पिछले
सप्ताह मंगलवार को शीर्ष न्यायालय द्वारा आई टी की धारा 66A को समाप्त किये जाने के बाद देश के
मीडिया, प्रबुद्ध लोगों और विशेषकर फेसबुक, ट्वीटर, ब्लाग्स जैसे सोशल साईट्स पर जुड़े लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई| यह
स्वाभाविक भी था| समाज में जब जटिलताएं इतनी बढ़ गईं हों की कुछ ताकतें न केवल
राज्य सत्ता से समाज में रहने वालों को नियंत्रित करने की स्थिति में हों बल्कि
राज्य सत्ता से भी स्वतन्त्र होकर वे सभी तबकों को क्या खायेंगे, क्या पहनेंगे,
क्या बोलेंगे, क्या देखेंगे, क्या सोचेंगे, क्या पढेंगे, कैसा आचरण करेंगे, किस
धर्म का पालन करेंगे याने देशवासियों के जीवन के प्रत्येक पहलू को देश के क़ानून और
संविधान को धता बताकर नियंत्रित करने की चेष्टा में हों और राज्य सत्ता निर्विकार,
मूक होकर उन्हें संरक्षण, सुरक्षा, सहायता प्रदान कर रही हो तब शीर्ष न्यायालय का सामान्य
नागरिकों को ‘अपना गुबार’ बाहर निकाल देने का अधिकार बहाल करना भी एक बड़ी खुशी का
कारण बनना अचंभित करने वाली बात नहीं है| तब इस खुशी में किसे याद रहता है कि इसी
मसले के साथ जुड़े दो मामलों में न्यायालय ने यथास्थिति कायम रखी है और आईटी क़ानून
की धारा 69A तथा 79 को कायम रखा है| 69A को कायम रखने का मतलब है सरकार
हमारे निजी संचार, संवाद को निरीक्षण में डाल सकती है, पढ़ सकती है, अवरोधित कर
सकती है और वेबसाईट को ब्लॉक कर सकती है| धारा 79 गूगल जैसे मध्यस्थों पर
आपत्तिजनक ( इसकी परिभाषा इतनी व्यापक है कि आपका प्रत्येक विचार, कमेन्ट इसकी
परिधि में आ सकता है) सामग्री नहीं अपलोड होने की जिम्मेदारी डालती है| एक जानकारी
के अनुसार वर्ष 2014 में ही फेसबुक ने लगभग 10 हजार से उपर के लेखों को प्रकाशित
होने से रोका था| तब इस खुशी में किसे यह याद रहता है कि राजद्रोह और ईशनिंदा जैसे
क़ानून इक्कीसवीं सदी में भारत को ले जाने वालों के राज में, इस डिज़िटल बनते भारत
में, डिज़िटल भारत बनाने वालों के राज में
जैसे के तैसे मौजूद हैं और वे कभी किसी अग्निवेश को या कभी किसी विनायक सेन को
वर्षों तक जेल की चक्की पीसने के लिए मजबूर कर सकते हैं| फिर, अग्निवेश या विनायक
सेन ही क्यों, सोनी सोरेन या अभी हाल में छूटी हिड्मे या बस्तर के जेलों में
राजद्रोह के मामले में बंद सैकड़ों आदिवासी भी हो सकते हैं, जो न राज भक्ति का मतलब
समझते हैं और न राजद्रोह का मतलब समझते हैं| उनके लिए तो उनकी रोटी और मकान, उनका
जंगल और उनकी स्वतंत्रता ही सब कुछ है|
जैसा कि
मैंने ऊपर भी कहा है, समाज में जब जटिलताएं इतनी बढ़ गईं हों की कुछ ताकतें न केवल
राज्य सत्ता से समाज में रहने वालों को नियंत्रित करने की स्थिति में हों बल्कि
राज्य सत्ता से भी स्वतन्त्र होकर वे सभी तबकों को क्या खायेंगे, क्या पहनेंगे,
क्या बोलेंगे, क्या देखेंगे, क्या सोचेंगे, क्या पढेंगे, कैसा आचरण करेंगे, किस
धर्म का पालन करेंगे याने देशवासियों के जीवन के प्रत्येक पहलू को देश के क़ानून और
