Wednesday, March 18, 2020

यह आखिरी किला नहीं है


मुझे ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति द्वारा पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने के बाद शायद लोगों को सबसे ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया जस्टिस मदन बी लोकुर(हाल ही में रिटायर्ड) की ही लगी होगी। उन्होनें कहा कि “अटकलें लगाई जा रही थीं कि जस्टिस गोगोई को क्या सम्मान मिलेगा? तो ऐसे में उनका नामांकन आश्चर्यजनक नहीं है लेकिन जो आश्चर्य की बात है, वह यह है कि फैसला इतनी जल्दी आ गया। यह न्यायपालिका की स्वतन्त्रता, निष्पक्षता और अखंडता को फिर से परिभाषित करता है। क्या आखिरी किला भी ढह गया है?” जस्टिस मदन बी लोकुर ने अपनी बात की अंतिम पंक्ति में जिस सवाल को किया है, उसका एक ही जबाब हो सकता है कि ढहा तो है, पर, न यह पहला किला था और न ही आखिरी। एक ऐसी व्यवस्था में, जिसमें कि हम रह रहे हैं किले पहले भी ढहे हैं और आगे भी   ढहते रहेंगे। इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं है कि सेवानिवृति के मात्र चार माह के अंदर राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिया। राजनीति में उपकार करने वालों को हमेशा सम्मान (रिवार्ड) मिलता रहा है, बस कुछ नया है तो आज केंद्र की सत्ता में जो राजनीतिक ताकत बैठी है, उसका इस हाथ दे, उस हाथ ले’, वाला तरीका, ताकि शेष उपकार करने वाले भी आश्वस्त हो जाएँ कि उन्हें भी उपकार का ईनाम तुरंत मिलेगा।
गोगोई जी का कहना है कि वे शपथ लेने के बाद बताएँगे कि उन्होंने राज्य सभा की सदस्यता क्यों मंजूर की। वैसे इस बात की संभावना नहीं के बराबर ही है कि वे कोई ऐसा रहस्योद्घाटन करें कि जिससे हिंदुस्तान की सियासत में वो भूचाल आए जो सब कुछ उलट-पलट कर रख दे। इसके ठीक उलट संभावना इसी की ज्यादा लग रही हैं कि वे ऐसा कुछ कहें, जिससे इस हाथ दे, उस हाथ ले वाला सूत्र ही ज्यादा मजबूत हो। गोगोई उन चार जज में से एक थे, जिन्होंने प्रेस कान्फ्रेंस करके पूर्व जस्टिस दीपक मिश्रा के निर्णयों और सरकार के न्यायालीन प्रक्रिया में असर डालने की कोशिश के खिलाफ खुलकर बातें की थी। पर, अपने मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के समय के उनके निर्णय लोगों को हतप्रभ करने वाले ही रहे। 2018 में जब वे एक 5 जजों वाली बेंच के प्रमुख थे, उन्होंने किसी संदर्भ में रिमार्क दिया था कि रिटायरमेंट के बाद जजों का लाभ वाले पदों पर जाना स्वतंत्र न्यायपालिका के माथे पर एक दाग है। बहरहाल इस लेख में मेरा उद्देश्य न्यायाधीश और न ही मुख्य न्यायाधीश रहते हुए उनके कार्यों, निर्णयों अथवा बातों को कुरेदना नहीं है।
बल्कि, उससे इतर मैं यह कहना चाहता हूँ कि राजनीति की जिस शैली में हम हैं सत्ता में जो भी दल हो वह राज्यसभा की सदस्यता, आयोगों के अध्यक्ष तथा सदस्य के पदों, विभिन्न बोर्डों के अध्यक्ष तथा सदस्यों के पदों, विश्वविद्यालयों के उपकुलपति के पदों, जांच आयोगों के पदों का इस्तेमाल कार्यपालिका और न्यायपालिका के बड़े और प्रमुख लोगों को लोभ देकर अपने पक्ष में कार्य कराने अथवा निर्णय पाने के लिए करता है। यह तरीका पहले भी अपनाया गया और आज भी अपनाया जा रहा है। फर्क सिर्फ यह है कि आज सिर्फ इसी तरीके को अपनाकर सरकार चल रही है। आज करीब करीब सभी स्वायत्त संस्थाएं, नाम के लिए भी स्वायत्त नहीं रह गईं हैं तथा सबके प्रमुखों को या तो संस्था को छोडकर जाना पड़ रहा है अथवा सरकार के इशारे पर सभी नियमों और संविधान के प्रावधानों तक की अवहेलना करके सरकार की मंशा के अनुसार कार्य करने मजबूर होना पड़ रहा है। देश के उच्च पदों पर बैठे ऐसे लोग जो भारत के 50 करोड़ गरीब लोगों की बात छोड़ भी दें तो ऊंचे दर्जे के मध्यवर्ग के रहन-सहन से भी ज्यादा बेहतर रहन-सहन से बल्कि ठसन और रुआब से जिंदगी भी बिताते रहते हैं और अपनी सद-इच्छा, भलमनसाहत और ईमानदारी तथा आम लोगों के प्रति अपने कर्तव्य को केवल इसलिए बेचते रहते हैं कि रिटायरमेंट के बाद कुछ और वर्ष के लिए पद तथा सुविधाएं मिल जाएँ, तब वे नहीं जानते कि वे लोकतन्त्र को एक ताबूत में बंद कर उसमें कील ठोक रहे हैं।हमारे देश में ही क्या, किसी भी देश में जहां हमारे जैसा लोकतन्त्र है, लोकतन्त्र की आवश्यकता कभी उस देश के संपन्न तबके को नहीं पड़ती। संपन्न तबका तो अपने कानूनी और गैरकानूनी सभी काम अपने रसूख और पैसे के दम पर करवाता रहता है। यह तो निचला तथा मध्य-वर्ग ही है जो जायज कामों के लिए भी अपनी एड़ियाँ रगड़ते फिरता है। यही वर्ग है जो सरकारी सेवा के बड़े अफसरों, न्यायपालिका के जजों और देश के संपन्न तबकों, जिनमें डाक्टर,वकील जैसे पेशों के लोग भी शामिल हैं, की ओर, हजारों बार धोखे खाने के बाद भी आशा भरी नजरों से देखता रहता है। उसने बहुत किले ढहते देखे हैं। उसी तबके का विश्वास एक बार और टूटा है। पर, वह जानता है की यह आखिरी किला नहीं है।        
अरुण कान्त शुक्ला
18/3/2020     


1 comment:

Shah Nawaz said...

बिल्कुल सही कहा, क्या होगा समाज का, देश का?