पिछले वर्ष 8 जुलाई को मैंने अपने एक लेख “मनमोहनसिंह एक आत्मनिष्ठ, आत्ममुग्ध,अमेरिका परस्त
प्रधानमंत्री” में कहा
था कि मनमोहनसिंह एक चतुर, आत्मनिष्ठ, आत्ममुग्ध व्यक्तित्व हैं, और ऐसे
व्यक्तित्व जहां भी कार्यरत होते हैं, वहाँ सृजन की तुलना में विनाश हमेशा ही
ज्यादा होता है। यूपीए
प्रथम के अंतिम दो वर्षों और यूपीए द्वितीय के प्रथम तीन वर्षों का कार्यकाल इस
बात की पुष्टि करता है। केग की रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद से या
हम कह सकते हैं कि मार्च में उस रिपोर्ट के सार के उजागर होने के बाद से कांग्रेस
और भाजपा, कांग्रेस और अन्ना टीम तथा कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के बीच जिस
तरह के आरोप प्रत्यारोप चल रहे हैं, उनसे सिर्फ एक और एक ही बात बार बार साबित
होती है कि नवउदारवाद के दौर में भारतीय राजनीति का मकसद केवल भ्रष्टाचार करना ही
रह गया है। प्रत्येक बीतते जा रहे दिन के साथ, जितने
घोटाले, रिश्वत लेने देने के प्रकरण सामने आ रहे हैं, वे इस बात की पुष्टि करते
हैं कि राजनीति की विषयवस्तु अब देशसेवा, जनसेवा या राज्य की व्यवस्था को
देशवासियों के हित में सुचारू रूप से चलाना नहीं, बल्कि देश के संसाधनों और
संपत्तियों को उद्योग घरानों के हवाले करना और उसकी एवज् में राजनेताओं और नौकरशाहों
के घर भरना है।
मुझे अपने ऊपर उल्लेखित लेख का स्मरण इसलिए हो आया
कि रघुराम राजन ने, जिन्हें कुछ समय पूर्व ही कौशिक बसु के स्थान पर भारत सरकार का
आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया गया है, अपनी बहुचर्चित पुस्तक फाल्ट लाईन्स के
हालिया भारतीय संस्करण में लिखा है कि “आत्ममुग्धता
विनाश की तरफ पहला कदम है, व्यक्तियों के लिए भी और देशों के लिए भी”। रघुराम
राजन आईएमएफ में उच्च पद पर रह चुके हैं और नियुक्ति पूर्व तक शिकागो
विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे। फाल्ट लाइन रघुराम राजन की 2008 के सबप्राईम
संकट पर लिखी गई चर्चित किताब है, जिसमें उन्होंने अमेरिकी सरकार के द्वारा
हाऊसिंग फायनेंस के बिग गनों और वालस्ट्रीट के कॉरपोरेट दिग्गजों को दिए गए
पैकेजों की तीखी आलोचना की थी। अपनी इसी किताब के भारतीय संस्करण में रघुराम
राजन ने भारत में दरबारी पूंजीवाद को विकसित करने और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने की
भी आलोचना की है। ऐसा नहीं है कि रघुराम राजन नवउदारवाद के विरोधी
हैं। वो सुधारों के घोर समर्थक और सरकारी हस्तक्षेप
से निकालकर प्रत्येक चीज को बाजार के हवाले करने के हिमायती और मुक्त बाजार के
कट्टर पक्षधर हैं। रघुराम राजन के बारे में इस संक्षिप्त उल्लेख की
आवश्यकता इसलिए पड़ी कि देश के कुछ उन चुनिन्दा अर्थशास्त्रियों में से वे भी एक
हैं, जो, टूजी और अब कोयला स्केम के बाद,
यह कह रहे हैं कि भारत दरबारी पूंजीवाद के उस दौर में हैं जहां देश के
अमूल्य और बेशकीमती संसाधनों को कौड़ियों के मोल कॉर्पोरेट घरानों को सौंपा जा रहा
है। देश के राजनीतिक और वित्तीय क्षेत्र में केग की
रिपोर्ट के कुछ हिस्सों के उजागर होने के बाद से ही यह आम चर्चा थी कि कोयला
खदानों के आबंटन में ठीक 2जी की तर्ज पर ही गड़बड़ी है, जिसमें स्पेक्ट्रम लगभग
मुफ्त में ही दे दिए गए थे।
इस संक्षिप्त भूमिका की आवश्यकता, इसलिए पड़ी कि आज
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक लोगों की आँखों पर पड़ा पर्दा हट गया है,
जिनमे ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री भी हैं, जो ये मानने लगे हैं कि मनमोहनसिंह ने
भूमंडलीकरण और नवउदारवाद की नीतियों के नाम पर भारत में केवल दरबारी पूंजीवाद याने
क्रोनी केपिटलिज्म को ही आगे बढ़ाया, जो आज बढ़कर रिसोर्स क्रोनिज्म याने देश के बहुमूल्य
संसाधनों को दरबारियों को बांटने के दौर में पहुँच गया है। मनमोहनसिंह की, वित्तमंत्री रहते हुए भी और फिर
प्रधानमंत्री रहते हुए भी, जो पूछ परख हुई, वह उनके एक अर्थशास्त्री के नाते ही
हुई। इसी बिना पर उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक
अयोग्यता को न केवल कांग्रेस के अंदर नजरअंदाज किया गया, बल्कि, उनके राजनीतिक