संविधान को धता बताकर नियंत्रित करने की चेष्टा में हों और राज्य सत्ता निर्विकार,
मूक होकर उन्हें संरक्षण, सुरक्षा, सहायता प्रदान कर रही हो तब शीर्ष न्यायालय का
सामान्य नागरिकों को ‘अपना गुबार’ बाहर निकाल देने का अधिकार बहाल करना भी एक बड़ी
खुशी का कारण बनना अचंभित करने वाली बात नहीं है| यह आज की बात नहीं है| हमारे देश
में जो लोकतंत्र आज है, उसकी स्थापना तब हुई थी जब देश में ब्रिटिश शासन था और तभी
जमींदारी, सामंती और साम्प्रदायिक ताकतों के साथ राज करने के लिए घालमेल किया गया|
समाज पर अंकुश लगाने का सबसे अधिक आसान तरीका यही है कि समाज को धर्म, जाती, भाषा
के आधार पर विभाजित रखो| आर्थिक विभाजन तो समाज के अन्दर एकता पैदा कर सकता है| यह
दुनिया के अनेक कोने में आई समाजवादी क्रान्ति से हमारे ब्रिटिश शासकों ने ही नहीं
सीखा, ये स्वतंत्रता के पश्चात आये देशी शासकों ने भी सीखा और इसीलिये आर्थिक
विषमता को मिटाने की कोशिशें केवल आंसू पोछने तक ही सीमित रहीं| लोकतंत्र के जिस
स्वरूप को आज हम फ्रांस, ब्रिटेन या अमेरिका में देखते हैं, वह भारत में नहीं है|
भारत कहने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है किन्तु सही मायने में कहा जाए तो यह
दलीय लोकतंत्र है| जिस राजनीतिक दल की सरकार है, चाहे वह केंद्र हो या राज्य, उसका
अपनी विचारधारा के आधार पर अपना लोकतंत्र है, जो वे चुनाव में सफलता प्राप्त करने
के बाद देश में लागू करने में जुट जाते हैं| इसीलिये ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’
का दायरा, अधिकार और कारक अलग अलग शासनों में भिन्न भिन्न रूप में हमारे सामने आते
हैं| संविधान, क़ानून कितने ही अधिकार हमें क्यों न दे किन्तु यदि शासन पर
राजा-प्रजा के संबंधों की छाया है तो लोकतांत्रिक अधिकार नागरिकों को केवल
न्यायालय से अनुग्रहित होकर नहीं मिल जाते|
मुझे,
यदि इसके लिए कुछ उदाहरण भी देने हैं तो मुझे अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है| कम
से कम, पांच उदाहरण तो मैं अपने अनुभव से ही दे सकता हूँ| पाँचों उदाहरण यहीं
रायपुर शहर से हैं, जो आज छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी है| पहला उदाहरण तब का है, जब
राजीव गांधी, इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद तीन चौथाई बहुमत के साथ सत्ता में आये
थे और कुछ समय के बाद ही उनका शासन अधिनायकत्व में बदलने लगा था| भ्रष्टाचार के
आरोप से वे घिरने लगे थे और बोफोर्स तथा पनडुब्बी काण्ड सतह पर आ गए थे| तब जीवन
बीमा के पंडरी स्थित कार्यालय में बीमा कर्मचारियों की मंडलीय युनियन के एक सक्रिय
कार्यकर्ता और पदाधिकारी ने एक कार्टून बनाकर युनियन के नोटिस बोर्ड पर लगाया था|
राजीव गांधी का दबदबा तब अपने चरम पर था| किसी तरह, शायद बीमा के इन्टुक के कतिपय
समर्थकों ने यह खबर युवा कांग्रेस और प्रशासन तक पहुंचाई| उसी दिन रात्री में
