प्रधानमंत्री
ने मात्र चार दिनों के पश्चात आज 24 मार्च को पुन: देश को संबोधित करते हुए भारत को 21 दिनों तक के लिए लॉक-डाउन
मेँ डाल दिया है । वे सभी राज्य और केंद्र प्रशासित क्षेत्र जो पहले से ही या तो
लॉक-डाउन में थे या कर्फ़्यू का सामना कर रहे थे, अब पूर्ण
लॉक-डाउन मेँ होंगे। अब यह लॉक-डाउन संपूर्ण देश मेँ और कड़ाई से लागू किया जाएगा। इंडियन
काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की ताजी रिपोर्ट के अनुसार अभी तक भारत संक्रमण की तीसरी स्टेज याने सामुदायिक संक्रमण से दूर
है। आईसीएमआर के अनुसार संक्रमण अभी
उन्हीं लोगों तक सीमित है जो या तो कोरोना वायरस प्रभावित देशों से आए हैं या ऐसे
लोग जो विदेश से आए संक्रमित लोगों के संपर्क में आए हैं। यह एक राहत की बात हो
सकती है। पर, इसका आधार कमजोर है क्योंकि देश में कोरोना से
संक्रमित हैं या नहीं, इसकी टेस्टिंग सिर्फ उन्हीं लोगों की
हो रही है जो उपरोक्त में से किसी श्रेणी में आते हैं। वह जैसा भी हो पर क्रूर
सचाई यही है कि इस वायरस से संक्रमित होने के बाद इसका कोई इलाज नहीं है। कोई
वेक्सीन नहीं है जो इससे बचा सके। हल केवल एक है संक्रमण से बचा जाये। अपने को
सबसे अलग कर लो। किसी सार्वजनिक जगह पर न जाया जाये, जहां से
संक्रमण आप तक और फिर आपके जरिये आपके परिवार और फिर उन सभी तक जो आपके संपर्क में
आ रहे हैं, पहुंचे। यही सामाजिक दूरी है जिसे सोशल
डिस्टेनसिंग भी कहा जा रहा है। चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, स्पेन से लेकर
उन सभी देशों का अनुभव हमें बताता है कि उन्हें भी अपने लोगों को कोरोना संक्रमण
से बचाने के लिए कर्फ़्यू या लॉक डाउन में ही जाना पड़ा और सोशल डिस्टेनसिंग को ही बलपूर्वक
लागू करवाना पड़ा। प्रधानमंत्री ने लोगों को किसी भी तरह के अंधविश्वास से दूर रहने
की भी अपील की। याने, अपरोक्ष रूप से उन्होने अपने ही
सिपलसहारों को नसीहत दी कि गौमूत्र या गोबर का लेप, कोरोना
गो बैक गाना, जुलूस निकालना या राम रक्षा करेंगे, इसका हल नहीं है, जैसा कि कुछ भाजपा और सरकार में
बैठे मंत्री कह रहे थे।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने चीन में इस वायरस के फैलाव और फिर अन्य देशों में इसके पहुँचने
की रफ्तार को देखते हुए 30 जनवरी 2020 को ही इसे अंतर्राष्ट्रीय ‘स्वास्थ्य आपातकाल’ घोषित कर दिया था। हमारी सरकारों तथा देशवासियों ने तब इसे उस गंभीरता से
नहीं लिया, जिसकी आवश्यकता थी। वे सभी एहतियाती कदम जो पिछले
दो हफ्तों में उठाए गए हैं कुछ पहले उठाए गए होते तो परिस्थिति और ज्यादा नियंत्रण
में होती। विशेषकर, उन सभी लोगों की कड़ाई से जांच होनी
चाहिये थी जो कोरोना प्रभावित देश से आ रहे थे और फिर उन्हें सरकारी स्तर पर, सरकारी खर्च पर ‘आईसोलेशन’
में रखने की व्यवस्था करनी चाहिये थी ताकि वे ‘आईसोलेशन’ की अवधि में समाज में घुलमिलकर संक्रमण को फैला न पायें। इन दो हफ्तों
मेँ हमारे सामने ऐसे अनेकों उदाहरण आए जिनमें रसूखदार अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय
दोनों एयरपोर्ट से न केवल बिना जांच के निकल आए, बल्कि
