हाल ही में यह
देखने में आ रहा है कि सोशल मीडिया में सक्रिय अनेक वामपंथी कार्यकर्ता और झुकाव
रखने वाले लोग वर्तमान सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते समय उसी सांस में
कांग्रेस को भी बराबर से कठघरे में रखने का प्रयास करते हैं| इसमें न तो कुछ गलत
है और न ही अचंभित करने वाला क्योंकि देश में नवउदारवाद को जन्म देने वाली और प्रारंभिक
तौर पर लागू करने वाली कांग्रेस सरकार ही रही है| पर, यह शायद रणनीतिक तौर पर सही
लाइन नहीं है| सभी प्रमुख वामपंथी राजनीतिक दल इस बिंदु पर हमेशा ही बहुत स्पष्ट रहे
हैं कि जब प्रश्न आर्थिक नीतियों के साथ साथ लोकतंत्र को बचाने और अधिनायाकत्ववादी
ताकतों को अलग थलग करने के बीच चुनाव का आता है तो प्रमुख संघर्ष लोकतंत्र को
बचाने का होता है और आर्थिक नीतियों के खिलाफ संघर्ष साथ-साथ चलने वाला दूसरी
अहमियत का मसला होता है| मुझे नहीं लगता कि वामपंथियों की इस समझ में कोई बदलाव
वर्तमान परिस्थितियों में आया होगा या उनकी रणनीतिक लाइन इससे कुछ अलग होनी चाहिए|
बहरहाल, वह जो
कुछ भी हो और वामपंथ राजनीति का जो भी फैसला हो, उससे इतर जो बात मैं कहना चाहता
हूँ कि यह कांग्रेस को कोसने का समय नहीं है| यदि हम उन तमाम आर्थिक परिवर्तनों
पर नजर डालें, जो नवउदारवादी दौर में हुए हैं तो पायेंगे कि आम देशवासियों
को जिन परिवर्तनों से बुनियादी नुकसान पहुंचे हैं, मसलन बीमा का
निजीकरण, पेट्रोल को बाजार के हवाले करना, फेरा में मूल बदलाव, विनिवेश के लिए अलग से
मंत्रालय का निर्माण, सिंगल और मल्टीब्रांड में विदेशी कंपनियों को प्रवेश, सेज प्रावधान, सरकारी उपक्रमों
जैसे विदेश संचार निगम को प्राईवेट बनाना, आई टी पार्क स्थापना, अप्रवासी भारतीयों
को भारत की नागरिकता देना, विदेशी निवेश को बढ़ावा देना जैसे अन्य अनेक कार्य अटल जी के कार्यकाल में हुए हैं| मोदी जी श्रम कानूनों में बदलाव, नोटबन्दी, जीएसटी, बुलेट ट्रेन, डिजिटल मार्केट जैसे कामों
में जुटे हैं| इन सभी के लिए देशी विदेशी पूंजी का दबाव था| कांग्रेस
इनमें से अनेक कार्य करने में हिचक रही थी या उसने अत्यंत धीमे चलने की नीति
अख्तियार की थी| इसीलिये कांग्रेस के खिलाफ वातावरण बनाने में देशी-विदेशी पूंजी
ने पूरा जोर लगाया| यह 2014 के लोकसभा के चुनावों में स्पष्ट दिखा|
जहां तक
भ्रष्टाचार का सवाल है, कांग्रेस इसको काबू रखने में नाकामयाब रही, नि:संदेह| पर, भाजपा के इस शासन में या एनडीए के पहले कार्यकाल में यह कम
न था| एक बात जो कभी न भूलने वाली है कि विश्व पूंजीवाद,
नवउदारवाद का चेहरा लेकर 1991 से भारत में नए तेवर में ज्यादा क्रूर और समर्थ होकर
आया है और कांग्रेस ने कहीं न कहीं उसमें थोड़ा ही सही पर विवेक लगाकर उसे लागू
किया| कृषी में सभी असफल रहे क्योंकि यह नवपूंजीवाद का रुख था कि
देश के संसाधनों के ऊपर केवल पूंजीपतियों का कब्जा हो फिर वे चाहें देशी हों या
विदेशी| भूमि के अधिकरण के बिना किसी भी संसाधन पर न तो कब्जा हो
सकता है और न ही उसे बनाया जा सकता है| देश में शहरीकरण के लिए इसीलिये
सभी राज्यों की सरकारें उत्सुक हैं| स्मार्ट सिटी, स्मार्ट गाँव इसी के लिए हैं| इसका विरोध न हो, इसलिए जरुरी है कि किसानी निरंतर हानि में हो और मध्यवर्ग
का विकास हो| सभी नीतियों के नींव में यही है| यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है| अमीर देश ज्यादा क्षतिपूर्ति करते हैं और गरीब देश कम, उनकी औकात के हिसाब से| मध्यवर्ग के विकास में भी
जोर इस पर रहता है कि निम्न और मध्य मध्य वर्ग ज्यादा बढ़े , न कि उच्च और उच्च मध्य वर्ग| कांग्रेस और
भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई अंतर नहीं है, सिवाय उस रफ़्तार और हिचक के
