही नहीं है| सवाल लोकतंत्र का भी है, जिसमें आर्थिक नीतियों से लेकर हिन्दूराज तक सब कुछ आता है| मुझे याद आता है, भारतीय जीवन बीमा निगम के निजीकरण के खिलाफ जब हमने डेढ़ करोड़ हस्ताक्षर आम लोगों के मध्य, घर घर जाकर एकत्रित किये थे और उन्हें सौंपने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के पास गए थे तो उन्होंने कहा था "100 करोड़ में से केवल डेढ़ करोड़ लोगों के हस्ताक्षर”| आज वही तर्क दोहराया जा रहा है, पर और भी खतरनाक ईरादों के साथ कि " 120 करोड़ लोगों की जनसंख्या में सिर्फ एक 'अख़लाक़' की मौत"| या, नोटबंदी के समय "120 करोड़ लोगों में से कतारबंदी में केवल एक की मौत"| उस समय जनता उनके साथ नहीं थी| आज उनके प्रायोजित, सिखाये-पढाये समर्थन में बेन्डबाजा लेकर मौजूद हैं| इतना ही नहीं, वे विरोध करने वालों के लिए हर अस्त्र लेकर घूम रहे हैं , जिसमें प्रताड़ना से लेकर मौत तक सभी सजाएं क़ानून नहीं , उनकी भीड़ तय कर रही है| यह अधिनायकत्व और लोकतंत्र के बीच किस का अस्तित्व रहेगा, उसका सवाल है| इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस पूर्ण बहुमत पाकर तानाशाह होती है|  पर, यहाँ तो सीधे सीधे अधिनायकत्व को चुन लिया गया है| जहां तक जो विकल्प दे सकते हैं उनके अन्दर एक अजीब ब्यूरोक्रेसी और अहंकार है| उनसे फिलहाल कोई उम्मीद की किरण दूर दूर तक नजर नहीं आ रही है| यह निराशा या किसी कारण उपजा क्षोभ नहीं, वास्तविकता है| हाँ, देश में अनेक जगह वे पूर्ण ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, पर शेष भारत में जनता के साथ उनका कोई संवाद तक नहीं है| जैसा भक्तों का एक समूह भाजपा ने तैयार किया है, वैसा ही एक समूह उन्होंने भी तैयार किया है और उसे भी संभालना उन्हें नहीं आ रहा है| बाकी सब तो नक़्शे में हैं ही नहीं| आज नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में कांग्रेस मुक्त भारत की बात नहीं कर रहे हैं| यह भारत के प्रधानमंत्री हैं जो भारत को कांग्रेस मुक्त बनाने की बात कर रहे हैं| इसके निहितार्थ को समझना होगा| जैसे ही हम वह समझेंगे हमें लोकतंत्र के ऊपर मंडराते खतरे की झलक मिल जायेगी| इसीलिये मैं कहता हूँ कि यह कांग्रेस को कोसने का समय नहीं है| सवाल अधिनायकत्व और लोकतंत्र के बीच किस का अस्तित्व रहेगा, उसका है?


अरुण कान्त शुक्ला 7/11/2017