सामाजिक
ढाँचे के लोकतांत्रिकरण में छिपे हैं महिला सशक्तिकरण के बीज....
अरुण
कान्त शुक्ला, 9/3/2015
यह
कैसा संयोग है कि जब भारत सहित पूरी दुनिया में विभिन्न संगठन, देशों की सरकारें,
शैक्षणिक संस्थाएं, महिलाओं के संगठन और समूह, व्यवसायिक नैगम और मीडिया समूह,
विश्व में महिलाओं के द्वारा अर्जित आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक उपलब्धियों को
रेखांकित करने और दुनिया की इस आधी आबादी को और सशक्त बनाने के उपायों पर विचार
करने की तैय्यारी में जुटी थीं, भारत में लेईस उडविन की उस डाक्यूमेंट्री पर बहस
छिड़ी हुई थी, जिसमें लेईस ने निर्भया के बलात्कारी और बलात्कारी के वकीलों के साथ
साथ अन्य लोगों का इंटरव्यू लिया है| भारत के दोनों सर्वोच्च सदन लोकसभा तथा
राज्यसभा तर्क-वितर्क के अखाड़े तो बने किन्तु तुरंत बाद ही हास्यास्पद स्थिति भी
निर्मित हुई, जब संसद के अन्दर लाल-पीले हो रहे सांसदों ने बाहर निकलते ही
एक-दूसरे को रंगों से लाल-पीला करना शुरू कर दिया और भूल गए कि कुछ समय पूर्व ही
वे भारत के समाज और उसमें स्त्रियों की अवस्था पर इतनी गर्म बहस में जुटे थे कि
उनके चेहरे गुस्से से लाल-पीले हो रहे थे| इस पर भी एक अच्छी डाक्यूमेंट्री बनाई
जा सकती है कि हमारे सांसद संसद के भीतर जो कुछ सामाजिक मुद्दों पर कहते-करते हैं,
वह उनका ‘स्व’ है या ‘अभिनय-ढकोसला’|
बहरहाल,
इस पूरे मामले में दो बातों को जमकर उछाला गया| पहली यह कि डाक्यूमेंट्री बनाने की
अनुमति २०१३ में जब दी गयी, तब यूपीए की सरकार थी| मानो, इससे इस सरकार के सारे
पाप धुल जाते हैं| इस बात को कौन नहीं जानता कि इस और इससे पहले की भी सरकारों तथा
संसदों में और राज्यों की सरकारों में भी ऐसे लोग बहुतायत में मौजूद रहे हैं,
जिन्होंने खुले आम खाप पंचायतों के द्वारा फरमान जारी करके की गयी हत्याओं और
बलात्कारों को समर्थन दिया है| इंडिया टाईम्स वेबसाईट का एक वीडिओ अभी भी सोशल
साईट्स में घूम रहा है, जिसमें एक आमसभा में भाजपा सांसद आदित्यनाथ की उपस्थिति
में उनका एक समर्थक मुस्लिम सम्प्रदाय की मृत महिलाओं के शवों को कब्र से बाहर
निकालकर उनके साथ बलात्कार करने के लिए आव्हान कर रहा है|
दूसरी
बात, बलात्कारी और उसके वकील के बयान को लेकर है| मुझे हंसी तब आई, जब एक न्यूज
चैनल की पेनल चर्चा में भाग ले रहे एक विद्वान ने कहा की मुकेश एक अपराधी है और
उसकी सोच को समाज के सभी पुरुषों की सोच नहीं माना जा सकता| एक कदम और आगे बढ़ते
हुए उन्होंने पेनल में उपस्थित अन्य पुरुष भागीदारियों से पूछा कि क्या वे मानते
हैं की सभी पुरुष ऐसा ही सोचते हैं? क्या आप लोगों की सोच भी ऐसी ही है? सभी पुरुष
ऐसा ही सोचते हैं या नहीं, यह तो शोध का विषय है| पर, स्त्रियों के ऊपर होने वाले
अत्याचारों पर, बलात्कार से लेकर घरेलु हिंसा तक, सभी पुरुष जब तक उसकी आंच उनके
परिवार तक न आये, गंभीर नहीं रहते हैं, यह तो जग जाहिर है| इसके अलावा, समाज केवल
