राहुल गांधी की
आजकल कुछ तारीफें हो रही है और कहा जा रहा है कि वे विपक्ष के सशक्त नेता और भावी
प्रधानमंत्री के रूप में उभर रहे हैं । उसी सांस में तारीफ़ करने वाले यह भी कहते
हैं कि राहुल गांधी देश की किसी बड़ी समस्या के बारे में कुछ नहीं बोलते। उनके पास
न तो कोई विचार दृष्टि है, न योजना है, न कोई कार्यक्रम
है, न कोई रणनीति है जो गर्त में पड़े देश को उबार सके। वे केवल भाजपा की असफलताओं
पर प्रहार कर सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। उसी तरह जैसे भाजपा ने कांग्रेस की
असफलताओं को एक बड़ा मुद्दा बनाया था। इस तरह राहुल
गांधी के प्रशंसक हों या आलोचक यह तो मान लेते हैं कि जब वर्तमान प्रधानमंत्री 2014 के आम चुनावों के लिए भारत भ्रमण
पर थे तो उनके पास भी भारत के आर्थिक-सामाजिक ढाँचे में बुनियादी परिवर्तन लाने की
कोई विचार दृष्टि नहीं थी| पर, वे यह भूल जाते हैं कि सामाजिक स्तर पर भाजपा के
पास आरएसएस की वह विचारधारा थी, जिसे वह अटल काल में तमाम कोशिशों के बावजूद उतनी
उग्रता के साथ लागू नहीं कर पाई थी, जितनी उग्रता के साथ आज लागू करने की कोशिशें
हो रही हैं| दूसरी बात जो कही जाती है वह है कि अगले चुनाव में यदि सत्ता राहुल गांधी के
पास आ भी गई तो देश का केवल इतना ही भला होगा की 'हार्ड हिंदुत्व' के स्थान पर 'सॉफ्ट हिंदुत्व' लागू हो जाएगा। बाकी सब जैसे का तैसा ही रहेगा। कारपोरेट को फायदा पहुंचाने
वाली नीतियां कांग्रेस भी बनाती रही है और भाजपा ने भी बनाई है । इनमें से कोई भी
दल सत्ता में आएगा तो कारपोरेट को फायदा होगा और साधारण आदमी का जीवन संकट में
रहेगा।
आम लोगों से
लेकर बुद्धिजीवियों तक के बीच बन रही इस धारणा पर मैं उनकी कोई आलोचना नहीं करना
चाहता| इस धारणा के
बनने के पीछे सबसे बड़ा और मुख्य कारण यह है कि पिछले लगभग डेढ़ दशक की समयाविधी में भारत के मजदूर
आन्दोलनों से लेकर जन आन्दोलनों तक से विश्व बैंक, आईएमएफ और विश्व व्यापार की
खिलाफत के जरिये साम्राज्यवाद के खिलाफ, जिसे हम मोटे तौर पर कह सकते हैं कि
अमेरिकन नीतियों के खिलाफ, चलने वाला संघर्ष फौरी श्रम विरोधी नीतियों और जनविरोधी
नीतियों की खिलाफत के साथ, तुरंत कुछ राहत पाने के संघर्ष के आसपास सिमिट कर रह
गया है| जन सामान्य ने चेतन और अवचेतन दोनों में यह बुझे मन से ही सही पर मान लिया
कि 1991 में रोपी गईं नवउदारवाद की नीतियों का हाल फिलहाल कोई
विकल्प नहीं है| इसीलिए, सरकार की नीतियों के खिलाफ उनकी आलोचना-समालोचना भी उसी
के अनुसार फौरिया होती है| बुद्धिजीवियों और जनमानस के बीच बनी इस धारणा को बनाने
में सबसे ज्यादा मदद की २००७ में अमेरिका के साथ हुए न्यूक्लियर समझौते ने जिसका
पुरजोर विरोध करते हुए वामपंथी दलों ने यूपीए दो से अपना समर्थन वापिस लिया था और
तबकी मुलायम के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी ने समर्थन देकर बचाया था| अब इस तथ्य
के साथ हम राहुल गांधी या कांग्रेस और वर्तमान सरकार के लिए की जा रही टिप्पणियों
पर गौर करें तो हमें राहुल या कांग्रेस और मोदी या भाजपा की नीतियों पर गौर करने
में आसानी होगी और शायद कुछ ऐसे तथ्य भी निकल कर आयें जो हमें सोचने के लिए मजबूर
करें|
यह केवल 1995 तथा उसके बाद 1999 तक के चुनाव तक
ही था, जब नीतियों के आधार पर आलोचना और चुने जाने के लिए अपील होती थी| उसके बाद के सारे आम चुनाव उन असफलताओं को भुनाकर जीते गए, जो नवउदारवाद की उन नीतियों के परिणाम हैं, जिन्हें मनमोहन
सिंह 1991 से 1995 के बीच बो गए
थे| 1994 के बाद देश पूरी तरह विश्व व्यापार
संगठन के हाथों में चला गया और किसी को कितना भी बुरा लगे, देशप्रेम उफान मारे या राष्ट्रप्रेम उमड़े, सच्चाई यही है
कि भारत की खुद की कोई आर्थिक नीति, शिक्षा नीति, स्वास्थ्य नीति, नहीं है| इसीलिये, सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का, कोई भी नेता आज
केवल भड़काने वाले और एक दूसरे को भ्रष्ट ठहराने वाले मुद्दों पर ही बोलता है या
फिर धर्म, संस्कृति जैसे खोखले मुद्दे लेकर बैठ जाता है, जिनसे इस देश के ९०% लोगों का
