Sunday, May 10, 2020

कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (2)


श्रम क़ानूनों पर हमले की हड़बड़ी

दरअसल, कोरोना काल को तथाकथित सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’ बताने की शासक वर्ग में होड़ लगी है। नवउदारवाद के बाद के विश्व में सबसे अधिक यदि कुछ बदला है तो वह सुधार शब्द का अर्थ है। मेहनतकश के लिये सुधार का मतलब मौजूदा कानूनों में सुधार कर उसके अधिकारों, हितों और कल्याण के लिये और बेहतर कानून बनाना नहीं रह गया है बल्कि इसके ठीक उलट सुधार का मतलब ऐसे कानून बनाना हो गया है जो मेहनतकश के अधिकारों, हितों और कल्याण में कटौती कर उनका और अधिक शोषण करने का अधिकार मालिकों और सरकार को दें।  

कोविद-19 जैसी महामारी को भी जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित भारत का मेहनतकश ही हो रहा है अवसर में बदलने की यह मुहीम हमारे प्रधानमंत्री की अगुवाई में ही चल रही है जैसा कि उनकी मुख्यमंत्रियों के साथ हुई वीडियो कान्फ्रेंसिंग से पता चलता है। इस सोच को कैसे और कितनी जल्दी अमली जामा पहनाया जाये, आज उनकी चिंता का प्रमुख बिंदु है। नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगरिया कहते हैं कि यह अवसर तभी तक उपलब्ध रहेगा जब तक वेक्सीन नहीं खोज ली जाती। उसके बाद केवल पछताना हाथ रहेगा, इसलिए, भूमी अधिगृहण और एसएचआरएम क़ानूनों में वे सारे सुधार तुरंत कर लेना चाहिए जो शांति काल में करना कठिन है। अरविंद पनगरिया अकेले नहीं है। सबके अपने तर्क हैं पर उद्देश्य एक ही है भूर्जन और श्रम क़ानूनों पूंजी के पक्ष में लचीला बनाना। ‘बिजनेस स्टेंडर्ड’ के सह-मालिक तथा संपादक टी एन निनान का तर्क और ज्यादा अपीलिंग है| उनका कहना है कि; 

"नौकरी में सुरक्षा, वेतन, पेंशन आदि यह सब तो भारत की कुल श्रम-शक्ति के मात्र 6% श्रमिकों को उपलब्ध है। बाकी सब तो असंगठित क्षेत्र में हैं, सब के लिये उपलब्ध, और उनमें वो भाग्यवान है जिसे कभी एक नियुक्ति पत्र भी मिल जाये। सरकार और पब्लिक सेक्टर के ‘C’ श्रेणी के कर्मचारियों को श्रम बाजार की तुलना में दो से तीन गुना ज्यादा वेतन दिया जाता है। यह नहीं चल सकता। जब अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल चल रही है तो ऐसी अतार्किकता को समाप्त करना ही होगा। कोविद-19 का संकट यदि उसमें कुछ तार्किकता लाने में मदद करता है तो उसमें कुछ भी विनाशकारी नहीं है।"        

श्री गौतम चिकरमाने, आब्जर्वर रिसर्च फाउन्डेशन, जो रिलाएंस ग्रुप से फंडेड एक थिंक टेंक है, के उपाध्यक्ष हैं।  उन्होंने फाउन्डेशन के लिये 10 अप्रैल 2020 को लिखे अपने लेख में सुधारों की वकालत करते हुए कोविद-19 को एक प्रकार से उत्सव के रूप में लेने की सिफारिश की है। गौतम चिकरमाने के अनुसार; 

“संकट सुधारों के अगुआ होते हैं| संकट, पुरानी घाव बन चुकीं, समस्याओं को ठीक करने के लिये अगुआ के रूप में कार्य करते हैं। संकट हमें वैधानिक-कार्यपालिक-प्रशासनिक गफलतों से ऊपर उठाते हैं।  संकट बड़े संतुलनों के लिये रास्ता साफ़ करते हैं। और, संकट राष्ट्र को संगठित करते हैं...

कोविद-19 सुधारों को लाने के लिये एक सही तूफ़ान है।  अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोंण से कोविद-19, 1991 के जैसा अवसर है। भूराजनीतिक दृष्टिकोंण से कोविद-19 बालाकोट जैसा अवसर है। संवैधानिक रूप से कोविद-19 आर्टिकल 370 को रद्द करने जैसा अवसर है।

भूमि, श्रम, ढांचागत जैसे साधारण सुधार हमारे सामने हैं।  ये तिकड़ी जो अभी तक हमारी आकांक्षा थी, जरूरत है कि कोविद-19 से अब उसकी शुरुवात हो। आज से तीन से छै माह के बाद भारत और दुनिया में इन सुधारों के बारे में भूतकाल की बातें मानकर बात की जायेगी। इन तीनों सुधारों को लागू करने के पीछे का तर्क बहुत सीधा है। भारत को रोजगार चाहिये। रोजगार निजी पूंजी के द्वारा निर्मित किये जाते हैं। निजी पूंजी को ऐसा व्यावसायिक वातावरण चाहिये जो उद्यमियों के लिये मित्रवत हो।  

