चुनाव : लोकतंत्र और विकल्प
आज जब मैं यह आलेख आप प्रबुद्ध जनों के समक्ष रख रहा हूँ , हमारा देश , जो नि:संदेह
विश्व का सबसे बड़ा संसदीय लोकतंत्र है , 5 राज्यों में विधानसभा के लिए होने वाले
चुनावों के दरम्यान है| राज्यों के चुनाव के ठीक 5 माह के भीतर देश में केंद्र की
सरकार बनाने के लिए आम चुनाव का दौर शुरू हो जाएगा| हमारे देश में अनेक अवसर ऐसे
आए जब शासक वर्ग ने लोकतंत्र को रद्द करने या किनारे करने की कोशिशें की और हर बार
हमने देखा कि देश के उन मतदाताओं ने जिन्हें अशिक्षित अथवा कम शिक्षित मानकर
लोकतांत्रिक ढांचे में हाशिये पर रखा जाता है, शासक वर्ग, उनके पिट्टू
बुद्धिजीवियों और तमाम विश्लेषकों को अचेत करते हुए लोकतंत्र को मजबूत करने वाले
निर्णय मतपेटी से बाहर निकाले|
देश में पिछले कुछ वर्षों में ऐसे जन-आन्दोलन काफी हुए हैं, जिनका प्रत्यक्ष
रूप में किसी भी राजनीतिक दल के साथ संबंध नहीं रहा| अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के
खिलाफ जन-लोकपाल के लिए किया गया आन्दोलन, दिल्ली में रेप-काण्ड के खिलाफ जनता का
स्वयंमेव संगठित हुआ आन्दोलन, देश के प्राय: सभी राज्यों में अपनी जमीनों को बचाने
के लिए अथवा जमीनों की उचित कीमत और मुआवजा प्राप्त करने के लिए स्वयंमेव तैयार
हुए किसानों के आन्दोलन,
ओड़िसा में पोस्को के खिलाफ, जैतपुर, कुंडाकुलम में न्यूक्लियर प्लांट लगाने के
खिलाफ चले आन्दोलन, व्यवस्था से त्रस्त आम देशवासियों की पीड़ा और रोष की
अभिव्यक्ति के सजीव प्रमाण हैं|
यह दौर, जहां एक तरफ साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक ताकतों के उफान का भी रहा
तो वहीं समाज में शांति और समरसता की चाहत रखने वालों के लिए राहत का भी रहा कि
फर्जी मुठभेड़ों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की हिरासत में होने वाली मौतों और
मुसलिम युवाओं को फर्जी मामलों तथा आदिवासियों को फर्जी माओवादी बनाकर रखने की साजिशों को इस
दौरान उजागर किया गया और इस तरह की कार्रवाईयों के खिलाफ संघर्ष भी चलाए गए|
ओड़िसा तथा छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के सामूहिक जन-संहार तथा सलवा-जुडूम के
खिलाफ तेज और निर्णायक संघर्ष भी इसी दौर में हमने देखे हैं|
इसी दौर में हमने शासक वर्ग को साम्राज्यवाद के सामने और अधिक झुकते देखा तो
घरेलु मोर्चे पर देश के आमजनों के उपर आर्थिक मंदी के दुष्परिणामों के बोझ को भी
डालते देखा है| ये कल्पनातीत मंहगाई का दौर भी है|
क्या, आज जब हम 5 राज्यों विधानसभा के गठन के लिए हो रहे चुनावों के दरम्यान
खड़े हैं और केंद्र में सरकार के गठन के लिए होने वाले आम-चुनाव दरवाजे पर हैं, देश
में हुए उपरोक्त सभी आन्दोलनों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और देश के
किसानों और श्रमिकों के द्वारा चलाये गए
संघर्षों और आन्दोलनों का कोई प्रभाव, हमें देश के लोकतंत्र के महाकुम्भ ‘चुनावों’
पर पड़ता दिखाई देता है?
इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में हमें शासक वर्ग तथा बड़े कारपोरेट नियंत्रित
मुख्यधारा के मीडिया से जो प्रस्ताव मिल रहा है, वह चिंतनीय ही नहीं, देशवासियों
के द्वारा स्वतंत्रता पूर्व तथा पश्चात चलाये गए धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन को
नेस्ताबूद करने वाला है| देशवासियों से कहा जा रहा है कि उन्हें “सुशासन” या
“धर्मनिरपेक्षता” दोनों के बीच से एक का चुनाव करना है| यदि आपको ‘सुशासन’ चाहिए
तो साम्प्रदायिक हिंसा, फर्जी मुठभेड़ों, उद्योगों द्वारा जमीनों और प्राकृतिक
संसाधनों की लूट, शासक वर्ग के भ्रष्टाचार, सब की तरफ से आँखें बंद करनी होगीं|
इसके ठीक उलट भी वही है याने यदि आप ‘धर्मनिरपेक्षता’ चाहते हैं, तो आपको शासक
वर्ग के भ्रष्टाचार, उद्योगों के द्वारा मचाई जा रही लूट और उनके पक्ष में शासन के
द्वारा बनाई जा रही नीतियों, घोटालों, और आमजनों के प्रति शासकवर्ग के दमनकारी
रवैय्ये की तरफ से आँखें मूंदनी होंगी|
पूंजीवादी लोकतंत्र की यह विडंबना पूरी शिद्दत के साथ यक्ष प्रश्न बनकर इन
चुनावों और आसन्न लोकसभा के चुनावों में देश के आमजनों के सामने खड़ी है| इस
विडंबना के साये में, प्रत्येक चुनावों में, आमजनों के जीवन से जुड़े रोजी-रोजगार,
स्वास्थ्य सुविधाओं, सस्ती और सुलभ शिक्षा, आवास और विस्थापन जैसी समस्याओं पर
राजनीतिक पहल को नेपथ्य में डाल दिया जाता है| पूंजीवादी लोकतंत्र के अन्दर आमजनों
के जीवन यापन से जुड़े गंभीर प्रश्नों को, समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता को
चुनाव का मुद्दा नहीं बनाया जाता| वोट देने के एक अधिकार को ही राजनीतिक सशक्तिकरण
का पर्याय बना लिया जाता है|
वर्तमान चुनावों के सन्दर्भ में यह भी कम चिंतनीय नहीं है कि कांग्रेस नीत
यूपीए गठबंधन की भ्रष्ट छवि ने साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी ताकतों को अवसर
मुहैय्या कराया है, जिससे वे ‘सुशासन’ और ‘विकास’ के नारों की आड़ में देश में
साम्प्रदायिक धुर्वीकरण की कोशिशों में लग गए हैं| विश्व के किसी भी देश में जहां
नवउदारवादी नीतियों को स्वीकार कर उन पर चला जा रहा है, ‘विकास’ का अर्थ
नवउदारवादी और कारपोरेट हितेषी (तथाकथित रूप से अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा माने
जाने वाली) नीतियों के अलावा और कुछ नहीं है| और, यदि लोग ऐसी ‘अर्थव्यवस्था के
लिए अच्छी’ नीतियों का इसलिए विरोध करते हैं कि इससे उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं
और उनके जीवन-यापन, उनके श्रम-अधिकारों, पर कुठाराघात हो रहा है, तो उनके विरोध को
कुचलना, उनकी आवाज को दबाना ही ‘सुशासन’ है| भारत के औद्योगिक घरानों से सरपरस्ती
पाकर आज नरेंद्र मोदी इसी सुशासन का चेहरा
बनकर देश में अपना प्रचार करते घूम रहे हैं|
पर, यह किसी से छिपा नहीं है कि वे तमाम दयनीय सामाजिक सूचकांक, कारपोरेट
लूटमार, भ्रष्टाचार, जो मनमोहन शासन में मौजूद हैं, मोदी के गुजरात में भी या तो
उतनी ही या उससे ज्यादा तादाद में मौजूद हैं| गुजरात के जिस सुशासन या विकास की
कहानियां सुनाई जा रही हैं, वे मनगढ़ंत और लफ्फाजी के अलावा कुछ नहीं हैं| साम्प्रदायिक
हिंसा और नफ़रत फैलाने वाले भाषण मोदी के सुशासन की अतिरिक्त चारित्रिक विशेषता हैं|
यहाँ, मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मेरा आशय कतई यह नहीं है कि स्वतंत्रता
के 65 वर्ष के बाद के भारत में कुछ भी लोकतांत्रिक नहीं है अथवा हम एक फासीवादी
राज में रह रहे हैं| ऐसी किसी भी अतिवादी सोच से इतर मैं यह कहना चाहता हूँ कि पूंजीवादी
लोकतंत्र के इतने गान के बावजूद पूरे विश्व में कोई भी राष्ट्र/राज्य ‘लोकतंत्र की
अन्तर्निहित भावना” में लोकतांत्रिक नहीं है| सीधा प्रश्न है कि क्या राजनीतिक
समानता की औपचारिक चुनावी प्रक्रिया ‘मत देने के अधिकार’ के अतिरिक्त उस समाज के आर्थिक और सामाजिक ढांचे
में ‘समानता’ के लोकतांत्रिक लक्षण हैं क्या? यदि नहीं तो इसी प्रश्न से अगला
प्रश्न पैदा होता है कि तब उसके निर्माण के लिए क्या विकल्प “हमारे” सामने मौजूद
हैं?
