आज देश का पूरा किसान
समुदाय और कृषी क्षेत्र चम्पारण बना हुआ है| वर्ष 1915 में, दक्षिण अफ्रिका में
सत्य, अहिंसा, सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसे हथियारों से रंगभेद के खिलाफ सफल संघर्ष
चलाने के बाद भारत लौटे मोहन दास करमचन्द गांधी के लिए 1917 का चम्पारण सत्याग्रह
अहिंसक प्रतिरोध, तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन के हथियारों को भारत में आजमाने के लिए
प्रथम प्रयोगशाला था| यह 1917-1918 के दौरान गांधी के द्वारा चलाए गए उन तीन
आन्दोलनों में से पहला था, जिसमें गांधी ने नागरिक असहमति को भारतीय राजनीति में
प्रविष्टि के रूप में चिन्हित किया था| 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को तो
अंग्रेजों ने देशी रियासतों की मदद से दबा दिया था, पर, उसके बाद देश में जगह-जगह
किसान आन्दोलन फूट पड़े थे| नील पैदा करने वाले किसानों का विद्रोह, पाबना विद्रोह,
तेभागा आन्दोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह, खेड़ा और अहमदाबाद
सत्याग्रह, मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आन्दोलन के रूप में जाने जाते हैं, जिनका
समय काल 1859 से लेकर आजादी प्राप्त करने तक फैला हुआ है| 1917 तक नील किसानों को
तीनकठिया प्रणाली का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता था| जिसमें उन्हें अपनी
कृषी भूमी के 20 भागों में से तीन भागों पर अनिवार्य रूप से नील की खेती करने के
लिए बाध्य किया जाता था| एक ओर जहां नील की खेती पर लाभ न के बराबर होता था, वहीं
उस पर 40% विभिन्न प्रकार के अवैध उपकर और कर लागू किये जाते थे, जिन्हें अबवाब
कहा जाता था| गांधी जी पूरे एक वर्ष तक चम्पारण और आसपास के इलाके में रहे और उनके
द्वारा चालू किये गए सत्याग्रह ने ब्रिटिश शासन को झुकाया तथा तीनकठिया प्रणाली को
समाप्त करना पडा| गोरे बागान मालिकों को भी आंशिक रूप से उस अवैध धन को वापिस करना
पडा जो उन्होंने किसानों से चूसा था| यद्यपि यह आंशिक रूप से सफल आन्दोलन था पर
इसने उस हथियार की नींव रखी, जिस पर गांधी के नेतृत्व में पूरा राष्ट्र चला|
उन्होंने देशवासियों के, विशेषकर आमजनों के मन से उस भय को समाप्त किया, जो
राष्ट्रीय स्वतंत्रता के रास्ते में बाद में रोड़ा बन सकता था| उनके जीवनी लेखक डी
जी तेंदुलकर के शब्दों में “गांधी जी ने एक हथियार दिया, जिसके द्वारा भारत को
स्वतन्त्र बनाया जा सकता था|”
गांधी जी पहले राजनेता थे
जिन्होंने जनता की शक्ति को पहचाना| वे मानते थे कि आम आदमी यदि सत्यनिष्ठ होकर
अपने अधिकार के लिए संघर्ष करें तो बड़ी से बड़ी शक्ति को भी झुकाने में अधिक समय
नहीं लगता है| वर्तमान समय में भारतीय राजनीति एक दोराहे पर खड़ी है| राजनीति और
राजनेताओं से राजनीतिक स्वच्छता, ईमानदारी, तथा आमजनों के प्रति निष्ठा का तो
स्वतंत्रता के 15 वर्षों के अन्दर ही गायब होना शुरू हो चुका था| पिछले 27 वर्षों
में, विशेषकर 1991 में लागू किये गये नव-उदारवाद के बाद एवं बाबरी मस्जिद के
विध्वंस के बाद से राज्य की निष्ठा देश के आमजनों से हटकर बड़े कारपोरेट्स, बड़े
उद्योगपतियों तथा संपन्न तबके की ओर ही नहीं हुई है बल्कि राजनीति में