कोई वास्ता नहीं है| इसमें राहुल गांधी से यह अपेक्षा कि वे
कोई नीति कांग्रेस की बताएँगे, शायद ज्यादती है|
फिर, क्या, कांग्रेस और भाजपा में केवल हिदुतत्व और साफ्ट हिन्दुतत्व का ही अंतर है? इस पर विचार और मंथन करके ही राय बनानी होगी, नहीं तो फिर
वही गलती दोहराई जायेगी, जो 1999 में तथा 2014 में की गयी है| भाजपा और कांग्रेस में एक बुनियादी अंतर, हिदुतत्व के
प्रश्न के इतर यह भी है कि कांग्रेस देश के स्वतंत्रता संग्राम से निकली पार्टी है
और तमाम वैश्विक दबावों के बावजूद वह देश के आम लोगों तथा निचले तबके के प्रति
अपनी जिम्मेदारी समझती है और उससे मुकरती नहीं, पूरा करती है| यहाँ सिर्फ एक दो उदाहरण देकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा| 1991से 1995 के मध्य, वित्तमंत्री
रहते हुए मनामोहम सिंह ने अथक प्रयत्न किये कि आर्थिक नीतियों में कुछ मूलभूत
परिवर्तन हो जाएँ, जैसे सार्वजनिक बीमा क्षेत्र का निजीकरण, रुपये को पूर्ण परिवर्तनशील बनाना ताकि विदेशी पूंजी अपना मुनाफ़ा बाहर भेज सके, थोक या खुदरा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की पूंजी का विनिवेश, पेट्रोल को पूर्णता: बाजार पर छोड़ना, एवं अन्य कई, पर वे चाह कर भी ऐसा नहीं कर सके, क्योंकि
कांग्रेस पार्टी ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी| इसके बरक्स 1999 से 2004 के बीच का समय
देखिये, वे अधिकाँश काम अटल सरकार ने किये और जो
बचे वे मोदी सरकार ने किये हैं, यूपीए सरकार ने नहीं| यूपीए के दोनों कार्यकाल में मनरेगा, भोजन का अधिकार, आरटी आई, स्वास्थ्य के क्षेत्र में राज्यों को
मदद देकर स्मार्ट कार्ड, शिक्षा का अधिकार, जैसी योजनाएं, चालू की गईं| नीति किसी भी गैर वामपंथी पार्टी के पास
नहीं है| वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और
विश्व व्यापार संगठन के बताए रास्ते पर चलना उनकी अंतर्राष्ट्रीय मजबूरी है| पर, कांग्रेस के पास जमीन से जुड़े आदमी
के लिए संवेदना है, जो उसे भाजपा से अलग करती है, हिन्दुतत्व से भी इतर| यदि आप इसे विकल्प नहीं मानेंगे तो
भाजपा का विरोध करने का या उसे कोसने का कोई अर्थ नहीं है| आपको देश वासियों के लिए एक संवेदनात्मक और यथार्थवादी सरकार चुनना है या एक
लफ्फाजी, धर्म तथा जाती के आधार पर भेदभाव करने वाली, कुशासन और अराजकता से भरी हुई सरकार
चुनना है, इन दोनों के बीच जो निर्णय आप लेंगे, उसी पर कांग्रेस
को कोसना चाहिए या नहीं, या यह समय राहुल के गुणदोष देखने का है
या नहीं, यह निर्भर करेगा|
हमारे देश के
लोकतंत्र में पार्टी के प्रतिनिधी चुने जाते हैं, प्रधानमंत्री
नहीं| भाजपा ने इसे पहले मोदी विरुद्ध मनमोहनसिंह और
अब मोदी विरुद्ध राहुल गांधी बना दिया है| संसदीय लोकतंत्र में व्यक्ति विशेष को सामने
रखकर वोट देने के बाद पार्टी का तो रोल ही खत्म हो जाता है| वे यही चाहते हैं कि
लोग कांग्रेस को वोट राहुल को देखकर दें, कांग्रेस को देखकर नहीं| उन्हें राहुल
में एक कमजोर व्यक्तित्व नजर आता है| यद्यपि सामूहिक नेतृत्व में व्यक्ति का
व्यक्तित्व कोई मायने नहीं रखता| यही कारण है कि प्रारंभ से वे राहुल के लिए तमाम अपशब्दों और खिल्ली उड़ाने
वाले शब्दों का प्रयोग करते रहे हैं| एक बात ध्यान
में रखने योग्य है कि व्यक्ति देश को केवल फासीवाद और तानाशाही ही दे सकते हैं और
दल आधारित पार्टी में व्यक्ति नहीं पार्टी ही प्रमुख होती है|
यह हम देख चुके
हैं, जब अनेक ऐसे कार्यों के लिए कांग्रेस की अनुमति प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को
नहीं मिली तो उन्हें सोनिया का गुड्डा या पूडल बुलाया गया | व्यक्तियों की
खिल्ली उड़ाकर भावनाओं को भड़काना गंभीर राजनीतिक अपराध है, जिसका संज्ञान केवल देश
का प्रबुद्ध ही लेकर उसका विरोध कर सकता है और आम लोगों को भी समझा सकता है| देश एक गंभीर संकट से गुजर रहा है, इसे समझेंगे तो आने वाली पीढियां शायद कम परेशान होंगी और नहीं तो अतीत की
गलतियों को तो वर्तमान को ढोना ही पड़ता है, वे ढोयेंगी |
अरुण कान्त शुक्ला
17/10/2018
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