नि:संदेह आम जनता की पक्षधर नीतियाँ इस देश में मुख्यधारा की राजनीति में
शामिल वामपंथी पार्टियों के पास ही हैं| लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि पूरे देश
में वामपंथी पार्टियां एक जैसा असर नहीं रखती हैं| पश्चिम बंगाल, केरल व त्रिपुरा
में इनका जबरदस्त असर है, जहां या तो सरकार में रहती हैं या प्रमुख विपक्षी पार्टी
हैं| इन तीन राज्यों के बाहर आंध्र प्रदेश व तमिलनाडु में इनका अच्छा जनाधार है और
राजनीतिक समीकरणों में फिट बैठने पर ये अपने प्रभाव को सीटों में भी बदलकर दिखाती
रही हैं| 2004 का वर्ष वामपंथ के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल था, जब उन्होंने सम्मिलित
रूप से लोकसभा की 61 सीटें जीती थीं और ये सभी सीटें लगभग इन्ही राज्यों से
उन्होंने हासिल की थीं|
लेकिन, इन 5 राज्यों के बाहर इनका जनाधार और प्रभाव बहुत ही कमजोर है| अपने
मजदूर संगठनों के जरिये ये पार्टियां संघर्षशील तो दिखती हैं, लेकिन समाजवादी रूस
के पतन और वैश्वीकरण के प्रभाव से ये पार्टियां भी अब अछूती नहीं रही हैं| केवल
आर्थिक मुद्दों तक सिमटने के कारण अपने जनाधार को राजनैतिक आधार में बदलने में
वामपंथ कामयाब नहीं हो पाया और यही कारण है कि अपने प्रभाव को सीटों में बदलने में
उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाती है|
पिछले 15 सालों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका दक्षिण बस्तर में अच्छा
खासा जनाधार अभी भी है, यहाँ जीत के लिए तरस रही है| और, विधानसभा में वामपंथ की उपस्थिति
शून्य है| इस बार भी वह एक/दो सीट जीतने की आशा रख सकती है, लेकिन हार जीत का पूरा
गणित सलवाजुडूम के प्रभाव, नक्सलियों की रणनीति और हाल में झीरम घाटी में कांग्रेस के काफिले पर हुए
माओवादी हमले का क्षेत्र के लोगों पर पड़े प्रभाव पर टिका है| मार्क्सवादी
कम्युनिस्ट पार्टी का एक समय मजदूर बहुल क्षेत्र भिलाई तथा बंगाली शरणार्थी बहुल
अंतागढ़ में खासा प्रभाव था और वह तीसरी ताकत मानी जाती थी| अब इन सीटों पर उसका
प्रभाव नगण्य है और उसकी ताकत प्रदेश में लगातार सिमटती ही दिखती है|
छत्तीसगढ़ में वामपंथ का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों राजनीतिक दलों की
परिस्थतियों के बारे में विचार करने के साथ–साथ यदि प्रदेश में केंद्र/राज्य शासन
के द्वारा माओवाद को समाप्त करने के नाम पर चलाये जा रहे “ऑपरेशन ग्रीन हंट”, जिसे
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस/भाजपा और कमोबेश वामपंथी दलों सहित सभी
दलों का समर्थन प्राप्त है, की बात नहीं की जाए तो पूंजीवादी व्यवस्था के अन्दर
विकास और लोकतंत्र की आड़ में राज्य किस तरह ‘लोक’ पर आक्रमण करता है, जैसा
महत्वपूर्ण हिस्सा विमर्श से छूट जाएगा|
छत्तीसगढ़ ही नहीं, देश के अन्य अनेक राज्यों में आदिवासियों के साथ आज जो हो
रहा है, वह भारत की स्वतंत्रता के पश्चात अपनाए गए विकास के उस रास्ते का परिणाम
है, जिसमें यह समझ निहित थी कि देश में औद्योगिक घरानों तथा संपन्न तबकों को विकास
करने के समुचित अवसर उपलब्ध कराने से विकास के फलों का रिसाव निचले तबके तक
