‘न्याय’ से न्याय की
उम्मीद बेमानी नहीं-----
पिछले एक दशक के दौरान गरीब
और गरीबी दोनों इस कदर सरकार की नीतियों और राजनीति के केंद्र से गायब रहे हैं कि कांग्रेस
अध्यक्ष राहुल गांधी ने जब कहा कि केंद्र में कांग्रेस की सरकार आने पर देश के सबसे गरीब 20 फीसदी परिवारों को न्यूनतम सालाना औसतन 72,000/- रुपये की आय
सुनिश्चित की जायेगी तो सत्तारूढ़ भाजपा से लेकर देश के कुबेरों के साथ साथ मध्यवर्ग
के खाते-पीते लोगों के बड़े हिस्से में मानो हडकंप मच गया| कांग्रेस अध्यक्ष का यह
बयान उनको अचंभित करने वाला था, जो उन्हें कभी भी गंभीरता से नहीं लेते|
प्रधानमंत्री तथा उनके वित्तमंत्री अरुण जेटली से लेकर बाकी भाजपा के अंदर इसीलिये
खलबली मची कि क्योंकि उन्होंने कभी राहुल गांधी को गंभीरता पूर्वक लिया ही नहीं| स्थिति
तो यहाँ तक हास्यास्पद है कि भाजपा की मंडली जब राहुल गांधी के किसी कथन को नकारने के लिए भी
जाती है तो उनके तर्क और बयान इसीलिये खोखले नजर आते हैं क्योंकि उनकी सोच
कांग्रेस अध्यक्ष के लिए कभी पप्पू से ऊपर नहीं उठ पाती है| यह पहली बार नहीं है
कि किसी राजनीतिक नेता ने गरीबों के लिए कुछ करने की बात की हो| हाँ, भाजपा को
अवश्य यह कुंठा हो सकती है कि जब कभी भी गरीबी हटाने की बात की गई है, वह कांग्रेस
की तरफ से ही कि गई है| सबसे पहले 1867 में दादाभाई
नौरजी ने गरीबी खत्म करने का प्रस्ताव कांग्रेस संगठन में रखा था। 1938 में सुभाषचंद्र
बोस ने भी इसे आगे बढ़ाया। इसके बाद 1971 में इंदिरा गांधी ने व्यापक पैमाने पर इस
नारे को अपनाया था और उस दिशा में काम भी किये थे| बहरहाल, भाजपा को याद होना
चाहिये कि कार्यकारिणी की जिस बैठक में उन्होंने नरेंद्र मोदी को भाजपा की तरफ से
प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार किया था, नरेंद्र
मोदी ने उस बैठक में अश्रु ढलकाते हुए कहा था कि सरकार बनने पर वे सबको साथ लेकर
चलेंगे और उनकी सरकार गरीबों के लिए काम करेगी| प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के
बाद उन्होंने फिर अपनी इस बात को दोहराया था| उन्होंने लोकसभा की चौखट पर मत्था टेकने के बाद,
दिए गए अपने पहले भाषण में देश के लोगों से वायदा किया था कि उनकी सरकार सबको साथ
लेकर चलेगी और यह गरीबों की सरकार है और गरीबों के लिए काम करेगी| पिछले पांच
वर्षों में उन्होंने अपने इस वायदे को कितना निभाया है या गरीबों को कितना रुलाया है,
यह तो शुरू हो चुकी चुनाव प्रक्रिया का नतीजा हमें बता ही देगा|
हम यहाँ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के
द्वारा घोषित न्यूनतम आय गारंटी योजना के कुछ ऐसे पहलुओं पर बात करेंगे, जिनको
लेकर आम तौर पर कुछ प्रश्न किये जा रहे हैं| सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट हो जाना
चाहिये कि किसी भी कोण से न्यूनतम आय गारंटी योजना, जिसे राहुल गांधी ने
प्रधानमंत्री की प्रिय वाक् शैली में ‘न्याय’ कहा है, न तो गरीबी हटाओ का नारा है,
जैसा कि अरुण जेटली ने उछालने की कोशिश की है और न ही यह कुछ देशों के कुछ भाग में
लागू की गई ‘सार्वभौमिक बुनियादी आय योजना’ है| जो कुछ उन्होंने कहा है वह मात्र
इतना है कि “कांग्रेस पार्टी सरकार में आने पर देश की 20 फ़ीसदी सबसे गरीब याने बीपीएल परिवारों को 72 हज़ार रुपये सालाना
