कोसने का नहीं, चिंतन करने का विषय
साक्षी महाराज को
ऐसे ही बोलना था, जैसे वो बोले| साक्षी महाराज ने जो कुछ भी कहा, वह एक सोची समझी रणनीति के तहत सरकार और भाजपा के आलाकमान
की सहमति से ही कहा है| इसीलिये अभी तक किसी के भी तरफ से कोई खंडन या यह उनका व्यक्तिगत
विचार है जैसा कोई बयान नहीं आया है| यहाँ तक कि प्रधानमंत्री, भाजपा अध्यक्ष किसी
ने भी कोर्ट के आदेश के आगे नतमस्तक होना चाहिए, जैसा कोई भी बयान नहीं दिया है|
इसमें सबसे बड़ी मूर्खता इस देश के उन लोगों की है, जो ऐसे बाबाओं और स्वयंभू
भगवानों के चक्कर में पड़ते हैंऔर ऐसे राजनेताओं को राजसत्ता में बिठाते हैं, जो
तार्किक, धर्मनिरपेक्ष, समावेशी ढंग से राज चलाने की अपेक्षा आम लोगों को धर्म,
सम्प्रदाय, जाती के नाम पर उलझाने और लड़ाने का काम करते हैं|
सभी विद्वान, टिप्पणीकार संविधान,
सरकार की निष्क्रियता, प्रशासन की असफलता की बातें कर रहे हैं| पर, कोई भी उन
सैकड़ों परिवारों के बारे में नहीं सोच और बोल रहा, जिन्होंने गुरमीत के बाबापन पर
भरोसा करके अपनी बेटियाँ साध्वी बनाने के लिए उसके हवाले कर दीं थीं| अब समाज में
उन परिवारों और उन साध्वी बनी स्त्रियों का क्या हर्श होगा और उन्हें कितनी
यंत्रणाओं से गुजरना पड़ेगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है| गुरमीत पर फैसला आने के
एक दिन पहले ही तीन तलाक पर फैसला आया था और बाद में खबर आई कि उस मामले को
न्यायालय तक ले जाकर जीत हासिल करने वाली महिलाओं को समाज और परिवार में प्रताड़ित
किया जा रहा है| क्या इन साध्वियों का हाल उससे कुछ अलग होने वाला है? भारतीय समाज
के एक बहुत बड़े हिस्से को इन बाबाओं के जरिये सोची समझी रणनीति के तहत राज्य की
मिलीभगत से दकियानूसी और अन्धविश्वासी बनाकर रखा जा रहा है|
आजादी के बाद से कभी कम, कभी ज्यादा इस अस्त्र का इस्तेमाल लगातार होता रहा
है| 1991 के बाद जब से आम लोगों की तकलीफों में ज्यादा ही इजाफा हुआ है, इस अस्त्र
का इस्तेमाल करके कट्टरवादी ताकतें ज्यादा ही ताकतवर हुई हैं| आज जो लोग सत्ता में
हैं, वे चाहते हैं कि आम लोगों का ध्यान लगातार ऐसी अनर्थक बातों की तरफ उलझाए रखा
जाए, ताकि वे गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, बढ़ती साम्प्रदायिक हिंसा जैसे सवालों पर
सरकार से कोई सवाल नहीं कर पाए| यह आश्चर्यजनक जरुर है कि एक लाख मुसलमानों के सर
काटकर लाने वाले हरियाणा के योग व्यापारी का कोई भी बयान न फरवरी 2016 में आया था
और न ही आज आया है| यह बताता है कि किस तरह बाबाओं के बीच भी सांठ-गांठ है|
स्वतंत्रता के
बाद से अभी तक जितने राजनीतिक दलों ने सत्ता संभाली है या उसमें भागीदारी की है, उनमें कितने राजनेता अभी तक
हुए हैं, जिन्होंने, तथाकथित आस्था, धर्म या बाबाओं सामने समपर्ण नहीं
करके रखा हो| यह भारत के प्रथम नागरिक से लेकर कहीं के
भी नगरनिकाय के पार्षद तक सभी पर लागू
होता है| इसमें अगर मगर न
करें| सभी ने या तो
समर्पण किया है या समर्पण करने वालों का साथ दिया है| कभी यह प्रत्यक्षत: देश के
हिन्दुतत्व को जगाने के लिए किया जाता है तो कभी हिन्दुतत्व को तुष्ट करने के नाम
पर| कभी मुस्लिमों को
भड़काने के लिए तो कभी उन्हें तुष्ट करने के लिए| कभी वोट की राजनीति के लिए और कभी लोगों को अपनी समस्याओं
से बहकाने के लिए| जब तक धर्म, बाबा, फ़कीर, मंदिर, मस्जिद, मजार, हिंदू, मुसलमान, क्रिश्चियन, जाती जैसे मुद्दों को देश की
राजनीति से बाहर नहीं किया जाएगा और इनकी आड़ में उल्लू सीधा करने वालों को आप
राजनीति में अगुआ बनाकर भेजते रहेंगे, तब तक अयोध्या, गुजरात, पंचकुला होते रहेंगे और रामपाल, गुरमीत, आशाराम, नित्यानंद, जैसे ढोंगी राजनेताओं को
अपने चरणों में रखे बैठे रहेंगे|
आप संस्कृति, धर्म, समाजसेवा के नाम पर जितनी
बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी संस्थाओं के अन्दर घुसोगे, उनके अन्दर उतनी ही बड़ी पोल
दिखाई देगी| देशवासियों का
कल्याण और हिफाजत करना राज्य का विषय है| इसमें किसी अन्य व्यक्ति , संस्था के बीच में कूदने की कोई आवश्यकता नहीं है| धर्म व्यक्तिगत मामला है| इसमें बाबाओं के नाम पर
गौरखधंधा करने वालों को तुरंत पकड़कर दंड देने की क्षमता राज्य में होनी चाहिये और
आवश्यकता हो तो ऐसे क़ानून भी बनना चाहिए| यह कोसने का नहीं, चिंतन करने का विषय है|
अरुण कान्त शुक्ला
26 अगस्त 2017
2 comments:
नमस्कार शुक्ला जी... हमें आपका ब्लॉग अच्छा लगा और हम इसे अपने अखबार गाँव कनेक्शन (www.gaonconnection.com) में लेना चाहते हैं। धन्यवाद!
स्वागत है..यह सार्वजनिक है|
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