पोलिस प्रशासन ने पहले मुझे, क्योंकि मैं संगठन का सहसचिव था, आधी रात में घर से
उठाकर पंडरी कार्यालय ले आये और उस पोस्टर को हटाने के लिए दबाव बनाने लगे| रात्री
दो बजे तक जब वे अपने प्रयास में सफल नहीं हुए तो टिकरापारा से संगठन के सचिव बी
सान्याल को रात्री ढाई बजे घर से उठा कर लाये और अंतत: धमकी दिए की आपको गिरफ्तार
कर लिया जाएगा| हमारा स्पष्ट कहना था की यह केवल एक कार्टून है और इसे हटाने के
लिए दबाव डालना या गिरफ्तार करना हमारी अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है| खैर, किसी
तरह सुबह पांच बजे हमें घर जाने दिया गया| मगर, दूसरे दिन जो हुआ, वह किसी भी
न्यायालय और क़ानून से परे अभिव्यक्ति की आजादी पर किया गया हमला था| युवा कांग्रेस
के शहर अध्यक्ष के नेतृत्व में करीब 200 लोगों का एक झुण्ड पोलिस प्रशासन की
देख-रेख में बीमा कार्यालय पहुंचा और मेरे व कार्यालय के चौकीदार ( जो उन्हें भीतर
प्रवेश करने से रोक रहा था) की पिटाई करने के बाद युनियन के नोटिस बोर्ड को तोड़कर
उस कार्टून को निकाल कर ले गया| इस पूरे दरम्यान, कहने की जरुरत नहीं की पोलिस
प्रशासन ने उन हुड़दंगियों को पूरा संरक्षण दिया| रायपुर ही नहीं, प्रदेश और देश के
ट्रेड युनियन आन्दोलन ने इस घटना को गंभीरता पूर्वक लिया और इसके खिलाफ रायपुर में
10 हजार से अधिक कर्मचारियों और मजदूरों ने जुलुस निकालकर अपना प्रतिरोध दर्ज
किया|
दूसरा
उदाहरण बाबरी मस्जिद के विध्वंस से जुड़ा है| बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद सभी
राजनीतिक दलों ने, भाजपा को छोड़कर, दूसरे दिन भारत बंद के तहत रेली निकालने का
कार्यक्रम हाथ में लिया| उन दिनों मैं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का राज्य
समिति सदस्य था| अन्य अनेक लोगों के साथ, जिनमें वामपंथ के जाने माने जुझारू नेता
सुधीर मुखर्जी भी थे, हम शहर के मध्य स्थित शारदा चौक पहुंचे| अचानक, वहां कुछ लोग
आये और मुझे कटुओं का दलाल कहते, माँ, बहन
की गाली देते हुए मारना शुरू कर दिया| मुझसे कुछ आगे सीपीएम जिला समिति के सदस्य
बी सान्याल जा रहे थे| यह देखकर, वे पीछे आये और मुझे बचाने की कोशिश की, जिसमें
उन्हें आँख के पास हल्की चोट आई और चश्मा भी टूट गया| मारने वाले सभी शिवसेना के
लोग थे| तीसरी घटना इसके तुरंत बाद की है| कुछ लोगों का एक जत्था, जो निश्चित ही
शिवसेना का था, जिस क्षेत्र में मैं रहता हूँ, एक ईंट या एक रुपया माँगने निकला|
मैंने मना कर दिया तो लगभग तीन माह तक कार्यालय या कहीं भी आते जाते मुझे न केवल
धमकाया गया बल्कि मेरे घर पर फोन करके मेरी पत्नी और बच्चों के भी धमकाया गया| आज
भी आप पूछेंगे तो मैं उनको धन्यवाद दूंगा कि केवल धमकाया, कोई नुकसान नहीं
पहुंचाया, शायद इसलिए कि सरकार उनकी नहीं थी, वे केवल उभार पर थे| यदि सरकार उनकी
होती तो ग्राहम स्टेन के समान वो मुझे और मेरे बच्चों को जलाकर राख भी कर सकते थे|
चौथी
घटना तब की है, जब देश में अटल जी की सरकार थी| अचानक एक दिन मुझे पता चला कि
