आज से 104 वर्ष पहले जब क्लारा जेटकिन ने महिला दिवस को अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर मनाने का आव्हान किया था तो उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कुछ ही दशकों
में पूंजीवादी बाजार इस दिन पर भी अपना कब्जा कर लेगा और दुनिया की तमाम देशों की
सरकारें और बाजार की निहित स्वार्थी ताकतें इसका प्रयोग न केवल प्रतीकात्मक बनाकर
रख देंगी बल्कि योजनाबद्ध और संस्थागत तरीके से इसका उपयोग महिलाओं के उपर होने
वाले शोषण, अपराधों, भेदभाव तथा असमानता की तरफ से ध्यान हटाने के लिए किया जाने
लगेगा| इस सचाई के बावजूद कि पिछले दस दशकों के दौरान विश्व में हुई आर्थिक प्रगति
ने विश्व समाजों के प्रत्येक तबके पर कुछ न कुछ धनात्मक प्रभाव अवश्य ही डाला है,
जो सोच और विचार के स्तर पर भी समाज में परिलक्षित होता है, स्त्रियों के मामले
में यह एकदम उलटा दिखाई पड़ता है| पिछले 100 वर्षों के दौरान हुए तकनीकि और औद्योगिक
परिवर्तनों और पैदा हुई आर्थिक संपन्नता ने मनुष्यों के रहन-सहन, खान-पान और
सोच-विचार सभी को उदार बनाया| नस्ल, जाति, धर्म के मामलों में यह उदारवादी
दृष्टिकोण काफी हद तक दिखाई पड़ता है| पर, स्त्रियों के मामले में आज भी मनुष्यों
की वही सामंतवादी पुरातनपंथी सोच है, जिसके चलते स्त्री उसके सम्मुख प्रतीकात्मक
रूप से तो देवी है, पर व्यवहार में उससे कमतर और भोग्या है| यदि कोई परिवर्तन हुआ
है तो वह यह की बाजार के रूप में एक नया स्त्री शोषक खड़ा हो गया है, जिसके शोषण का
तरीका इतना मोहक और धीमा है कि स्वयं स्त्रियों को यह जंजाल नहीं लगता है| यही
कारण है कि 104 साल पहले समानता, समान-वेतन, कार्यस्थल पर उचित कार्य-दशाएं जैसे
जिन मुद्दों को लेकर महिलाओं की गोलबंदी शुरू हुई थी, वे तो दशकों बाद आज भी जस की
तस मौजूद हैं ही, साथ ही साथ स्त्रियों को स्वयं को एक उत्पाद के रूप में इस्तेमाल
होने से बचने की नई लड़ाई भी लड़नी पड़ रही है|
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर आज सबसे अधिक जोर
महिलाओं के सशक्तिकरण पर है| यहाँ तक कि विश्व बैंक जैसी संस्था भी महिला
सशक्तिकरण से सबंधित योजनाओं के लिए विशेष फंडिंग करती है| पर, चाहे वह दुनिया के
देशों की सरकारें हों या अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं सबकी महिलाओं के लिए उपज रही
सहृदयता, सद्भावना और सहायता का कारण वह बाजार है, जो दुनिया की आधी आबादी के साथ
जुड़ा है| यही कारण है कि महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों का पूरा फोकस महिला श्रम के
दोहन के लिए बनाए जा रहे आर्थिक कार्यक्रमों पर ही है और महिलाओं की सामाजिक,
लेंगिक, राजनीतिक और धार्मिक रूप से शोषण
करने वाली समस्याओं को कभी वरीयता नहीं दी जाती|
भारत जैसे विडंबनाओं वाले देश में जहां पुरातनपंथी ढंग से महिलाओं को देवी
बनाकर पूजनीय तो बताया जाता है, पर व्यवहार में इसके ठीक उलट होता है, महिला
सशक्तिकरण की स्थिति दयनीय ही हो सकती है| वर्ष 2003 में जारी वर्ल्ड इकानामिक
फ़ोरम की ग्लोबल जेंडर गेप रिपोर्ट में भारत का स्थान 136 देशों में 101वां था|
उसके पहले इंटरनेश्नल कंसल्टिंग एंड मेनेजमेंट फर्म बूज एंड कंपनी ने वेतन समानता,
कार्यनीति, संस्थागत समर्थन और महिलाओं में हुई प्रगति के आधार पर 128 देशों में
सर्वेक्षण किया था, जिसमें भारत का स्थान 115वां था| इसका सीधा अर्थ हुआ कि भारत
में सरकारी स्तर पर नीतियाँ बनाते समय केंद्र और राज्यों की सरकारों ने महिला
सशक्तिकरण के दावे चाहे जितने किये हों, पर वास्तविकता में न तो उतने कदम उठाये गए
और न ही बनाई गयी योजनाओं का अमलीकरण धरातल पर ठोस रूप ले पाया| देश के निजी कारपोरेट
सेक्टर भी कभी महिला सशक्तिकरण के लिए इच्हुक नहीं दिखा है|
जब महिलाओं के लिए समानता की बात की जाती है और विशेषकर ट्रेड यूनियनों में,
कामगार महिलाओं के अन्दर, तो अधिकांश बहस और जोर वेतन में भेदभाव और कार्यस्थल पर
महिलाओं की कार्य करने की दशाओं के खराब होने, लैंगिक भेदभाव तथा यौन प्रताड़नाओं
तक और वह भी संगठित क्षेत्र की कामगार महिलाओं के विषय में सीमित होकर रह जाता है|
इसमें कोई दो मत नहीं कि उपरोक्त सभी मुद्दे संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों की
कामगार महिलाओं से सबंधित महत्वपूर्ण मुद्दे हैं और इनकी किसी भी कीमत पर उपेक्षा
