क्यों नहीं पड़ता
प्रधानमंत्री की अपील का प्रभाव?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
ने एक बार पुन: गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा पर चिंता व्यक्त की है| लोकसभा
अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के द्वारा मानसून सत्र से पहले सभी राजनीतिक दलों की बुलाई
गयी पारंपरिक बैठक के बाद सरकार की तरफ से बोलते हुए केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार
ने बताया कि प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप से कहा है कि गौरक्षा के नाम पर हिंसा ठीक
नहीं है| इसे साम्प्रदायिक रंग देना और इस पर राजनीति करना भी ठीक नहीं है|
प्रशासन और पुलिस प्रशासन राज्य का विषय है और गौरक्षा के नाम पर हिंसा करने वालों
के खिलाफ कठोर कार्रवाई होनी चाहिए| इस समाचार के साथ एक समाचार और छपा कि
लुधियाना में चर्च के पादरी की चर्च के सामने ही दो नकाबपोशों ने गोली मारकर
ह्त्या कर दी| यह पहली बार नहीं है कि प्रधानमंत्री ने इस तरह की हिंसा पर चिंता
व्यक्त की हो| मेरी जानकारी के अनुसार पिछले तीन वर्ष में यह छटवीं बार और पिछले
10 माह में चौथी बार है, जब उन्होंने गौरक्षा के नाम पर की जा रही हिंसा पर
चिन्ताएं जताई हैं| याने शुरू के 27 माह में दो बार और पिछले 10 माह में चौथी बार|
यह दीगर बात है कि उनकी चिंता व्यक्त करने का ढंग हर बार अलग-अलग रहा है| जैसे जब
वे ब्रिटेन के दौरे पर थे तब लन्दन में दोनों देशों के प्रधानमंत्रीयों की आयोजित
पत्रकार वार्ता में एक पत्रकार के द्वारा अख़लाक़ की ह्त्या का हवाल देते हुए सवाल
करने पर कि भारत में साम्प्रदायिकता जोर पकड़ रही है, प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत
बुद्ध और गांधी का देश है और 120 करोड़ लोगों के देश में किसी एक घटना से निष्कर्ष
निकालना ठीक नहीं है| महाराष्ट्र के प्रसिद्ध लेखक और वामपंथी कार्यकर्ता पनसारे
तथा कर्नाटक के प्रसिद्ध लेखक कलबुरगी तथा अख़लाक़ की हत्या के बाद राष्ट्रपति के
द्वारा व्यक्त की गयी चिंता के बाद उन्होंने एक आम सभा में कहा कि आप किसी की बात
मत सुनो, विपक्ष के भी किसी नेता की बात मत सुनो, यहाँ तक कि मेरी, प्रधानमंत्री,
की बात भी मत सुनो, पर राष्ट्रपति की बात तो सुनो| अब ब्रिटेन की महारानी और भारत
के निर्वाचित राष्ट्रपति में कितना फर्क है, यह तो सभी जानते हैं| भारत में
सरकारें, राजनीतिज्ञ राष्ट्रपति की बात कितनी मानते हैं, यह भी सभी जानते हैं| मानसून
सत्र के एक दिन पहले बोले गए उनके उद्गारों के लगभग 20 दिन पूर्व भी उन्होंने
साबरमती आश्रम की स्थापना के अवसर पर आयोजित समारोह में चरखा कातते हुए कहा था कि
गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा ठीक नहीं है और ठीक उसी दिन झारखंड के रामगढ़ में
मांस ले जा रहे एक मुस्लिम ट्रक ड्राईवर की गौरक्षकों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी
थी| इसके कुछ दिनों के बाद ही भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह की बयान आया कि गौरक्षा
के मामले में कांग्रेस के जमाने में ज्यादा हत्याएं होती थीं| यहाँ दो प्रश्न खड़े
होते हैं| पहला यह कि भाजपानीत सरकार कांग्रेस से बद्तर माहोल देने की होड़ में है
या बेहतर| दूसरा कि क्यों नहीं पड़ता प्रधानमंत्री की अपील का प्रभाव?