की मदद करेगी यानी गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवार की आय में किसी भी प्रकार की
कमी को पूरा कर उसे 6000/- प्रति माह पहुंचाया जाएगा| इसका पहला इशारा उन्होंने तब
किया था जब वे किसान कर्ज माफी के पत्रक बांटने के लिए छत्तीसगढ़ के बस्तर में आये
थे| इसे कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक भी कह सकते हैं, क्योंकि, 2014 में भाजपा की सरकार आने के बाद से ही स्वयं कांग्रेस के नेता भी
यही कह रहे थे कि मोदी सरकार कांग्रेस की अधूरी नीतियों का श्रेय ले रही है| इसका
जो एक सन्देश आमजनों के बीच जा रहा था, वह यह था कि बीजेपी और कांग्रेस में कोई खास अंतर नहीं है,
दोनों की आर्थिक नीतियां एक सी हैं, केवल साम्प्रदायिकता
को लेकर की जाने वाली राजनीति पर दोनों के रुख में अंतर है| कांग्रेस की न्यूनतम
आय गारंटी योजना आमजनों के मध्य फ़ैली इसी सोच को बदलने का काम करेगी| जो लोग यह
पूछते थे कि राहुल गांधी के पास देश की आर्थिक नीतियों को लेकर कोई दृष्टि है
क्या? किसानों की ऋण माफी, ‘न्याय’, उसका जबाब है| शायद इसीलिए कांग्रेस को, किसी भी गठबंधन में
जो उसको बराबर का तवज्जो न दे, शामिल होने की कोई इच्छा नहीं है|
जिस दिन से
कांग्रेस अध्यक्ष ने न्यूनतम आय गारंटी योजना कि घोषणा कि है दो प्रश्न प्रमुख रूप
से पूछे जा रहे हैं| उनमें से पहला प्रश्न है कि इस योजना में जो लगभग 3.5 लाख करोड़
रुपये का खर्च आएगा, वह कहाँ से आएगा? आश्चर्यजनक बात यह है की जो लोग आज इस सवाल
को उठा रहे हैं, उन्होंने यह सवाल एक माह पूर्व तब नहीं उठाया जब अंतरिम बजट पेश
करते हुए वित्त मंत्री ने लगभग 12 करोड़ किसानों को 6000/- सालान मुफ्त देने की
घोषणा की थी| बहरहाल, इस प्रश्न पर विचार करने से पहले, हमें एक बात याद करनी होगी
कि स्वतंत्रता के बाद से लेकर 1991 तक भारत में जिन आर्थिक नीतियों पर चला जा रहा
था, वे लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित थीं| देश के अंदर पूंजीवादी
व्यवस्था के होने के बावजूद सरकारों की नीतियां समाज के कमजोर तबकों को नीचे से
मजबूत बनाने की थीं| यह 1991 के बाद, पूरी तरह से नवउदारवाद के रास्ते पर चलने के
बाद, हुआ कि समाज के निचले तबकों को मिलने वाली टेक्स में छूटें, सबसीडी, का रुख
निचले तबके से मोड़कर कारपोरेट की तरफ कर दिया गया| इसके पीछे पूंजीवादी
अर्थशास्त्रियों का पुराना सिद्धांत था कि उद्योगपतियों और बड़े व्यवसाइयों के पास
पैसा पहुंचाने से वह धीरे धीरे रिस कर समाज के निचले तबके तक पहुँचता है| रोजगार
की योजनाएं, स्वास्थ्य और शिक्षा की योजनाओं, कृषी संबंधित योजनाओं जसिए फसल बीमा
इत्यादि में इस तरह परिवर्तन लाया गया कि वे कल्याण का साधन कम और पूंजीपतियों के
लिए मुनाफ़ा बटोरने का साधन अधिक बनती गईं| पिछले 18 वर्षों में हमने देखा है कि
कारपोरेट जगत को कस्टम ड्यूटी में जितनी भी छूट सरकार ने यह सोचकर दी कि वह कीमतों
में कमी के रूप में आम लोगों तक पहुंचेगी, उसका एक पैसा का भी फायदा कारपोरेट ने
आम लोगों को नहीं दिया और उस छूट को भी मुनाफे में बदलकर हजम कर लिया| इसके अलावा
आज बैंकों का जो लगभग 9 लाख करोड़ रूपये का डूबत खाते का ऋण (NPA) है, वह भी देश के