कमेटियां, कमीशन, टास्क-फ़ोर्स बनाकर समय को व्यर्थ करने का समय चला गया है। हम 21वीं सदी के कुरुक्षेत्र में हैं और सारे मोल-तौल-समझौते पीछे छूट चुके हैं। कार्रवाई ही आगे एकमात्र रास्ता है। और, सरकार के मुखिया होने के नाते, भूतकाल के खिलाफ युद्ध और एक नए तथा ‘सुधारे गए’ भारत में ले जाने की घोषणा करने का शंख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में ही है। हमें स्वतन्त्र भारत के सामने आई सबसे बड़ी चुनौती कोविद-19 को भारत को उपलब्ध सबसे बड़े अवसर के रूप में बदलना होगा।”

कोविद-19 काल में शासक वर्ग की मेहनतकश वर्ग के ऊपर हमला करने की सारी तैयारियां, मंशायेँ और चरित्र खुलकर सामने आ गया है, जो दबे पाँव अन्य अनेक बहानों से लगातार चल रही थीं पर मेहनतकश के विरोध की वजह से पूरी नहीं हो पा रही थी। भूमि सुधार कानून, जिसके जरिये वे किसानों से उनकी ज़मीनें हड़पने का अधिकार चाहते हैं, श्रम क़ानूनों में सुधार, जिसके जरिये वे न केवल वेतन-मजदूरी ठहराने में मनमानी बल्कि मजदूरों को बिना कारण बताए कभी भी हकालने का अधिकार चाहते हैं, उनके लिए इतने जरूरी हैं कि उन सुधारों को लागू करन के लिये उन्हें कोविद-19 जैसी महामारी एक तूफान, बालाकोट जैसा सर्जिकल हमला, नव-उदारवाद का पुनर-आगमन या आर्टिकल 370 को रद्द करने जैसा समय लगता है। आज तक किसी भी देश के शासक वर्ग ने अपने ही देश के बहुसंख्यकों को तूफान से उड़ा दो, देश के दुश्मन (बालाकोट सर्जिकल स्ट्राईक), देश का अस्थायी हिस्सा( आर्टिकल 370) के रूप में नहीं देखा होगा। गौतम चिकरमाने का लेख, लेख नहीं, शर्मनाक वर्गीय घोषणापत्र है जो नग्न भाषा में हमारे सामने आया है।

असल में, किसानों की जमीन पर कब्जा करने के लिये संबंधित क़ानूनों में ढील, मजदूरों के वेतन या रोजंदारी को कम करने वाले कानून बनाने और श्रम क़ानूनों की होली जलाने का, कोविद-19 जैसी महामारी से निपटने के तरीकों के साथ या देश के बदतर होते जा रहे आर्थिक हालात के साथ दूर दूर का कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ होगा तो वह यह कि ये सभी कदम आम किसान-मेहनतकश, जो परिवार सहित मिलाकर देश में 80 करोड़ से ज्यादा हैं, का जीवन और दूभर होगा तथा बाजार में मांग और घटेगी क्योंकि तरलता ऊपर से नीचे तभी आती है जब श्रम नीचे से ऊपर जाता है। सचाई तो यही है कि देश की अर्थव्यवस्था कोविद-19 के संकट के पहले से संकट में थी। उसका सबसे बड़ा कारण तो बड़े बड़े कारपोरेट का पूंजी दबाकर बैठ जाना और पुराने निवेश में ही और निवेश करने से या नया निवेश करने से बिदकाव था। 2016 की नोटबंदी के लिए प्रधानमंत्री कितना भी अपनी पीठ खुद थपथपा लें अथवा अपने अनुयायियों से थपथपवा लें पर नोटबंदी में सूक्ष्म-लघु तथा मंझौली औद्योगिक इकाईयों को पहुंचे नुकसान की वजह से बढ़ी बेरोजगारी ने बाजार में मांग को जो धक्का पहुंचाया है, उससे देश अभी तक उबर नहीं पाया है। कोविद-19 की आड़ लेकर मजदूर और किसानों पर जो आक्रमण करने की मुहीम चलाई जा रही है, सरकारें और कारपोरेट जितनी जल्दी उससे तौबा कर लें, उतना बेहतर होगा।

बेशक, मेहनतकश के लिए समय कठिन है। सर्वहारा के वे सभी हिस्से किसान-छात्र-मजदूर-नौजवान आज जैसा कि सामने है, उठकर प्रबल विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। उन्हें पुन: संगठित होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए समय की दरकार है। पर, शासक वर्ग को यदि कोविद-19 एक अवसर लगता है तो लॉक-डाउन उनके लिए एक सबक भी होना चाहिए कि खेत, खदान, फेक्टरी, भट्टे, रेल, बस, बाजार, अस्पताल, सीवरेज़ सभी में तब ही काम होता है जब इन नंगे-पाँव विस्थापन वालों के हाथ लगते हैं। कामगार के श्रम के बिना, पूंजी के मालिक, तथाकथित संपदा उपार्जक (Wealth Creators), एक डबल रोटी से लेकर एक सुई तक नहीं बना सकते हैं। मई दिवस यदि मेहनतकश के लिये अंधकारमय होगा तो शासकवर्ग को याद रखना होगा उनका भविष्य भी उनके लिए अंधकार से कुछ कम नहीं होगा।

अरुण कान्त शुक्ला
8 मई 2020

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