साम्प्रदायिक मामलों पर आँखें मूँद लेने की प्रवृति, आर्थिक आत्मनिर्भरता का
रास्ता छोड़कर विदेशी निवेश तथा विश्व बैंक, मुद्राकोष व विश्व व्यापार संगठन के
बताये रास्ते का अनुशरण करने की हो गयी है| इसके फलस्वरूप
किसान-मजदूर-युवा-महिलाएं सभी कुंठा में हैं| आज देश के 8 से अधिक राज्यों में
किसान आन्दोलन फैल चुका है| पिछले 15 वर्षों में 3 लाख से ज्यादा किसान कर्जों में
दबे होने के कारण आत्महत्या कर चुके हैं| पिछले एक माह में ही महाराष्ट्र,
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में 55 से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं| यह अलग बात है
कि सत्याचरण छोड़ चुका शासन इसे कभी स्वीकार नहीं करता कि किसान आत्महत्या कर्जों
में दबे होने के कारण करता है, जैसे कि मध्यप्रदेश के मंदसौर में आंदोलनरत किसानों
पर गोली चलाने के बाद, जिसमें 8 किसानों की मौत हुई, मध्यप्रदेश के गृहमंत्री और
पुलिस दोनों ने मना कर दिया था कि गोली उन्होंने चलाई| बल्कि, दोनों की ओर से एक
अजीबोगरीब बयान आया कि फायरिंग स्वयं किसानों ने खुद के ऊपर की थी|
आज किसान की वास्तविक हालत यह
है कि स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश के 90 लाख किसान परिवारों में से लगभग
70% किसान परिवार का औसतन प्रतिमाह खर्च जो वे कमाते हैं, उससे बहुत ज्यादा है| यह
उनको निरंतर कर्जे में डुबोते जाता है जो उनके आत्महत्या करने का प्रमुख कारण है|
अपनी आय से कम आमदनी वाले इन 63 लाख किसान परिवारों में से लगभग 62.6 लाख वे
परिवार हैं जिनके पास एक हेक्टेयर या उससे कम कृषी-भूमी है| इसके ठीक उलट 0.35
मिलियन (0.39) किसान परिवार जिनके पास 10 हेक्टेयर या उससे ज्यादा कृषी-भूमी है,
उनकी मासिक आय औसतन 41,338/- रुपये है और उनका मासिक खर्च 14,447/- रुपये मात्र
है| यह सभी आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (2013) के हैं| इन छोटे तथा हाशिये पर
पड़े किसानों के पास संस्थागत कर्जों तक पहुँचने लायक साख भी नहीं है|
ऐसे में 2015 में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किसानों की आय दो-गुणा करने की घोषणा तथा उसके
बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा 2016 के बजट में किसानों को देश की रीढ़ की
हड्डी बताना और बजट में अलग से कोई प्रावधान नहीं करना कोरे गाल बजाने के अतिरिक्त
कुछ नहीं है| यह सभी जानते हैं कि जब मोदी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचार कर रहे
थे तब भी और सत्ता में आने के बाद भी सरकार ने स्वयं को कभी भी किसानों अथवा
गरीबों की तरफदार पार्टी या सरकार के रूप में प्रचारित नहीं किया बल्कि उसने स्वयं
को देश के उस उच्चाकांक्षी वर्ग का नुमाईंदा बताया था, जो यह समझता है कि ‘सिर्फ
विकास’ से देश की समस्त समस्याओं का समाधान हो जाएगा| प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि
हमें, उनकी सरकार को, 2022 तक किसानों की आय को दो-गुणा करने का लक्ष्य रखना
चाहिए| प्रधानमंत्री की इस घोषणा का प्रचार तो बहुत हुआ न तो उन्होंने न
वित्तमंत्री ने यह दो-गुणा कैसे होगा को कभी परिभाषित किया| वह तो नीति आयोग के एक