इन्हीं धन्ना सेठों के पास है, जिनमें माल्या और नीरव मोदी जैसे भी कारपोरेट शामिल
हैं, जो देश छोड़कर भाग गए हैं| इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों में हमने
अपने यहां संपत्ति कर, उपहार कर इत्यादी समाप्त किया है, जबकि इन वर्षों में भारत में संपत्ति काफी
बढ़ी है। हमारे यहाँ 100 से ज्यादा तो अरबपति हैं, जिनकी पिछले वर्ष संपत्ति लगभग
2200 करोड़ रुपये प्रतिदिन बड़ी है। सोचने वाली बात है कि यह कैसे संभव है कि
देश में केवल 76 लाख लोग अपनी आय पांच लाख रुपये से अधिक
बताते हैं और इनमें भी 56 लाख लोग वेतनभोगी हैं? अब इन आधारों
पर सोचें तो क्या हमारे देश के पास संसाधनों की कमी है? क्या जैसी की आशंका जताई
जा रही है कि मध्यवर्ग के ऊपर टेक्स का बोझ लादा जाना चाहिये? क्या सरकार को उसके
उपक्रमों या दूसरी संपत्तियों को बेचने की जरुरत पड़ेगी? इन सभी आशंकाओं का एक ही
जबाब हो सकता है और वह है एक बड़ा न! यदि सरकार संपत्ति कर के
रूप में केवल आधा प्रतिशत भी टेक्स लगाती है तो चार –पांच लाख करोड़ रुपये सरकार के
कोष में आ सकते हैं| यदि सरकार शीर्ष के केवल चार-पांच प्रतिशत धनाड्यों पर भी ये
टेक्स लगाती है तो 3 लाख रुपये आसानी से सरकार के कोष में आ जायेंगे और अरबपतियों
को भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा|
दूसरा प्रमुख
प्रश्न है कि क्या इस योजना से गरीबों का जीवन बदल जाएगा? एक बात तो तय है कि जब
देश का मजदूर आंदोलन असंगठित क्षेत्र के कर्मियों के लिए लंबे समय से 18000/-
प्रतिमाह वेतन की मांग कर रहा है तो एक परिवार की आय के स्तर को 12000/- के स्तर
तक ऊपर उठाने से गरीबों के जीवन में कोई आमूल-चूल परिवर्तन कि अपेक्षा नहीं की जा
सकती है| वैसे भी हमारे देश में गरीबी के पैमाने का निर्धारण ऐसा है कि गरीबी की
रेखा से नीचे बमुश्किल वे ही आ पाते हैं जो लगभग भूखे अथवा एक समय ही खाकर गुजारा
करने वाले होते हैं| इसके बावजूद यदि नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ट्वीट करके
कहते हैं कि ‘न्याय’ योजना तो चांद लाकर
देने जैसा वादा है| इस अव्यवहारिक योजना से देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी|
सरकारी खजाने को जो घाटा होगा, उसे पूरा नहीं
किया जा सकेगा| तो, यह इस बात का प्रमाण है कि इस योजना से बीपीएल के नीचे गुजर
बसर करने वाले परिवारों को कितनी बड़ी आर्थिक मदद मिलने जा रही है| इतना ही नहीं
यदि यह योजना ठीक तरीके से मोनीटर की गई तो देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी एक बहुत
बड़े सहारे के रूप में काम करेगी|
उच्च वर्ग अपना अतिरिक्त पैसा शान-शौकत पर और
उड़ाने-खाने में खर्च करता है| मध्यवर्ग स्थायी उपभोक्ता सामग्री और जमीन तथा सोना
खरीदने में खर्च करता है| इसे एक प्रकार से पैसे को जाम करना भी कह सकते हैं| जबकि,
गरीब अपना धन जरूरत का सामान खरीदने पर खर्च करता है| इससे
लघु उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा|
जो लघु उद्योग मोदी जी के नोटबंदी की वजह से बंद हुए या
बीमार हुए, उनमें चमक आ जायेगी| रोजगार जो, 2017-18 में घटा और लोगों की नौकरियाँ
खा गया, उसमें बढोत्तरी होगी| लघु उद्योगों की मांग से बड़े उद्योगों की भी उत्पादकता
बढ़ेगी|
दरअसल 72000 रुपये की कम से कम आय की जो बात है, वह पैसा गरीबों के माध्यम से बाज़ार