नहीं की जा सकती है| पर, वेतन में भेदभाव से लेकर यौन प्रताड़ना तक की उपरोक्त सभी
व्याधियां कार्यस्थल की उपज नहीं हैं| पुरुष और महिला दोनों कामगार इन सारी
व्याधियों को समाज से ही लेकर कार्यस्थल पर पहुँचते हैं| इसलिए इन सारी व्याधियों
को कार्यस्थल से ही संबद्ध कर देखना, आज तक किसी निदान पर नहीं पहुँचा पाया है| महिलाओं
को संरक्षण प्रदान करने के लिए बने कानूनों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों
के बावजूद यदि कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ भेदभाव और लैंगिक शोषण में कमी नहीं आ
रही है तो इसके पीछे वही माईंडसेट है, जिसे समाज से लेकर कामगार कार्यस्थल पर
पहुँचते हैं| सर्वोच्च न्यायालय के जज से लेकर तेजपाल और राजनीतिज्ञों से लेकर
आशाराम तक के सभी सेक्स स्कंडलों में यही माईंडसेट कार्य कर रहा है| भारत की
कट्टरपंथी ताकतें इसका निदान महिलाओं को घर-गृहस्थी तक ही सीमित रहने की सलाह देने
में देखती हैं| सुनने में यह सलाह कितनी भी आकर्षक क्यों न लगे, पर, बाजार के
निरंतर बढ़ते शोषण और दबाव और कट्टरपंथी ताकतों की सलाह के बीच बहुत बड़ा विरोधाभास
है, जो महिलाओं को अपना श्रम बेचने के लिए घर से बाहर निकलने को लगातार मजबूर करता
रहता है और ऐसी कोई भी सलाह सिर्फ व्यर्थ का प्रलाप साबित होती रहती है|
दुर्भाग्यजनक यह है कि सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू में महिलाओं को बराबरी का
दर्जा नहीं देने की प्रवृति हाल के दशकों में बढ़ी है| एक बच्ची के जन्म के साथ
शुरू होने वाला यह भेदभाव उसकी शिक्षा, रोजगार, वेतन, सामाजिक और आर्थिक जीवन से
लेकर उसके बारे में राजनीतिक सोच तक लगातार कुत्सित तरीके से मजबूत हो रहा है|
आज जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, मेरे सामने छत्तीसगढ़ की नई राजधानी के
उपरवारा गाँव की दुलारी बाई की ह्त्या का समाचार है| उसकी हत्या उसके सगे भतीजे ने
ही टोनही होने के आरोप में कर डाली| दुलारी बाई के तीनों बेटे और बेटी ह्त्या के
समय घर में ही थे| ये सभी घटना के बाद घर से बाहर आये| लगभग 20 दिनों पूर्व
छत्तीसगढ़ के ही कोरबा जिले के विकासखंड पोड़ी उपरोड़ा के घुमनीडांड गाँव में बेटे ने
ही 65 वर्षीय माँ को चुड़ैल मानकर उसके बाल काटे और उसके साथ बैगा के चक्कर में आकर
मार-पीट की| सम्मान के नाम पर हर साल एक हजार से ज्यादा महिलाओं को मार दिया जाता
है| 2013 में नॅशनल क्राईम रिकार्ड के द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट के अनुसार पिछले
चार दशकों में बलात्कार के मामले में 900 फीसदी बढे हैं| 2010 में तकरीबन 600
मामले प्रतिदिन महिलाओं के खिलाफ अपराधों के दर्ज हुए| महिलाओं के प्रति सोच का यह
रवैय्या समाज से लेकर शासन तक सभी स्तरों पर मौजूद है| यदि, यही सोच एक लडकी को
शिक्षा से वंचित रखती है तो यही सोच विधायिका में महिलाओं के लिए आरक्षण का बिल
लोकसभा में पास नहीं होने देती है| यही सोच सरकार को आरक्षण के सवाल पर गंभीरता से
प्रयास करने से रोकती भी है|
जब तक समाज में स्त्रियों को पुरुषों से दोयम समझने की यह सोच मौजूद रहेगी,
महिला सशक्तिकरण शासन से समाज तक ज़ुबानी जमा-खर्च ही बना रहेगा| परिवार, समाज और
देश तीनों को सशक्त बनाने का काम घर-परिवार में महिलाओं को सशक्त बनाये बिना नहीं
हो सकता है, इस शिक्षा को देने और फैलाने का काम समाज की प्राथमिक इकाई परिवार से
ही शुरू करना होगा ताकि स्त्रियों के प्रति हीन सोच उद्गम स्थल से ही बदल सके| क्योंकि,
स्वतंत्रता पश्चात के इतने वर्षों में ऐसी सदिच्छा सरकार, प्रशासन, राजनीति और
धर्म तथा संस्कृति के प्रमुखों, किसी ने भी नहीं दिखाई| वे ऐसा करेंगे भी नहीं,
क्योंकि आधे समाज का दूसरे आधे हिस्से के प्रति बैरभाव और शोषणकारी रवैय्या,
उन्हें उनकी व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक होता है| आने वाले समय में विश्व की
कामगार दुनिया में एक अरब स्त्रियाँ प्रवेश करने वाली हैं| भारत जनसंख्या के आधार
पर विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है| पर, इसकी कामगार दुनिया में उस एक अरब महिलाओं
का बहुत कम हिस्सा शामिल होगा| कारण, स्त्रियों के प्रति सोचने का भारतीय समाज का
दकियानूसी ढंग, जिसे बदले बिना न महिला सशक्तिकरण पूरा होगा और न देश सशक्त होगा|
अरुण कान्त शुक्ला
7 मार्च’ 2014
No comments:
Post a Comment