अब प्रथम प्रश्न याने भाजपा
अध्यक्ष अमित शाह के कथन का कि कांग्रेस के शासनकाल में गौरक्षा के सवाल पर ज्यादा
हत्याएं होती थीं, का जबाब पहले ढूँढने की कोशिश करते हैं| इसके लिए मैंने पिछले
आठ वर्षों (2010-2017) के आंकड़े इंडिया स्पेंड से लिए हैं, जिनमें लगभग 53 माह
कांग्रेस के शासनकाल के हैं और लगभग 38 माह भाजपा शासनकाल के| यह मैं कांग्रेस या
किसी भी राजनीतिक दल के बचाव अथवा उस पर आरोप लगाने के लिए नहीं कर रहा हूँ बल्कि
पूरी कवायद सच्चाई को सामने लाने के लिए है| पिछले 8 वर्षों (2010-2017) में
गौ-रक्षा के नाम पर हुए हिंसक हमलों में से 51% हिंसा का शिकार मुस्लिम हुए थे| 64 घटनाओं में मारे गए 29 भारतीयों में से 25 याने 86% मुस्लिम थे| लगभग 124 लोग घायल हुए
थे| ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन 64 घटनाओं में से 97%
घटनाएं मई 2014 के बाद हुईं, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने| उपरोक्त 64 में से 33 घटनाएं उन राज्यों
में हुईं, जहां भाजपा का शासन है| इनमें से 52% घटनाएं मात्र अफवाह पर हुईं थीं|
64 में से 63 घटनाओं का पिछले तीन वर्षों में होना भाजपाध्यक्ष के कथन को स्वयं
गलत साबित करता है| यह, यह भी साबित करता है कि सत्ता देश में धर्मनिरपेक्षता और
साम्प्रदायिक सद्भाव को कायम रखने के बजाय अपने हिदुत्ववादी एजेंडे को लागू करने
के लिए कृत-संकल्पित है|
अब हम दूसरे और अहं प्रश्न
पर आते हैं कि क्यों प्रधानमंत्री की अपील का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है? ज्यादा अच्छा
यही होगा कि उनके किसी भाषण से ही उनकी कथनी और करनी के अंतर को समझा जाए| मार्च,
2017 में लन्दन में पार्लियामेंट स्ट्रीट पर विश्व के अनेक प्रख्यात विभूतियों के
समकक्ष महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित की गयी, जिसका अनावरण ब्रिटेन के
प्रधानमंत्री केमरून के साथ भारत के वित्तमंत्री अरुण जेटली तथा वॉलीवुड के सितारे
अमिताभ बच्चन ने किया| इस अवसर पर मोदी जी ने एक भाषण भेजा, जिसमें गांधी के प्रति
अपनी श्रद्धा जताते हुए उन्होंने कहा कि उनकी सरकार ने अनेक मुद्दों पर गांधी को
अपना आदर्श बनाया है| भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि भारतीयों और विशेषकर भाजपा
ने गांधी से बहुत कुछ सीखा है| उन्होंने गौ-रक्षा का हवाला देते हुए कहा गांधी के
शब्दों को इस मुद्दे पर दोहराया;
“ गाय की रक्षा के लिए
हिदुओं के द्वारा प्रारंभ कोई भी आन्दोलन की नियति, मुसलमानों के द्वारा दिल से
सहयोग दिए बिना, असफल होना ही है| प्रभावकारी और सम्मानजनक एक ही रास्ता है कि मुसलमानों
के मित्र बनो और गाय की रक्षा का प्रश्न उनके सम्मान पर छोड़ दिया जाए| यह हिदुओं
के लिए सम्मानजनक होगा यदि गौ-वध की समाप्ति किसी बल-प्रयोग से नहीं बल्कि मुस्लिम
समुदाय तथा अन्यों के द्वारा स्वयं छोड़कर ही हो| मैं, इसलिए, इसे देश्द्रोहिता ही
मानूंगा यदि देश में हिदू राज के बारे में सोचा भी जाए|”
“ हिदू धर्म इससे मजबूत
