यह केवल भारत में ही हो सकता है। इस संभावना की खबर के साथ देश के
मीडिया ने इस पहलू को भी प्रमुखता के साथ उभारा कि सितम्बर में जब ओबामा और मोदी
की मुलाक़ात होगी तो मोदी ओबामा के साथ हिन्दी में ही बात करेंगे। अब ये तो सभी को मालूम है कि
राष्ट्राध्यक्षों के बीच होने वाली इस तरह की सभी मुलाकातों में भाषा कभी समस्या
नहीं बनती है क्योंकि ऐसे सभी अवसरों पर दुभाषिये की व्यवस्था हमेशा ही रहती है। इसके अलावा बिना शक कहा जा सकता
है कि किसी भी सूरत में मोदी दुनिया के पहले राष्ट्राध्यक्ष तो होंगे नहीं जो
दूसरे देश के राष्ट्राध्यक्ष के साथ अपने देश की भाषा या अपनी मातृभाषा में बात
करेंगे। पर,
इस खबर को जो तूल देश के मीडिया ने दिया है और जिस तरह सोशल साईट्स पर इसे मोदी की
तारीफ़ और कमजोरी के रूप में विवाद का विषय बनाया गया है, वह आश्चर्यचकित करने वाला
है।
प्रश्न यह नहीं है की मोदी ओबामा से किस भाषा में बात करेंगे?
प्रश्न यह है कि मोदी ओबामा से क्या बात करेंगे? वे जिन आशाओं और विशेषकर युवाओं में जिन आशाओं को चुनाव के दौरान जगाकर
आये हैं, उनमें से अनेक ऐसी हैं,
जो देश से नवउदारवादी नीतियों की विदाई मांगती हैं। देश के अन्दर जो कुछ पैदा हो सकता है या जिसका निर्माण देश में हो
सकता है, उन सभी पैदावारो और उत्पादों
का विदेश से आना बंद किया जाए,
यह भी उन्हीं नीतियों का हिस्सा होगा|
क्या, जैसे अमेरिका ने हमारे देश के
कपड़ों के आयात पर कोटा सिस्टम लगाया है, रेयान के आयात को प्रतिबंधित किया है, आनलाईन रोजगार पर बंदिश लगाई है,
केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए,
मोदी ओबामा से कहेंगे कि भारत भी ऐसा ही करने जा रहा है, आपके साथ। यदि वो ऐसा कहते और करते हैं तो ये वो भाषा होगी जो किसी भी भाषा को
बोलने वाले देश को तुरंत समझ में आ जायेगी लेकिन यदि भाषा यह होगी कि रिटेल में विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के
लिए विदेशी कंपनियों को विदेश
में तैयार उत्पाद देश में बेचने की छूट रहेगी,
जैसा कि अमेजान के मामले में सरकार करने जा रही है या रक्षा में विदेशी
निवेश 100 प्रतिशत लागू होगा, जैसी कि बात चल रही है, या रिटेल में 100 फीसदी विदेशी निवेश मंजूर किया
जाएगा या यूरेनियम लेने के लिए अमेरिका के पक्ष में व्यापारिक समझौते
किये जायेंगे तो फिर मोदी किसी भी भाषा में बात करें, वो भाषा तो ओबामा की ही भाषा
होगी और नतीजा भी हम जानते हैं कि क्या होगा? भारत से अमेरिका जा रहा होगा एक
अमेरिकापरस्त प्रधानमंत्री की जगह दूसरा अमेरिकापरस्त प्रधानमंत्री। बेहतर होगा मोदी पहले देश में नवउदारवादी नीतियों से तौबा करने की शपथ
लें, कारपोरेट के चंगुल से देश को
निकालने की कसम खाएं। देश के उद्योगपतियों,
नवधनाड्य और व्यापारियों ने बैंकों का जो दो लाख करोड़
रुपया अपनी अंटी में दबा कर रखा है, उधार जो वापस नहीं किया (एनपीए), उसे वापस लें
और हजारों करोड़ों का टेक्स नहीं चुकाने वाले ओद्योगिक घरानों से उस टेक्स को वसूलें। ऐसा करके जाने वाला
प्रधानमंत्री ताकतवर प्रधानमंत्री होगा और ओबामा से ओबामा की ही भाषा में बात कर पायेगा।जरुरी हिन्दी या अंगरेजी
नहीं, जरुरी यह है कि अमेरिका से अमेरिका की ही भाषा में बात की जाए याने बराबरी से बात की जाए। स्वयं मोदी चुनाव प्रचार के दौरान यह कहते रहे कि
विदेश से संबंध बराबरी के आधार पर रखे जायें,
इसे प्राथमिकता मिलेगी। अब इस बात को प्रमाणित करने
की बारी है। इसे हिन्दी और अंगरेजी के कोरी भावुकता के
सवालों में उलझाने का तरीका ही है हिदी में बात करने की बात को तूल देना।
अरुण कान्त शुक्ला
7 जून 2014
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