स्वयंमेव ‘रिस’ कर पहुंचेगा| तीन दशक पूर्व भारत के शासक वर्ग द्वारा विकास का
नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजीवादी रास्ता अपनाने के बाद यह तथाकथित ‘रिसाव’ लगातार
क्षीण होते गया और परिणाम स्वरूप देश की जनसंख्या के बहुत बड़े हिस्से, जिसमें
आदिवासी और ग्रामीण आबादी लगभग पूरी तादाद में शामिल है, का जीवन और जीवन यापन गहन
संकट में आया है| देश के संसाधनों, खनिज और प्राकृतिक स्रोतों से संपन्न आदिवासी
इलाकों को निजी हाथों में जल्द से जल्द सौंपने की व्यग्रता में भारत के शासक वर्ग
द्वारा मचाई गयी हड़बड़ी ने नक्सल आन्दोलन के ही एक एक गठन ‘माओवाद’ को भारतीय
राजनीति के केंद्र में पहुंचाया दिया है|
माओवादी छत्तीसगढ़ सहित लगभग 15 राज्यों के आदिवासी इलाकों में सक्रिय हैं और
उन्हें आदिवासियों के खासे बड़े हिस्से की सुहानभुती और समर्थन प्राप्त है| सुरक्षा
बलों के द्वारा चलाये जा रहे ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ ने इस सुहानाभुती और समर्थन में
इजाफा ही किया है| माओवादी गतिविधियों और ऑपरेशन ग्रीन हंट ने भारत के मुख्य धारा
के वाम-आन्दोलन के समक्ष गहन विषम परिस्थितियों को निर्मित किया है| विशेषकर,
केंद्र और राज्य सरकारों ने ‘माओवादी हिंसा’ के प्रश्न पर लगातार सघन प्रचार
अभियान चलाकर ‘राज्य प्रायोजित हिंसा’ (मिलिट्री, अर्द्ध सैनिक बलों और पुलिस द्वारा
आम आदिवासियों के ऊपर निर्बाध आक्रमण) के पक्ष में संपन्न ग्रामीण और शहरी तबके
लोगों के लगभग संपूर्ण हिस्से को लामबंद कर लिया है, जिसका विपरीत प्रभाव
मुख्यधारा के वाम-आन्दोलन पर भी स्पष्ट दिखता है| इतना ही नहीं, माओवादी हिंसा को
केन्द्रित करके, शासक वर्ग संपूर्ण वाम-आन्दोलन को ही लोकतंत्र, राष्ट्रीयता और
विकास के खिलाफ ठहराने में पीछे नहीं रहा है, विशेषकर छत्तीसगढ़ में तो यह और अधिक
है, जहां स्वयं लोकतांत्रिक व्यवस्था में कमजोर विश्वास रखने वाली ताकतें सत्ता
में हैं| यह अप्रत्यक्ष रूप से विकास की नवउदारवादी धारणा को और मजबूती दिलाने की
ही बात है|
मैं पूर्ण जिम्मेदारी और विश्वास के साथ कहना चाहता हूँ कि भारत के
क्रांतिकारी वाम को, माओवाद सहित अपने संघर्ष, बहस और विमर्श को हिंसा की राजनीति
से हटाकर समाजवादी उद्देश्यों से परिपूर्ण नीतियों, कार्यक्रमों और देश और
देशवासियों के विकास की राजनीति से जोड़ना
होगा| हिंसा से राजनीति, नीतियों और कार्यक्रमों और देश के विकास के से जुड़े
मुद्दों की तरफ यह परिवर्तन केवल नक्सल/माओवाद के संगठनों के लिए ही महत्वपूर्ण और
चुनौती नहीं है, बल्कि यह क्रांतिकारी वाम के समर्थक बुद्धिजीवियों और सिविल
सोसाईटी के लोगों के लिए भी चुनौती है कि वे इस सच्चाई से क्रांतिकारी वाम को
रु-ब-रु कराएं| जब तक क्रांतिकारी वाम का केन्द्र बिंदु हिंसा से परिवर्तित होकर
राजनीति और विशेषकर देश के विकास के रास्ते पर बहस और नीतियों से जुड़कर आम लोगों
के समक्ष नहीं आयेगा, भारत का शासक वर्ग ‘हिंसा’ का भय दिखाकर लोगों को अपने
रास्ते पर चलाने में सफल होता रहेगा| आम लोग इस भूल-भुलैय्या को न समझते हुए