पुरुषों को लेकर तो बनता नहीं है| स्त्रियाँ, स्वयं समाज का आधा हिस्सा हैं और
स्त्रियों के बारे में समाज की अग्रणी स्त्रियों की सोच कैसी है, यह तो केंद्र और
अनेक राज्यों की महिला आयोगों की कर्ता-धर्ता स्त्रियों के बयानों से और संसद में
बैठी तथा संसद के बाहर मौजूद साध्वियों के बयानों से स्पष्ट हो जाता है| जहां तक
समाज के अग्रणी पुरुषों का सवाल है, पूछा जा सकता है कि आशाराम, तरुण तेजपाल, ऐ के
गांगुली और अब आर के पचौरी किस बात के उदाहरण हैं| जब दिल्ली में निर्भया के खिलाफ
इंडिया गेट पर प्रदर्शन चल रहा था, देश के एक प्रसिद्द स्तंभकार ने अपने जीवन के
उपर बड़ी साफगोई से दृष्टिपात करते हुए कहा था कि यह सब देखकर अत्यंत खुशी हो रही
है, हमने तो स्त्री को हमेशा उपभोग की दृष्टि से ही देखा|
अब
थोड़ी बात समाज के सोच की की जाए| लगभग ढाई वर्ष पूर्व अक्टोबर’12 में थर्ड बिलियन
इंडेक्स नाम के वैश्विक सर्वे में 128 देशों में महिला सशक्तिकरण के मामले में
भारत का स्थान 115वां था| पिछले दो दशकों से भारत की गणना विश्व की तेजी से उभरती
हुई अर्थव्यवस्थाओं में हो रही है| विश्व में हम चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं| जाहिर
है, हमारे देश में, अर्थव्यवस्था में, महिलाओं के योगदान के लिए जबर्दस्त
सम्भावनाएं मौजूद हैं| किन्तु, अधिकाँश स्त्रियाँ इन संभावनाओं को अवसरों में कमी,
लेंगिक भेदभाव तथा सांस्कृतिक अवरोधों के कारण खो देती हैं| देश में प्रतिवर्ष लगभग
1000 महिलाएं केवल ‘सम्मान’ के नाम पर मार दी जाती हैं| एसिड अटक, बलात्कार,
कार्यस्थल पर यौन-प्रताड़ना, कन्या भ्रूण ह्त्या की खबरों से समाचारपत्र रंगे रहते
हैं|
जैसा
की मैंने उपर भी कहा है, समाज पुरुष और स्त्री दोनों से मिलकर बना है और इनकी
सम्मिलित सोच ही समाज की सोच है| हम एक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में रह रहे
हैं किन्तु यदि हम अपने सामाजिक ढाँचे को ध्यान से देखें तो आश्चर्यचकित हो
जायेंगे कि यह ज़रा भी लोकतांत्रिक नहीं है| निर्भया काण्ड के समय युवाओं का
जबर्दस्त जुड़ाव आन्दोलन में दिखाई पड़ा था| इस जुड़ाव ने देश के प्रगतिशील तबके के
अन्दर आशाओं का संचार भी किया था| किन्तु, धरातल पर सत्यता देखकर कोई भी स्तब्ध रह
जाएगा| मात्र एक सप्ताह पहले ही, 2 मार्च 2015 को, बेंगलुरु के एक गैर सरकारी
संगठन सीएमसीए ( Children’s Movement
For Civic Awareness ) ने,
जो युवाओं के मध्य नागरिक जिम्मेदारी को पोषित करने के लिए काम करती है, एक
रिपोर्ट जारी की है, जिसमें देश के लोकतांत्रिक ढाँचे, लोकतंत्र तथा स्त्री
पुरुषों की सामाजिक स्थिति पर स्कूलों तथा कालेजों के छात्रों की समझ पर किये गए
सर्वे के परिणामों को बताया गया है| रिपोर्ट के अनुसार;
65%
स्कूली छात्रों को यह नहीं मालूम कि वे भारत के नागरिक हैं|
कालेज
जाने वाले 65% छात्र तथा छात्राएं सार्वजनिक स्थानों पर अलग-अलग धर्मों के
लड़के-लड़कियों के आपस में मिलाने को सही नहीं मानते हैं|
44%