नहीं होगा यदि कोई तानाशाह हथियारों के बल पर गौ-वध पर रोक लगाए|”
“आपको मुस्लिमों के साथ
स्वयं के बराबर नागरिक के सामान व्यवहार करना होगा|”
आगे मोदी जी कहते हैं कि “
गांधी ने पाखंडपन के खिलाफ भी बहुत सी अच्छी बातें कही हैं जिन्हें मैं समय की कमी
के कारण उद्धृत नहीं कर पा रहा हूँ|”
प्रधानमंत्री की इतनी
अपीलों के बाद भी सभी जानते हैं कि शासन के, केंद्र के हों या भाजपा शासित राज्यों
के, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, भाजपा तथा आरएसएस के लोगों द्वारा देश के मुस्लिम,
दलित तथा क्रिश्चियन समाज के खिलाफ फैलाई जा रही घृणा जारी रही और गौरक्षा के नाम
पर किये जा रहे हमलों तथा हत्याओं पर सरकार तथा भाजपा और संघ का मौन जारी रहा, पर
प्रधानमंत्री ने कभी भी अपनी सरकार के मंत्रियों या भाजपा के नेताओं को इस तरह के
व्यक्तव्य देने से नहीं रोका और न ही इस तरह की घटनाओं की निंदा की, उलटे वे मौन
साधे रहे| इसका प्रमाण है कि अपने शासनकाल के प्रथम दो वर्षों में केवल दो बार
उन्होंने इस विषय पर चिंता व्यक्त की| वह भी जब सर पर चुनावों का मौसम हो, जैसा कि
अभी है| साबरमती में बोलते हुए भी गौरक्षा के नाम पर हो रहे शिकार, जिनमें मुस्लिम
या दलित ही ज्यादा हैं, की तुलना अपरोक्ष रूप से उन्होंने कुत्तों को रोटी डालने
से ही की, हाँ, एहितायत के तौर पर इस बार उन्होंने मछलियों को भी साथ ले लिया| जिस
विस्तार के साथ या जिस विश्वास के साथ वे बुद्ध या गांधी का नाम विदेश में लेते
हैं, वह विस्तार और विश्वास उन्होंने भारत में कभी नहीं दिखाया| बुद्ध या गांधी का
नाम देश में लेने का अर्थ है अहिसा, सत्य, शान्ति, प्रेम और सद्भाव के रास्ते पर
चलना| वे जानते हैं कि विदेशों में आज भी भारत को बुद्ध या गांधी के देश के रूप
में ही जाना जाता है और इन दोनों को किनारे करके वे स्वयं की कोई इमेज विदेश में
खड़ी नहीं कर सकते हैं| इसलिए उन्हें विदेश में गांधी विस्तार से याद आते हैं| पर,
देश में उनकी पार्टी को गांधी राष्ट्रपिता नहीं ‘एक चतुर बनिया’ लगते हैं|
अब जिस राजनीतिक दल को
शिक्षा में ही हिदुत्व मिला हो और जिसका अस्तित्व ही धर्म और वर्ण पर टिका हो,
जिसे गौरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं में साम्प्रदायिकता नहीं दिखती हो, उस
राजनीतिक दल के नेतृत्व में चल रही सरकार का मुखिया कितना भी विदेशों में गांधी का
उद्धरण “प्रभावकारी और सम्मानजनक एक ही रास्ता है कि मुसलमानों के मित्र बनो और
गाय की रक्षा का प्रश्न उनके सम्मान पर छोड़ दिया जाए| यह हिदुओं के लिए सम्मानजनक
होगा यदि गौ-वध की समाप्ति किसी बल-प्रयोग से नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय तथा
अन्यों के द्वारा स्वयं छोड़कर ही हो| मैं, इसलिए, इसे देशद्रोहिता ही मानूंगा यदि
देश में हिदू राज के बारे में सोचा भी जाए” दोहराए, देश में उसके अनुयायिओं पर
उसकी अपीलों का असर तो पड़ने से रहा|
अरुण कान्त शुक्ला
20 जुलाई 2017
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