कोई हिन्दी में बात करे और मैं उसका मुरीद हो जाऊं या अंगरेजी में बात करे तो मैं चिढ़ जाऊं..इतनी कमजोर मेरी फितरत नहीं है..|
मेरे लेख “मोदी किस भाषा में बात करेंगे?” पर मेरे मित्र सुभाष सिंह जी ने कमेन्ट किया था..जिसे मैं नीचे उद्धृत कर रहा हूँ और उसके नीचे मैं अपना जबाब भी दे रहा हूँ ...
सुभाष जी का कमेन्ट..
व्यक्ति को कभी भी किसी का आंकलन
पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर नही करनी चाहिए,
इससे सच्चाई से आप न्याय नही कर पाते और अपनी सोच से भी न्याय नही कर
पाते | हमेसा आकलन परिणामो पर
आधारित होना चाहिए न कि प्रयासों पर, प्रयास का पहला कदम तो सराहनीय है कि मोदी राज भाषा में बात करेंगे |
व्यापार में हर चीज बराबरी से नही होता,
व्यापार में क्रेता की आवश्यकता और विक्रेता की मजबूरी वह बिंदु है जिस पर
वास्तु का मूल्य निर्धारित होता है और गुणवत्ता बहुत मायने रखता है |
आल्लु चिप्स तक बनाने में हमारी तकनीक
अमेरिका से पीछे है | लेस की गुणवत्ता और देशी चिप्स की गुणवत्ता आप परख सकते
है | ज्यादा क्या लिखू आप खुद
समझदार है .....
मेरा जबाब...
सुभाष जी .. मुझे ऐसा लग रहा है की कमेन्ट करने से
पूर्व आपने लेख को पूरा पढ़ा नहीं है| यह पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर लिखा गया लेख
नहीं है| मित्र गणेश तिवारी की एक पोस्ट पर मोदी हिन्दी में बात करेंगे विषय पर
जारी विवाद में मैंने इस कमेन्ट को लिखा था, जिसे बाद में आर्टिकल के रूप में
परिमार्जित करकर फेसबुक पर डाला हूँ| मैं तो भाषाई विवाद से इतर मन्तव्य रखा हूँ
की किन्हीं भी दो देशों के बीच होने वाली बातचीत में महत्वपूर्ण ‘विषय’ होते
हैं..भाषा नहीं| आप मोदी के हिन्दी में बात करने को लेकर गदगद हैं, पर मुझे यह
उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं लगती| महत्वपूर्ण तो यह है कि जैसा कि मैंने लिखा भी है
कि भारत का प्रधानमंत्री एक ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में अपनी बात अमेरिका के
सामने रखे और यह ताकत वह अपने देश से लेकर जाए| जहां तक आपका यह मत कि आकलन परिणामों
पर आधारित होना चाहिए, बिलकुल सही है पर प्रयासों के पहले भी विचार विमर्श की एक
प्रक्रिया चलती है, सही लोकतंत्र उसे ही कहते हैं..आप शायद लोकतंत्र के इस जरुरी पहलू
को महत्त्व नहीं दे रहे ..ये तो अपनी अपनी समझ होगी..इसमें मैं या कोई भी कुछ नहीं
कर सकेगा| या फिर हो सकता है मेरा प्रयासों के पहले विचार विमर्श को लोकतंत्र
समझना गलत हो| वैसे केवल परिणामों पर बात और कार्य के पहले कोई विचार विमर्श नहीं
, किसी अन्य तरह की राजनीति के सूचक हैं, पर उसे कहना अभी उचित नहीं है|
व्यापार के बारे में आपकी धारणा साधारण व्यापार के
अनुसार भी ठीक नहीं है फिर दो देशों के मध्य व्यापार पर तो बिलकुल भी लागू नहीं
होती है| एक ऐसी व्यवस्था में , जैसी में हम रह रहे हैं..व्यापार विक्रेता की ताकत
और क्रेता की मजबूरी के रूप में है| जब आप माल में सामान खरीदने जाते हैं तो कोई
मोलभाव नहीं होता और जब वही सामान आप किसी छोटे स्टोर से खरीदते हैं या ठेले पर
खरीदते हैं तो विक्रेता कमजोर होता है और मोलभाव हो जाता है| यह बात देशों के बारे
में भी लागू होती है| यूरोप आपके आम लौटा देता है, उन्हीं दवाईयों के इस्तेमाल के
आरोप के साथ जो यूरोप ने ही आपको बेची हैं उसी तरह के इस्तेमाल के लिए| यहाँ
विक्रेता कमजोर है और क्रेता ताकतवर| पर, आप मेक्डोनाल्ड और अन्य को नहीं रोक पाते
हैं, ये जानने के बाद भी कि वो भारत में उन वस्तुओं का प्रयोग कर रहे हैं, जो
धार्मिक रूप से भी वर्जित हैं| जो सेब और अन्य फल भारत आ रहे हैं , उनमें वे सभी
दवाएं हैं जिन पर आज यूरोप आम को लेकर आपत्ति उठा रहा है| यहाँ क्रेता कमजोर है और
विक्रेता ताकतवर|
आपने मूल्य निर्धारण का जो नया फार्मूला दिया है, वो
मुझे ज्ञात नहीं है कि “क्रेता की आवश्यकता और
विक्रेता की मजबूरी वह बिंदु है जिस पर वास्तु का मूल्य निर्धारित होता है
