तेलंगाना, आंध्रा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु के बाद अब केंद्र सरकार ने भी अपने लगभग 60 लाख कर्मचारियों और 40 लाख पेंशनधारियों से
कोरोना से लड़ने की कीमत वसूलने के आदेश निकाल दिए हैं। यदि कोई चाहे तो इसे संकीर्णता कह सकता है पर मैं मंत्रियों, सांसदों, विधायकों या इसी तरह के पदों पर बैठे लोगों के वेतन-भत्तों में कमी को
कोई महत्व नहीं देता। यह कुछ वैसा ही है कि हाथी के खाने में से 100 ग्राम खाना कम
कर लिया जाये और हाथी कहे मैंने त्याग किया। इसी तरह सांसदों या विधायकों को अपने
क्षेत्र के विकास के लिए मिलने वाली रकम में कमी भी केवल दिखावा है। इधर खबरे आ
रही थीं की सांसदों और विधायकों ने अपनी सांसद या विधायक राशी से पाँच-दस लाख
रुपया पीएम केयर फंड में दिया, वह भी दायीं जेब से रुपया
निकालकर बाईं जेब में रखने वाला ढोंग ही है। वैसे भी सभी जानते हैं कि इस राशी का
कितना भाग कितनों की जेब में जाता है। प्रश्न यह है कि अभी भारत में सरकार को कोरोना
महामारी को एक महामारी माने एक माह ही हुआ है। सरकार ने जो भी फंड इस महामारी से
लड़ने के लिए घोषित किया है, उसका एक तिहाई भी अभी जारी नहीं
किया होगा। यदि किया होता तो उसका परिणाम हमें देश के मेडिकल स्टाफ के पास
पर्याप्त मात्रा में पीपीई किट, मास्क,
पर्याप्त वेंटिलेटर और अन्य उपकरणों के रूप में दिखाई देने लगते। हमारे पुलिस
विभाग के लोग, अन्य सुरक्षाकर्मी, सफाई
कर्मचारी उस तरह निहत्थे न दिखते, जैसे दिखाई पड़ रहे हैं।
राज्य सरकारें शिकायत कर रही हैं कि उन्हें पूर्व का ही जीसटी का हिस्सा, मनरेगा का पैसा नहीं मिला है और जो फंड दिया है वह अपर्याप्त है। देश के
प्रत्येक समर्थ तबके ने, संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम
करने वाले कामगारों सहित, पीएम केयर फंड में योगदान दिया है।
उसमें कितना पैसा आया और उसका कितना हिस्सा इस्तेमाल हो चुका, यह किसी को नहीं पता है। पूर्व से मौजूद प्रधानमंत्री राहत कोष में पड़ी
राशी का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा रहा है? यह अभी तक
बताना भी मुनासिब नहीं समझा गया है। भारत के 63 अरबपतियों की कुल दौलत भारत सरकार
के वर्ष 2019-20 के कुल बजट 27 लाख 83
हजार 349 रुपये से अधिक है। इन अरबपतियों की दौलत से एक पाई भी लेने में असमर्थ
सरकार आश्चर्यजनक रूप से लॉक-डाउन के मात्र 27 दिनों के भीतर ही अपने कर्मचारियों को
पूरा वेतन देने में अपनी असमर्थता दिखा रही है।
तेलंगाना में मुख्यमंत्री, राज्य मंत्रिमंडल, एमएलसी, विधायकों, राज्य
निगम अध्यक्षों और स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों के वेतन से 75%, आईएस, आईपीएस, आईएफएस और अन्य केंद्रीय सेवाओं के अधिकारी की सैलरी से 60% तथा अन्य सभी
श्रेणी के कर्मचारियों के वेतन से 50% की कटौती होगी। चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के वेतन से 10% की दर से कटौती की जाएगी। पेंशनर्स की पेंशन का भी कुछ हिस्सा काटा
जाएगा। खबरों के मुताबिक, राज्य
में इस बार सभी पेंशन धारकों के खाते में सिर्फ आधी पेंशन आएगी। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वेतन में कटौती कब
तक जारी रहेगी और क्या कर्मचारियों को भविष्य में कटौती की गई राशि का भुगतान किया
जाएगा।
महाराष्ट्र
में मुख्यमंत्री, मंत्री और विधायकों की तन्ख्वाह में 60%, ए और बी श्रेणी के कर्मचारियों की
सैलरी में 50%, सी श्रेणी
के कर्मचारियों की सैलरी में 25% की कटौती
की जाएगी। गनीमत
है इस फैसले से डी क्लास के
कर्मचारियों को अलग रखा है और उन्हें पूरी तन्ख्वाह मिलेगी। आंध्र
प्रदेश में कर्मचारियों को वेतन देना ही बंद कर दिया गया है।