में तरलता (रूपये) पहुंचाने की बड़ी कोशिश के रूप में बाजार में उठाव लाने और उसके
दायरे में गरीबों के बड़े हिस्से को शामिल करने के रूप में देखा जाना चाहिये| इसका
दूसरा फायदा होगा कि न्यूनतम वेतन में भी जबरदस्त उछाल आएगा| 12000 रुपये से कम आमदनी वाले गरीबों को तो फायदा होगा ही देश में जिसे भी
कर्मचारी की ज़रूरत होगी वो कम से कम 12000/- न्यूनतम वेतन देने पर मजबूर होगा| सीधी
सी बात है 12000 रुपये
से कम पर काम करने से आदमी घर बैठना बेहतर समझेगा| हम यह यूपीए सरकार की मनरेगा
योजना लागु होने पर देख चुके हैं कि किस तरह इस योजना ने ग्रामीण मजदूरों की
न्यूनतम मजदूरी में इजाफा किया था|
इसका नतीजा
ये होगा कि देश में आम लोगों का जीवन बदल जाएगा| एक तरफ 12000 रुपये महीने की कम से कम आमदनी होने से कारोबार बढ़ेंगे दूसरी तरफ इससे
ज्यादा कमाने वालों की आमदनी में भी सुधार होगा और ये पैसा सीधे बाज़ार को मजबूती
देगा| भारत कि सरकारें पिछले तीन दशकों से उद्योगों को जो रकम प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्ष रूप से देती है उसके मुकाबले ये रकम काफी कम है लेकिन उद्योगों को गति
देने में इसका योगदान उद्योगों को प्रत्यक्ष सरकारी सहायता देने से, जिसे
मनमोहनसिंह ने स्वयं मित्र-पूंजीवाद(Crony Capatilism) कहा था, बहुत अधिक
होगा|
असमानता को
कम करने के लिए पूंजीवादी सरकारें एक ना एक तरीके से गरीबों तक पैसा पहुंचाती हैं|
सड़क और पुल बनाने या रियल स्टेट जैसे कारोबार को बढ़ावा देने के लिए सरकारें नीति
बनाती हैं जिनसे गरीबों को काम मिले. यूपीए सरकार मनरेगा योजना इसी नीयत से लाई थी|
राहुल गांधी अगर ये योजना लाते हैं तो दुनिया के सामने मिसाल बनेगी| उद्योगों और
कारोबारों को समाज में धन बढ़ने के कारण भारी फायदा होगा| माल की डिमांड बढ़ने के
कारण दाम अच्छे मिलेंगे| जीडीपी में जबरदस्त उछाल आएगा| डिमांड बढ़ने से महंगाई
बढ़ेगी तो उद्योग और बढ़ेंगे|
सबसे बड़ी
बात यह है कि इस रास्ते पर दृण इच्छा
शक्ति के साथ चला जाये| पिछले तीन दशक के नवउदारवादी रास्ते का अनुभव
अच्छा नहीं रहा है| जरूरत है सोच और नीतियों में बदलाव लाने
की और यदि यह योजना चरणबद्ध तरीके से चलाई जाती है तो बहुत ही प्रभावशाली होगी,
जैसी की मनरेगा थी, जिसे मोदी जी ने कांग्रेस की विफलता का स्मारक बताया था, लेकिन
वही कांग्रेस को 2009 में वापस लाई थी| राहुल गांधी ने कहा कि ‘हमने योजना पर कई
अर्थशास्त्रियों से विचार विमर्श किया है| पूरा आकलन कर लिया गया है| सब कुछ तय कर
लिया गया है|’ उन्होंने कहा कि इससे पांच करोड़ परिवार यानी 25 करोड़ लोगों को फायदा होगा| लेकिन फायदा 25 करोड़
लोगों तक ही नहीं रुकेगा| अब देखना केवल यह है कि देश के लोग ऐसी बहु-आयामी योजना
पर कितना विश्वास जताते हैं और फिर यदि कांग्रेस सरकार में आती है तो इस पर कितनी सच्चाई
और कितनी राजनीतिक इच्छा-शक्ति के साथ अमल करती है? यदि ऐसा हुआ तो मोदी राज में ‘विश्व
हेप्पी लिस्ट’ में पायदान दर पायदान नीचे खिसकते जा रहे इंडिया के चेहरे पर कुछ ‘हेप्पीनेस’
तो आ ही सकती है| ‘न्याय’ से न्याय की उम्मीद बेमानी नहीं है|
अरुण कान्त
शुक्ला
28/3/2019
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