विरोधयों ने भी इसी बिना पर उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक कमजोरियों को नजरअंदाज
किया। तब मनमोहनसिंह जी से यह सवाल पूछा जाना लाजिमी
है कि क्या एक अर्थशास्त्री के नाते वे यह नहीं जानते थे कि जिन भूमंडलीकरण और
नवउदारवाद की नीतियों को वे भारत में लागू कर रहे हैं, प्रतिस्पर्धा के बिना, वे
नीतियां सामाजिक और आर्थिक रूप से भुरभुरा कर ढहने वाली हैं? 1991 में घरेलु
अर्थव्यवस्था में गिरावट के चलते, जब उन्हें अमेरिका और वर्ल्ड बैंक तथा आईएमएफ
जैसी संस्थाओं के दबाव में, भूमंडलीकरण और उदारवाद को देश में लागू करना पड़ा तो भी
एक अर्थशास्त्री होने के नाते उन्हें ये अवश्य मालूम होना चाहिये था कि व्यापार और
उद्योग जब बहुत बड़े हो जाते हैं और सत्ता और धन एक जगह एकत्रित होते हैं तो उनका प्रभाव
अमानवीय और विनाशक होता है, जैसा कि हम अभी देख रहे हैं।
भारत में भूमंडलीकरण के पिछले दो दशक में यदि किसी
को सर्वाधिक समय भूमंडलीकरण को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए दवा के समान इस्तेमाल
करने का मिला तो वे मनमोहनसिंह ही हैं। यदि वो कहते हैं कि ऐसा हो नहीं सकता था तो वे
गलत हैं। पूंजीवादी व्यवस्था और भूमंडलीकरण के दौर के
अंदर ही जापान, साउथ कोरिया, ताईवान जैसे देश हैं जहां देश के संसाधनों को
कारपोरेशनस को हस्तांतरित करते समय राज्य ने सुनिश्चित किया कि उसके एवज् में उन
उद्योग घरानों से भरपूर राजस्व और उत्पादकता प्राप्त हो और वे देश में उपलब्ध मानव
संसाधन का भरपूर उपयोग उत्पादकता हासिल करने के लिए करें। यहाँ,
जिस रास्ते पर 1991 से भारत चला, उसमें
क्या हुआ? सरकारों ने, चाहे वह केन्द्र की हों या राज्यों की, देश के संसाधनों को
कौड़ियों के मोल (सबसीडी देकर) उद्योग घरानों (देशी विदेशी दोनों) को दिया और उन
उद्योग घरानों ने वही किया जो उन्हें उनके लिए हितकर लगा याने कार्टेल बनाए, बिना
कुछ किये लायसेंस बेचकर ही मुनाफ़ा बटोरा, नए प्रतियोगियों को उद्योगधंधों और
निर्माण क्षेत्र में आने से रोका और मनमाने ढंग से कीमतें तय करके सरकारी खजाने और
देशवासियों को लूटा। क्या मनमोहनसिंह, जो प्रधानमंत्री पद नवाजे जाने
के पहले, 5 वर्ष वित्तमंत्री भी थे, इस बात को नहीं जानते हैं कि छांट बीनकर देश
के किसी संसाधन को देने और प्रतिस्पर्धा के आधार पर हासिल करने में वही अंतर होता
है, जो मेहनत से प्राप्त की गई उपलब्धी और भेंट में दिए गए उपहार में होता है। यह अंतर हमें 2जी के बांटे गए लायसेंसों के
मामले में भी देखने मिला। अब कोयला आबंटनों में भी वही देखने मिला कि एक
को छोड़कर, बाकी सभी लायसेंस पाने वाले, लायसेंस दबाकर बैठ गए और खनन शुरू ही नहीं
किया। देश
को कोयले के भारी संकट के बावजूद आयात पर निर्भर रहना पड़ा और संकटों का सामना करना
पड़ा।
कोढ़ में खाज यह कि उपहार के समान आबंटन करके
प्रधानमंत्री को कभी यह याद भी नहीं आयी कि टाटा, आदित्य बिरला, जिंदल और एस्सार,
अदानी जैसे बड़ों ने खनन शुरू भी किया है या नहीं? प्रधानमंत्री के रूप में
मनमोहनसिंह को कई बार निगरानी करनी थी और वो फेल हुए| उन्होंने जिम्मेदारी दूसरों
पर डाली। पर, इस बार वे केवल प्रधानमंत्री नहीं थे, स्वयं
प्रभारी थे कोयला विभाग के। इसीलिये उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी पड़ी है। उन्होंने की भी, लेकिन चालाकी के साथ, एक शेर
कहते हुए “हजारों
जबाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी”। अर्थशास्त्री तो मैं उन्हें मानता नहीं, एक
जिम्मेदार प्रधानमंत्री के रूप में, मैं उनसे पूछना चाहूँगा, आबरू किसकी बचाना
ज्यादा जरूरी है? देश की, देशवासियों की या भाजपा की, जिसके उपर भी कोयले की कालिख
उड़ रही है। मुझे मालूम है, जबाब नहीं मिलेगा, क्योंकि सवाल
एक ऐसे व्यक्ति से किया गया है, जो आत्ममुग्ध, आत्मनिष्ठ है। अर्थशास्त्री नहीं है, पर, कहलाने में गर्व
करता है। ओबामा
कहे तो चेहरे पर और रौनक आ जाती है। प्रधानमंत्री है, पर, जिम्मेदार नहीं।
अरुण कान्त शुक्ला
28अगस्त,2012
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