सदस्य, बिबेक देबरॉय, ने एक टेलीविजन साक्षात्कार में स्पष्ट किया कि दो-गुणा का
अर्थ सांकेतिक है, वास्तविक नहीं है| याने, उसमें मुद्रास्फीति के कारण रुपये के
मूल्य की गिरावट की गणना शामिल नहीं है| इस अर्थ में तो बिना किसी घोषणा या लक्ष्य
के भी आय 5 वर्षों में दो-गुणी हो जायेगी| उदाहरण के लिए 2004-05 में कृषी और उससे जुड़े क्षेत्रों से जीडीपी
रुपये 5,65,426 करोड़ रुपये से बढ़कर 2009-10 में बढ़कर 10,83,514 करोड़ रुपये हो गई
थी याने 5,18,088 करोड़ रुपये की बढ़त| लेकिन, रुपये के 2004-2005 में स्थिर मूल्य
याने मुद्रास्फीति को गणना में लेकर आकलन में यही आय 5,65,426 करोड़ रुपये से बढ़कर
मात्र 6,60,897 करोड़ रूपये 2009-10 में हेई थी| इसका अर्थ हुआ कि मात्र वास्तविकता
में केवल 95,471 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी जो दो गुणा से कई गुणा कम है| जबकि इसी मध्य
कृषी क्षेत्र में रोजगार की संख्या 26 करोड़ 80 लाख से घटकर 24 करोड़ 49 लाख रह गयी
थी (सभी आंकड़े इंडिया स्पेंड से) |
भारत में नवउदारवाद
आने के बाद से तो सभी सरकारें जब कृषी संकट की बातें करती हैं तो उनके केंद्र में
वे किसान परिवार नहीं होते, जो कृषी पर आश्रित होते हैं| सरकारों के समाधान
‘उत्पादकता’ और ‘मुनाफे’ पर आधारित होते हैं| हम ऊपर पहले यह बता चुके हैं कि भारत
में 90 लाख किसान परिवारों में से 63 लाख ऐसे परिवार हैं जो गुजारे लायक आय भी
अर्जित नहीं कर पाते हैं| इन छोटे तथा हाशिये पर पड़े किसानों के पास संस्थागत
कर्जों तक पहुँचने की साख भी नहीं होती है और इन्हें बीज, खाद, दवाई, पानी परिवहन
से लेकर कृषी से जुडी प्रत्येक जरुरत के लिए साहूकारों तथा उन अनाज व्यापारियों की
पास जाना पड़ता है जो या तो अनाप-शनाप ब्याज वसूलते हैं या मनमानी कीमत पर उनका
उत्पाद खरीद लेते हैं| शासक, दरअसल, इन छोटे किसानों या हाशिये पर पड़े किसानों को,
जिस तरह का बदलाव वह कृषी क्षेत्र में लाना चाह्ती है, याने खेती का
कारपोरेटाईजेशन, उस रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा समझती है| इसीलिए, इसमें कोई आश्चर्य
नहीं कि इन छोटे तथा हाशिये पर पड़े किसानों की तरफ से सरकार को निरंतर प्रतिरोध,
आन्दोलन का सामना करना पड़ता है|
अब बात चम्पारण सत्याग्रह और
गांधी पर| गांधी जब मोतीहारी पहुंचे और उन्होंने रेल, पैदल, हाथी पर बैठकर उस
क्षेत्र का दौरा किया तो वे वहां जम गए| वे केवल पीड़ित परिवारों से मिलकर और
आश्वासन देकर वहां से वापिस नहीं हुए| उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ एक-एक
परिवार के लोगों की समस्याओं को दर्ज किया और उनके आधार पर मांगे रखीं| जब उन्हें
बिहार ओर विशेषकर मोतीहारी जो उनका मुख्यालय था, छोड़कर जाने के लिए कहा गया तो
उन्होंने जबाब दिया इस देश का नागरिक होने के नाते उन्हें देश में कहीं भी जाने और
रहने का अधिकार है| मैं नहीं जाऊंगा| अशांति फैलाने के आरोप में जब उन्हें
गिरफ्तार किया गया तो उन्होंने जमानत लेने से इंकार कर दिया और जब अदालत उन्हें
बिना किसी मुचलके के जमानत देने की पेशकश की तब भी उन्होंने जमानत पर छूटने से इंकार