सोसाईटी में भी जमकर घूमे-फिरे, नाचे-गाये और फिर कोरोना
पाजीटिव निकले। विश्व के किसी भी देश के संपन्न तबके की तुलना में भारत का संपन्न
वर्ग बहुत ज्यादा अहंकारी, दिखावा पसंद, केवल नियमों को तोड़ने वाला नहीं बल्कि नियमों को तोड़कर लाभ उठाने में शान
समझने वाला और समाज के प्रति अपने
दायित्वों-कर्तव्यों से भागने वाला है। यह पिछले दो हफ्तों में बार बार प्रमाणित
हुआ है।
हमारे देश में कोविद-19 को लेकर जो भी
जागरूकता-गंभीरता पिछले दो सप्ताह में दिखाई दी है, वह विश्व स्वास्थ्य संगठन
द्वारा 11 मार्च को कोविद-19 को वैश्विक महामारी घोषित करने के बाद आई है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे महामारी तभी घोषित किया जब चीन ने अपने बल पर इस पर
काबू पा लिया और इस महामारी का केंद्र बदल कर यूरोप हो गया। आज ब्रिटेन, अमेरिका सहित यूरोप के सभी देश इस महामारी से अपने देश के लोगों को बचाने
के लिए अरबों रुपये खर्च कर रहे हैं। चीन में इसे पूरे देश को लॉक डाउन करके काबू
में किया गया और अब यूरोप भी उसी रास्ते पर है। हमारे देश में भी उन्हीं 5 बातों
पर ज़ोर दिया जा रहा है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताईं हैं, सामाजिक दूरी, स्वप्रेरित-अलगाव, बार बार हाथों को धोना, खाँसते और छीकते वक्त कोहनी
का इस्तेमाल और जरा भी महसूस होने पर कोविद-19 का टेस्ट कराकर आईसोलेशन में जाना।
हमारे जैसे देश में जहां हाशिये पर रह रहे लोगों की संख्या अमेरिका की जनसंख्या से
भी ज्यादा होगी, ये सभी उपाय, सिर्फ
कोहनी की आड़ लेकर खाँसना-छींकना को छोड़कर, हाशिये पर जीवित
लोगों की समस्याओं को कई गुना बढ़ाने वाले हैं।
सामाजिक दूरी का पालन भारत के वे लोग जो
झुग्गी-झौपड़ी में रहते हैं, कैसे करेंगे? अभी ही इस सामाजिक दूरी के पालन में
तथा उसे बनाए रखने के लिए लगाए जा रहे लॉक-डाउन तथा कर्फ़्यू के चलते हजारों छोटी
तथा माध्यम औद्योगिक इकाईयाँ, ढाबे,
रेस्टोरेन्ट, खुदरा दुकाने जो बंद हैं उनमें काम करने वाले
कर्मचारी, निर्माण क्षेत्र में लगे मजदूर, स्टार्ट-अप से स्व-व्यवसाय चालू करके व्यवसाय करने वाले, बेरोजगार होकर अपने अपने गाँव वापिस लौटने वाले लाखों लोग, आने वाले समय में अपना गुजारा कैसे करेंगे, इस
समस्या से जूझ रहे हैं? सबसे ज्यादा कुपोषण भारत में है। देश
के ये कुपोषित पुरुष-महिला और बच्चे कोविद-19 के वायरस का मुक़ाबला कैसे करेंगे? जबकि, हमारे देश का संपन्न और उच्च मध्यमवर्ग इस
खुशफहमी को फैलाने में लगा है कि क्योंकि हमारे देश के लोग पूर्व से ही यूरोप और
चीन की तुलना में अधिक असुरक्षित (Vulnerable) दशाओं में
रहते हैं, इसलिए कोविद-19 के प्रति हमारे शरीर में प्रतिरोधक
शक्ति ज्यादा है। अमेरिका, ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय देशों
में प्रति एक लाख लोगों में से हजारों की संख्या में कोरोना-परीक्षण कराया जा रहा
है ताकि कम्यूनिटी ट्रांसमीशन को रोका जा सके। हमारे देश में ये प्रति लाख दस से
भी नीचे है। जब परीक्षण ही इतने कम लोगों का हो रहा है तो कम्यूनिटी ट्रांसमीशन को
कैसे जाना-रोका जा सकेगा?