नवउदारवादी विकास को ही अंतिम रास्ता मानकर समर्थन देते रहेंगे| शासकवर्ग इसी तरह
लोकतंत्र को तार-तार करता रहेगा| आदिवासियों सहित देश की बहुसंख्यक जनता का बड़ा
हिस्सा इसी तरह नए नए तरीकों से दुखों और तकलीफों को पाता रहेगा|
शायद, नवउदारवाद के वर्तमान दौर में जितनी आवश्यकता वामपंथ के सभी तरह के
संगठनों/ दलों/ पार्टियों को एक ही मंच पर आने की है, स्वतन्त्र भारत में पहले कभी
महसूस नहीं की गयी होगी| इसके लिए उन्हें आपस में तो बात करना ही है, जनता के साथ
भी बात करनी है और ऐसी भाषा में करना है, जो आम लोगों की समझ में भी आये| जब देश
का क्रांतिकारी वामपंथ और मुख्यधारा का वामपंथ एक दूसरे के साथ आकर समाजोन्मुखी
वैकल्पिक राजनीति देश के आम लोगों के सामने रखेगा, वामपंथ का भविष्य उसी क्षण से
उज्जवल होना शुरू हो जाएगा|
उपरोक्त परिस्थिति के बावजूद, मैं, लगभग आजादी के बाद से ही चले आ रहे इस
विश्वास के साथ ही हूँ की भारत के आम लोगों का बहुतायत हिस्सा “वाम” अधिक है| भारत
के आर्थिक मॉडल को तीन दशक पहले तक पूरे विश्व में मध्यमार्ग के रूप में माना जाता
था| आज यह मध्य रास्ता ‘मध्य-दक्षिण’ के रूप में है| ये एक दीगर बात है की आज भी
प्रगतिशील लोगों का बड़ा तबका और स्वयं शासक वर्ग के अन्दर का बड़ा हिस्सा इसे ‘मध्य-वाम’
ही मानता है| खासकर पिछले एक दशक के दौरान देश में रोजगार गारंटी, स्वास्थ्य और
शिक्षा के क्षेत्र में लागू की गईं नीतियों के कारण|
किन्तु, यदि ‘वाम’ से हमारा तात्पर्य आम लोगों के शोषण और दमन के लिए बुने गए
राजतंत्रीय ताने-बाने के खिलाफ सतत चलाये जाने वाले संघर्ष से है तो ऐसा ‘वाम’ आज
निश्चित रूप से कमजोर है| ऐसे ‘वाम’ को कठोर रूप से पूंजीवादी/साम्राज्यवादी
व्यवस्था विरोधी होना होगा| ऐसे ‘वाम’ को साम्प्रदायिकता के खिलाफ समझौता विहीन
संघर्ष चलाने के साथ साथ समाज में स्त्रियों के शोषण और समाज में व्यवस्थागत ढंग
से स्त्रियों के संपूर्ण परिवेश को ही अवमूल्यित करने की विकसित होती संस्कृति के
खिलाफ़ लगातार संघर्ष चलाने होंगे| ऐसे वाम को सजग होकर भारतीय समाज में
ऊर्जा/तकनीकी के अंधाधुंध उपभोग की विकसित की जा रही संस्कृति के खिलाफ भी संघर्ष
करना होगा|
पूंजीवादी व्यवस्था के अन्दर शासक वर्ग हमेशा ही ऐसा भान समाज में फैलाता रहता
है कि महज चुनावी प्रक्रिया और उसमें अपने वोट का प्रयोग ही लोकतंत्र है और आम लोग
इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहते| पर, देश के कोने-कोने में चले आन्दोलन/संघर्ष आम
लोगों के अन्दर व्याप्त परिवर्तन की बेचैनी को दिखाते हैं| ‘वाम’ को विकल्प बनाना
है तो देश के प्रगतिशील-वाम आन्दोलन को आगे बढ़कर उन संघर्षों और आम लोगों में व्याप्त
बेचैनी को दिशा दिखानी होगी| यह सच है की सब कुछ, जिससे हमारा सामना हो रहा है,
रातों रात और जादुई तरीके से नहीं बदला जा सकता, पर यह भी उतना ही बड़ा सच है की
कुछ भी बदलने के लिए लोगों के मध्य जाकर परिस्थितियों का सामना तो करना ही होगा|
रायपुर
शनिवार, 16 नवम्बर, 2013 अरुण
कान्त शुक्ला
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