किया और सजा की मांग की| अंतत: अदालत को उन्हें बिना शर्त रिहा करना पड़ा| अब इसकी
तुलना हम वर्तमान में चल रहे किसान आन्दोलन से करें तो जब तक महाराष्ट्र,
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में किसान सब्जियां, आलू, टमाटर, दूध सड़कों पर फेंक रहे थे,
न तो केंद्र सरकार न ही राज्य सरकारों ने और न ही राजनीतिक दलों और मीडिया ने उस
आन्दोलन को कोई तवज्जो दी| राजनीतिक नेता दूर से बैठकर गाल बजाते रहे| जब मध्यप्रदेश
के मंदसौर में गोली चली और बड़ी संख्या में किसान मारे गए तब सत्तारूढ़ से लेकर विरोधी
दलों के नेताओं के बीच मंदसोर जाने की दौड़ शुरू हुई| कोई उजागर गया तो किसी ने
छिप-छिपाकर वहां पहुँचने की कोशिश की| गिरफ्तारी हुई, जमानत हुई और पुलिस प्रशासन
की रहनुमाई में पीड़ित परिवारों से मुलाक़ात की| इसमें आश्चर्य की बात यह है कि जिस
सरकार के गृहमंत्री यह कह रहे थे कि गोलियां किसानों ने स्वयं चलाईं, उसी के
मुखिया ने आनन-फानन में दो लाख रुपये मुआवजे की घोषणा भी कर दी| मुख्यमंत्री
शिवराज सिंह शान्ति स्थापना के लिए गांधी की तस्वीर के नीचे बैठकर उपवास करने लगे|
यह किसी को भी समझ नहीं आया कि यह उपवास किसके लिए था| अशांति फैलाने वाले किसानों
के लिए या गोली चलाने वाली पुलिस के लिए? यदि किसानों के खिलाफ था तो वे प्रदेश के
मुख्यमंत्री हैं और बजाय अपनी चम्मच संगठन के साथ बैठकर मामला निपटाने के वे सभी
पक्षों के साथ वार्ता करके इसे पहले ही निपटा सकते थे और यदि यह उपवास पुलिस के
खिलाफ था तो वह उनके ही नियंत्रण में थी और उसे वे पहले ही गोली चलाने के रोक सकते
थे| किसी भी नेता के अन्दर यह इच्छा-शक्ति और नैतिक साहस नहीं था कि वे गांधी के
समान वहां जम जाते और जब तक किसानों की समस्याएँ नहीं सुलझतीं और पीड़ित परिवारों
को न्याय नहीं मिलता, वहीं रहकर आन्दोलन को दिशा देते, आगे बढ़ाते तथा आन्दोलन में
यदि कोई अराजक तत्व थे तो उनसे आन्दोलन को मुक्त कराकर, उसे शांतिपूर्वक आगे
बढ़ाते|
पर, विकास उस दौड़ में,
जिसमें छोटे और हाशिये पर पड़े किसानों को रास्ते का रोड़ा समझा जाता है तथा जिससे
कमोबेश सभी राजनीतिक दल कम या ज्यादा सहमत हैं, यह होना असंभव ही है| गांधी का
दर्शन स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी भारत के सर्व-समावेशी विकास के लक्ष्य की
पूर्ति कर सकता है, इससे पूंजीपतियों और कारपोरेट के पक्षधरों का विश्वास खत्म हो
गया है और गांधी दर्शन का आदर्श अब उनके लिए गाल बजाकर उपयोग करने भर के लिए जरुरी
रह गया है| पर, गांधी आज भी, स्वतंत्रता के 70वर्षों के बाद भी किसानों, वंचितों,
दलितों और अल्पसंख्यकों की लाठी हैं, इसे वे नहीं मानते| गांधी ने देशवासियों के
मन से शासन के आतंक का, चाहे वह विदेशी ही क्यों न हो, भय मिटाया था| उन्हें
शासकीय आतंक के खिलाफ लामबंद किया था| आज देशवासियों को यह स्वयं करना है और
शासकीय आतंक के खिलाफ भय मुक्त होकर लामबंद होना है| शासक वर्ग ने भले ही गांधी को
बिसरा दिया है पर वे आज भी हमारी लाठी हैं|
अरुण कान्त शुक्ला
7 जुलाई 2017
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