कार्यालय में प्रबंधन की तरफ से सरस्वती पूजा की जा रही है| शायद जैसा देश, वैसा
भेष, जो नौकरशाहों की प्रवृति होती है, उसी अनुरूप यह कार्यक्रम आयोजित किया गया
था| क्योंकि, न तो उसके पहले या कभी मेरे नौकरी में रहते, उसके बाद इस पूजा का
आयोजन कभी कार्यालय में किया गया| खैर पूजा शुरू हुर्र और कमोबेश वहां उपस्थित सभी
अधिकारियों ने सरस्वती की फोटो पर माला चड़ाई और पूजा की, जब बारी एक मुस्लिम अधिकारी
की आई तो उन्होंने माला चढ़ाने के पहले जूते उतारे और फिर माला चढ़ाई| जब मेरे बोलने
की बारी आई तो मैंने सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान में इस तरह की पूजा का विरोध
किया| बस क्या था दूसरे दिन शिवसेना का कार्यालय पर धावा हो गया और न केवल मंडल
प्रबंधक का घिराव हुआ, मुझे भी ढूंढकर मारने की कोशिश भी हुई| शहर में कई दिन तक
मेरे पुतले जलाए गए और एक दिन कार्यालय पर हमले के लिए जुलुस की शक्ल में भारी
संख्या में लोग आये| अंतत: प्रबंधन ने न जाने क्या समझौता करके उस मामले को
निपटाया| मेरे कई बार पूछने के बाद भी मुझे क्या समझौता हुआ नहीं बताया गया| पर,
उसके बाद कभी ऐसी कोई पूजा प्रबंधन की तरफ से कभी नहीं आयोजित की गयी| हाँ, हमारे
मशीन विभाग के साथी पहले भी खुद होकर विश्वकर्मा पूजा करते थे और शायद आज भी करते
होंगे, जिसमें प्रबंधन का कोई रोल नहीं होता है| अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर
क़ानून और शासन से इतर राजनीतिक और साम्प्रदायिक शक्तियाँ किस तरह हमला करती हैं,
इसका पांचवां और अंतिम उदाहरण रविन्द्र मंच में आयोजित वह सभा है, जिसमें वृंदा
कारात मुख्य अतिथि के रूप में आईं थीं| इसके कुछ माह पूर्व ही बाबा रामदेव के
कारखानों में श्रमिकों के शोषण का मामला वृंदा कारात ने उजागर किया था, जिसके साथ
रामदेव के उत्पादों में जानवरों की हड्डियों का प्रयोग होता है, ऐसा आरोप वहां के
श्रमिको ने लगाया था| सभा शुरू होते ही वहां शिवसेना के हुड़दंगियों का एक जत्था
पहुंचा और वृंदा कारात को काले झंडे दिखाने के साथ साथ उपस्थित लोगों के साथ
मारपीट करने लगा| पोलिस ने उन्हें भगाया तो जरुर, किन्तु पहले हुड़दंग कर लेने के
बाद| याने, न्यायालय, प्रशासन और राजसत्ता से परे की ताकतें हमारे अभिव्यक्ति के
अधिकार को नियंत्रित करने में राज सत्ता से भी आगे हैं| आप चाहें तो इसमें पूने
में इंजिनियर की ह्त्या, डॉ. नरेंद्र धाबोलकर तथा कामरेड गोविन्द पंसारे की
हत्याओं के मामले भी जोड़ सकते हैं|
स्वतन्त्र
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कभी भी निरपेक्ष नहीं रही और न ही निरपेक्ष रूप
से लोगों को प्राप्त हुई है| लोकतांत्रिक ढाँचे और मूल्यों के साथ अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का सीधा रिश्ता है| पहले भी और आज भी अकसर यह कहा जाता है की लोकतंत्र
के चार स्तंभ हैं| विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया और अब सोशल
