दक्षिण पूर्व एशियन देशों के संघ की 13 नवम्बर को मनीला में
अमेरिकन प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प के साथ हुई बैठक के पहले जो कुछ प्रधानमंत्री
ने कहा देश के समाचार पत्रों, मीडिया चेनलों और यहाँ तक कि राजनीतिक दलों ने भी
भले ही उसे कोई तवज्जो नहीं दी है, पर वह चिंतित करने वाला जरुर है| इसमें कोई शक
नहीं कि पिछले तीन दशकों में और विशेषकर 2007-08 में हुए न्यूक्लीयर
समझौते के बाद से भारत की विदेश नीति में अमेरिका के साथ संबंधों में व्यापक बदलाव
आया है| उसके बावजूद भी प्रधानमंत्री तो दूर की बात भारत के किसी राजनयिक की भी
भाषा अमेरिका के प्रति इतनी प्रतिबद्ध और समर्पणकारी नहीं रही| मनीला में बैठक के
पहले प्रधानमंत्री ने जो कहा उसका हिन्दी रूपांतरण यह है कि “भारत-अमेरिकी संबंध
व्यापक तथा और गहरे हो रहे हैं और आप स्वयं महसूस कर सकते हैं कि ये संबंध अमेरिका
के साथ भारत के हितों से ऊपर उठकर, एशिया के भविष्य और विश्व में मानवता की भलाई
के लिए कार्य कर सकते हैं”| यह उस अमेरिका के बारे में कहा जा रहा है, जिसके
ट्रम्प राष्ट्रपति हैं और इनका नारा है कि अमेरिका सिर्फ अमेरिकियों के लिए| उनके
राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका की सारी वैश्विक और अन्दुरुनी नीतियाँ इसी के
आधार पर तय हो रही हैं| प्रधानमंत्री उपरोक्त बयान देने के बाद रुके नहीं| उन्होंने
भारत की ओर से अमेरिका के वैश्विक राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने का वायदा ही कर
डाला| उन्होंने आगे कहा कि “मैं आश्वस्त करता हूँ कि भारत अपने सबसे अच्छे प्रयत्न
करेगा कि वह उन आशाओं को पूरा करे जो अमेरिका और विश्व उससे करते हैं”| निश्चित ही
उपरोक्त दोनों कथनों में सन्दर्भ में एशिया और विश्व वह एशिया और विश्व नहीं है
जिसे हम जानते हैं या जैसा हम चाहते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री उस एशिया और विश्व की
बात कर रहे थे जैसा डोनाल्ड ट्रम्प चाहते हैं|
बावजूद इस तथ्य के पिछले दो दशकों में भारतीय विदेश नीति और
संपन्न तबके के भारतीयों में अमेरिका के प्रति रुझान बढ़ा है और व्यापारिक से लेकर
सैन्य तक सभी प्रकार के समझौते किये गए है, पर, ऐसा कभी नहीं हुआ कि इस तरह का कोई
भी आश्वासन किसी प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या राजनयिक ने दिया हो| भारत एक
सार्वभौमिक राष्ट्र है और आर्थिक, सामाजिक, वैश्विक मामलों में स्वालंबन हमारी
हमेशा विशेषता रही है| यदि हम याद करें तो स्वयं प्रधानमंत्री 2014 में जब चुनाव
प्रचार में थे तो अनेक बार उन्होंने भारत की विदेश नीति के बारे में बोलते हुए कहा
था कि आवश्यकता भारत को दूसरे देशों के साथ आँख में आँख डालकर बात करने की है| आज
जब वे अमेरिका की उम्मीदों पर खरा उतरने का आश्वासन दे रहे हैं तो चिंतनीय यह है
कि उस ट्रम्प का अमेरिका है जो आज विश्व शान्ति के लिए सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है
और विश्व में जलवायु और पर्यावरणीय खतरे के प्रति एक देश के रूप में गैरजिम्मेदार
देश सिद्ध हुआ है| प्रधानमंत्री एक ऐसे राष्ट्रपति के सामने आश्वासन परोस रहे हैं,
जिसके स्वयं के उपर नैतिक और चुनावी जांचें चल रही हैं और हो सकता है निकट भविष्य
में उसे अमेरिका में महा-अभियोग का सामना करना पड़े|
बेहतर होता प्रधानमंत्री ने मनीला में उसी वक्तव्य में अपना
अभिप्राय स्पष्ट कर दिया होता तथा अमेरिका
को किस प्रकार की आशाएं भारत से हैं, वह भी स्पष्ट कर दिया होता| अमेरिका की तमाम
धन और सैन्य ताकत से प्रभावित (डरने) के बावजूद यह ऐतिहासिक सच्चाई आज भी बनी हुई
है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका की छवि दूसरे देशों में अशांति फैलाने
वाले, आपराधिक गतिविधियों के बढ़ावा देने वाले, युद्ध थोपने वाले राष्ट्र की है और
उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है| एशिया तथा अरब बेल्ट के देश इसके सबसे ज्यादा
शिकार हुए हैं| किसी से छिपा नहीं रहा है कि अमेरिका की आशाओं या अमेरिका की
वैश्विक आशाओं का मतलब एकाधिकारवादी और आपराधिक व्यक्तियों और ताकतों को एशिया तथा
अरब देशों में सत्ता में स्थापित करना होता है जैसा हमने पाकिस्तान, सऊदी अरब, जॉर्डन,
ईजराईल और अन्य देशों में देखा है| ईस्लामिक स्टेट और तालिबान बनाने वाला अमेरिका
ही है| अमेरिका की वैश्विक राजनीति का केवल एक ही मकसद होता है कि पश्चिम, एशियन
और अरब देशों में जो लूट मचा रहा है, उसकी तरफ से सारा ध्यान हटाकर यहाँ के देश
सिर्फ इस्लामिक आतंकवाद के बारे में ही सोचें और आपस में लड़ते रहें ताकि अमेरिका
की मिलिट्री इंड्रस्ट्री फलती फूलती रहे| पाकिस्तान हमारा पड़ौसी है और अमेरिका के
या अमेरिका से प्यार की कितनी भारी कीमत उसे चुकानी पड़ रही है, यह हम देख रहे हैं|
विश्व मानवता के लिए, विश्व शान्ति के लिए या संपूर्ण एशिया में शान्ति, एकता,
सौहाद्र और आर्थिक सहयोग के लिए आगे बढ़कर कार्य करने में कोई बुराई नहीं, पर फिर
उसके लिए अमेरिकी आशाओं पर खरा उतरने की बात करना और अमेरिका को आश्वस्त करना किसी
भी प्रकार से देश हितेषी स्वाभिमानी विदेश नीति तो नहीं ही है| यह, आँख में आँख
डालकर याने निगाहें मिलाकर बात करना भी नहीं है| भारत और भारतीयों की भावनायें
इससे भी आहत होती हैं|
अरुण कान्त शुक्ला,
21/11/20
No comments:
Post a Comment