प्रधानमंत्री जब 19 मार्च को देश के लोगों को
संबोधित करने आए तो उनसे उम्मीद थी कि वे उन सारी सलाह के साथ साथ जो उन्होने दीं, लोगों के
सामने आ रही और आने वाली आर्थिक और सामाजिक कठिनाईयों पर भी बोलेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। आज भी उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए 15000/- करोड़
के पेकेज देने के अलावा हाशिये के लोगों का गुजारा कैसे होगा, उसके लिए कुछ नहीं कहा। राज्यों
की सरकारों ने जरूर कुछ एलान किए हैं और केरल में तो बाकायदा 20,000 करोड़ रुपए का पेकेज लागू किया गया है। हाल ही में वित्त मंत्री ने राज्यों
को तीन महीने का राशन का कोटा उधार देने की बात कही है। उद्योगपतियों और
व्यापारियों को जीएसटी देर से जमा करने जैसी छूट भी दी गई है। रजिस्टर्ड कामगारों
तक तो राज्य सरकारें बैंक के माध्यम से कुछ नगद राशी पहुंचा सकेंगी, पर उन मजदूरों का क्या होगा, जो दिहाड़ी पर काम करते
हैं और रजिस्टर्ड नहीं हैं?
कोरोना वायरस से देश के सामने त्रिस्तरीय
चुनौतियाँ पेश हैं। पहली, हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा आम लोगों को उपलब्ध कराने के लिए
पहले ही बहुत कम पैसा खर्च किया जाता है और देश की सार्वजनिक सेवाओं में यह दिखता
भी है, जब आम तौर पर ही मरीज सरकारी अस्पतालों में बरामदे
लेटे दिख जाते हैं, जिनके लिए बिस्तर तक उपलब्ध नहीं हो पाता
है। यदि, ऐसा कभी न हो तो बेहतर है,
कोरोना वायरस कम्यूनिटी ट्रांसमीशन में प्रवेश कर जाता है तो आईसीयू की बात छोड़िए, हम बिस्तर तक उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं हैं,
जैसा कि एबीपी न्यूज चैनल की एक एंकर चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि ये कोरोना
संक्रमित लोग क्यों सोसाईटी में घूम रहे हैं, क्या ये नहीं
जानते कि हम चीन नहीं हैं कि एक दिन में ही 1000 बिस्तरों वाला अस्पताल बना कर खड़ा
कर देंगे। प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद भी इसमें संशय ही है कि भारत का निजी
चिकित्सा सेवा वाला कारपोरेट सेक्टर दृण इच्छा-शक्ति के साथ सरकारी स्वास्थ्य
सेवाओं के साथ संयोजन करके बिना शुल्क चिकित्सा सेवाओं को देने के लिए खड़ा होगा। दूसरी
महत्वपूर्ण बात यह है कि हम कितना भी खुश हो लें कि प्रधानमंत्री के कहने पर 22
मार्च (रविवार) को जनता-कर्फ़्यू सफल रहा, पर, उसके पीछे की सचाई यही है कि आवाम का बहुत बड़ा हिस्सा इस बात को
विश्वासपूर्वक समझता है कि महा-आपदाओं और त्रासदियों में उसे राहत पहुंचाने की
सरकार की क्षमता बहुत ही सीमित है और उसे अपनी रक्षा और रोजी-रोटी का इंतजाम खुद
ही करना होगा। इसीलिए, दूसरे दिन से ही लोगों का बाहर निकलना
शुरू हो गया था। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि इन सारे उपायों से जो किए जा
रहे हैं, कोरोना संक्रमण को हम सीमित रखने में सफल भी होते
हैं तो पहले से ही जर्जर अर्थव्यवस्था को जो धक्का इससे लग चुका है, उसे संभालने की कोई भी ताकत इस सरकार के पास दिखाई नहीं देती है। कोरोना
वायरस का हल एक ही है, जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा
है और विश्व के सभी देशों की सरकारे भी कह रही हैं रोकथाम,
दूरी, बंद, लॉक-डाउन, कर्फ़्यू, पर, सबके सामने, इस वायरस के जीवित रहते भी और मर जाने के बाद भी समस्याएँ अनेक हैं और
होंगी।
अरुण कान्त शुक्ला
24/3/2020
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