जिसका जिक्र मैंने पहले किया है| इसलिए केवल आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार से कांग्रेस और भाजपा के मध्य तुलना करने से काम
नहीं चलने वाला| मूल में हिंदु राज कायम करने की मंशा याने एक नस्लवादी शासन
का देश में उदय का सवाल है| देश में जाती, सम्प्रदाय, धर्म प्रमुख भूमिका निभाते हैं| यहाँ आकर भी कांग्रेस स्वतंत्रता के बाद से भगवा सेक्युलर
जरुर रही , पर भाजपा से हमेशा बेहतर है क्योंकि वह स्वतंत्रता आन्दोलन
से निकली पार्टी है और उसे उस विरासत को अधिक नुकसान न पहुंचे, इसका हमेशा डर रहता है| पर, एक बात तय है कि हिंदु राज जैसे किसी छिपे लक्ष्य से वह
कोसों दूर है और उसकी भगवा धर्मनिरपेक्षता भी मात्र वोट की खातिर होती है, जो चुनावी मजबूरी है| इसका यह अर्थ नहीं कि
कांग्रेस में सभी सेक्युलर हैं| कट्टर उसमें भी हैं, पर वह इन पर काबू रखना जानती है| इसके ठीक उलट भाजपा है| यह तय है कि भारतीय राजनीति
में अभी या आने वाले लम्बे समय तक कोई भी तीसरा विकल्प देने के लिए तैयार नहीं है| ऐसे में आर्थिक नीतियों या अन्य साम्यताओं को लेकर उसकी इस
कदर आलोचना केवल भाजपा का ही मार्ग सरल करेगी|
सवाल केवल
अर्थव्यवस्था का ही नहीं है|
सवाल लोकतंत्र का भी है, जिसमें आर्थिक नीतियों से लेकर हिन्दूराज तक सब कुछ आता है| मुझे याद आता है, भारतीय जीवन बीमा निगम के निजीकरण के खिलाफ
जब हमने डेढ़ करोड़ हस्ताक्षर आम लोगों के मध्य, घर घर जाकर एकत्रित किये
थे और उन्हें सौंपने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के पास गए थे तो
उन्होंने कहा था "100 करोड़ में से केवल डेढ़ करोड़ लोगों के हस्ताक्षर”| आज वही तर्क दोहराया जा रहा है, पर और भी खतरनाक ईरादों के
साथ कि " 120
करोड़ लोगों की जनसंख्या में सिर्फ एक 'अख़लाक़'
की मौत"| या, नोटबंदी के समय "120 करोड़ लोगों में से कतारबंदी में केवल एक की मौत"|
उस समय जनता उनके साथ नहीं थी| आज उनके प्रायोजित, सिखाये-पढाये समर्थन में बेन्डबाजा लेकर मौजूद हैं|
इतना ही नहीं, वे विरोध करने वालों के लिए हर अस्त्र लेकर घूम रहे हैं , जिसमें प्रताड़ना से लेकर मौत तक सभी सजाएं क़ानून नहीं , उनकी भीड़ तय कर रही है| यह अधिनायकत्व और
लोकतंत्र के बीच किस का अस्तित्व रहेगा, उसका सवाल है| इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस पूर्ण बहुमत पाकर तानाशाह
होती है| पर, यहाँ तो सीधे सीधे अधिनायकत्व को चुन लिया गया है| जहां तक जो विकल्प दे सकते हैं उनके अन्दर एक अजीब ब्यूरोक्रेसी और अहंकार है| उनसे फिलहाल कोई उम्मीद की किरण दूर दूर तक नजर नहीं आ रही
है| यह निराशा या किसी कारण उपजा क्षोभ नहीं, वास्तविकता है| हाँ, देश में अनेक जगह वे पूर्ण ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य
निभा रहे हैं, पर शेष भारत में जनता के साथ उनका कोई संवाद तक नहीं है| जैसा भक्तों का एक समूह भाजपा ने तैयार किया है, वैसा ही एक समूह उन्होंने भी तैयार किया है और उसे भी
संभालना उन्हें नहीं आ रहा है|
बाकी सब तो नक़्शे में हैं ही नहीं| आज नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में कांग्रेस मुक्त भारत की
बात नहीं कर रहे हैं| यह भारत के प्रधानमंत्री हैं जो भारत को कांग्रेस मुक्त
बनाने की बात कर रहे हैं| इसके निहितार्थ को समझना होगा| जैसे ही हम वह समझेंगे
हमें लोकतंत्र के ऊपर मंडराते खतरे की झलक मिल जायेगी| इसीलिये मैं कहता हूँ कि यह
कांग्रेस को कोसने का समय नहीं है| सवाल अधिनायकत्व और लोकतंत्र के बीच किस का
अस्तित्व रहेगा, उसका है?
अरुण कान्त
शुक्ला 7/11/2017
1 comment:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बुजुर्ग दम्पति, डाक्टर की राय और स्वर्ग की सुविधाएं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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