मध्यप्रदेश के राज्य कर्मचारियों को भी बढ़ा हुआ महंगाई भत्ता
नहीं दिया जाएगा। केंद्र सरकार इस मामले में बड़ी स्पष्टवादी है। उसने जनवरी तथा
जुलाई 2020 और जनवरी 2021 में कर्मचारियों और पेंशनरर्स को मिलने वाले महंगाई भत्तों
को देने से मना ही नहीं किया बल्कि यह भी कह दिया कि यह पैसा कभी मिलेगा ही नहीं।
देश के वरिष्ठ नागरिक जो पेंशन पर ही निर्भर रहते हैं, कैसे यापन करेंगे, यह सरकार की चिंता का विषय नहीं
है।
जाहिर है यह सिलसिला यहाँ रुकने वाला नहीं है।
अन्य राज्य सरकारें भी देर-सबेर इसी रास्ते पर चलने वाली हैं। केंद्र सरकार भी
निश्चित रूप से देश के बीमा, वित्तीय क्षेत्र के संस्थानों, कारखानों, पर दबाव बनायेगी कि वे भी ऐसा निर्णय
करें और पैसा सरकार को सौंपें। प्रधानमंत्री ने अपने पिछले दो संबोधनों में हाथ
जोड़कर देश के छोटे बड़े सभी उद्धमियों से प्रार्थना की थी कि वे अपने यहाँ काम करने
वाले कामगारों की रोजी या वेतन न तो रोकें और न काटें। बुद्धूबक्से के समाचार वाले
चैनलों से यह सुनते समय बहुत अच्छा लगा था। पर, प्रधानमंत्री
ने उस समय यह नहीं बताया कि इन छोटे उद्धमियों, ठेकेदारों के
पास काम बंद होने के बाद पैसा आयेगा कहाँ से, जिससे इन
मजदूरों का वेतन दिया जाएगा? नतीजा, आज
हम देख रहे हैं कि लाखों की संख्या में लोग अपने गांवों में पहुँचने के लिए बेताब
हैं और पैदल निकल पड़े थे। सरकारों की आर्थिक स्थिति की बात को दरकिनार करके भी हम
सिर्फ यह सोचें कि क्या जो व्यवस्था सामान्य समय में अपने पूरे नागरिकों को भोजन
मिले इसकी गारंटी नहीं लेती, वह पूरे देश की अनगिनत सड़कों को
नापते इन लोगों के पास पहुँचकर इन्हें भोजन मुहैया करा पायेगी? सामाजिक संस्थाएं लॉक-डाउन की परिस्थिति में कितनी मदद कर पाएँगी और क्या
वह पर्याप्त होगी।
अब हम उन कामगारों की तरफ आते हैं जिनका नियोक्ता
वह वर्ग है जिसका वेतन केंद्र और राज्य की सरकारें काट रही हैं या रोक रही हैं।
संगठित क्षेत्र का यह कर्मचारी वर्ग मध्यवर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा तो है ही साथ ही
घरेलु कामगारों का बहुत बड़ा नियोक्ता भी है। हमारे देश में इनकी संख्या भी कम नहीं
है। लगभग चार करोड़ से अधिक लोग हैं जो घरेलु कामगार, माली, प्लमबर, धोबी, इलेक्ट्रिशियन, चौकीदार, गार्ड, ड्राईवर, आया, चाईल्ड केयर टेकर, तथा
सफाई कर्मचारी के रूप में साप्ताहिक अथवा मासिक वेतन पर मध्यवर्ग से लेकर उच्च
आयवर्ग तक के लोगों के घरों में काम करते हैं और लॉक-डाउन के बावजूद इनसे पूरा
वेतन पा रहे हैं। इसके अतिरिक्त लगभग दो करोड़ से अधिक वे स्वरोजगारी हैं जो फेरी
लगाकर घरों में लगने वाली रोज़मर्रा की जरूरतों जैसे सब्जी,
फल इत्यादी की पूर्ति करते हैं। यह वह समानान्तर अर्थव्यवस्था है, जिससे समाज का वह वर्ग अपनी आजीविका चलाता है जो सरकार की जीडीपी में
नहीं आता। जब सरकार के पास अपने कर्मचारियों को देने के लिए पूरे पैसे नहीं हैं तो
सरकार, अन्य नियोक्ताओं से जिनके कारखाने बंद हैं, जिनके कार्यों पर रोक है और जो एकबार बंद करने के बाद श्रम-शक्ति की
अनुपलब्धता के चलते तुरंत चालू भी नहीं कर सकते, उम्मीद ही
कैसे कर सकती है कि वे अपने कामगारों को वेतन दें? यह अद्भुत
बात सरकार को समझनी तो होगी कि बंद बाजार को भी तरलता की जरूरत होती है। और, ऐसे संकट के समय वह तरलता सरकार ही उपलब्ध करा सकती है। सीधे उनके हाथों
में पैसे देकर जो खुद रोजगार के जनक हैं। केंद्र और राज्यों की सरकारों को
कर्मचारियों के वेतन में कटौती करने या वेतन को रोकने के निर्णय पर पुनर्विचार कर
इसे वापस लेना चाहिए। कर्मचारियों के वेतन पर हमला गलत है।
अरुण
कान्त शुक्ला
25/4/2020
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