कालेज छात्र मानते हैं की स्त्रियों के पास एक हद तक उनके उपर होने वाली हिंसा को
बर्दाश्त करने के अलावा कोई अन्य चारा नहीं है|
51%
कालेज छात्र इसमें विश्वास करते हैं कि स्त्रियों का मुख्य कार्य घर संभालना तथा
बच्चों के पालन की जिम्मेदारी को पूरा करना ही है|
लोकतंत्र
और समाज के निचले तबके के बारे में तो उनकी राय और भी विस्मयकारी है| 53% कालेज
छात्र, याने बहुमत हिस्सा देश में मिलिट्री शासन के पक्ष में है|
सर्वे किये गए
छात्रों का आधे से अधिक हिस्से का कहना है कि घरेलू कामगारों को न्यूनतम वेतन जैसा
कोई अधिकार नहीं है|
सर्वे की गईं छात्राओं का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा तथा
छात्रों का एक चौथाई हिस्सा दहेज़ लेने-देने का समर्थन करता है|
सीएमसीए
के निदेशक डॉक्टर मंजुनाथ सदाशिवा का कहना है कि सर्वे में सबसे अधिक व्यथित और
चिंतित करने वाली बात यह सामने आई कि युवाओं का रुख-रवैय्या लिंगभेद, सामाजिक
विविधता तथा सामाजिक समरसता और सरोकारों के प्रति अत्याधिक नकारात्मक और अवांछनीय
था| बात लौटकर वहीं आती है कि देश में राजनीतिक व्यवस्था के लोकतांत्रिक होने के
बावजूद, सामाजिक ढाँचे को लोकतांत्रिक बनाने के लिए प्रयास नहीं के बराबर किये गए
हैं| इतना ही नहीं देश के अन्दर मौजूद हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों ही के तत्ववादी
ताकतों ने सामाजिक ढाँचे को मध्ययुगीन काल में ले जाने और रखने के प्रयास किये
हैं| इसका अत्याधिक नकारात्मक असर देश के युवाओं पर पड़ा है|
देश के प्रधानमंत्री
और अन्य प्राय: सभी राजनेता कहते नहीं थकते हैं कि भारत युवाओं का देश है| पर,
दुर्भाग्य से देश का यही युवा समूह लोकतंत्र के सही मायने और कीमत को समझने में
बहुत पीछे है| यह नहीं कहने का कोई कारण नहीं है की जो शिक्षण व्यवस्था आज देश में
है और युवाओं को मिल रही है, वह उन्हें उस तार्किक सोच और कौशल से लेस नहीं करती,
जो एक जीवंत लोकतांत्रिक समाज के ढाँचे के निर्माण के लिए आवश्यक है|
मुकेश
का यह कहना की लड़की को रेप का विरोध नहीं करना चाहिए था| या फिर, यह कहना की हमें
फांसी दी गयी तो आईंदा कोइ भी बलात्कारी रेप के बाद लड़की को ज़िंदा नहीं छोड़ेगा, आग
में घी नहीं है| आग में घी राजनेताओं का खाप पंचायतों को दिया जाने वाला समर्थन
है| आग में घी, लड़कों से गलती हो जाती है, यह व्यक्तव्य है| या, एक योगी की
उपस्थिति में मुसलमानों की महिलाओं को कब्र से निकालकर, उनके साथ बलात्कार करने के
लिए किया गया आव्हान है| एक बलात्कार और ह्त्या का दोषी समाज का नायक नहीं हो
सकता| पर, राजनेता और योगी समाज के नायक हैं| बेन, उन पर लगना चाहिए| महिला
सशक्तिकरण की राह बड़ी कठिन है, क्योंकि महिला सशक्तिकरण के बीज सामाजिक ढाँचे के
लोकतांत्रिकरण में छुपे हैं और इनका संघर्ष तत्ववादी ताकतों के साथ है, जो
राजनीतिक लोकतंत्र तो चाहते हैं, पर सामाजिक लोकतंत्र नहीं, क्योंकि वह उनका
रास्ता रोकता है|
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