साईट्स को पांचवे स्तंभ के रूप में पेश करने की कोशिशें हो रही हैं| एक सरासर झूठ
को बचपन से लेकर बड़े होने तक लोगों के गले में उतारने की कोशिश के सिवा यह कुछ और
नहीं है| लोकतंत्र का आधार है, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा (बंधुत्व)| ये आधार
कहाँ हैं? एक समय था, जब आप उस समय के मद्रास में हिन्दी नहीं बोल सकते थे| आज भी
मुंबई में आप बंबई या बाम्बे नहीं बोल सकते हैं| एम एफ हुसैन को इतनी धमकी मिलती
हैं कि उन्हें देश छोड़ना पड़ता है| अग्निवेश को धमकी दी है की बस्तर आओगे तो जान से
भी हाथ धोना पड़ सकता है| विजातीय पुरी के मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते| इंदिरा
गांधी का पुरी के मंदिर में प्रवेश निषेध था| उदारवाद के दौर में किसानों की जमीन
छीनकर उद्योगपतियों को दी जा रही है जहां वे सेज बनायेंगे, उनकी अपनी पोलिस होगी,
क़ानून होगा, नियम होंगे और जहां सामान्य लोगों का प्रवेश वर्जित होगा| यही हाल
समानता का है| देश के लगभग प्रत्येक शहर में शहर से अलग हटकर नगर-विहार केवल निजी
बिल्डर नहीं सरकारी संस्थाएं भी बना रही हैं, जहां किसानों से कौड़ियों के मोल ली
गई जमीनों पर करोड़ों की लागत वाले भवन बन रहे हैं और शहर का रईस तबका उन
नगरों-विहारों में बस रहा है| याने, सामंती ढाँचे का पुनर्निर्माण जहां अमीर-उमराव
राजा के साथ किले में रहेंगे और श्रमिक-दलित-गरीब जनता किले से बाहर| यही हाल
भाईचारे का है, धार्मिक, जातीय भेदभाव पर बात करना तो ऐसा हो गया है, जैसे बहुत
छोटी बात है| अब तो यह है कि हिन्दू तत्ववादी ताकतें यह कहने से नहीं चूक रहीं कि
कोई भी देशवासी किसी भी धर्म का अनुयायी हो या किसी भी सम्प्रदाय या जाती का हो,
है वह हिन्दू ही| साध्वी निरंजना तो एक कदम आगे हाकर एक नया भेद खड़ा कर रही हैं की
जो भाजपा के हैं वे सब रामजादे हैं और जो भाजपा का नहीं है, वह हरामजादा है| मेरे
कहने का तात्पर्य यह है कि लोकतंत्र दुनिया में जिन आधारों पर आया था, भारत में वे
स्वतंत्रता के बाद से लगातार कमजोर पड़ते गए हैं|
अमेरिकन
शीर्ष न्यायालय के न्यायाधीश स्व.रॉबर्ट जेक्सन ने कहा था कि “विचारों पर नियंत्रण
अधिनायकत्व का प्रतीक है, और हम (अमेरिका) यह दावा नहीं करते हैं| यह हमारी सरकार
का काम नहीं है कि वह नागरिकों को गलतियों में पड़ने से रोके, यह नागरिकों का कार्य
है की वह सरकार को गलतियों में पड़ने से रोकें|” पर, भारत में राजनीतज्ञों का वह
वर्ग तैयार हो गया है जो उन्हें गलत बताने वाले का मुंह किसी भी तरह बंद करने को
उतावला है| लोकतंत्र उसके लिए केवल राजा चुने जाने का रास्ता है और अभिव्यक्ति
विशेषकर उसके खिलाफ उसे कतई मंजूर नहीं है| जब तक देश में लोकतंत्र के सही आधार
स्वतंत्रता-समानता और भाईचारा मजबूत नहीं होंगे, अभिव्यक्ति का अधिकार हमेशा संकट
में ही रहेगा|
अरुण
कान्त शुक्ला
1 अप्रैल,
2015
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