और गुणवत्ता बहुत मायने रखता है |”
मूल्य निर्धारण के किसी भी तरीके में यह निर्धारण का मापदंड नहीं है| हाँ..यह
कालाबाजारी, जमाखोरी में एक महत्वपूर्ण तत्व है और वायदा बाजार बहुत कुछ इसी आधार
पर काम करता है..आप शायद इसी को मूल्य निर्धारण समझे हैं तभी मूल्य निर्धारण के
अन्य महत्वपूर्ण घटक कच्चा माल, मशीनों का किराया या औजारों का किराया और सबसे
महत्वपूर्ण घटक श्रम ..आप भुला दिए हैं| गुणवत्ता मायने रखती है और इसकी कीमत श्रम, कच्चे माल तथा मशीनों तथा औजारों तथा
अन्य पर किये गए व्यय में जुडी रहती है| इसी लिए एक सा कम करने वाली दो वस्तुओं की
कीमतों में गुणवत्ता के आधार पर अंतर होता है..यह आजकल अकसर ब्रांड वेल्यू भी कही
जाती है|
मुझे आश्चर्य हो रहा है की आप यह बताने के लिए कि हम
तकनीकि रूप से अमेरिका से पीछे हैं ..आलू चिप्स का उदाहरण दे रहे हैं..| आप शायद
ये भूल रहे हैं कि आलू चिप्स मूल रूप से भारत का ही उत्पाद है और यह एक जमाने में
घरेलू उत्पाद था| पर..मैं उस बिंदु पर कि नवमें दशक में जब राजीव गांधी ने दरवाजे
खोलना शुरू किया तो सबसे पहले यह अंकल चिप्स के रूप में भारत में कैसे आया..कुछ
नहीं कहना चाहता हूँ| भारत में चिप्स ताजे उत्पाद के रूप में पूरे वर्ष लगातार गृह
उद्योग के रूप में बनता रहता था| पर..लेस की बात से मैं आपसे यह अवश्य कहूंगा कि
हमारे देश में निर्यात के लिए जो भी वस्तुएं बनती हैं..उनकी गुणवत्ता उच्च कोटी की
होती है क्योंकि अमेरिका सहित सभी यूरोपीय देशों के मापदंड ऊँचे और कड़े
हैं..क्योंकि वे अपने देश के लोगों और व्यापारियों को संरक्षण देते हैं| जबकि
विदेश से जो भी वस्तुएं खाद्यान से लेकर उपभोग तक की हमारे देश में आती हैं, उनकी
गुणवत्ता जांचने परखने की हमारे देश में कोई विधी नहीं है| शायद आपको मालूम हो की
अमेरिका में कोला..चिप्स पर अनेक बार प्रतिबंध लगाया गया है..और अभी हाल ही में
अमेरिका के कृषि विभाग ने स्कूलों के आसपास सभी तरह के जंक फुड को बेचना बेन किया
है| आप जिस लेस की गुणवत्ता की बात कर रहे हैं ..वह रोगों और बीमारियों के घर के
अलावा और कुछ नहीं है..| दूसरी बात उसमें कोई टेकनालाजी नहीं जुड़ी है..केवल
प्रिजर्वेटिव्स और स्वाद लाने के लिए कुछ अन्य चीजों का इस्तेमाल हुआ है..पर यह
सही है कि भारत तकनीक के मामले में अमेरिका से पिछड़ा है| न्यूक्लियर टेकनालाजी से
लेकर टीवी सेट में उपयोग होने वाली पिक्चर ट्यूब तक हम खुद की नहीं बनाते| शायद
बनाना हमें मंहगा पड़ेगा ..यह भी हो सकता है| कारों के इंजन अभी भी वहीं से आते
हैं..पर इसे आयात करने के लिए कभी किसी ने विरोध नहीं किया| पर सचाई यही है कि
इसकी टेकनालाजी कभी हमें नहीं मिली| ये क्यों नहीं मिली..वे इसे देना नहीं चाहते और
हम इतने ताकतवर नहीं की उन्हें मजबूर कर सकें कि ये सब वो हमें दें..खैर बात
निकलेगी तो दूर तक जायेगी..|
अंत में ..आज के व्यापार का महत्वपूर्ण पहलू यही है की
ताकतवर देश अपने संसाधन बचाकर कमजोर देशों के साथ फायदे के सौदे करते हैं और ऐसा
नहीं होने पर उसे युद्ध सहित अनेक तरीकों से प्रताड़ित करते हैं..और अकसर वे इस
कार्य में यूनाईट भी हो जाते हैं..ईराक सहित अनेक देशों के उदाहरण हमारे सामने है|
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का यही सच है और आज इसे विश्व व्यापार संगठन..विश्वबैंक
..आईएमएफ जैसी अनेक संस्थाओं के द्वारा किया जा रहा है..जिनके बारे में अब लोग बात
करना भी भूल गए हैं..|
कोई हिन्दी में बात करे और मैं उसका मुरीद हो जाऊं या
अंगरेजी में बात करे तो मैं चिढ़ जाऊं..इतनी कमजोर मेरी फितरत नहीं है..| मेरे ये
विचार किसी व्यक्ति को ध्यान में रखकर या पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर नहीं हैं..ये
परिस्थिति की वास्तविकता है कि देश की समस्याएँ और देश के शासन में मौजूद राजनीतिक
दलों की नीतियाँ पिछले तीन दशकों से एकदूसरे के हितों से टकरा रही हैं...|
अरुण कान्त शुक्ला
8 जून, 2014
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